Friday, August 29, 2008

बिहार में सालाना तबाही

बिहार के लाखों लोग संकट में हैं. उनकी मदद के लिए जो हाथ बढ़ें हैं, वे नाकाफी हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चार जिलों का हवाई दौरा करने के बाद इसे राष्ट्रीय आपदा बताया है. उन्होंने पीडितों की मदद के लिए १ हजार करोड़ रूपए और सवा लाख टन खाद्यान्न भेजने का ऐलान भी किया है. उनके परिजन तेज धारा में बह गए हैं. उनके पास खाने-पीने के लिए कुछ नही बचा है. बिहार सरकार अपने स्तर पर जो कर सकती थी, उसने किया. पटना और दूसरे इलाकों से नावें भिजवाएं गईं हैं. सेना के पांच हेलीकॉप्टर लगवाकर रहत सामग्री भिजवाई जा रही है लेकिन बारिश के चलते इस काम में भी बाधा आ रही है. जिन इलाकों में एस तरह की प्राकृतिक अथवा मानव निर्मित आपदाएं आती हैं, वहां संकट केवल खाद्यान्न का ही नही होता. मरे हुए मवेशियों और मानव शरीरों को समाई रहते वहां से हटाना और पर्यावरण को जीवन के लायक बनाए रखना भी उतना ही जरुरी है. एस मोर्चे पर अभी तक कुछ भी नही हो पा रहा है.. बाढ़ का पानी कई तरह की बीमारियाँ भी अपने साथ लेकर आता है. लिहाजा ऐसे स्थानों पर चिकित्सकों के दल पर्याप्त सख्या में भेजा जाना भी आवश्यक है. जो तस्वीरें वहां से आ रहीं हैं, उन्हें देख कर नही लगता कि चिकित्सक वहां पहुंचे हैं. अगर वक्त से चिकित्सा सुविधा नही मिली तो महामारी भी फ़ैल सकती है.प्रधानमंत्री अगर इसे राष्ट्रीय आपदा बता रहें हैं, तो इसे पूरे देश को इसी तरह लेना भी चाहिए. कोसी ने इन चार जिलों में जो तबाही मचाई है, वह किसी प्रलय से कम नही है.. यह ऐसे ही है, जैसे कोई तूफ़ान किसी घोंसले को एक ही झटके में तहस नहस कर दे. हमारे देश में जहाँ कुछ बुराइयाँ हैं, वहां अच्छी बातें भी कम नहीं हैं. लोग राजनीतिक तथा अन्य कारणों से अगर भाषा, सीमा, जाति, धरम और मामूली बातों पर झगड़तें हैं तो विपदा के समय संकट में साथ देने के लिए साथ भी आकर खड़े हो जातें हैं. हमने देखा है, संकट के वक्त देश ने हमेशा एकजुटता दिखाई है. गुजरात, उत्तरकाशी, जम्मू कश्मीर में भूकंप आए चाहे उडीसा मई चक्रवाती तूफान या फ़िर तमिलनाडु और केरल में सुनामी लहरें..पूरा देश मदद के लिए आगे बढ़कर आया. देखने में भले लगे कि चार प्रभावित हैं परन्तु जिस कदर वहां जान माल की हानि हुई है, उसे प्रलय ही कहा जा सकता है. बिहार की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि हर साल वहां तबाही होती है लेकिन जिस इलाके में इस बार तबाही हुई है, वहां के लोगों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा हो सकता है. कोसी इस इलाके से बहती ही नही है. दुसरे देशों से आने वाली नदियों पर किसी का वश नही है लेकिन सरकारों को ऐसे उपाय जरूर करने चाहिए जिस से एस तरह की बड़ी जनहानि होने ही न पाए. भारत और नेपाल सरकारों के बीच एस तरह की समझबूझ और रिश्ते जरूर होने चाहिए कि इतनी बड़ी मात्र में पानी छोड़ने से पहले वहां कि सरकार वक्त रहते सूचना दे ताकि उस एरिया के लोगों को बाहर निकला जा सके. हालाँकि कोसी से हुई तबाही दुसरे कारणों से हुई है. सरकार को एस तरह कि प्रलय को तलने के लिए कुछ ठोस कदम अब उठाने ही होंगे.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Wednesday, August 27, 2008

अपने अपने दर्द समंदर

अपने-अपने दर्द समंदर
अपने-अपने वीराने हैं
सब चेहरे जाने पहचाने
फ़िर भी कितने बेगाने हैं
एक दूजे में मस्त यहाँ सब
हम ही तनहा-अनजाने हैं
कैसी दुनिया कैसे लोग
हर रिश्ते के अफसाने हैं
किसी के हिस्से खाली जाम
कहीं छलकते पैमाने हैं
कहीं भूख से मौत के मेले
कहीं बिखरते खानें हैं
कैसी बातें लेकर बैठे
हम भी कैसे दीवाने हैं
-ओमकार चौधरी

Tuesday, August 26, 2008

वो लड़की

मैंने ट्रिब्यून चौक से दिल्ली की बस पकड़ी। बस में कुछ सीटें खली पड़ी थी। चंडीगढ़ से चलने वाली बसें ट्रिब्यून चौक तक आमतौर पर खाली सी ही आती हैं। यहाँ से वे अक्सर भरकर चलती हैं। आज गर्मी कुछ ज्यादा ही है, इसलिए लोग घर से कम ही निकले। मै मन ही मन बुदबुदाया।

बस स्पीड पकड़ चुकी थी। थोडी सी देर के लिए मै चंडीगढ़ की इस छोटी यात्रा की स्मरतियों मै खो गया। कई पुराने दोस्तों से मुलाकात हुई इस दौरे मै। चंडीगढ़ से एक खास नाता सा बन गया है। ये बेहद खुबसूरत शहर किसी को भी अपनी तरफ़ आकर्षित कर लेता है।

