Friday, November 28, 2008

उन्होंने देशवासियों की गैरत को ललकारा है

उन्होंने हमारी गैरत को ललकारा है. हमारे सुरक्षा तंत्र की पोल खोलकर रख दी है. 2020 तक महाशक्ति बन जाने का उपहास उड़ाया है. खुफिया एजेंसियों की काहिली, सरकारी नपुंसकता और घटना के बाद कहे जाने वाले इस जुमले की हवा निकालकर रख दी है कि बहुत हो गया, अब और बर्दाश्त नहीं करेंगे. वे धड़ल्ले से मुंबई में घुसे. सड़कों पर तांडव मचाया. मुंबई की शान कहे जाने वाले दो आलीशान पाँच सितारा होटलों में नरसंहार कर विदेशी पर्यटकों को बंधक बनाया. नरीमन हाउस, एक सिनेमाघर और एक अस्पताल के अलावा सड़क पर चलते लोगों को निशाना बनाया. उनकी तादाद डेढ़ दर्ज़न से अधिक नहीं थी लेकिन उन्होंने सैकडों की संख्या में पहुंचे सैनिकों, एन एस जी कमांडो, मुंबई पुलिस और अर्ध सैनिक बलों की नाक में दम करके रख दिया. उन्होंने डेढ़ सौ से अधिक बेक़सूर लोगों को मार डाला और चार सौ को घायल कर हमेशा के लिए अपंग बना दिया. इससे भी बढ़कर उन मुठ्ठी भर आतंकवादियों ने देश की आर्थिक राजधानी मुंबई को दुनिया भर में एक असुरक्षित स्थान के रूप में बदनाम करके रख दिया. आज कोई भी मुंबई को सुरक्षित शहर मानने को तैयार नहीं है.

पूरा देश सदमे में है. मारे गुस्से के लोगों की मुठ्ठियाँ तनी हुई हैं. जबड़े भींचे हुए हैं, सरकार की काहिली के कारण वे ख़ुद को मजबूर और अपमानित महसूस कर रहे हैं. नरीमन हाउस में ऑपरेशन ख़तम कर जैसे ही एन एस जी कमांडो नीचे उतरे, उग्र लोगों ने भारत माता की जय के नारे लगाने शुरू कर दिए. उन्होंने जांबाज़ सैनिकों और एन एस जी कमांडो का तालियाँ बजाकर स्वागत किया. इस एक घटना से पता चलता है कि आतंकवादियों के बार बार देश पर हो रहे आक्रमणों को लेकर नागरिकों में किस कदर नाराजगी है. हर महीने दो महीने के भीतर आतंकवादी देश के किसी न किसी कोने में बेक़सूर नागरिकों का लहू बहा देते हैं. लोगों में जितना गुस्सा उनके प्रति है, उससे कहीं ज्यादा सरकार और उसमे बैठे जिम्मेदार नेताओं के खिलाफ है जो हर घटना के बाद एक बयान देकर अपने दायित्व की पूर्ति कर लेते हैं कि अब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.

मुंबई ही नहीं, पूरे देश को ही डेढ़ दर्ज़न आतंकवादियों ने तीन दिन तक बंधक बनाए रखा. वहां जो कुछ हुआ, उसे वयस्क नागरिकों ही नहीं, स्त्री और मासूम बच्चों ने भी टेलीविजन के जरिये देखा. बच्चों और आम लोगों के दिलो-दिमाग पर इन गोलियों और बम विस्फोटों का कितना बुरा असर पड़ा है, इसका अंदाजा न सरकार को है और न न्यूज़ चेनलों को. छबीस नवम्बर की रात से जो कुछ हो रहा है, उसने एक बार फ़िर साबित कर दिया है कि हमारे तंत्र की तंद्रा तभी टूटती है, जब घर लुट चुका होता है. शत्रु घर में घुसकर परिवार के लोगों की हत्या कर चुके होते हैं. सरकार में बैठे लोगों को तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता, जब तक हमला ख़ुद उन पर न हो. किसी भी सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी देश-प्रदेश के नागरिकों की जान माल की सुरक्षा है. लेकिन लगता नहीं कि सरकारें अपनी इस जिम्मेदारी के प्रति सजग अथवा चिंतित हैं. हर घटना के बाद वे सिर्फ़ बयानबाजी करती हैं. इससे लोगों में गहरी नाराजगी व्याप्त है. उनके बर्दाश्त की सीमा ख़तम हो रही है.

