Thursday, October 30, 2008

माँ के प्रति फ़र्ज़

माँ डायबिटीज की मरीज है
बेटे से कहा, दवा ला दे
बेटे ने कहा, परहेज रख
अपने आप ठीक हो जाएगी.

इसके बाद बेटा निकल गया
माँ वेश्नो देवी की यात्रा पर
वहां से लौटा तो जागरण कराया
सारी रात माताओं के गीत गाए
ख़ुद भी जागा, पडौसी भी जगाए

सुबह ख़बर मिली,
माँ नहीं रही
थोड़ी देर आंसू बहाए
आस पडौसियों ने कहा,
ईश्वर को यही मंजूर था
बेटे ने सेवा में
कसर नहीं छोडी
माँ ही बद परहेज थी

उसके बाद जुटे लोग
ले गए शमशान
कर दी अंत्येष्टि
बेटे ने सर मुंडवाया
ब्रह्मिन जिमाए
इस तरह माँ के प्रति
पूरे फ़र्ज़ निभाए.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Tuesday, October 28, 2008

मेरा गाँव, कुलदेवता, माँ और जोनी



बड़ी दीवाली पर हर साल परिवार के साथ गाँव जाना होता है. इस बार भी गया. मेरा गाँव दबथुवा मेरठ जिले में सरधना मार्ग पर है. एक किसान परिवार में जन्म हुआ. जैसे गाँव के बाकी बच्चों का बचपन बीतता है, वैसे ही मेरा भी बीता. गाँव के प्राथमिक विद्यालय में प्रारंभिक शिक्षा ली. उसके बाद मेरठ कालेज से उच्च शिक्षा लेने के बाद पत्रकारिता में आ गया. हर बार की तरह इस बार भी पत्नी, बेटे और बेटी के साथ सबसे पहले कुलदेवता पर गया. वहां दीपावली पर दिये जलाने की परम्परा है. बाकी किसान परिवारों की तरह हमारे कुलदेवता का स्थान भी खेतों के बीच में ही है. इस बहाने साल में कम से कम एक बार अपने खेतों पर भी हम लोग हो आते हैं. जब खेत की पगडंडियों से गुजरते हैं तो बचपन की बहुत सी यादें ताज़ा हो जाती हैं. स्कूल जाने से पहले सबेरे-सबेरे खेत में जाना हमारी दिनचर्या में शामिल था. कभी गन्ने कटवाने और बोगी में लदवाने, कभी पशुओं के लिए चारा कटवाने तो कभी खेत जोत रहे चाचा और बाबा के लिए सुबह का खाना देने के लिए हम जाते थे. पास ही बहने वाले रजबाहे पर खूब मस्ती होती थी. उसमे नहाना, मैले हो गए कपडों को रेह लगाकर धोना, फ़िर सुखाना और पहनना जैसे दिनचर्या में शामिल था. उस ज़माने में कुछ खेतों में एक ऐसी मिट्टी मिलती थी, जो कपडों पर लगाने से उसका मेल निकाल बाहर करती थी. अब भी बहुत से गाँव वासी उसका उपयोग कपड़े धोने में करते हैं. पडौस में एक झाड़-झंकाड़ वाला बाग़ था, उसमे बेर के कुछ पेड़ थे, हम लोग भूख लगने पर अक्सर बेर खाने के लिए वहां चले जाते थे. समय के साथ वह बाग़ भी नहीं रहा लेकिन जब भी मै उस तरफ़ जाता हूँ, नजर उस ओर उठ ही जाती है. अफ़सोस होता है कि वक्त के साथ जंगल और हरियाली ख़तम होती जा रही है.




