Sunday, September 28, 2008

तुम अगर साथ देने का वादा करो..

बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी, ख्वाबों ही में हो चाहे मुलाकात तो होगी.
तुम अगर साथ देने का वादा करो, मै यूँ ही मस्त नगमे सुनाता रहूँ.
तू हुस्न है मै इश्क हूँ, तू मुझमे है मै तुझ में हूँ
आधा है चंद्रमा रात आधी, रह न जाए तेरी मेरी बात आधी
तेरे प्यार का आसरा चाहता हूँ, वफ़ा कर रहा हूँ, वफ़ा चाहता हूँ.
किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है....
मेरा प्यार वो है के मरकर भी तुमको जुदा अपनी बाँहों से होने न देगा...
प्यार के इन मधुर गीतों को स्वर देने वाले महेंद्र कपूर नहीं रहे, यह ख़बर सुनकर दिल धक् सा रह गया. किशोर कुमार, मुकेश और मुहम्मद रफी की कड़ी के एक और पार्श्व गायक चले गए. इन सभी की अपनी एक खास पहचान थी. मुकेश दर्द भरे गीतों के जाने गए तो रफी ने हर तरह के गीत गाए. किशोर का अपना ही अंदाज़ था। उछल कूद से लेकर उन्होंने तेरी दुनिया से होके मजबूर चला, मै बहुत दूर..बहुत दूर..बहुत दूर चला..जैसे बेहद संजीदा गीत भी गाए. महेंद्र कपूर ने देश भक्ति गीतों से अपनी खास पहचान बनाई. हालाँकि उन्हें इसकी शिकायत भी रही कि उनके गाए प्यार के मस्त नगमों को नजर अंदाज कर दिया जाता है और लोग देश भक्ति के उनके गाने याद करते हैं. खासकर मनोज कुमार ने अपनी फिल्मों में उनसे देश भक्ति के गीत गवाए. मेरे देश की धरती सोना उगले..उगले हीरे मोती..है प्रीत जहाँ की रीत कि सदा..मै गीत वहां के गता हूँ, भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात सुनाता हूँ और दुल्हन चली..हो रे पहन चली..तीन रंग की चोली..जैसे गीत अमर हो गाए. फ़िल्म पूरब और पश्छिम में उनकी गयी आरती ओइम जय जगदीश हरे..तो इस कदर लोकप्रिय हुई कि आज भी एक बड़े वर्ग में घर घर गाई जाती है. कोई धार्मिक अनुष्ठान हो और उसी धुन में आरती न गयी जाए, ऐसा सम्भव नहीं

एक गीत की रिकार्डिंग के मौके पर रफी, मुकेश और आशा भोंसले के साथ महेंद्र कपूर

1934 में देश के प्रमुख सांस्कृतिक शहर अमृतसर में जन्मे महेंद्र कपूर को मायानगरी में अपना स्थान बनने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा था। एक प्रतियोगिता के जरिये वे चुने गए. हुस्न चला है इश्क से मिलने॥उनका पहला गीत था, जिसने उन्हें चर्चा में ला दिया. बहुत कम लोग जानते हैं कि शुरू में मुहम्मद रफी ने उन्हें काम दिलाने में बहुत मदद की थी. बाद में जब किशोर कुमार ने फ़िल्म इंडस्ट्री में कदम रखा तो एक दौर ऐसा भी आया कि जब निर्माता निर्देशकों ने केवल किशोर से गाने गवाना शुरू कर दिया. रफी और महेंद्र कपूर लगभग खाली होकर बैठ गए. उस दौर के बारे में ख़ुद महेंद्र कपूर ने एक रेडियो इंटरव्यू में एक बार खुलासा किया था. वे 74 के थे. बीमारी ने उन्हें आ घेरा था. हम सबके लिए यह दुखद ख़बर है, जो उनके गीत गुनगुनाते हुए बड़े हुए हैं. दुखद यह भी है कि निकाह के बाद उन्हें फिल्मों में काम मिलना लगभग बंद हो हो गया था. वे धार्मिक कार्यकर्मों में गाते हुए नजर आने लगे थे. किशोर, रफी और मुकेश के दौर के एक और बेहतरीन गायक हमसे रुखसत हो गए. जब भी उनका ये गीत सुनेंगे..तब उनकी बहुत कमी खलेगी.. तुम अगर साथ देने का वादा करो..में यूँ ही मस्त नगमे सुनाता रहूँ
ओमकार चौधरी



Saturday, September 27, 2008

पाटिल साहब देश को जवाब दें


दिल्ली में फ़िर धमाका हुआ है। इस बार निशाने पर दक्षिण दिल्ली का महरोली इलाका रहा। दो सप्ताह पहले ही तो दिल्ली में सीरियल धमाके हुए थे, जिनमें पचास से ऊपर बेक़सूर मारे गए थे। राजधानी में आतंकवादियों की खून की होली यह बताने को काफी है कि उनकी पैठ कितनी गहरी है वे चाह रहे हैं, वहां हमले करने में कामयाब हैं। केन्द्र की यूपीए सरकार आतंक पर लगाम लगाने में नाकाम सिद्ध हो रही है। वक्त आ गया है जब ग्रह मंत्री शिवराज पाटिल को अब देश को जवाब देना ही होगा।
वैसे भी वे विपक्ष के साथ-साथ अपने सहयोगी दलों के भी निशाने पर हैं। लालू यादव ही नहीं, बाहर से सरकार को समर्थन देने वाली समाजवादी पार्टी के भी निशाने पर वे आ चुके हैं। सरकार के कई घटक दलों का मानना है कि ग्रह मंत्री के तौर पर पाटिल कम से कम आतंकवाद के मोर्चे पर पूरी तरह नाकाम साबित हुए हैं। उनकी सरपरस्ती मे कश्मीर से लेकर असम तक की समस्या और अधिक उलझी है। अब सोनिया गांधी को भी पाटिल के सम्बन्ध में निर्णय लेना ही होगा।
अब तक के घटनाक्रम से ये साफ हो गया कि वह राज्यों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित करने में असफल रहे हैं। न वे खुफिया तंत्र को चुस्त चौकस कर पाएं हैं और न ही आतंकवादी संगठनों की लगाम कस पाएं हैं। हाल की घटनाओं से तो लगता है कि आतंकवादी अब बेखौफ होकर अपने नापाक मंसूबों का पूरा करने में लगे हैं।
जब केन्द्र में अटल बिहारी बाजपाई की सरकार थी, तब भी एक दौर ऐसा आया था, जब आतंकवादी खुलकर खेल रहे थे। संसद से लेकर अयोध्या तक और संकटमोचन मन्दिर से लेकर जम्मू कश्मीर विधान सभा तक पर अटैक कर रहे थे, तब यही शिवराज पाटिल लोकसभा में राजग सरकार को पानी पी पीकर कोसते थे। अब वे चार साल से गृहमंत्री हैं तो देश को बताएं कि निर्दोषों के खून कि ये होली रोकने में वे क्यों नाकाम सिद्ध हो रहे हैं।
ओमकार चौधरी

पत्रकारिता के ये कौन से मानदंड हैं ?