करीब चालीस मिनट बाद बस अम्बाला मे थी। बस अड्डे पर काफी लोग बस कर्ण इंतजार करते दिखे। बस रुकी नही कि यात्री धक्कमपेल करते हुए बस मे दाखिल होने लगे। देखते ही देखते बस फुल हो गई। मे चंडीगढ़ से ही खिड़की के पास बैठा था। गर्मी और बस के भीतर की घुटन से बचने का मुझे ये ही रास्ता सूझा था।

बस यहाँ कुछ ही देर रूकती है। ज्यादातर यात्री सीटों पर बैठ चुके थे। कुछ सीटें तलाश रहे थे। उनमे एक युवती भी थी। ये ही कोई बीस बरस की रही होगी। टॉप जींस मे थी वह। मेरे बराबर वाली एक सीट खाली पड़ी थी। वह उसी पर बैठ गई। बस कुछ ही दूर चली थी, वह मेरे कण मे बुदबुदाई, क्या आप इधर की सीट पर बैठ सकते हैं ?

मैंने सवालिया निगाहों से उसकी तरफ़ देखा। पूछ ही लिया, क्या प्रोब्लम है ? मे ठीक जगह बैठा हूँ। यही ठीक हूँ। इस पर उस लड़की ने ऐसा चेहरा बनाया, जैसे अभी उलटी कर देगी। उसने कहा, मुझे बस मे सफर करते वक्त उल्टियाँ लग जाती हैं। आपको परेशानी न हो, इसीलिए कह रही हूँ। मुझे लगा, ये सही ही कह रही है। मैंने सीट बदल ली। खिड़की के पास बैठे हुए अभी उसे दस मिनट भी नही हुए होंगे, मोबाइल पर उसने खिलखिलाते हुए किसी से बात शुरू कर दी। अब उसकी बातचीत या हव भावः से बिल्कुल नही लग रहा था, उसे उलटी लगने कर्ण कोई अंदेशा था। मुझे समझने मे देर नही लगी की एस लड़की ने मुझे मामू बना दिया है।

मे दिल्ली तक कुढ़ता रहा, वह कभी अपनी बॉय फ्रेंड से, कभी अपनी सहेली से तो कभी किसी क्लास फेलो से खिलखिला कर बातें करती रही जबकि मे अपने भोलेपन पर ख़ुद को धिक्कारता रहा। ताज्जुब की बात ये भी थी की एक पल के लिए भी उस लड़की ने ये सोचना गवारा नही किया की उसके एस तरह के व्यवहार से उसकी पोल पट्टी खुल गई है। शायद इसलिए उसने इसकी परवाह नही की, क्योंकि वो आज की लड़की है। हमारे दौर की नही। मे आज भी उस घटना को स्मरण करता हूँ तो ख़ुद पर हंस देता हूँ।


-ओमकार चौधरी

omkarchaudhary@gmail.com



तटबंध

जब भी कोई नदी
तोड़ती है तटबंध
आ जाती है प्रलय
मच जाती है तबाही
उजड़ जाती हैं बस्तियां
और बहुतों के सुहाग
रास्ता बदल लेना
नदी की फितरत नही है
ये अलग ही दौर है
नदियाँ रास्ता बदल लेती हैं
और मच जाती है तबाही
अकेले कोसी को दोष मत दो
जिसे देखो, जिधर देखो
नदियाँ तोड़ रही है तटबंध
बदल रही है रास्ता
बस्तियां उजडती हों उजडें
तबाही होती है तो हो
प्रलय और तबाही से
भला उनका क्या वास्ता
ये आज के दौर की नदियाँ हैं
रास्ता बदलती है
उफनती हैं
तो इसकी वजह वे नही
बल्कि हालात हैं
नदियों को दोष क्यो देते हो
उनकी मर्यादा किसने भंग की ?
उन्हें तटबंध तोड़ने को
किसने विवश किया ?
सोचोगे
तो उसे नही
ख़ुद को कोसोगे


-ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com





Monday, August 25, 2008

तेरे मेरे बीच

तेरे मेरे बीच शब्द ही तो पुल थे

जब से से ये पुल हुआ है जर्जर

तब से न संवाद है न शब्द है

मै मै हूँ न तुम तुम हो


वो भी एक वक्त था

तुम्हे याद हो न याद हो

शब्द भी न कम थे

बातें भी थी हजारों

न तुम ही थकते थे

न मै लेता था उबासी

दिन-रात, सुबह शाम

दोपहर हो के बरसात

चिलचिलाती धूप या शरद रात

करते थे बातें, गूंथते थे शब्द

वो खिलखिलाना, वो चुलबुलापन

वो शरारतें, न छूटने वाली आदतें

वो तुम्हारा घुडकना, अक्सर रूठना

एक दो रोज रूठे रहना

चुपके से मान जाना
न रह पाते थे तुम भी

न रह पाते थे हम ही



बारीशों ने गज़ब ढाया

धूल अंधडों ने भरमाया

बाढ़ आई, हुआ कीचड़ ही कीचड

घुटनों तक दलदल,

हर पथ-हर पग
पुल हुआ कमजोर

दरका, दहला, कांपा, टूटा

अब लटका हुआ वो पुल है

कुछ अवशेष ही है शेष
वो भी एक दौर था

न तुम्हारे पास कमी थी

न मेरे पास कमी थी

शब्दों की, बातों की

अब न तुम्हारे पास शब्द है

न मेरे पास शब्द है

होठ सिले, जुबां बंद है

न तुम रह गए तुम हो

न हम रह गए हम है


- ओमकार चौधरी