खेतों पर जाना मुझे बहुत अच्छा लगता है. शायद इसलिए कि वहां जाते ही मेरे भीतर ख़ुद ब ख़ुद बचपन सा लौट आता है. फसलों और मिट्टी की भीनी भीनी खुशबू आज भी मुझे उतनी ही सुहानी लगती है. पेडों की शाखें, उन पर अठखेलियाँ करते पंछी, उनके घौसलें, रखे हुए अंडे, खेतों के बीच से कीटों, पक्षियों की आती आवाजें आज भी उतना ही सम्मोहित और उत्प्रेरित करती हैं. जितना तब करती थी. सच कहूं तो मै वहां से हमेशा ताजगी और ऊर्जा लेकर लौटता हूँ. बेटे अंकुर और बेटी कावेरी का जन्म जरूर गाँव में हुआ.लेकिन ये वहां रहे नहीं. वे एक तरह से गाँव के उतने नहीं हैं, जितना मै या मेरी धर्मपत्नी कमलेश. बेटा इस समय जामिया मिल्लिया इस्लामिया में मॉस काम का एम् ऐ फाइनल का स्टूडेंट है. बेटी साउथ देलही के एक इंस्टिट्यूट से आंतरिक साज सज्जा का कोर्स कर रही है. कह सकते हैं कि वे गाँव में न कभी पढ़े लिखे हैं और न वे उतनी शिद्दत के साथ मेरे और खेतों के रिश्ते को महसूस कर पाते होंगे. मै ईंख, धान आदि फसलों को जब केमरे में कैद कर रहा था, तो बेटी उस दीवानगी को हैरान होकर देख रही थी. मै अक्सर उन द्रश्यों को बाद में अपने लेपटोप पर निहारा करता हूँ. ऐसा करके हमेशा अपने आप को उन खेतों के बीच ही महसूस करता हूँ.



गाँव जाने का दूसरा मकसद माँ से मिलना होता है. बीच बीच में माँ मेरे पास रहने को आती रहती है लेकिन महीने भर में ही उनका मन वापस गाँव में लौट जाने का होने लगता है. कमलेश से कहती है कि ओमकार से कहकर मुझे गाँव में छुड़वा दे, मै फ़िर आ जाउंगी. माँ की इच्छा हमारे लिए सर्वोपरि है. पिता का साया तो बीस साल पहले सर से उठ गया था. माँ है तो जैसे सब कुछ है. वह हमेशा हम लोगों की बाट जोहती मिलती है. बड़े भइया के पास रहती है, वे ही गाँव में रहकर खेती बाडी सँभालते हैं. इस बार भी जब कुलदेवता पर दीपक जलाकर पहुंचे तो माँ ने हम चारों के सर पर हाथ रखकर दुनिया भर के आशीर्वाद दिए. कावेरी और अंकुर माँ के आजू-बाजू जम चुके थे. कावेरी बीस बरस से ज्यादा की हो गई है लेकिन आज भी छोटी बच्ची की तरह माँ की गोद में जा छिपती है. माँ के पास बैठना, हर तरह की बातें करना, घर बाहर की तमाम खबरें लेना, मन को सुकून देता है. उसी से दुखद खबरें भी मिलती हैं कि इस बीच गाँव के कौन कौन से बुजुर्ग गुजर गए और दुर्घटना या बीमारी से किसकी असमय मौत हो गई है. जो करीबी होते हैं, उनके पास होकर आते हैं. कुछ घरों में मिठाई पहुंचवाई जाती है. और इसके बाद गोवर्धन पूजा की बारी आती है. बचपन से ही हम घर में दीपावली पर गोवर्धन पूजा होते हुए देख रहे हैं. उत्तर भारत के अधिकांश स्थानों पर गोवर्धन पूजा दीपावली के अगले दिन होती है लेकिन हमारे गाँव और आसपास के इलाके में एक दिन पहले यानि दीपावली पर ही पूजा हो जाती है.