पत्रकारिता के पेशे में हम लोगों को कई बार अपमान के कड़वे घूँट पीकर चुप रहना पड़ता है. इस बार भी चुप रह सकता था, लेकिन हरकत ही ऐसी हुई है कि चुप नहीं रहा जा सकता. अमर उजाला में मैंने साढे सात साल से अधिक समय बिताया है. उसी अख़बार के किसी अधिकारी ने 26 सितम्बर को ऐसी हरकत की है जिसे चुप रहकर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. मुझे पता नहीं कि ये बात अमर उजाला के निदेशक अतुल महेश्वरी और ग्रुप एडिटर शशि शेखर की जानकारी में है कि नहीं. मुझे व्यक्तिगत रूप से इस अवांछित हरकत ने भीतर तक पीड़ा पहुंचाई है. आम तौर पर मै शांत रहता हूँ. छोटी-मोटी बातों को वैसे भी पेशागत मजबूरियों के चलते हम लोग पीते ही रहते हैं. जो हुआ, उसे पीना और हज़म करना मुश्किल नहीं, असंभव है.
मै तीस सितम्बर तक DLA के मेरठ संस्करण से बतौर रेजिडेंट एडिटर जुड़ा हूँ. एक अक्तूबर से हरिभूमि से फ़िर जुड़ने जा रहा हूँ. वहां पहले भी तीन साल काम कर चुका हूँ. मै पिछले छब्बीस साल से पत्रकारिता जगत में हूँ. कभी न ऐसी हरकत किसी के साथ की और न ही ये मेरे स्वभाव में है कि बर्दाश्त की जाए. ये इन्टरनेट युग है. मेरे जैसे बहुत से पत्रकार हैं, जो ब्लोग्स पर भी कुछ न कुछ लिखते रहते हैं. मेरा भी आजकल के नाम से ब्लॉग है. मैंने 24 सितम्बर को शबाना आज़मी के एक बयान पर नई पोस्ट डाली थी. इसमे उनकी इस पीड़ा को रेखांकित किया गया कि पाँच-सात सिरफिरे लड़कों के कारण आजमगढ़ जैसे रवायती शहर को ये प्रचारित कर बदनाम नहीं किया जाना चाहिए कि वहां आतंकवादियों की नर्सरी तैयार हो रही है.
अमर उजाला ने एडिट पेज पर हाल ही में ब्लॉग कोना नाम से नया कालम शुरू किया है. इसमे ब्लोगर ताज़ा मसलों पर क्या लिख रहे हैं, उसे लिया जाता है. 26 सितम्बर के संस्करण में शबाना आज़मी पर लिखे गए मेरे लेख को इसमे लिया गया है शबाना आज़मी की पीड़ा को समझिये शीर्षक से. एडिट पेज देख रही डेस्क ने ब्लॉग के साथ मेरा नाम भी नीचे दिया, जैसा कि व्यवस्था है. लेकिन जिसने पेज चेक किया, उसने ओमकार चौधरी नाम को खुरचकर हटा दिया और बेशर्मी के साथ ब्लॉग का नाम आजकल जाने दिया. मै इस हरकत को उजागर करने के लिए यहाँ अख़बार में छपे अंश को स्केन करके एज इट इज डाल रहा हूँ. मजेदार बात ये है कि दूसरे ब्लोगर का नाम पूरे सम्मान और आस्था भाव से प्रकाशित किया गया है.
यहाँ से नाम खुरच देने से क्या मनोरथ पूरा हुआ, ये समझ से बाहर की बात है. मै ये भी समझ पाने में असमर्थ रहा कि मेरा नाम प्रकाशित हो जाने से कौन सा जलजला आने वाला था. अमर उजाला में रहते हुए मेरा नाम पाँच सौ बार तो छपा होगा. मेरे पास ऐसी बहुत सी कटिंग्स हैं, जो अमर उजाला में लीड बनकर छपी हैं, वो भी बाई लाइन. मै ये समझ पाने में असफल हूँ कि अगर इतनी ही परेशानी थी तो मेरे ब्लॉग से टिप्पणी ली ही क्यों गई ? और ली, तो ये हरकत क्यों की गयी ? ये पत्रकारिता के कौन से मानदंड स्थापित किए जा रहे हैं ? इन 26 सालों में मै खूब छपा हूँ. आज भी छप रहा हूँ. ये सिलसिला अन्तिम साँस तक जारी रहेगा. किसी एक जगह से किसी का नाम खुरच देने से क्या किसी की हस्ती मिटाई जा सकती है ? कोई कहीं भी क्यों न बैठा हो, उसे अपने आपको खुदा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए. तकदीर यहाँ बैठकर नहीं लिखी जाती हैं. या तो ऊपर वाले की मेहर होती है या फ़िर आदमी अपनी मेहनत से ख़ुद लिखता है.

आज़मी पर लिखी मूल पोस्ट
( नीचे क्लिक करें )
शबाना आज़मी की पीड़ा


ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

यहाँ अमर उजाला के एडिट पेज पर की गयी इस हरकत को आपके
लिए दे रहा हूँ. पढने के लिए स्केन करके डाले गए लेख पर क्लिक करें



