Wednesday, January 21, 2009

इतना न फुलाएं ओबामा का गुब्बारा

अमेरिकी राजनीति के लिहाज से 20 जनवरी 2009 का दिन वास्तव में एेतिहासिक है। इसलिए नहीं कि रिपब्लिकन राष्ट्रपति बुश की विदाई हो गई और डेमोक्रेट्स ने आठ वर्ष बाद फिर से सत्ता में वापसी की है। यह तारीख इसलिए महत्वपूर्ण हो गई है क्योंकि पहली बार एक अश्वेत बराक ओबामा ने अमेरिकी राष्ट्रपति का पद संभाल लिया है। सीनेट से राष्ट्रपति तक का उनका सफर किसी हसीन सपने को साकार कर लेने जैसा है। एक साधारण परिवार में जन्मे 47 वर्षीय ओबामा में अमेरिकन्स को आम आदमी की छवि के साथ-साथ चमत्कारिक नेतृत्व के गुण भी दिखाई दे रहे हैं। उनकी हर अदा लोगों को भा रही है। ओबामा की लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है। कभी वे वाशिंगटन के रेस्ट्रां में आम लोगों के बीच बैठकर दोपहर का भोजन कर लोगों को चौंकाते हैं तो कभी पहले रिपब्लिकन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के पदचिह्नों पर चलते हुए सपरिवार फिलाडेल्फिया से वाशिंगटन तक की यात्रा रेलगाड़ी में करते दिखते हैं। लिंकन 1860 में राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के लिए फिलाडेल्फिया से वाशिंगटन तक रेलगाड़ी में सवार होकर ही पहुंचे थे। ओबामा के लिए पागलपन इसी से पता चल जाता है कि उनके शपथग्रहण में शामिल होने के लिए लोग अमेरिका के हर कोने से वाशिंगटन पहुंचे। शपथग्रहण के टिकटों की बिक्री शुरू की गई तो सारे टिकट एक मिनट के भीतर ही बिक गए। हम अपने इलेक्ट्रोनिक मीडिया को अतिरंजना के लिए कोसते रहते हैं, लेकिन आज की तारीख में पश्चिम के मीडिया के पास ओबामा-राग के सिवा कोई दूसरा काम नहीं है। वहां की अधिकांश जनता भले ही इस सबमें ज्यादा विश्वास नहीं रखती हो, लेकिन मीडिया बराक ओबामा को किसी अवतार की तरह पेश कर रहा है। उनके तथाकथित चमत्कारिक व्यक्तित्व को लेकर अमेरीकियों की उम्मीदें कुछ ज्यादा ही बढ़ा दी गई हैं। हर किसी को लगता है कि उनके पद पर बैठते ही मंदी से छुटकारा मिल जाएगा। अभूतपूर्व वित्तीय संकट के चलते जिन लाखों लोगों की नौकरियां चली गई हैं, उनके घर फिर से खुशियां लौट आएंगी। बुश की गलत नीतियों के कारण विश्व बिरादरी में देश की जो छवि धूमिल हुई है, वह भी चुटकियां बजाते साफ-सुथरी हो जाएगी।
ओबामा ने परिवर्तन का नारा उछालकर यह चुनाव जीता है। अपने पहले भाषण में उन्होंने हालांकि कोई नई बात नहीं कही है। नया अमेरिका बनाने की बात उन्होंने कही जरूर है लेकिन वे किस तरह का अमेरिका बनाना चाहते हैं, यह आने वाला समय ही बताएगा। सभी अवगत हैं कि निवर्तमान राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने अपने आठ साल के कार्यकाल में कितनी गंभीर गलतियां की हैं। उनके राष्ट्रपति रहते वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर सबसे भीषण आतंकी हमला हुआ। अपनी निजी खुंदक निकालने के लिए उन्होंने इराक पर युद्ध थोपा। मद में चूर बुश ने अपने पिता के अपमान का बदला लेने के लिए सद्दाम हुसैन के परिवार को मारा डाला। सद्दाम को फांसी पर लटकवा दिया। खाड़ी के एक प्रगतिशील देश को खंडहर में बदलकर रख दिया। संयुक्त सेना इराक में आज भी जूझ रही है। उसे गुरिल्ला युद्ध का सामना करना पड़ रहा है। विदाई