गोवर्धन पूजा के लिए भाभी मीठे पूड़े बनाती हैं. घर के चौक में सुबह ही गोबर से एक मानव आकृति बनाई जाती है, जिसके पास खेती के काम आने वाले तमाम ओजार रखे जाते हैं. दूध बिलोने वाली बिलोनी से लेकर अनाज छानने वाले छाज तक को वहां रखा और पूजा जाता है. इस मौसम तक गन्ना भी पककर तैयार हो जाता है. लिहाजा गोवर्धन के साथ गन्ने की पूजा का प्रचलन भी है. पूजा के बाद मीठे पूड़े आपस में बांटकर खाने का रिवाज है. यह एक तरह से सर्दियों के आगमन की सूचना भी होती है. इस त्यौहार से कुछ ही समय बाद इस क्षेत्र के किसान अपना गन्ना चीनी मीलों को देना शुरू कर देते हैं. गन्ना यहाँ के किसानों की प्रमुख फसल है. इसी सीजन में धान की फसल की पैदावार भी होती है. हालाँकि इस इलाके में धान उतनी मात्र में नहीं होता, जितना हरियाणा और पंजाब में होता है.



इस बार गाँव जाने पर जिसने हमारे साथ जमकर लड़ाई की, उसके बारे में बताना तो मै भूल ही गया. वह जोनी है. हमारा पामेलियन डोगी. डी एल ऐ छोड़ने के बाद परिवार को दिल्ली शिफ्ट करना था. इसलिए कुछ समय के लिए जोनी को माँ के पास गाँव छोड़ना पड़ा. इस बीच वहां जाना भी नहीं हुआ. वह पिछले तेरह साल से हमारे परिवार का अभिन्न हिस्सा है. जब दैनिक जागरण में था, तब फोटोग्राफ़र आबिद उसे कहीं से लाया था. तब बहुत नन्हा सा था जोनी. उसे हमने बच्चे की तरह ही पाला. न वह हमसे अलग रहा पाता है. न हम लोग उसके बिना सहज हो पाते हैं. इस बार उसे एक महीना अलग रहना पड़ा तो गाँव पहुँचते ही वह भों-भों करते हुए खूब लड़ा. देर तक उसे पुचकारते रहे. तब जाकर वह शांत हुआ. बाद में कावेरी की गोद में बैठा तो उतरा ही नहीं. कभी कभी लगता है कि जिसे हम जानवर कहते हैं, वह प्यार की भाषा इन्सान से कहीं बेहतर समझता है.
तो कह सकता हूँ कि इस बार अपनी दीपावली बहुत यादगार रही. कुछ चित्र भी यहाँ दे रहा हूँ. कुलदेवता के, माँ के, खेतों के. परिवार के. मुझे आशा है कि मेरे गाँव की इस यात्रा ने आपकी भी कुछ न भूलने वाली यादें ताजा कर दी होंगी. . आपको भी अपना गाँव, अपने करीबी, खेत, और पंछियों की वह चहचाहट जरूर याद आई होगी.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Monday, October 27, 2008

न रहे कहीं अँधेरा




दीपावली पर आप और आपके परिवार को हार्दिक शुभकामनाएँ

Tuesday, October 21, 2008

देश को तोड़ डालेंगे ये काले अंग्रेज

इन राजनेताओं ने ऋषियों मुनियों की इस भारत भूमि को क्या बना दिया है ? कौन सा आदर्श ये आने वाली पीढी के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं ? कोई मराठियों की बात कर रहा है, कोई गुजरात प्राइड की बात करता है। कोई दलितों की राजनीति कर रहा है, कोई मुसलमानों की तो कोई हिन्दुओं की. कोई भाषा को तूल देता नजर आ रहा है तो कई क्षेत्रों से अलग राज्य की मांग उठती दिखाई देती है. इस गंदी राजनीति ने लोगों को धर्म, जाति, भाषा, प्रान्त और वर्ग के आधार पर बांटकर रख दिया है. आज के इन नेताओं को अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए कि वोटों की फसल काटने और येन केन प्रकारेण सत्ता को हथियाने के लिए उन्होंने नफरत के बीज बोने के अलावा क्या किया है. बांटो और राज करो की नीति पर चलते हुए अंग्रेजों ने बरसों तक भारतवासियों पर शासन किया. वे चले गए तो ये काले अंग्रेज आ गए. आम आदमी तब भी पिसता था. आज भी पिस रहा है. हकीकत तो यह है कि इन्होने अंग्रेजों से दो कदम आगे जाकर दिलों और समाजों को बाँट दिया है और अब प्रांतवाद, भाषावाद जैसे खतरनाक नारे देकर देश को बाँटने का गहरा षडयंत्र रच रहे हैं.