सरकार में बैठे लोगों को ख़ुद से सवाल पूछना चाहिए कि वे देश की प्रतिष्ठा बढ़ा रहे हैं या उसे बट्टा लगाने में लगे हैं. बहुत हो चुका. अब लोग और अपमान बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं. आतंकवादियों ने भारत और इसके नागरिकों की गैरत को ललकारा है. सत्ता में बैठे लोग नहीं चेते तो जनता जानती है कि उसे क्या करना है. सरकार यह जान ले कि अब आम आदमी निर्णायक कार्रवाई चाहता है. लोग अब और हमले और अपमान बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

इससे भयावह मंजर और क्या होगा ?

वो रात
इक ख़बर बन कर आई
इक ऐसी ख़बर
जिसके चेहरे पर हैवानियत पसरी थी
जिसकी आंखें बिना आंसुओं की थीं
जिसके होंठ लहू लुहान थे
















Monday, November 24, 2008

प्लीज धोनी को कप्तानी करने दें

इस ख़बर ने क्रिकेट प्रेमियों को एक बार फ़िर आशंकाओं से ग्रस्त कर दिया है कि चयनकर्ताओं और कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के बीच तनातनी शुरू हो गई है. कप्तान की पसंद को दरकिनार करने के सवाल पर भारतीय क्रिकेट में पहले भी बवाल हो चुके हैं. चयन समिति के सदस्य हमेशा से अपनी पसंद कप्तानों पर थोपने की कोशिश करते रहे हैं. इसके नतीजे न अतीत में अच्छे निकले और न अब निकलेंगे. सुनील गावस्कर, कपिल देव, सचिन तेंदुलकर और अनिल कुंबले जैसे महान क्रिकेटरों से लेकर सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, अजहरुद्दीन और कृष्णामचारी श्रीकांत जैसे धुरंधर खिलाड़ियों तक को कप्तानी के समय चयनकर्ताओं की मनमानी का शिकार होना पड़ा. इनमे से अधिकांश को बे-आबरू होकर पहले कप्तानी से और अंतत : टीम से ही रुखसत होना पड़ा. कप्तान और चयनकर्ताओं के टकराव के नतीजे देश लंबे समय तक भुगतता रहा. चयनकर्ताओं ने अपने क्षेत्रों के खिलाड़ियों को टीम में लेने के लिए कभी मोहिन्द्र अमरनाथ जैसे बेहतरीन हरफनमौला को टीम से ड्राप किया तो हाल के दौर में सौरव गांगुली जैसा शानदार खिलाडी इस गंदी राजनीति का शिकार हुआ.

जब भी नए कप्तान आए, टीम ने अच्छे रिजल्ट दिए. एक-दो सीरीज के बाद ही कप्तान पर चयनकर्ता अपनी पसंद के खिलाडी को टीम में लेने के लिए दबाव बनाना शुरू कर देते हैं. इसी कारण कभी अमरनाथ तो कभी गांगुली जैसे बेहतरीन खिलाडी बाहर बैठाए जाते रहे. यह अलग बात है कि इन दोनों ने ही टीम में शानदार वापसी करके चयनकर्ताओं की बोलती बंद कर दी. अब धोनी जैसे खिलाडी के साथ भी अगर चयनकर्ता ठीक उसी तरह की हिमाकत कर रहे हैं तो जान लीजिए कि टीम इंडिया के फ़िर से बुरे दिन लौटने वाले हैं.जब से धोनी के नेतृत्व में टीम ने सीरीज दर सीरीज जीतने का सिलसिला शुरू किया है, तब से विश्व की सभी धुरंधर समझी जाने वाली टीमों को पसीना आया हुआ है. दक्षिण अफ्रीका, पाकिस्तान, इंग्लेंड, वेस्ट इंडीज, श्रीलंका और बंगलादेश से लेकर विश्व चैम्पियन कंगारुओं तक को उनकी टीम हार का मज़ा चखा चुकी है.
अच्छा तो यही होगा कि धोनी की टीम को खेलने दिया जाए. धोनी को वही खिलाडी दिए जाएँ, जो वे चाहें. अगर ऐसा नहीं हुआ तो टीम उसी गर्त में जा पहुंचेगी, जहाँ से बड़ी मुश्किल से निकली है.धोनी पूरे मन से खेल रहे हैं. रननीति से लेकर टीम के चयन तक में लगभग सभी टीमें और कप्तान धोनी का लोहा मानते हैं. उन्होंने अपने खिलाड़ियों का जितना अच्छा इस्तेमाल किया है, उसकी कट किसी टीम के पास दिखायी नहीं दे रही. अगर धोनी पर इसी तरह का दबाव बनाया जाता रहा तो बाकी कप्तानों की तरह वे भी कंधे ढीले छोड़ देंगे. उनकी टीम में भी राजनीति शुरू हो जाएगी. वहां भी युवराज और सहवाग जैसे खिलाडी नैसर्गिक खेल खेलना बंद कर देंगे और फ़िर इस टीम को गर्त में जाने से कोई नहीं रोक पाएगा. इसलिए अच्छा होगा, यदि चयनकर्ता अपने क्षेत्रों की चिंता करने के बजे देश की चिंता करें.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