यात्रा पर इराक पहुंचे बुश का स्वागत भी इस बार एक नाराज पत्रकार ने उन पर अपने दोनों जूते फैंक कर किया। जाते-जाते उनकी सरकार पूरे विश्व को इस सदी के सबसे भयावह वित्तीय संकट में डाल गई। इराक देर-सबेर संभल जाएगा। विश्व वित्तीय संकट से उबर जाएगा, लेकिन उनके कार्यकाल में अमेरिका की जो छवि मिट्टी में मिली है, वह आसानी से वापस नहीं लौटेगी। उन्होंने अमेरिका की छवि मद में चूर एक एेसे देश की बना दी, जो न अंतरराष्ट्रीय कानूनों की परवाह करता है। न संयुक्चत राष्ट्र संघ और सुरक्षा परिषद को मानता है और न अपने विरोधियों को बर्दाश्त करने को तैयार है। बुश ने ईरान को धमकाने की कोशिशें भी कीं लेकिन वहां की सरकार ने बुश प्रशासन से दो टूक कह दिया कि ईरान पर हमला उसे बहुत भारी पड़ेगा।
बुश प्रशासन के कारनामों ने आम अमेरीकियों का भी उनसे मोहभंग किया। राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी की जो गत हुई, उसका पूरा श्रेय बुश को जाता है। इसे संयोग ही कहिए कि जब चुनाव हुए, विश्व की महाशक्ति अमेरिका के बैंक पाई-पाई को तरसते देखे गए। गलत नीतियों के चलते कई बैंक दिवालिया हो गए। पहली बार लाखों अमेरिकियों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। इतनी बुरी गत के बावजूद बुश ने खुली और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की वकालत करना नहीं छोड़ा। इन्हीं सबके चलते ओबामा का बदलाव का नारा इतना असरदार हुआ कि उसकी आंधी में रिपब्लिकंस के तंबू उखड़ गए। अब सबकी उम्मीदें बराक पर आ टिकी हैं। जार्ज बुश (6 जुलाई, 1946) की अपेक्षा बराक ओबामा (4 अगस्त, 1961) नौजवान हैं। उनमें ऊर्जा है। वश्विक वित्तीय संकट से उबरने को उन्होंने अपनी सवरे प्राथमिकताओं में रखा है। शपथग्रहण के लिए रवाना होते समय उन्होंने फिलाडेल्फिया की जनसभा में कहा भी कि हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि अमेरिका में हम जो परिवर्तन लाना चाहते थे, वो चुनाव के साथ खत्म नहीं हो गया है। बल्कि यह एक शुरुआत है। उन्होंने कहा कि वाशिंगटन यात्रा में वे अपने साथ आम अमेरीकियों की उम्मीदें भी अपने साथ ले रहे हैं।
एक अच्छी बात यह है कि ओबामा हवा में नहीं उड़ रहे हैं। जमीन पर रहकर अमेरिकंस की समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने की दिशा में सकारात्मक प्रयास करते दिख रहे हैं। उन्हें करोड़ों अमेरीकियों के साथ-साथ शेष दुनिया की उम्मीदों पर भी खरा उतरना है। अफगानिस्तान, इराक, फलस्तीन-इजरायल की बड़ी चुनौतियां तो उनके सामने हैं ही, आतंकवाद का वश्विक संकट भी मुंह बाए उनके सामने खड़ा है। वे खुद ही चुके हैं कि वित्तीय संकट से पार पाना उनकी सवरे प्राथमिकता है। कूटनीति के जानकार टकटकी लगाए व्हाइट हाउस की तरफ देख रहे हैं कि नया निजाम अपनी विदेश नीति में बदलाव लाता है कि नहीं। जहां तक भारत का सवाल है, कुछ समय पूर्व कश्मीर समस्या के निपटारे के लिए विशेष राजदूत की नियुक्ति की बात कहकर ओबामा ने खासकर दक्षिण एशिया के हालातों के बारे में अपने अल्पज्ञान का ही परिचय दिया था। यदि बराक प्रशासन ने कोई नादानी की तो बुश प्रशासन ने एटमी करार को सिरे चढ़ाकर भारत के साथ दोस्ती और विश्वास का जो नया अध्याय शुरू किया है, उसे खत्म होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। यह सही है कि ओबामा को लेकर खासकर अमेरिकंस की उम्मीदें कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं। विशेषकर पश्मिच मीडिया इस गुब्बारे में उम्मीदों की हवा कुछ ज्यादा ही भरने में लगा है। हवा उतनी ही भरनी चाहिए, जहां तक गुब्बारे के फूटने का खतरा न हो।