कितने अफ़सोस की बात है कि समाज और देश को बाँटने की साजिश रचने वाले ये मुट्ठी भर लोग कानून और संविधान से खिलवाड़ करते हुए सरेआम तोड़ फोड़ करते हैं। मासूम और बेक़सूर लोगों को पीटते हैं. उनका खून बहाते हैं. ये व्यवहार ऐसे लोगों के साथ भी हो रहा है, जो अभावग्रस्त जीवन जीने को अभिशप्त कर दिए गए हैं. जो दो जून की रोटी की तलाश में यहाँ वहां भटक रहे हैं. वे कोई अपराधी नहीं हैं. वे नक्सलवाद भी नहीं फैला रहे हैं, वे आतंकवाद में भी विश्वास नहीं करते. वे इन अमीरजादों की धन दौलत छीनने के लिए लूटपाट का रास्ता भी नहीं अपना रहे। ये मेहनतकश इन्सान देश के कानून और संविधान में पूरी आस्था रखते हुए काम चाहते हैं, ताकि अपने परिवार का भरण पोषण कर सकें. देश की तरक्की में अपना अमूल्य योगदान दे सकें. आजादी के साठ साल बाद भी अगर इस कदर असमानता, गरीबी और भुखमरी है तो इसके लिए इस देश के नीति नियंता और शासक जिम्मेदार हैं न कि ये लोग, जिन्हें राज ठाकरे जैसे लोग सड़कों पर पिटवा कर वोटों की बेहद गंदी राजनीति करने पर आमादा हैं.

इनकी गंदी राजनीति के शिकार कौन बन रहे हैं ? गरीब, आटो चालक, बस-ट्रक ड्राईवर, मेहनत मजदूरी करने वाले वंचित तबके के लोग। उन्हें लाठियों से पीटा जाता है। उनके ऑटो तोडे जाते हैं. टेक्सियाँ फूंक दी जाती हैं. जिन बसों-ट्रकों को वे चलाते हैं, उन्हें आग के हवाले कर दिया जाता है. उनकी ठेलियां लूट ली जाती हैं. गुंडे लाठियाँ और हथियार लेकर सड़कों पर उतर पड़ते हैं। पुलिस, प्रशासन, सरकार-सब मूकदर्शक की भूमिका निभाते नजर आते हैं. आखिर इस देश की व्यवस्था को ये क्या हो गया है ? जिन पर कानून व्यवस्था लागू करने की जिम्मेदारी है, वे हाथ पर हाथ रख कर क्यों बैठे हैं ?

आम आदमी को आख़िर कितना दबाया जाएगा ? और कितने जुल्म उस पर किए जाएँगे ? कब तक वह ये गुंडागर्दी बर्दाश्त करेगा ? क्या मजबूर होकर वह नक्सली और आतंकवादी नहीं बनेगा ? क्या वह हथियार उठाने को बाध्य नहीं होगा ? आख़िर उसे इन्साफ कौन देगा ? अगर किन्हीं लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक जमीन बचाने के लिए राज ठाकरे जैसे सिरफिरों की गिरफ्तारी का नाटक किया भी जाता है तो उसकी जमानत का बंदोबस्त पहले कर लिया जाता है. इस तरह के मिले जुले ड्रामे देख कर इस देश का आम आदमी बस मन मसोसकर रह जाता है। जिन स्वतंत्रता सेनानियों ने देश की आज़ादी के लिए अपना सर्वस्वा न्योछावर कर दिया, उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि अंग्रेजों के जाने के बाद इसकी बागडोर संभालने वाले इतने गिरे हुए जमीर के लोग होंगे, जो अपनी क्षुद्र राजनीति को चमकाने के लिए समाज के सबसे निर्बल व्यक्ति को कुचलने का दुष्चक्र रचेंगे।