बहुत कुछ तय करेंगे ये चुनाव

सबकी निगाहें छः राज्यों में हो रहे चुनाव के नतीजों पर टिकी है. मिजोरम और जम्मू कश्मीर के परिणामों से केन्द्र की राजनीति पर भले ही कोई फर्क न पड़ता हो परन्तु इनके महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता. वैसे सबकी दिलचस्पी चार हिन्दी भाषी राज्यों के परिणामों पर हैं. इनमें से तीन मध्य प्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी की सरकार हैं जबकि दिल्ली में कांग्रेस का शासन है. लोकसभा चुनाव में अब ज्यादा वक्त नहीं है. इस कारण इन चुनावों को मिनी महाकुम्भ भी कहा जा रहा है. विश्लेषकों का मानना है कि इनके नतीजे देश की राजनीतिक दिशा तय कर सकते हैं. कांग्रेस और भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. भाजपा के लिए इन तीनों राज्यों में वापसी करना चुनौती है तो कांग्रेस के लिए दिल्ली में. कांग्रेस के लिए राह इस कारण थोड़ी मुश्किल नजर आ रही है क्योंकि वह दिल्ली में दस साल से सत्ता में है. इसके बावजूद शीला दीक्षित सरकार के खिलाफ कोई बड़ी नाराजगी देखने में नहीं आ रही है. किसी भी सरकार के लिए वैसे तो आजकल पाँच साल की एंटीइनकम्बेंसी ही काफी होती है लेकिन अपनी सरकारों पर लटकने वाली इस तलवार को परे हटाने के लिए भाजपा नेताओं ने महंगाई और आतंकवाद जैसे मुद्दों को हवा देकर कांग्रेस को घेरने में कोई कसर नहीं छोडी है.इन राज्यों में कांग्रेस बजे आक्रामक होने के रक्षात्मक नजर आ रही है.
यह कयास लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस अगर हिन्दी भाषी इन चार में से दो अथवा तीन राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब हो गई तो सोनिया गांधी लोकसभा चुनाव समय से पहले कराने का निर्णय ले सकती हैं. हालाँकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नियत समय पर ही लोकसभा चुनाव कराने के पक्ष में हैं. इसके विपरीत अगर भाजपा ने दिल्ली पर कब्जा करने के अलावा राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में से किन्हीं दो राज्यों में फ़िर से सरकार बना ली तो कांग्रेस तय समय से पहले आम चुनाव कराने का खतरा नहीं लेगी.इन्हीं तीन राज्यों में कामयाबी के बाद 2004 में भाजपा ने केन्द्र सरकार के लिए नया जनादेश लेने के लिए समय से पूर्व लोकसभा चुनाव कराने का खतरा उठाया था. नतीजतन सरकार जाती रही. इसलिए कांग्रेस बहुत सोच विचार कर ही समय से पहले आम चुनाव कराने का निर्णय लेगी.
आम तौर पर विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े और जीते जाते हैं. इस बार के चुनाव थोड़े अलग माहोल में हो रहे हैं. इस वक्त महंगाई और आतंकवाद बड़ा मुद्दा बन गए हैं. भा ज पा ने सोची समझी रणनीति के तहत कांग्रेस को इन मुद्दों पर घेर लिया है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में पॉँच साल के शासन के बाद भी अगर भा ज पा के खिलाफ वैसी नाराजगी देखने को नहीं मिल रही है तो इसकी वजह यही है कि लोग महंगाई और आतंकवाद से त्रस्त हैं और ढीली ढाली नीतियों को इसका जिम्मेदार मानते हुए केन्द्र की यूंपीऐ सरकार को दोषी मान रहे हैं. संसद भवन पर हमले के दोषी अफजल को फांसी नहीं दिए जाने को भाजपा ने एक और प्रमुख मुद्दा बनाते हुए कांग्रेस पर हमला बोल दिया है.
कांग्रेस जहाँ इन चुनावों में मुस्लिम कार्ड खेल रही है, वहीं भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर मामले को तूल देकर हिन्दू वोटों को अपने पक्ष में करने में कोई कसार बाकी नहीं छोडी है. इसलिए यह देखना भी दिलचस्प होगा कि मतदाता क्या जनादेश देते हैं. वे किसके पक्ष में जाते हैं. वैसे हिंदुस्तान का आम मतदाता बहुत समझदार है. समय समय पर वह विभिन्न राजनीतिक दलों को सबक भी देता रहा है. कुल मिलकर यह कहा जा सकता है कि छः राज्यों के ये चुनाव देश की भावी राजनीति की दिशा जरूर बता देंगे.