Sunday, January 11, 2009

इस पाकिस्तान पर कैसे भरोसा करें

जनरल परवेज मुशर्रफ के पराभव और लोकतांत्रिक शक्तियों के हाथ में पाकिस्तान की सत्ता आने के बाद लोगों ने उम्मीद की थी कि देर-सबेर अब यह देश अमन और विकास की पटरी पर लौट आएगा। चरमपंथी, अलगाववादी अलग-थलग होंगे। तबाही की इबारत लिखने वाले दफना दिए जाएंगे। स्याह रात के बाद एक खुशनुमा सुबह देखने को मिलेगी, लेकिन यह उम्मीद पालने वालों को गहरी निराशा हाथ लगी है। अपनी स्थापना के बाद से ही सेना की तानाशाही के शिकार रहे इस पड़ोसी मुल्क से फिर निराशाजनक संकेत मिल रहे हैं। जनता ने जिस सरकार को चुनकर देश को विकास और शांति के पथ पर लाने की जिम्मेदारी सौंपी थी, उसके ओहदेदार आपस में ही भिड़ते नजर आ रहे हैं। सेना और आईएसआई फिर से हकूमत पर शिकंजा कसने लगी है। पाकिस्तान में हालात बहुत पेचीदा हो चले हैं। जांच-पड़ताल से साफ हो गया है कि मुंबई हमलों में वहां की सरकारी एजेंसियों का हाथ है। बिना उनकी मदद के शस्त्रों से लैस दस आतंकवादी कराची से जलपोत पर सवार होकर मुंबई तक नहीं पहुंच सकते थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जब सरकारी एजेंसियों की भूमिका की चर्चा की तो पाकिस्तानी निजाम बौखला गया। वहां के विदेश मंत्री महमूद कुरैशी ने मनमोहन सिंह को शालीनता बनाए रखने की हिमाकत तक दे डाली। वहां के ताजा घटनाक्रम से साफ संकेत मिल रहे हैं कि सेना और लोकतांत्रिक सरकार के बीच नए सिरे से खींचतान शुरू हो गई है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के मतभेद खुलकर सामने आने लगे हैं।
एकमात्र जीवित पकड़े गए आतंकवादी अजमल अमीर कसाब के पाकिस्तानी होने की स्वीकारोक्ति राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार महमूद अली दुर्रानी को कितनी महंगी पड़ी, इसी से स्पष्ट है कि इसके कुछ ही समय बाद उन्हें पद से बर्खास्त कर दिया गया। यह घटना आईएसआई और चरमपंथी ताकतों के फिर से हावी होने के संकेत दे रही है। सेना और आईएसआई में बैठे तत्व नहीं चाहते कि पाकिस्तानी सरकार स्वीकार करे कि मुंबई के हमलावर पाकिस्तान से ताल्लुक रखते हैं। ऐसा होने पर सबसे पहले शिकंजा उसी के अफसरों पर कसा जाने वाला है। जांच और न्याय के कटघरे में वहां की नौसेना और खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों को खड़ा होना पड़ेगा क्योंकि मंबई हमले में उनकी मिलीभगत के ठोस प्रमाण भारत सरकार के पास हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की बर्खास्तगी के बाद कसाब के पाकिस्तानी होने की बात वहां की सूचना मंत्री शेरी रहमान ने भी कही। उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई क्योंकि प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी जानते हैं कि इसके बाद उनका प्रधानमंत्री बने रहना मुश्किल हो जाएगा। शेरी रहमान बेनजीर भुट्टो परिवार की करीबी हैं। जरदारी बेनजीर के मारे जाने के बाद से ही आतंकवादी जमातों पर पूरी तरह नकेल कसे जाने के पक्षधर रहे हैं। मुंबई हमले में भी वे गिलानी के रुख से सहमत नहीं बताए जा रहे हैं। नवाज शरीफ और जरदारी इस पक्ष में हैं कि आतंकवादियों का बचाव नहीं किया जाए परन्तु ऐसे में सेना और आईएसआई का असली रूप खुलकर सामने आने की आशंका है। इसलिए गिलानी अंतिम समय तक भी न नुकर के ही मूड़ में दिखाई देते रहे।