यह देश के जन जन के चेत जाने का वक्त है. गोरे अंग्रेजों ने तो इस देश के दो ही टुकड़े किए थे. ये आज के नेता पता नहीं कितने टुकड़े करेंगे. आम आदमी के पास कोई और ताकत हो या नहीं, उसके पास वोट की ताकत तो है. ठान लीजिए कि देश और समाज के साथ दिलों के टुकड़े करने और भाषा, प्रान्त, नस्ल के आधार पर लोगों को आपस में लड़ने वालों को किसी भी सूरत में संसद और विधानसभाओं तक नहीं पहुँचने देना है. भगा दो इन काले अंग्रेजों को, नहीं तो ये सत्ता पाने और अपनी तिजोरियां भरने के लिए इसी तरह आम आदमी को मरवाते रहेंगे। और तोड़ डालेंगे इस देश को.

ओमकार चौधरी


Sunday, October 12, 2008

जांच आयोगों के जरिये घिनौनी राजनीति


जांच आयोगों की निष्पक्षता पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। इस बार चूकि मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष ने सवाल खड़ा किया है, इसलिए इस मुद्दे पर बहस जरूर होनी चाहिए। मामला गुजरात दंगों की दो जांचों से जुडा है। पहले तो ये ही सवाल उठता है कि एक ही मामले की दो जांच क्यों ? सभी अवगत हैं कि 27 फरवरी 200 2 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में आग लग गई थी, जिसमे अयोध्या से लौट रहे 58 कारसेवक मारे गए थे। भाजपा नेता आरोप लगाते रहे हैं कि ट्रेन में उपद्रवियों ने बाहर से तेल छिड़क कर आग लगाई थी। उसी घटना के बाद पूरे गुजरात में दंगे भड़क उठे। एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए, जिनमें अधिकतर मुस्लिम समुदाय के थे। उस समय नरेन्द्र मोदी सरकार पर आरोप लगे कि उसने दंगाइयों को रोका नहीं। उल्टे पुलिस और प्रशासन ने शासन के इशारे पर चुप्पी साध ली। अदालतों में मामलों की सुनवाई शुरू हुई तो भी जांच एजेंसियों पर दोषी आधिकारियों और उपद्रवियों को बचाने के गंभीर आरोप लगे। नतीजतन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने मामलों की सुनवाई गुजरात से बाहर करने के अभूतपूर्व आदेश जारी कर दिए।
दंगों को लेकर देश में जमकर राजनीति होती रही है। कांग्रेस जहाँ भाजपा पर साम्प्रदायिक भावनाएं भड़का कर वोट की राजनीति करने का आरोप लगाती रही है, वहीं भाजपा कांग्रेस पर मुस्लिम समुदाय को भड़काने और भाजपा के खिलाफ मिथ्या प्रचार करने का आरोप लगाती रही है। गुजरात दंगों की कालिख एक दूसरे के चेहरे पर पोतने के लिए दोनों ही दलों ने कोई कसर बाकी नहीं छोडी है। इससे आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है कि भाजपा सरकार ने साबरमती एक्सप्रेस की जांच के लिए नानावती आयोग बैठाया तो केन्द्र की मनमोहन सरकार ने यूं एस बनर्जी आयोग का गठन कर दिया। इन आयोगों ने वही किया, जो दोनों सरकारें चाहती थीं। नानावती आयोग ने मोदी सरकार को क्लीनचिट दे दी और बनर्जी आयोग ने भाजपा को झूठा साबित करने के लिए कहा कि ट्रेन में आग भीतर से ही लगी। बाहर से आगजनी के कोई सबूत नहीं मिले हैं। घटना पूर्व नियोजित षडयंत्र का हिस्सा नही थी.

मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एस राजेंद्र बाबू की इस पर बहुत तीखी प्रतिक्रिया आयी है। उन्होंने इस तरह की जांचों पर सवाल खड़े करते हुए जहाँ सरकारों को कटघरे में खड़ा किया है. वहीं, आयोगों को भी यह कहते हुए लताड़ लगाई है कि वे बेहद संवेदनशील मामलों की भी निष्पक्ष जांच नहीं कर रहे हैं। जस्टिस एस राजेंद्र बाबू ने कुछ गंभीर सवाल उठाए हैं. उनका कहना है कि इन जांच आयोगों की अलग अलग रिपोर्ट्स से साफ़ हो गया है कि उन्होंने सरकार के दबाव में काम किया, जो बेहद चिंता का विषय है. ऐसे आयोग निष्पक्ष हो भी कैसे सकते हैं, जिनकी सेवा शर्तें सरकार तय करती हैं. उन्होंने जांच आयोगों के अध्यक्षों के कामकाज के तरीकों पर यह कहते हुए सवाल उठाए हैं कि गोधरा हो या नंदीग्राम.. पीड़ित तो आम आदमी ही रहा है.
उनकी यह तल्ख़ टिप्पणी बहुत कुछ कह देती है कि आयोग की रिपोर्ट से ऐसा नहीं लगना चाहिए कि किसी की अनदेखी कर दी गयी है और किसी का पक्ष लिया गया है. नानावती आयोग ने तो कमाल ही कर दिया है. उसने नरेन्द्र मोदी, उनकी सरकार के मंत्रियों और पुलिस तक को क्लीनचिट दे दी. उसने कहा कि गोधरा मामले में इनकी कोई भूमिका नहीं थी. ध्यान रहे, नानावती को यह जिम्मेदारी सौपी गयी थी कि वे पता लगाएं कि साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने के क्या कारण थे. केन्द्र सरकार, खासकर लालू प्रसाद यादव द्वारा बैठाए गए यूं एस बनर्जी आयोग की रिपोर्ट भी संदेहों के घेरे में रही है. उन्होंने अंतरिम रिपोर्ट ऐसे समय दी थी, जब बिहार में विधानसभा चुनाव का ऐलान हो गया था. लालू यादव और कांग्रेस ने चुनाव के दौरान उस रिपोर्ट का जमकर दुरूपयोग किया और मुस्लिम वोटों के दोहन में कोई कसार बाकी नहीं छोडी. इसलिए अगर मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष ने जांच आयोगों के कामकाज के तौर तरीकों पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं तो यह बेवजह नहीं हैं.


ओमकार चौधरी

Sunday, October 5, 2008

राहुल गांधी पर दांव लगाएंगी सोनिया ?


कांग्रेस के भीतर से उठ रहे संकेतों को समझें तो लगता है की एक वर्ग राहुल गाँधी को अपने सर्वमान्य नेता के तौर पर देखने को कुछ ज्यादा ही उतावला है। आगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा, इसे लेकर पिछले कुछ समय से कुछ ज्यादा ही बयानबाजी हो गयी है. यह होड़ तब शुरू हुई, जब पंजाब यात्रा के समय ख़ुद राहुल ने बयान दे डाला कि वे प्रधानमंत्री बन सकते हैं. चापलूस किस्म के कांग्रेसियों को मौका और बहाना मिल गया। हद तो तब हो गयी, जब इस मुहिम में वीरप्पा मोइली, दिग्विजय सिंह और अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज नेता भी शामिल हो गए।

कांग्रेस में ऐसे कई नेता हैं जिन्हें, मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियाँ पसंद नहीं हैं। कुछ प्रधानमंत्री के तौर पर आज तक भी मनमोहन सिंह को स्वीकार नहीं कर पाए हैं। इनमे अर्जुन सिंह, प्रणब मुख़र्जी और शिवराज पाटील प्रमुख हैं। ये नेता ही राहुल गांधी को आगे करके मनमोहन को पीछे धकेलने के लिए उतावले हैं. हालाँकि कांग्रेस के कुछ गठबंधन सहयोगी मनमोहन को ही अगले चुनाव में भी नेता बनाए रखने के पक्ष में हैं। इनमे लालू यादव और शरद पवार सरीखे नेता शामिल हैं। अभी चुनाव में चूकि समय है, इसलिए पार्टी नेता जल्दबाजी में नहीं हैं. माना जा रहा है कि चुनाव से पहले राहुल गांधी को आगे करने की मुहिम जोर पकडेगी।

