Friday, August 29, 2008
बिहार में सालाना तबाही
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com
Wednesday, August 27, 2008
अपने अपने दर्द समंदर
हम भी कैसे दीवाने हैं
Tuesday, August 26, 2008
वो लड़की
मैंने ट्रिब्यून चौक से दिल्ली की बस पकड़ी। बस में कुछ सीटें खली पड़ी थी। चंडीगढ़ से चलने वाली बसें ट्रिब्यून चौक तक आमतौर पर खाली सी ही आती हैं। यहाँ से वे अक्सर भरकर चलती हैं। आज गर्मी कुछ ज्यादा ही है, इसलिए लोग घर से कम ही निकले। मै मन ही मन बुदबुदाया।
बस स्पीड पकड़ चुकी थी। थोडी सी देर के लिए मै चंडीगढ़ की इस छोटी यात्रा की स्मरतियों मै खो गया। कई पुराने दोस्तों से मुलाकात हुई इस दौरे मै। चंडीगढ़ से एक खास नाता सा बन गया है। ये बेहद खुबसूरत शहर किसी को भी अपनी तरफ़ आकर्षित कर लेता है।
करीब चालीस मिनट बाद बस अम्बाला मे थी। बस अड्डे पर काफी लोग बस कर्ण इंतजार करते दिखे। बस रुकी नही कि यात्री धक्कमपेल करते हुए बस मे दाखिल होने लगे। देखते ही देखते बस फुल हो गई। मे चंडीगढ़ से ही खिड़की के पास बैठा था। गर्मी और बस के भीतर की घुटन से बचने का मुझे ये ही रास्ता सूझा था।
बस यहाँ कुछ ही देर रूकती है। ज्यादातर यात्री सीटों पर बैठ चुके थे। कुछ सीटें तलाश रहे थे। उनमे एक युवती भी थी। ये ही कोई बीस बरस की रही होगी। टॉप जींस मे थी वह। मेरे बराबर वाली एक सीट खाली पड़ी थी। वह उसी पर बैठ गई। बस कुछ ही दूर चली थी, वह मेरे कण मे बुदबुदाई, क्या आप इधर की सीट पर बैठ सकते हैं ?
मैंने सवालिया निगाहों से उसकी तरफ़ देखा। पूछ ही लिया, क्या प्रोब्लम है ? मे ठीक जगह बैठा हूँ। यही ठीक हूँ। इस पर उस लड़की ने ऐसा चेहरा बनाया, जैसे अभी उलटी कर देगी। उसने कहा, मुझे बस मे सफर करते वक्त उल्टियाँ लग जाती हैं। आपको परेशानी न हो, इसीलिए कह रही हूँ। मुझे लगा, ये सही ही कह रही है। मैंने सीट बदल ली। खिड़की के पास बैठे हुए अभी उसे दस मिनट भी नही हुए होंगे, मोबाइल पर उसने खिलखिलाते हुए किसी से बात शुरू कर दी। अब उसकी बातचीत या हव भावः से बिल्कुल नही लग रहा था, उसे उलटी लगने कर्ण कोई अंदेशा था। मुझे समझने मे देर नही लगी की एस लड़की ने मुझे मामू बना दिया है।
मे दिल्ली तक कुढ़ता रहा, वह कभी अपनी बॉय फ्रेंड से, कभी अपनी सहेली से तो कभी किसी क्लास फेलो से खिलखिला कर बातें करती रही जबकि मे अपने भोलेपन पर ख़ुद को धिक्कारता रहा। ताज्जुब की बात ये भी थी की एक पल के लिए भी उस लड़की ने ये सोचना गवारा नही किया की उसके एस तरह के व्यवहार से उसकी पोल पट्टी खुल गई है। शायद इसलिए उसने इसकी परवाह नही की, क्योंकि वो आज की लड़की है। हमारे दौर की नही। मे आज भी उस घटना को स्मरण करता हूँ तो ख़ुद पर हंस देता हूँ।
-ओमकार चौधरी
तटबंध
तोड़ती है तटबंध
आ जाती है प्रलय
मच जाती है तबाही
उजड़ जाती हैं बस्तियां
और बहुतों के सुहाग
रास्ता बदल लेना
नदी की फितरत नही है
ये अलग ही दौर है
नदियाँ रास्ता बदल लेती हैं
और मच जाती है तबाही
अकेले कोसी को दोष मत दो
जिसे देखो, जिधर देखो
नदियाँ तोड़ रही है तटबंध
बदल रही है रास्ता
बस्तियां उजडती हों उजडें
तबाही होती है तो हो
प्रलय और तबाही से
भला उनका क्या वास्ता
ये आज के दौर की नदियाँ हैं
रास्ता बदलती है
उफनती हैं
तो इसकी वजह वे नही
बल्कि हालात हैं
नदियों को दोष क्यो देते हो
उनकी मर्यादा किसने भंग की ?
उन्हें तटबंध तोड़ने को
किसने विवश किया ?
सोचोगे
तो उसे नही
ख़ुद को कोसोगे
-ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com
Monday, August 25, 2008
तेरे मेरे बीच
जब से से ये पुल हुआ है जर्जर
तब से न संवाद है न शब्द है
न मै मै हूँ न तुम तुम हो
वो भी एक वक्त था
तुम्हे याद हो न याद हो
शब्द भी न कम थे
बातें भी थी हजारों
न तुम ही थकते थे
न मै लेता था उबासी
दिन-रात, सुबह शाम
दोपहर हो के बरसात
चिलचिलाती धूप या शरद रात
करते थे बातें, गूंथते थे शब्द
वो खिलखिलाना, वो चुलबुलापन
वो शरारतें, न छूटने वाली आदतें
वो तुम्हारा घुडकना, अक्सर रूठना
एक दो रोज रूठे रहना
चुपके से मान जाना
न रह पाते थे तुम भी
न रह पाते थे हम ही
बारीशों ने गज़ब ढाया
धूल अंधडों ने भरमाया
बाढ़ आई, हुआ कीचड़ ही कीचड
घुटनों तक दलदल,
हर पथ-हर पग
पुल हुआ कमजोर
दरका, दहला, कांपा, टूटा
अब लटका हुआ वो पुल है
कुछ अवशेष ही है शेष
वो भी एक दौर था
न तुम्हारे पास कमी थी
न मेरे पास कमी थी
शब्दों की, बातों की
अब न तुम्हारे पास शब्द है
न मेरे पास शब्द है
होठ सिले, जुबां बंद है
न तुम रह गए तुम हो
न हम रह गए हम है
- ओमकार चौधरी
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