Thursday, September 25, 2008

शबाना आज़मी की पीड़ा


फ़िल्म अभिनेत्री और पूर्व राज्यसभा सदस्य शबाना आज़मी मीडिया से नाराज हैं. मीडिया के खुलेपन और निष्पक्षता पर भी उन्होंने गंभीर सवाल खड़े किए हैं. उनकी नाराजगी की वजह मीडिया द्वारा उनके गृह जिले आजमगढ़ को आतंकवादियों की नर्सरी बताना है. मीडिया के रवैये पर काफी क्षुब्ध शबाना पूछ रहीं हैं कि पॉँच-सात सिरफिरे लोगों के कारण क्या किसी पूरे इलाके को बदनाम किया जाना सही है ? आपको बता दें कि हाल ही में दिल्ली में हुए बम धमाकों के बाद दिल्ली पुलिस ने जामिया नगर में मुठभेड़ के बाद जिस सैफ को गिरफ्तार किया, वो आजमगढ़ का रहने वाला है. पुलिस की मानें तो उस से हुई पूछताछ में ये रहस्य उदघाटन हुआ है कि उस समेत सात युवक इन धमाकों को अंजाम देने में शामिल रहे है. इनमे से अधिकांश आजमगढ़ के रहने वाले हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि सैफ के पिता पहले ही कह चुके हैं कि अगर उनका बेटा दोषी है तो वे ख़ुद चाहेंगे कि उसे सख्त सजा मिले. अकेले शबाना ही नहीं, पूरा आजमगढ़ शर्मसार है. बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि अधिसंख्य मुसलमान मुठ्ठी भर भटके हुए लड़कों के कारण बेहद व्यथित हैं. आजमगढ़ कैफी आज़मी का जिला है और उन्होंने अपना आख़िर का बहुत सा समय वहीं बिताया था. आज अगर मीडिया कुछ सवाल उठा रहा है तो इसकी वजह भटके हुए चंद सिरफिरे लड़के हैं, जिन्होंने आज़मी परिवार की इस बेहद कामयाब अभिनेत्री और समाजसेविका की पीड़ा को भी बाहर ला दिया.
आज़मी परिवार की निष्ठा पर कौन संदेह कर सकता है ? कैफी आज़मी की विचारधारा वामपंथी थी लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कम्युनिष्टों जैसा व्यव्हार नहीं किया. देश की तरक्की के लिए किए जाने वाले प्रयासों का उन्होंने कभी विरोध नहीं किया, जैसा आज के कम्युनिष्ट करते हैं. वैसे भी उनकी सक्रिय राजनीति में खास दिलचस्पी नहीं रही. बहरहाल, बात आजमगढ़, शबाना की नाराजगी और मीडिया की भूमिका की हो रही थी. शबाना जैसे तरक्की पसंद लोगों को भी गंभीरता से सोचना होगा कि आख़िर ये हालात क्यों बन रहे हैं. हालांकी समय-समय पर ख़ुद शबाना और जावेद अख्तर ने आतंकवाद की निंदा की है लेकिन उन जैसे सही सोच वाले मुसलमानों को आगे आकर इस तरह की वहशियाना हरकतों की और कड़े शब्दों में निंदा करनी होगी. जहाँ तक मीडिया की भूमिका का सवाल है, उस पर निश्चित रूप से गहरे मंथन की जरूरत है. अमेरिका में 2001 में 11 सितम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए घातक हमले के बाद वहां के मीडिया ने न तो मारे गए लोगों के शव टीवी चेनल्स पर दिखाए और न ही किसी पीड़ित परिवार को रोते बिलखते हुए दिखाया. हमारे यहाँ तो लाइव कवरेज़ में क्या क्या नहीं दिखाया जाता. आतंकवादियों का असल मकसद तो हमारे ये चेनल्स ही पूरा करने में लगे हैं. वे तो एक छोटे से इलाके में बम धमाके करते हैं, मीडिया उसे लाइव दिखाकर पूरे देश ही नहीं, विश्व भर में पहुँचा देता है. इसे देख कर लोगों के मन पर कितना बुरा असर पड़ रहा है, इसका अंदाजा मीडिया को नहीं है, उसे केवल टीआरपी दिखाई देती है. चेनल्स की आपसी प्रतिद्वंदिता ने सारी मर्यादाओं को तार-तार कर दिया है. सूचना देने के अधिकार का यह कतई मतलब नहीं है कि देश और समाज पर पड़ने वाले असर की पूरी तरह अनदेखी कर दी जाए.
आजमगढ़ को बदनाम न करें
आज़मी की इस पीड़ा को समझा जा सकता है. मुठ्ठी भर लोगों की कारस्तानी के लिए न तो किसी कौम को कटघरे में खड़ा करने की कोशिशें होनी चाहिए और न ही किसी गौरवशाली परम्परा के शहर को इस तरह बदनाम करने के प्रयास होने चाहिए. सही बात तो यह है कि मीडिया को आज अपनी भूमिका, जिम्मेदारी और समाज व देश के प्रति जवाबदेही पर गंभीर मंथन करना चाहिए. महज सूचना देने के अधिकार के नाम पर जिस तरह सनसनी फैलाने की कोशिश मीडिया करता है, उस पर अब सही सोच के लोग सवाल खड़े करने लगे हैं. खास कर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में होड़ लग गई है. यह होड़ ख़त्म होनी चाहिए. मीडिया को सोचना होगा कि इस होड़ में कहीं वह जाने अनजाने किसी का मनोरथ तो पूरा नहीं कर रहा है ?

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

आजमगढ़ को बदनाम न करें

ख़बर पढने के लिए कृपया उस पर क्लिक करें
शबाना आज़मी का एक बयान हिंदुस्तान समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ है. उन्होंने मीडिया की भूमिका पर गहरे सवाल खडे किए हैं. यह एक बहस का मुद्दा है. उस बयान को यहाँ देकर में आपको मीडिया की भूमिका पर राय जाहिर करने के लिए आमंत्रित करता हूँ.

Monday, September 22, 2008

उनके हाथ परमाणु बम आ गया तो ?


एक कहावत है, बोया पेड़ बबूल का फ़िर आम कहाँ से आए. पाकिस्तान पर ये एकदम सटीक बैठती है. हमारा पडौसी देश जल रहा है. जिस तरह की तबाही वहां देखने को मिल रही है, उससे आम पाकिस्तानी ही नही, दक्षिण एशिया के बाकी देश भी हिलकर रह गए हैं. नए चुने गए राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी भले ही हुंकार भरें कि वे आतंकवाद को पाकिस्तान की जमीन से उखाड़ फेंकेंगे, परन्तु वास्तविकता यही है कि बेनजीर की निर्मम हत्या के बाद से न केवल वहां के तमाम नेता बेहद खौफ खाए हुए हैं बल्कि आम आदमी भी ख़ुद को असुरक्षित महसूस करने लगा है. पाँच सितारा होटल मेरियट में हुए अब तक के सबसे बड़े और खतरनाक धमाके से पाकिस्तान की छवि विश्व जगत में और भी ख़राब हुई है. अलकायदा समर्थित आतंकियों की करतूत से फ़िर यह साबित हुआ कि पाकिस्तान की जमीन आतंकियों की पनाहगाह बनी हुई है. जैसी कि खबरें वहां से आ रही हैं, उनके निशाने पर आसिफ अली जरदारी थे. वे संसद को उड़ना चाहते थे. अभी पिछले सप्ताह ही वहां के प्रधानमंत्री गिलानी को निशाना बनने की कोशिशें की गयी थीं. इससे साफ है कि न केवल पाकिस्तान, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के हालत बेहद खतरनाक मोड़ लेते जा रहे हैं.
पाकिस्तान ही नहीं पूरा भारतीय उपमहाद्वीप बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है. खुदा न खास्ता अलकायदा के हाथों अगर परमाणु बम लग गया या उसने बम बनाने की तकनीक हासिल कर ली तो इसके भयंकर परिणामों की आप और हम कल्पना भी नहीं कर सकते. जिस तरह अलकायदा अपने मंसूबों में कामयाब हो रहा है, लगता है कि वह परमाणु बम भी विकसित कर ही लेगा. आतंकवादी संगठन इंसानी जानों से ही नहीं खेल रहे हैं, वे मानवता का खून भी कर रहे हैं. लोकतान्त्रिक व्यवस्था को ध्वस्त करने में लगे हैं. वे पढ़े लिखे समाज और दुनिया के दिलों-दिमाग में आतंक पैदा करके उसे कुंद कर देने की खतरनाक साजिश रच रहे हैं. जब शान्ति भंग होती है तो विकास अपने आप रुक जाता है. अगर शान्ति और तरक्की पसंद समाज और दुनिया को मानसिक तौर पर अपंग बनने में इन ताकतों को कामयाबी मिल गयी तो समझ लीजिए कि हालात कितने खतरनाक हो सकते हैं.
भारत पिछले दस वर्षों से पूरी दुनिया को चेताने की कोशिश कर रहा है कि पाकिस्तान के हुक्मरान बेहद खतरनाक खेल खेल रहे हैं. वे दहशतगर्दी के बीज बो रहे हैं. पाकिस्तान में आतंकवाद की फसल तैयार करने की छूट दी जा रही है. भारत ने अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र महासभा और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को पक्के सबूत दिए कि वहां आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर लगाए जा रहे हैं. भारत पाकिस्तानी साजिश का पहला शिकार रहा है. 1971 की शिकस्त को वहां के हुक्मरान न भूले हैं, न भूल पाएँगे. वे समझते हैं कि आमने-सामने के युद्ध में भारत से वे कभी नहीं जीत पाएँगे. इसलिए आतंकवादी तैयार करो. सीमा पार कराओ. जितनी तबाही उनके जरिये कराई जा सकती है, कराएं. यह भारत के खिलाफ पाकिस्तान का छदम युद्ध है. 11 सितम्बर 2001 को जब वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अटैक हुआ और इन्वेस्टिगेशन में अमेरिका को पता चला कि उसके पीछे ओसामा बिन लादेन के गुर्गों का हाथ है तो उसे इस भीषण त्रासदी के भयानक अंजाम का अहसास पहली बार हुआ. विमानों को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से टकराने वाले आतंकियों में से कुछ पाकिस्तान मूल के थे.
अब अमेरिका की समझ में आ चुका है कि पाकिस्तान पूरे विश्व की बर्बादी का कारण बन चुका है. वहां पनाह पाते रहे आतंकवादी किसी भी दिन परमाणु बम हासिल कर तबाही मचा सकते हैं. अब अमेरिका पाकिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की बात कर रहा है. वह भी तब जबकि पानी सर से ऊपर बहते हुए एक अरसा हो चुका है. पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी को बेनजीर भुट्टो को खो देने के बाद भी आतंवादियों की ताकत का वास्तविक अंदाजा नहीं हुआ है. मेरियट होटल का धमाका बहुत बड़े संदेश देकर गया है. पाकिस्तान को इस एक धमाके का कितना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा, इसका अंदाजा अभी वहां के हुक्मरानों को नहीं है. तबाही मचाने वाली मानवता विरोधी आतंकवादियों की ये जमात विश्व की तबाही का सबब बन सकती है. अब पाकिस्तान की समझ में आ जाना चाहिए कि दूसरों के लिए उसने जो साँप पाले थे, वे अब उसे ही डसने पर आमादा हैं. अगर समय रहते इसका फन नहीं कुचला गया तो आज मेरिअट होटल जला है, आने वाले समय में पूरा पाकिस्तान जलता हुआ नजर आएगा.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Friday, September 19, 2008