Tuesday, November 18, 2008

बिग बॉस के घर की रासलीला

आम तौर पर मै टेलीविजन पर सीरियल आदि नहीं देखता. कुछ सीरियल अच्छी कहानियो के साथ शुरू होते हैं लेकिन धीरे-धीरे इतने उबाऊ हो जाते हैं कि सिवाय बाल नोचने के दर्शक कुछ नहीं कर पाता. मजबूर होकर वह चेनल बदलता है लेकिन वहां भी वही हाल मिलता है. टीआरपी और कमाई का रोग ऐसा लग गया है कि न मूल्यों की परवाह है, न सिधान्तों की, न सामाजिक दायित्वों की और न आने वाली पीढी के भविष्य की. समाज में ऐसा भी होता है, इस

कुतर्क के आधार पर समाज में हो रहे तमाम तरह के अप्कर्मों को परोसा जा रहा है. कुछ रियल्टी शो चल रहे हैं. ये भी गजब हैं. कुछ विशुद्ध मनोरंजन कर रहे हैं, उनसे आम दर्शकों को खास शिकायत नहीं है, लेकिन बिग बॉस के हाउस जैसे कार्यक्रम किसका भला कर रहे हैं ? इस कार्यक्रम की टीआरपी बढ़वाने वाले लोगों में ख़ुद मै भी शामिल हूँ. मै इसे नियमित रूप से देख रहा हूँ. क्यों देखता हूँ, ख़ुद नहीं समझ पा रहा. शायद इसलिए कि इसमे प्रमोद महाजन के साहबजादे राहुल महाजन हैं, टीवी सीरियल्स की नामचीन अभिनेत्री श्वेता तिवारी के पूर्व पतिदेव राजा चौधरी हैं. कुछ दिन पहले तक अबू
सलेम की प्रेमिका मोनिका बेदी थी. शायद यह देखने के लिए कि इतनी बदनाम शख्सियतें एक जगह हैं तो किस तरह का व्यव्हार कर रहीं हैं. वे अपनी अपनी इमेज सुधरने के लिए क्या क्या कर रहे हैं. कितने शरीफ बनकर जनता की सहानुभूति लूटने की कोशिश कर रहे हैं. और

जनता भी किस तरह उन्हें बिग बॉस के हाउस में बनाए रखने के लिए एस एम् एस के जरिये समर्थन कर रही है. मेरी तरह बहुतों की दिलचस्पी शायद इन्हीं बातों को जानने में होगी.
और विडम्बना देखिये. विश्व सुन्दरी का खिताब जीतने वाली डायना हेडन को दर्शक बिरादरी ने मोनिका बेदी से भी पहले बिग
राहुल महाजन कितने अच्छे आचरण के हैं, इसी से पाता चल जाता है कि उनकी नव विवाहिता ने उन पर मार पीट का आरोप लगते हुए कुछ ही महीने में तलाक़ ले लिया. प्रमोद महाजन की तेरहवीं भी नहीं हुई थी, तब राहुल महाजन ड्रग लेने के चक्कर में गिरफ्तार हुए और मौत के मुह से लौटे. मोनिका के बारे में सारी दुनिया जानती है कि वह लंबे समय तक
माफिया डॉन अबू सलेम के साथ पुर्तगाल में रहकर ऐश करती रही. अब सलेम जेल की चक्की पीस रहे हैं तो ये बिग बॉस के