ऐसे कई मसले हैं, जिन पर मनमोहन सरकार कटघरे में है। आर्थिक मोर्चे पर अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री और उनकी टोली बुरी तरह विफल साबित हुई है. इस टोली में वित्त मंत्री पी चिदंबरम, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया और रिजर्व बैंक के गवर्नर शामिल हैं. महंगाई सातवे आसमान पर है. कर्ज लेकर घर बनने का सपना देखने वालों का बुरा हाल है. बैंकों ने ब्याज की दर हद से ज्यादा बढ़ा दी है. पट्रोलियम पदार्थों के दाम बेतहाशा बढे हैं. 2004 में कांग्रेस ने नारा दिया था, कांग्रेस का हाथ-आम आदमी के साथ। विपक्ष अब इसी को मुद्दा बनाकर कांग्रेस को घेरने की तैयारियों में जुटा है. सोनिया भी जानती हैं कि मनमोहन सिंह लोकप्रिय प्रधानमंत्री साबित नहीं हुए हैं. सही बात तो ये है कि सोनिया गांधी के सामने वे प्रधानमंत्री के रूप में कभी स्थापित हो ही नहीं सके. उन्हें हमेशा 10, जनपथ का ताबेदार ही माना गया. आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर तो ये सरकार विफल रही ही है।

मनमोहन सिंह दस दिन की विदेश यात्रा से लौटे तो अपनी उम्मीदवारी को लेकर उन्होंने यह कहकर चर्चाओं को और पंख लगा दिए कि अभी से इस बारे में अटकलबाजियों का कोई अर्थ नहीं है. एक बार फ़िर सोनिया गांधी को आगे आना पड़ा. उन्होंने यह कहकर मामले को शांत करने कि कोशिश की कि प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने अच्छा काम किया है और वे ही प्रधानमंत्री होंगे. दरअसल, लगता है कि सोनिया अब ख़ुद भी चाहती हैं कि राहुल गांधी आगे आकर कमान संभालें. हालत और राजनीतिक मजबूरियों के साथ-साथ वर्तमान परिस्थितियां उन्हें और बाकी कांग्रेसियों को आगे बढ़ने से रोक रहे हैं. माना जा रहा है कि चुनाव से कुछ पहले राहुल के पक्ष में जोरदार तरीके से माहोल बनने की मुहीम छेडी जाएगी. और उसे 10, जनपथ का समर्थन होगा. पार्टी के दिग्गज राहुल गांधी के पक्ष में खुलकर सामने आएँगे. ऐसे में मनमोहन सिंह ख़ुद राहुल के नाम को आगे करेंगे. इसलिए अगर चुनाव से पहले सोनिया राहुल को आगे करें तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा।


ओमकार चौधरी


Saturday, October 4, 2008

कौन आग लगा रहा है कंधमाल में ?