पगली / कहानी

बेगम पुल से आबूलेन मार्केट की तरफ़ मुडा तो वही चित परिचित आवाजें कानों में गूंजने लगीं. पगली आज फ़िर चीख चिल्ला रही थी. सड़क पर भीख मांगने वाला राजू उसे रानी मुखर्जी कह कह कर चिढा रहा था.
'रुक जा साले..तुझे अभी बताती हूँ'
' आ जा आ जा..और तेज भाग..खाकर पड़ी रहती है ' फ़िर चिढाया उसने.
' नरक में जाएगा हरामी ' कहकर वह फ़िर उसके पीछे दौडी.
' तू भी पीछे पीछे वहीं पहुँच जाएगी पगली '
' अभी बताती हूँ तुझे..' कहकर वह फ़िर भागी.
वे दोनों सड़क के इस और उस पार इस तरह भाग दौड़ कर रहे थे कि मुझ सहित कई गाडी चालकों को बड़े तेज ब्रेक लगाने पड़े. ऐसा नहीं करते तो उनमे से कोई सा जरूर नीचे आ गया होता.

मै झल्लाकर रह गया. चीख ही पड़ा, क्या बदतमीजी है ?
आस पास के कई दूकानदार बाहर निकल आए.
उन्होंने पगली को डांटा. लड़के को वहां से भगाया.
पगली बडबड़ाते हुए एक दूकान के आगे पसर गई. लड़का भीख मांगने में मशगूल हो गया. एक ही मिनट में ऐसा लगने लगा जैसे यहाँ शोर शराबा था ही नहीं.

दोपहर में मेडिकल स्टोर से दवा लेने के लिए उस तरफ़ से गुजरा तो देख कर हैरान रह गया.
पगली राजू को अपने हाथों से रोटी का टुकडा खिला रही थी. वो भी बड़े आत्मीय भावः से उसे निहारे जा रहा था. दवा लेकर लौट रहा था, तो नजरें उन्हें तलाशने लगी. वे वहां नहीं थे. थोड़ा आगे बढ़ा तो देखा, सड़क से जाने वाली छोटी सी गली में राजू पगली की गोद में सर रख कर सो रहा है. वह ख़ुद भी ऊंघ रही थी. मेरे लिए ये अलग तरह का अनुभव था. मै इन दोनों के रिश्ते पर बहुत देर तक सोचता रहा.

जिज्ञासू हूँ, इसलिए आस पास के दूकानदारों से उनके बारे मै पूछा. पगली पाँच साल से इसी एरिया में रह रही थी. राजू कुछ ही समय पहले यहाँ आया था. पता नहीं कहाँ से. एक रोज दूकानदारों ने उसे खंभे से सर टिका कर सोते हुए पाया. उसके पास कपड़े भी नहीं थे. एक निक्कर में था वह. उसकी आंख खुली तो वह सुबकने लगा. अपने बारे में वह कुछ भी बता नहीं पा रहा था. उसकी उम्र छः वर्ष रही होगी. शुरू में दूकानदारों ने उसे खाने को दिया. कुछ दिन उसने एक ढाबे पर बर्तन धोए. लेकिन जल्दी ही वहां से भाग खड़ा हुआ क्योंकि ढाबे वाला भर पेट भोजन भी नहीं देता था और मारपीट भी करने लगा था. कुछ दिन वह किसी को दिखा नही, एक दिन अचानक पगली के पास बैठे देखा. वह उसके बालों में अपनी अँगुलियों से कंघी कर रही थी.
कभी कभी दूकानदारों को लगता था कि पगली इतनी पगली नहीं है.

आबूलेन मार्केट में ही दफ्तर था, सो रोज बेगम पुल से गुजरना होता. कभी उन दोनों को लड़ते झगड़ते देखता, कभी एक दूसरे से सट कर बैठे हुए तो कभी एक दूसरे को गालियाँ निकालते. ये क्रम पिछले कई महीने से जारी है. अब आँखे भी उन्हें ढूँढने लगी थी. वे नहीं होते तो मन में एक पल को आता जरूर, कहाँ गए होंगे ? फ़िर ख़ुद ही जवाब देता, यहीं कहीं भीख मांग रहे होंगे.