घर में राहुल महाजन के साथ मटक मटक कर रिश्ते बढ़ा रही हैं. दर्शक भी किसी फ़िल्म की रोमांटिक कहानी की तरह इसका पूरा लुत्फ़ लेते रहे. राजा चौधरी पर भी राहुल महाजन की तरह अपनी अभिनेत्री पत्नी पर मारपीट का आरोप लगा था. मामला पुलिस थाने तक पहुँचा. तलाक़ तक नौबत पहुँच गयी. इन तीन पात्रों के आलावा सम्भावना सेठ को पूरी दर्शक बिरादरी ने देखा कि किस तरह का आचरण उन्होंने बिग बॉस के हाउस में दिखाया. एक बार आउट होने के बाद लौटी तो पहले से भी
ज्यादा हंगामा किया. राजा चौधरी के साथ गाली गलौज तक हुई. क्या क्या नहीं दिखाया गया रियल्टी शो के नाम पर. लव स्टोरी दिखायी गयी. मारपीट दिखायी गयी. डांस, गीत संगीत से लेकर एक दूसरे के खिलाफ षडयंत्र दिखाए गए. यानी सब कुछ है इसमे. वह भी उन पात्रों के साथ, जिनकी समाज में कोई बहुत अनुकरणीय छवि नहीं है.

बॉस के घर से बेघर कर दिया. केतकी, एहसान कुरैशी, पायल रोहतगी, देबोजीत सहा जैसे तो महत्वहीन होकर रह गए.
इस रियल्टी शो के आयोजकों ने भी साबित किया कि महिलाओं का कब तक और किस तरह उपयोग किया जाता है. बिग बॉस के घर में भी उनसे रोटी बनवाई गयी, कपड़े धुलवाए गए. अपमानित भी कराया गया. सम्भावना सेठ हालाँकि ख़ुद भी कोई कसर करके नहीं लौटी वहां से लेकिन उन्होंने राजा चौधरी पर मानहानि का केस ठोकने का ऐलान कर दिया है. मोनिका

बेदी राहुल महाजन के बाहर आने का बेसब्री से इन्तजार कर रही है. उन्हें लगता है कि बिग बॉस के घर में राहुल से उनका जो प्रेम परवान चढा है, वह आगे बढेगा.
मेरी समझ में नहीं आ रहा कि बिग बॉस के इस घर में ऐसा कौन सा उत्तम कार्य हुआ है, जिससे प्रेरणा ली जाए.
लोगों को अच्छा लगता यदि बिग बॉस के घर में कुछ अच्छे आचरण के लोगों को आमंत्रित कर वहां रहने का अवसर दिया जाता. पता नहीं यह धरना क्यों बंटी जा रही है कि लोग बुरे लोगों को ही देखना चाहते हैं.

Thursday, November 13, 2008

दिल्ली में जाम के मजे ले रहा हूँ

जी हाँ, आजकल कोई मुझ से पूछता है कि क्या हाल हैं, तो मेरा यही जवाब होता है कि दिल्ली में जाम के मजे ले रहा हूँ. जब से मेरठ छोड़ कर देश की राजधानी में धूनी रमाई है, तब से जाम, जाम और बस जाम के ही मजे ले रहा हूँ. वो जाम नहीं, जो आप समझ रहे हैं. जीवन में उसकी तो एक बूँद भी नहीं चखी. दिल्ली में रहने वाले एक और जाम को झेलने को अभिशप्त हैं. सड़कों पर कदम-कदम पर लगने वाले जाम से. इंडिया टुडे के विशेष संवाददाता श्याम लाल यादव मेरे कनाट प्लेस दफ्तर में बैठे थे, बोले..सुबह आठ बजे घर से निकला. दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (डीएमआरसी) के मुख्य कार्यकारी ई श्रीधरन से मिलना था. साढे नौ बजे का समय तय था, जाम में ऐसा फंसा कि ग्यारह बजे के बाद किसी तरह पहुँच पाया. जाने अनजाने श्याम लाल ने जैसे मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया. दिल्ली मै पहले भी कई साल रहकर गया हूँ. कभी कभार जाम का सामना तब भी करना पड़ता था लेकिन इतना बुरा हाल तो तब नहीं था. यह तो तब है, जब दिल्ली में सैकडो की संख्या में ओवरब्रिज बन गए हैं. फ्लाई ओवर खड़े हो गए हैं. दिल्ली सरकार चोराहों को रेड लाइट फ्री बनाने की जोरदार मुहीम छेड़े हुए है. सड़कें चौडी बनाई जा रही हैं. मेट्रो ट्रेन का जाल बिछाया जा रहा है. रिंग रोड और नई दिल्ली में रिक्शा, टेंपो, रेहडी वाले, घोडे तांगे और थ्री व्हीलर प्रतिबंधित किए जा चुके हैं.