कंधमाल में हिंसा रुकने के नाम नहीं ले रही. ताज़ा हिंसा में बीस और घरों को आग के हवाले कर दिया गया. भयभीत लोग परिवारों के साथ पलायन कर सुरक्षित जगहों पर जाने के लिए मजबूर हो गए हैं. हालात कितने भयावह हैं, इसी से पता चलता है कि अब तक बीस हजार लोग शरणार्थी शिविरों में पहुँच चुके हैं. समाज में भीतर ही भीतर अग्नि प्रज्वलित हो रही है. पुलिस प्रशासन ने ताजा हिंसा के बाद सैकडों लोगों को गिरफ्तार किया है. पहले भी गिरफ्तारियां होती रहीं हैं लेकिन हिंसा और आगजनी रुकने का नाम नहीं ले रही. उडीसा की यह सांप्रदायिक हिंसा खतरनाक मोड़ पर आ गई है. केन्द्र सरकार पर भी अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा है. प्रधानमंत्री चिंतित हैं. केन्द्र ने उडीसा सरकार को एक एड्वोइस नोट भेजा है, जिसे धारा 356 के इस्तेमाल करने से पहले की कार्रवाई के रूप में देखा जा रहा है. अगर केन्द्र वहां नवीन पटनायक सरकार को बर्खास्त कर राष्टपति शासन लगाता है तो हालात और भी ख़राब हो सकते हैं.
इस समय सी आर पी ऍफ़ की 32 कंपनी वहां हिसाग्रस्त इलाकों में तैनात हैं. इससे कुछ फर्क तो पड़ा है लेकिन उपद्रवी काबू में नहीं आ रहे. अब तक सैकडों घर और चर्च फूंक डाले गए हैं. शुक्रवार तक ताजा हिंसा में 33 लोग मारे जा चुके है. कई नगरों में कर्फ्यू लगा हुआ है. अल्पसंख्यक आयोग की टीम के अलावा गृह मंत्री शिवराज पाटिल कंधमाल का दौरा कर चुके हैं. आज हालत ये हो गई हैं कि वहां कोई ख़ुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा. नवीन पटनायक सरकार हिंसा पर काबू करने में नाकाम नजर आ रही है. यहाँ यह साफ़ करना जरूरी है कि मारे गए लोगों में सिर्फ़ एक ही समुदाय के लोग नहीं हैं, जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है. उनमे दलित भी है, आदिवासी भी और इसाई भी. हाँ, ज्यादातर हमले ईसाइयों और दलितों पर ही हुए हैं. हमलावर हिंदू भी हैं और ईसाई भी.
ताजा हिंसा विहिप नेता स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद शुरू हुई है, जिन्हें तीस से अधिक हथियार बंद लोगों ने जन्माष्टमी के दिन मार डाला था. वे दलितों के धर्मांतरण का पुरजोर विरोध करने वालों में प्रमुख थे. इसके बाद विश्व हिन्दू परिषद् और अन्य हिंदू संगठनों के आह्वान पर आयोजित राज्य बंद के बाद से हिंसा का जो दौर शुरू हुआ, वह रुकने का नाम नहीं ले रहा.
यह सही है कि चर्चों को बड़े पैमाने पर निशाना बनाया गया है लेकिन बड़ी संख्या में दलितों के घर भी फूंके गए हैं. वन क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी भी जलती आग में हाथ सेंकने में पीछे नहीं रहे हैं. सरकार की ढील तो रही ही है, वहां के संगठनों ने भी इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण पर जमकर रोटियां सेंकी. वहां के हालात वाकई खतरनाक मोड़ ले चुके हैं. उडीसा आज से नहीं, पिछले दस साल से इस आग में जल रहा है, जब से आस्ट्रेल्य्न मिशनरी के ग्राहम स्टोन और उनके दो बेटों को इसी क्षेत्र में जीप में जलाकर मार डाला गया गया था. उन पर आदिवासियों और हिंदूवादी संगठनों ने विदेशी पैसे के बल पर दलितों के धर्मांतरण का आरोप लगाया था. पिछले साल कुछ हथियार बंद लोगों ने क्रस्मस डे पर ईसाई समुदाय के लोगों पर हमले किए. कई को मर डाला. चर्चों को आग लगा दी. इसके बाद से लावा सुलग रहा था, जो अब ज्वालामुखी बनकर कंधमाल के साथ पडौसी जिलों को भी लीलने में लगा है.
केन्द्र वहां के हालातों से बेहद चिंतित है. प्रधान मंत्री ने केबिनेट की बैठक बुलाई है. आशंका है कि पटनायक सरकार को बर्खास्त करने का फ़ैसला लिया जा सकता है. यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण होगा. इसके बाद हिंदूवादी संगठनों को और भी खुलकर खेलने का मौका मिल जाएगा. इसलिए जरूरी है कि केन्द्र सोच समझकर फ़ैसला ले. अच्छा तो ये ही होगा कि पटनायक को बुलाकर बात की जाए और उन्हें जितनी भी मदद की जरूरत है, वह मुहैय्या कराई जाए. ऐसे समय की जाने वाली राजनीति हालात को और पेचीदा बना सकती है.

ओमकार चौधरी
mailto:homkarchaudhary@gmail.com