उस सुबह जब वहां से गुजरा तो पगली का रुदन जैसे दिल और दिमाग को चीरता हुआ भीतर तक हिला गया. इस तरह रोते हुए तो उसे कभी किसी ने नहीं देखा था. मै जल्दी में था, तो भी मैंने गाडी को साइड में लगाया. उतरा, उसके पास गया. गली में वह राजू को गोद में लिटाए विलाप कर रही थी. आस पास काफी लोग जमा थे. पता चला, कई दिन की भूख राजू बर्दाश्त नहीं कर सका और सुबह उसके प्राण पखेरू उड़ गए. पगली उसका विछोह सहन नहीं कर पा रही थी.
कई आँखें भर आई. मैंने मन ही मन सोचा, ये दुनिया कितनी क्रूर है ? हम लोग कितने संवेदनहीन हो गए हैं ? लोग अपने ही तक इतने सिमटकर क्यों रह गए हैं ? अब आंसू बहने से क्या होगा ? राजू तो वापस नहीं लौटेगा.. पगली की तो दुनिया ही उजाड़ गई थी. अब राजू ही तो उसकी दुनिया थी.
मुझे लगा जो औरत एक अनजाने बच्चे के लिए दहाड़े मारकर इस तरह विलाप कर रही है, वो पागल नहीं हो सकती. पागल ये समाज है, जो उसे पगली पगली कहकर अपमानित करता है. बोझिल पाँव से मै गाडी की ओर बढ़ गया. अब राजू और पगली की वो लडाई मुझे कभी नहीं दिखेगी.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Wednesday, September 17, 2008

तेरे मेरे बीच की दीवार


कई दिन की बारिश में
दरकी हैं कई दीवारें
गिर गए कुछ कच्चे घर
रपटे हैं कई राहगीर

मिट्टी की सौंधी खुशबू ने
महकाया है तन मन
निकल आए हैं मेढक
नए नए गीत लेकर

एक मुद्दत बाद मिले हैं वे
हिल-मिलकर खिले हैं वे
बिछुडे हुओं के दिन फ़िर गए
बिछुडे हुए फ़िर मिल गए

बरसीं हैं मेरी भी आँखें
एक नहीं कई कई बार
फ़िर क्यों नहीं गिरती
तेरे मेरे बीच की दीवार

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

बन्दूक की संस्कृति का संधान जरूरी

किसी भी सभ्य समाज के लिए इससे अधिक चिंता की बात भला और क्या हो सकती है कि लोग सविधान और कानून पर विश्वाश करना छोड़कर बन्दूक उठा लें और हर समस्या का हल लाठी-गोली से करने की कोशिश करने लगें. हालाँकि सोचने की बात ये भी है कि लोगों का संविधान, कानून और अदालतों से भरोसा क्यों उठ रहा है. व्यवस्था से मोह भंग क्यों होता जा रहा है. सत्ता और कुर्सी पर बैठे लोग ऐसे संगठनों को पनपने का मौका क्यों दे रहे हैं, जो देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं और आम आदमी को नाइंसाफी का यकीन दिलाकर भड़काने में कामयाब होते जा रहे हैं. पूर्वोत्तर के कई राज्य अलगाववादी संगठनों के आंदोलनों के कारण कई साल तक जलते रहे . कुछ एतिहासिक गलतियों और केन्द्र के तुगलकी निर्णयों ने जम्मू कश्मीर के हालात बिगाड़ दिए. आदिवासी इलाकों की लगातार उपेक्षा का ही परिणाम है कि आज देश के सोलह राज्य नक्सली हिंसा की चपेट में हैं. समय समय पर केन्द्र और राज्यों की सरकारों ने हिंसा में लिप्त संगठनों को हथियार डालकर वार्ता की मेज पर आमंत्रित किया. बातचीत में गंभीरता की कमी रही. समस्याओं के समाधान की दिशा में प्रयास कम हुए, उन्हें उलझाए रखने की कोशिशे ज्यादा हुई. नतीजा ये हुआ कि हिंसक गतिविधियों में लगे संगठनों को सरकारों के खिलाफ दुष्प्रचार के और मौके मिल गए. अविश्वास की खाई और चौडी होती चली गई.
राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटील ने मंगलवार को नई दिल्ली में राज्यपालों के सम्मलेन में बन्दूक की इस घातक संस्कृति पर गहरी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि देश विरोधी गतिविधियों में लगे संगठनों और लोगों के खिलाफ सख्ती करनी होगी. बकौल राष्ट्रपति हमारे सामने आतंकवाद, वामपंथी उग्रवाद और विद्रोही गतिविधियाँ बड़ी चुनौती हैं. अलग अलग मकसद वाले संगठनों ने राष्ट्र के विरूद्ध एक लम्बी और स्थाई लडाई छेड़ रखी है. तेरह सितम्बर को दिल्ली में हुए विस्फोटों कि चर्चा करते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि महानगरीय आतंकवाद की ऐसी उभरती हुई घटनाओं ने विध्वंशकारी गतिविधियों को नया आयाम दिया है, जो बेहद चिंता का विषय है.
श्रीमती पाटील ने जो कहा, उससे असहमत होने की कोई वजह नही है. लेकिन क्या कभी किसी सरकार ने उन कारणों की तह में जाकर उनके समाधान की गंभीर कोशिश की है, जिनके चलते विभिन्न राज्यों में ये हालात उत्पन्न हुए हैं. केन्द्र की सरकारों ने राजनीति ज्यादा की है, समाधान खोजने के प्रयास कम किए हैं. क्या केन्द्र और राज्यों की सरकारें उन कारणों से अपरिचित हैं ? बिल्कुल नहीं. हकीकत यह है कि समस्याओं को सुलझाने की नीयत ही नहीं है. सरकारों ने छोटी-छोटी समस्याओं को इतना विकराल बना दिया है कि अब उनमे कई तरह के पेंच फंस गए हैं. कुछ संगठनों को विदेशों से भरपूर मदद मिलने लगी है. इन संगठनों के नेता अब विदेशी हुक्मरानों की भाषा में बात करने लगें हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि इन राज्यों के ज्यादातर लोग भी उनकी राय से इत्तेफाक रखते हैं. अलगाववाद की बोली को आज भी अधिकांश लोग सिरे से खारिज करते हैं.
लोग पूछते हैं कि आतंकवाद, अलाववाद और बन्दूक की इस नई संस्कृति का आख़िर समाधान क्या है ? सवाल पूर्वोतर और जम्मू कश्मीर का ही नहीं है, राज्यों में आम आदमी भी इंसाफ में देरी से इतना नाराज है कि वो ख़ुद बन्दूक उठा लेता है. ऐसे में यह प्रश्न निश्चित ही गंभीर बन जाता है. कानून, संविधान और व्यवस्था पर लोगों का विश्वास फ़िर से कायम हो, इसके लिए सबसे जरूरी है कि भ्रष्ट व्यवस्था ख़तम हो. आम आदमी को शीघ्र न्याय मिले. पुलिस, प्रशासन को चुस्त चौकस और संवेदनशील बनाया जाए. अदालतों और जजों की संख्या बधाई जाए. सरकार गवाहों की सुरक्षा की गारंटी ले. हर अपराध की सुनवाई और सजा की अवधि तय की जाए. जिन इलाकों का विकास नहीं हुआ है, वहां तुंरत प्राथमिकता के आधार पर ये काम किया जाए. इसके अलावा देश विरोधी गतिविधियों में लगे संगठनों और लोगों के खिलाफ ऐसी कठोर कार्रवाई की व्यवस्था कानून में हो कि कोई भी संगठन इस तरह की हरकत करने से पहले दस बार सोचे. जो राष्ट्र की मुख्य धारा में रहकर बातचीत करने को तैयार हैं, उनसे गंभीरता और ईमानदारी से बातचीत कर समस्याओं के निश्चित समयावधि में समाधान के प्रयास किए जाएँ. विदेशी तंत्र के दुष्प्रचार की हवा निकलने के लिए तथ्यों के आधार पर जवाब दिए जाएँ. अगर वे फ़िर भी बाज नहीं आते हैं तो उस देश से दो टूक बात की जाए.
यह शत प्रतिशत सही बात है कि नक्सलवादी समस्या, शोषितों की उपेक्षा, अभावग्रस्तता और असंतोष के कारण सोलह राज्यों तक फ़ैल चुकी है. इसका समाधान ये ही है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था को संवेदनशील, जवाबदेह, चुस्त चौकस और मजबूत बनाया जाए. उनकी समस्याओं का अविलंभ समाधान किया जाए. बेहतर प्रशासन दिया जाए. लोगों को रोजगार के ज्यादा अवसर मुहैया कराएं जाएँ. इसके अलावा अपनी पुलिस व्यवस्था को भी दुरुस्त किए जाने की जरूरत है. उसका चेहरा दमनकारी का नही, न्याय दिलाने वाले संगठन का होना बेहद जरूरी है. अगर सरकार इतनी कोशिशे कर लेती है तो जो सूरत इस समय दिखाई दे रही है, निश्चित ही वो बदलेगी.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Tuesday, September 16, 2008