आप जानते हैं, 2010 में दिल्ली में कामन वेल्थ गेम होने जा रहे हैं. दस हजार करोड़ रूपए से भी अधिक तैयारियों पर खर्च किया जा रहा है. तीन नए स्टेडियम बन रहे हैं, यमुना के बेसिन में अक्षरधाम मन्दिर के पास खेल गाँव बन रहा है. सड़कें चौडी की जा रही हैं. कई नए होटलों का निर्माण हो रहा है. एक तरह से दिल्ली की कायापलट करने के दावे किए जा रहे हैं. कामन वेल्थ के नाम पर प्राइवेट बिल्डर तक मोटी कमाई करने में लगे हैं. दिल्ली और आसपास के इलाके में जमीनों और नए बनाए जा रहे फ्लेट्स की कीमतें आसमान छू रही है. नौकरी पेशा आदमी अब इस क्षेत्र में एक छत का बंदोबस्त करने का केवल सपना ही देख सकता है. उसे हकीकत में नहीं बदल सकता.
मै जब भी जाम में फंसा होता हूँ, एक ही बात सोचता हूँ कि क्या कभी दिल्ली जाम से मुक्ति पा सकेगी ? अगर कभी ऐसा हुआ तो वह दिल्ली वालों और यहाँ आने वालों के लिए सुनहरा दिन होगा. क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जाम से मुक्ति दिलाने के नाम पर ही करोड़ों-अरबों रूपए फूंके जा रहे हैं और इसी से दिल्ली वासियों को निजात नहीं मिल पा रही ? आख़िर इस समस्या से पार क्यों नही पाई जा रही ? क्या योजनाओं में खोट है ? या फ़िर दिन दूनी रात चौगुनी वेहिकल्स की संख्या बढ़ती जा रही है ? परिवहन निगम के आंकडे बताते हैं कि साठ लाख से अधिक वाहन तो अकेले दिल्ली में ही रजिस्टर्ड हैं. रोजाना बीस लाख वेहिकल बाहर से दिल्ली आते हैं. सड़कों पर कभी सीवर का काम हो रहा होता है. कभी फ्लाई ओवर के कारण एक तरफ़ से सड़क को रोक दिया जाता है तो कभी ग़लत पार्किंग जाम की वजह बनती है



कामन वेल्थ गेम्स में अब ज्यादा समय नहीं बचा है. राष्ट्रमंडल खेल संघ के अध्यक्ष दिल्ली में हैं. उन्होंने तैयारी स्थलों का जायजा लिया है. जिस रफ्तार से काम चल रहा है, उससे उन्हें लगता है कि दो हजार दस तक दिल्ली सरकार तैयारियों को पूरा नहीं कर पाएगी. खास कर खिलाड़ियों के लिए बनाए जा रहे खेल गाँव के मामले को जिस तरह कुछ पर्यावरण संरक्षण वादियों ने कोर्ट में चुनौती दे राखी है, उस से उन्हें लगता है कि यह काम कभी भी रोका जा सकता है. ऐसे में भरी संकट खड़ा हो सकता है. बाकी तैयारियां भी कछुआ चाल से ही चल रहीं हैं.
यह वाकई चिंता की बात है. ख़ुद दिल्ली के अधिकारी मान रहे हैं कि खेल गाँव का पच्चीस प्रतिशत भी काम अभी पूरा नहीं हुआ है. अगर यही हाल रहा तो तय मानिये, कामन वेल्थ गेम्स के समय बड़ी भद पिटने वाली है. जिस जगह खेल गाँव बन रहा है, मेरे जैसे लाखों लोग उसी सड़क यानी निजामुद्दीन पुल पर जाम के शिकार होते हैं. खुदा न खास्ता दो हजार दस तक भी जाम का यही हाल रहा तो विदेशी खिलाडी दिल्ली की बहुत अच्छी तस्वीर और अनुभव लेकर अपने देश लौटेंगे.