श्यामलाल यादव को प्रतिष्ठित पुरस्कार






दिल्ली और कोलकाता से छपने वाले अंग्रेजी अखबार स्टेट्समैन के प्रतिष्ठित ग्रामीण पत्रकारिता को पाने वालों की सूची में अपने श्यामलाल यादव का नाम भी शरीक हो गया है। श्यामलाल यादव पिछले पांच साल से इंडिया टुडे में हैं। विशेष संवाददाता श्यामलाल को ये पुरस्कार 2007 में हरियाणा और उत्तर प्रदेश में आम आदमी से जुड़ी उनकी कुछ खबरों के लिये दिया गया है। श्यामलाल यादव इंडिया टुडे से पहले कुछ दिन अमर उजाला के दिल्ली ब्यूरो में रह चुके हैं। इससे पहले वो जनसत्ता में रहे। आजकल सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करके वो सरकार से ऐसी ऐसी जानकारी निकलवा ले रहे हैं जिनके बारे में सुनकर आम पाठक भौंचक रह जाता है। मंत्रियों और अफसरों की विदेश यात्राओं पर आरटीआई के ज़रिये उन्होने जानकारी निकलवाई और लोगों को बताया कि उनके टैक्स का कितना पैसा ये लोग बेदर्दी से उड़ा रहे हैं। हमारे साथ आप भी श्यामलाल यादव के मंगलमय और उज्ज्‍वल भविष्य की कामना कीजिये।


Saturday, September 13, 2008

बढ़ते आतंकवाद का जिम्मेदार कौन


दिल्ली में फ़िर धमाके हुए हैं. एक बार फ़िर दर्जनों मासूमों को अपनी कीमती जान से हाथ धोना पड़ा. देश के ग्रह मंत्री का फ़िर वाही रटा-रटाया जवाब लोगों ने सुना. प्रधान मंत्री ने भी कोई नई बात नहीं कही. पाकिस्तान और दूसरे देशों ने भी निंदा करने की ओपचारिकता पूरी कर दी, लेकिन इस तरह के हर हादसे के बाद जिन परिवारों के चिराग बुझ जातें जातें है, उनके लिए इन बयानों के कोई मायने नहीं हैं. आख़िर कब तक हमारी व्यवस्था आतंकवाद के सामने नपुंसक बनी खड़ी रहेगी ? ये सिलसिला लंबा है. तीस साल से देश ये दंश झेलने को अभिशप्त है. दिल्ली की ही बात करें, तो कई बार इसे लहू लुहान किया गया है. देश की तकदीर लिखने वाली सरकार यहीं बैठती है. तमाम अहम् फैसले यहीं होते हैं. अब तक आम लोगों को ये ग़लतफ़हमी रही कि कम से कम दिल्ली तो महफूज रहेगी लेकिन ये भ्रम ही साबित हुआ. अभी पूरे तीन साल भी नहीं हुए हैं, जब दिवाली से ठीक पहले दिल्ली दहल उठी थी. फ़िर वाही हुआ. वो भी तब, जबकि केन्द्र सरकार को इस तरह के आतंकी हमलों की आशंका थी. आख़िर इन बेगुनाह लोगों के खून सरकार कि निगाह में इतने सस्ते क्यों हो गए हैं.
29 अक्तूबर 2005 में दिल्ली में तीन जगहों पर हुए बम धमाकों में 62 निर्दोष लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। उसके बाद से अब तक देश के कई राज्यों और शहरों में उसी तरह के धमाके हो चुके हैं जिनमें सैकडो बेगुनाह जान गँवा चुके हैं। फेहरिस्त लम्बी है। वाराणसी का संकटमोचन मन्दिर ( 7 मार्च 2006) , मुंबई की लोकल ट्रेन ( 11 जुलाई 2006) , महाराष्ट्र के मालेगांव (8 सितम्बर 2006), पानीपत में समझौता एक्सप्रेस ( 18 फरवरी 2007), हेदराबाद (25 अगस्त, 18 मई 2007), अजमेर शरीफ की दरगाह (11 अक्तूबर 2007), लखनऊ, फैजाबाद और वाराणसी ( 23 नवम्बर 2007) उत्तर प्रदेश के रामपुर (1 जनवरी 2008), जुलाई 2008 में बेंगलूर और अहमदाबाद में सिरिअल धमाके हुए ही हैं। इस से पहले जयपुर धमाकों से दहल उठा था। यानि पिछले करीब तीन साल में सैंकडो लोग काल के गाल में समा चुके हैं और चक्र घूमकर फ़िर दिल्ली आ पहुँचा है, जहाँ अपनी भारत सरकार बैठती है। जहाँ देश की तकदीर लिखी जाती है।
मुझे ये लिखने में कोई हिचक नही हो रही की ऐसा नाकारा ग्रह मंत्री देश ने कभी नहीं देखा, जैसा आज देख रहा है। वाही रटा रटाया बयान वे हर बार मीडिया में देते हैं की आतंकवादियों को ढूंढ निकला जाएगा। सरकार कड़ी कार्रवाई करेगी। देशवासी उत्तेजित न हों..वगेरा। सबको पता है कि आतंकवाद अब केवल भारत तक सीमित नहीं रह गया है। इसके तार कहाँ तक बिछे हुए हैं, इसकी जानकारी भी लोगों को है लेकिन देशवासी दो बातों का जवाब शिवराज पाटिल और मनमोहन सरकार से चाहते हैं। पहला, 9/11 के बाद फ़िर वैसी ही घटना अमेरिका में क्यों नही घट पाई और कई राज्यों के आतंकवादी निरोधक कड़े कानूनों को आज तक भी राष्ट्रपति की स्वीक्रति क्यों नहीं मिली है? लोगों का जो खून आतंकवादी बहा रहे हैं, इसकी जिमेदारी कौन लेगा? लोगों की जान माल कि हिफाजत करने की जिम्मेदारी किसकी है ? इन वारदातों को सरकार क्यों नही रोक पा रही है?



ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Thursday, September 11, 2008

दीप चंद्र तिवारी के कैमरे का कमाल














दीप चंद्र तिवारी के कुछ छायाचित्र यहाँ दे रहा हूँ. इनकी पारखी नजरें, प्रकृति की अनुपम कृतियों को ढूंढ ही लेती हैं. आपकी राय का इंतजार रहेगा.
ओमकार चौधरी

कुछ शेर आपके लिए

बरसों की दोस्ती में तारुफ़ न हो सका
दोनों की दोस्ती में इतना रख रखाव था
वो तो तुम्हारे प्यार की बरसात हो गयी
वरना मेरा वजूद दहकता अलाव था

ये और बात है कि तारुफ़ न हो सका
मै ज़िन्दगी के साथ बहुत दूर तक चला

आइना बनने से बेहतर है तुम पत्थर बनो
जब तरसे जाओगे, देवता कहलाओगे

दिल क्या चीज है, हम रूह में उतरे होते हैं
तुमने चाहा ही नहीं चाहने वालों की तरह

क्यों डराते हो कि तूफान भी आएँगे कभी
मै तो मौजों से भी टकरा के निकल जाऊँगा
मेरा वादा है चट्टानों की तरह पक्का
मै तुम्हारा दिल नहीं, जो बदल जाऊंगा

मै तेरे पास आऊं, मुमकिन ही नहीं है
दरिया से कभी जाके समंदर नहीं मिलता
तुम अपना बना लो मुझे इख्लासे वफ़ा से
वरना मेरी फितरत है, मै झुक कर नहीं मिलता

जीना है मुझे दूसरों के जहनो मै हमेशा
ऐ ज़िन्दगी, सुकरात हूँ जहर पिला दे

बेकरारी तो मेरी देख ली अब मेरा जब्त देख
इतना खामोश रहेंगे कि तुम चीख उठोगे

चुप हैं, कोई सबब है पत्थर हमें न जान
दिल पर असर हुआ है तेरी बात बात का

कितने मजबूर हैं हम अपनी अना के हाथों
रेजा रेजा भी हैं, और बिखरते भी नहीं

जाने दो हमको तूफ़ान ऐ आरजू में
जब डूबने लगेंगे, तुमको पुकार लेंगे

( बरसों पहले किसी ने मुझे ये शेर सुनाए थे. मैंने इन्हे संजो कर रखा हुआ था. मुझे नहीं पता कि ये किन शायरों के हैं, लेकिन मुझे भी पसंद हैं. आपको कैसे लगे, जरूर बताएं - ओमकार चौधरी )

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gamil.com





Tuesday, September 9, 2008

बादलों के उस पार












हाल ही में पंदुचेरी, वेल्लोर और चेन्नई की यात्रा पर गया तो बादलों के उस पार की कुछ तस्वीरें लेने का मौका मिला. आपके लिए इनमे से कुछ चुनीदा चित्र ब्लॉग पर डाल रहा हूँ



ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com














































































































Monday, September 8, 2008

राष्ट्र भाषा का अपमान क्यों

राष्ट्रभाषा का जैसा अपमान अपने देश में होता है, ऐसा कहीं और सम्भव नहीं है. कई देशों में तो ऐसा करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई तक हो जाती है. अपने यहाँ कोई किसी को भी गाली दे देता है. लगता है, जैसे यहाँ किसी को कुछ भी कहने की पूरी आज़ादी है. न किसी को संविधान की परवाह है, न मर्यादा की. न किसी की उमर का लिहाज है और न देश के प्रति किसी के योगदान का. ऐसे लोग गाँधी तक को नहीं बख्शते, जिन्होंने उनके बारे में पढ़ा तक नहीं, ऐसे लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में गाँधी के योगदान के बारे में भी कभी जानने की चेष्टा नही की. बड़े और नामचीन आदमी या हस्ती को गाली देंगे, उतनी ज्यादा पब्लिसिटी मिलती है. मीडिया ऐसे लोगों को बैठे बिठाए चमकाता रहता है. आजकल अजीब चलन शुरू हो गया है. राजनीति की दूकान चलाने के लिए हिन्दी का विरोध करो. हिन्दी भाषियों का विरोध करो. उन्हें भिखारी बताओ. यू पी, बिहार के भैये बताकर पीटो. इस से वोट बढेगा. हिन्दी की बात करने वाले को गाली दो. उसके खिलाफ पोस्टरबाजी करो, इससे वोट बैंक मजबूत होगा. इस निचले स्तर की राजनीति से राष्ट्रभाषा का अपमान होता हो तो हो. ये आश्चर्य की बात की है कि न तो सरकारें ऐसे लोगों के खिलाफ कानूनी कर्रबाई करती हैं, न ही हिन्दी के समर्थक उनके विरोध में स्वर बुलंद करते हैं. इसीलिए कहा कि ऐसा अपने देश में ही सम्भव है.
अमिताभ बच्चन और उनके परिवार का हिन्दी सिनेमा के लिए जो योगदान है, वो किसी से छिपा नहीं है. इस लिए किसी को उनकी वकालत करने की जरूरत नही है. अमिताभ इस तरह की बयानबाजी का समय समय पर अपने अंदाज में जवाब देते भी रहें हैं. खासकर महाराष्ट्र के ऐसे राजनीतिक दलों के नेताओं ने हिदी के सवाल पर बच्चन परिवार पर पिछले कुछ समय से आक्रमण बोल रखा है, जिनका जनाधार खिसक चुका है और जो काफी अरसे से सत्ता के गलियारों से बाहर है. मराठा मराठा चिल्लाकर वे मराठियों को एकजुट कर अपना खोया जनाधार हासिल करना चाहते हैं. उन्हें लगता है कि बच्चन परिवार का विरोध करेंगे और उनकी निष्ठा पर सवाल खड़ा करेंगे मुफ्त में पब्लिसिटी भी मिल जाएगी और मराठियों तक उनकी बात भी पहुँच जाएगी. ये एक अत्यन्त घटिया किस्म का हथकंडा है, जो इन लोगों ने अपनाया है. ये ये भूल जाते हैं कि महाराष्ट्र सरकार को कुल राजस्व का बहुत बड़ा हिस्सा हिन्दी फिल्मों से ही मिल रहा है. हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री को मुंबई से अलग कर दे तो वहां क्या बचेगा, इसका अंदाजा इन्हे नहीं है. शिव सेना और राज ठाकरे उन मराठियों पर रोक क्यों नहीं लगाने की जुर्रत कर रहे जो हिन्दी फिल्मों के निर्माण और निर्देशन में लगें हैं. असंख्य मराठी हिन्दी फिल्मों में गीत गातें हैं, संगीत देते हैं, कहानी लिखते हैं. संवाद लिखते हैं. उनके परिवार की रोजी रोटी का इंतजाम हिन्दी सिनेमा से हो रहा है. ख़ुद बालासाहेब ठाकरे की पुत्र वधु हिन्दी फिल्मों के निर्माण से जुड़ी हुईं हैं.
देश में संविधान को गाली देने, राष्ट्र भाषा को अपमानित और तरस्कृत करने का एक फैशन सा हो गया है. किसी की मात्रभाषा मराठी हो सकती है. किसी की गुरमुखी हो सकती है. कोई तमिल भाषी हो सकता है. कोई कन्नड़ या बांग्लाभाषी हो सकता है. उसे अपनी मात्रभाषा में बोलने से कौन रोकता है ? ये ही तो भारत की विशेषता है कि यहाँ अनेक भाषा भाषी रहतें हैं परन्तु उनमे एकता है. देश प्रेम है. एक दूसरे के प्रति सम्मान का भावः है. वे एक दूसरे के तीज त्यौहार में हिस्सा लेतें हैं. एक दूसरे कि संस्कृतियों और परम्पराओं का आदर करतें हैं. ये राज ठाकरे और बाल ठाकरे जैसे लोगों ने इस देश में कौन सी परिपाटी शुरू कर दी है ? और वह भी तुच्छ राजनीति की पूर्ति के लिए ? इनकी पार्टी के लोग किस भाषा का प्रयोग कर रहें हैं, क्या उन्हें पता नहीं है ? ये लोग महिला तक का लिहाज नही कर रहे हैं. जया बच्चन ने दो दिन पहले एक हिन्दी फ़िल्म के म्यूजिक रिलीज के मौके पर ये कहकर क्या गुनाह कर दिया कि वे तो उत्तर प्रदेश से हैं, इसलिए हिन्दी में बोलेंगे. क्या अब राजनीतिक दलों के नेता बताएँगे कि किसे कौन सी भाषा बोलनी है, कौन सी नहीं. और हिन्दी कोई गई गुजरी भाषा नही है. देश के कुछ राज्यों को छोड़कर पूरे राष्ट्र में वह बोली और समझी जाती है. अगर किसी राजनीतिक दल के नेता को ये ग़लत फहमी हो गई है कि वह राष्ट्रभाषा का अपमान करके अपना खोया हुआ जनाधार हासिल कर सकता हैं तो भ्रम में हैं. महाराष्ट्र में भी हिन्दी भाषी लोगों की संख्या कम नहीं है.
देश के सामने और बहुत सी चुनौतियां हैं, महाराष्ट्र में भी समस्या कम नहीं हैं. अच्छा हो, अगर हिन्दी का विरोध करके अपनी राजनीति चमकाने की चेष्टा करने वाले नेता लोगों के बुनियादी सवालों को हल करने के बारे मैं गंभीरता से सोचें. उन्हें हल करें, तब पूरे देश में उनका सम्मान बढेगा. राष्ट्र भाषा को गाली देकर वे सम्मान अर्जित नही कर सकते. अमिताभ बच्चन हिन्दी के जाने-माने कवि और साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन के बेटे हैं. इस परिवार का हिन्दी के लिए योगदान किसी से छिपा नहीं है. और आज अमिताभ ख़ुद दुनिया के कुछ गिने-चुने अभिनेताओं में सुमार हैं. उन्हें धमका कर या अपमानित करके ये लोग किस स्तर की राजनीति कर रहें हैं, उन्हें ख़ुद पता नहीं है. राष्ट्र भाषा को गाली देकर वे कौन सी देश भक्ति का परिचय दे रहें हैं ?