Sunday, November 2, 2008

कुंबले, सौरव के बाद दबाव द्रविड़ पर



सौरव गांगुली के बाद जम्बो के अचानक सन्यास की घोषणा ने सबको हैरत में डाल दिया है. अनिल कुंबले भारत ही नहीं, दुनिया के बेहतरीन गेंदबाजों में से एक हैं. उनसे अधिक विकेट केवल मुथैया मुरलीधरन और शेर्न वारने ने लिए हैं. भारत में किसी गेंदबाज ने टेस्ट क्रिकेट में 619 विकेट लेने का कारनामा नहीं दिखाया. कपिल देव ने भी नहीं. कुंबले अठारह साल तक भारत के लिए खेले और अपने दम पर उन्होंने अनेक मैचों में शानदार जीत दिलाई. दुनिया के वे ऐसे दूसरे गेंदबाज हैं, जिन्हें एक ही पारी में सभी दस विकेट मिले. 1999 में कुंबले ने यह करिश्मा दिल्ली के इसी फिरोजशाह कोटला मैदान में पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए किया था. जिस पर उन्होंने अन्तर राष्ट्रीय क्रिकेट से सन्यास लेने की घोषणा की.

जितना सम्मान कुंबले को मिलना चाहिए था, नहीं मिला. उन्हें कप्तानी भी तब मिली, जब करियर का संध्या काल आ पहुँचा था. निश्चित तौर इसे लेकर बहस होगी कि कुंबले ने अचानक सन्यास का ऐलान क्यों किया और क्या उन्हें भी सौरव गांगुली की तरह ही ससम्मान (?) क्रिकेट को अलविदा कह देने को मजबूर तो नही किया गया था. हालाँकि इस महान लेग स्पिनर ने रहस्योद्घाटन किया कि नागपुर टेस्ट के बाद वे सन्यास लेने का ऐलान करने वाले थे लेकिन उंगली की चोट के कारण एक टेस्ट पहले ही वे क्रिकेट को अलविदा कह रहे हैं.

कह सकते हैं कि भारत की लंबे समय तक सेवा करने वाला एक और जांबाज खिलाडी अब मैदान पर खेलते हुए नजर नहीं आएगा. कुंबले की विदाई और सम्मानजनक तरीके से हो सकती थी. ये ऐसे खिलाडी हैं, जो फ़िर कभी भारतीय टीम को नसीब नहीं होंगे. यह टेस्ट सीरीज कई घटनाओं के लिए याद की जाएगी. सचिन तेंदुलकर ने टेस्ट में सर्वाधिक रन बनने का ब्रायन लारा का रिकोर्ड तोड़कर भारत को फ़िर से यह गौरव दिलाया तो सौरव गांगुली ने अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट को अलविदा कह दिया. सीरीज अभी ख़तम भी नहीं हुई है कि कुम्बले ने भी सन्यास का ऐलान कर दिया. जाहिर है, अब दबाव राहुल द्रविड़ पर आ गया है क्योंकि एक अरसे से उनका बल्ला खामोश है. यहाँ तक कि वे अपने घरेलू मैदान पर भी रनों के लिए तरसते हुए देखे गए. नागपुर में भी अगर यही हाल रहा तो द्रविड़ पर भी सौरव और कुंबले का अनुसरण करने का दबाव बढ़ जाएगा.

पिछले कुछ समय से टीम इंडिया के फाइव फेब खासी चर्चा में हैं. सचिन, सौरव, द्रविड़, लक्ष्मण और कुंबले पर अच्छा प्रदर्शन करने का जबरदस्त दबाव रहा है. सचिन और लक्ष्मण के अलावा केवल सौरव ही सैकडा लगाकर आलोचकों का मुह बंद करने में सफल रहे. सौरव चूकि पहले ही सन्यास का ऐलान कर चुके हैं, इसलिए उनके टीम में लौटने का प्रशन नहीं उठता. सचिन अभी सन्यास के बारे में दूर दूर तक भी नहीं सोच रहे हैं. लक्ष्मण ने भी दिल्ली टेस्ट में दोहरा शतक जमाकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी है, इसलिए सारा दबाव अब द्रविड़ पर है. नागपुर में भी अगर वह नहीं चले तो उन पर भी गांगुली और कुंबले का अनुसरण करने का दबाव पड़ेगा.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com