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Wednesday, September 3, 2008

चेन्नई वेल्लोर पंदुचेरी यात्रा




यात्रा वृतांत


ये चार दिन की साउथ इंडिया की यात्रा कई मामलों में यादगार रही। चेन्नई मेरे लिए नया नहीं है। मै पहले भी यहाँ तीन बार आ चुका हूँ। ये विशाल शहर हमेशा लोगों को अपनी तरफ़ आकर्षित करता है। वेल्लोर की भी मेरी ये तीसरी यात्रा थी। यहाँ स्थित मिशनरी अस्पताल पूरे देश में जाना जाता है लेकिन अब वेल्लोर टेक्नीकल यूनिवर्सिटी ने इस छोटे से क़स्बा नुमा शहर को न केवल भारत वरन विश्व के नक्शे पर ला दिया है। यहाँ चौदह हजार से अधिक होनहार लड़के लड़कियां तकनीकी ज्ञान अर्जित कर रहें हैं। मिस्टर जी विश्वनाथ ने एक बहुत खूब सूरत कैम्पस बनाया है। यहाँ से पढ़ रहे युवाओं का प्लेसमेंट ९८ प्रतिशत है। साढे चार सौ स्टूडेंट तो यहाँ केवल चाइना से आए हैं। इसके बाद पंदुचेरी की यात्रा की। ये वेल्लोर और चेन्नई से लगभग समान दूरी पर है। पंदुचेरी निसंदेह बेहद खूबसूरत है। यहाँ का समुन्दर बीच बेहद खूबसूरत है। यहाँ का जन जीवन आज भी फ्रांसीसी संसकृति की झलक दिखलाता है। करीब तीन सौ साल तक पंदुचेरी पर फ्रांस का शासन रहा है। भारत को पूरी तरह इस पर कब्जा १९६३-६४ में हासिल हुआ। यहाँ का अरबिंदो आश्रम आज भी अध्यात्म और ध्यान का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है। पंदुचेरी के चर्च और मन्दिर भी दर्शनीय हैं। यहाँ के पुराने भवन आज भी फ्रांसीसी वास्तु के दर्शन कराते हैं। पंदुचेरी का शांत वातावरण अपने आप में इसकी एक विशेषता है।


नॉर्थ से यहाँ आने वाले लोग जन जीवन ही नही सोचने समझने के तौर तरीकों में भी अन्तर महसूस करतें हैं। साउथ के इन शहरों में न उतना प्रदूषण है, न लडाई झगडे हैं और न ही चोरी-चकारी और टांग खिंचाई जितनी नॉर्थ में दिखाई देती है। शायद यही वजह है की जी विश्वनाथ प्राइवेट सेक्टर में विश्व स्तरीय कैम्पस खड़ा कर सके। तमिलनाडु में करूणानिधि और जे जयललिता की राजनीतिक जंग अपनी जगह है, लेकिन जब विकास की बात आती है तो ये लोग अड़ंगेबाजी नही करते। एक दूसरे की रह का रोडा नही बनकर खड़े होते। यहाँ के राजनीतक नेता भी कोई दूध के धुले हुए नहीं हैं। पैसा वे भी खाते हैं लेकिन काम भी कराते हैं। यहाँ बड़ी गनीमत है की अभी तक उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह राजनीतिज्ञों ने अपराधियों और माफियाओं से हाथ मिलाना नही सीखा है। हालाँकि कुछ दूसरी खराबियां यहाँ भी आ गईं हैं। करूणा निधी की गिरफ्तारी के वक्त जिस अधिकारी को मुरासोली मारांन ने पीटा था, वो आजकल रामेश्वरम में तैनात है। उसे ख़राब पोस्टिंग दी गई है। इस सबके बावजूद साउथ की विशेषताएँ आकर्षित करती हैं। मुझे व्यक्तिगत तौर पर साउथ बेहद आकर्षित करता है। यहाँ समुन्दर किनारे बैठकर थोड़ा वक्त बिताना नही भूलने वाले पल होते हैं।


ओमकार चौधरी