भारतीय नेतृत्व के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि वह पाकिस्तान में किससे बात करे? किस पर भरोसा करे? राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बयानों में तो विरोधाभास है ही, वहां के गृहमंत्री, विदेशमंत्री, सूचनामंत्री भी अलग-अलग जबान बोलते दिखाई दे रहे हैं। सेनाध्यक्ष कियानी से लेकर वहां के वायुसेना प्रमुख तक युद्ध की भाषा बोल रहे हैं। पाकिस्तानी निजाम पूरी तरह बेलगाम है। इस पूरे घटनाक्रम ने विश्व बिरादरी के समक्ष पाकिस्तान को पूरी तरह वस्त्रविहीन कर दिया है। अमेरिका भी यह जान रहा है कि पाकिस्तान में इस समय बेहद कमजोर सरकार है। प्रधानमंत्री का न अपनी सेना पर नियंत्रण है। न आईएसआई पर। न नौसेना-वायुसेना प्रमुखों पर और न ही मंत्रियों पर। कसाब उनका ही नागरिक है, यह स्वीकार करने में पाकिस्तानी हुक्मरानों को डेढ़ महीने का समय लग गया। जिस तरह सेना और आईएसआई का बचाव वहां के गृह मंत्रालय ने किया, उससे पूरे विश्व में यही संदेश गया है कि मुंबई हमले के पीछे पाकिस्तान सरकार में बैठे जिम्मेदार लोगों का ही हाथ है और सरकार अब उनकी खाल बचाने में लगी है।
इस मामले में पाकिस्तान पूरी तरह घिर चुका है। भारत ने हालांकि हमले के तुरंत बाद आतंकवादियों के प्रशिक्षण केन्द्रों पर हमले न करके रणनीतिक भूल की। उसे कूटनीतिक प्रयासों के बजाय इजरायल की तरह हमले करने चाहिए थे। इससे पाकिस्तान के साथ-साथ उन संगठनों को भी कड़ी शिक्षा मिलती, जो भारत को उदार और कमजोर इच्छाशक्ति वाला देश मानकर समय-समय पर हमलों के षड़यंत्रों को अंजाम देने में लगे रहते हैं। कूटनीतिक रास्ता अक्सर लंबा और थकाऊ होता है। भारत ने यह रास्ता इसलिए अपनाया क्योंकि वह जानता है कि अमेरिकी सेनाएं इस समय पाक-अफगानिस्तान सीमा पर तालिबान और अलकायदा से लड़ रही हैं। इसके अलावा विश्व बिरादरी के सामने यह साबित करना जरूरी था कि मुंबई ही नहीं, भारत पर होने वाले अधिकांश आतंकवादी हमलों के पीछे पाकिस्तान का ही हाथ रहता है। पूरे तथ्यों के साथ भारत सरकार ने दुनिया भर के देशों के सामने असलियत रखी। पाकिस्तानी हकूमत जानती है कि बहुत लंबे समय तक वह दुनिया को मूर्ख नहीं बना सकती। अगर उसने अब भी आतंकवादियों का बचाव जारी रखा तो पाक विश्व में अलग-थलग पड़ जाएगा।
मुंबई हमले में पाकिस्तान सरकार के रवैये, बदलते बयानों, कभी घुड़की तो कभी नरमी ने उसकी स्थिति हास्यास्पद बना दी है। वहां भले ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार के हाथ में सत्ता है परन्तु वह सेना और आईएसआई के हाथों की कठपुतली से अधिक कुछ भी नहीं है। यही वजह है कि भारतीय नेतृत्व की मुश्किलें और भी बढ़ गयी हैं। उसे समझ ही नहीं आ रहा है कि जिस तरह व्यवहार पाकिस्तान सरकार कर रही है, उस पर वह कैसे प्रतिक्रिया व्यक्त करे? अमेरिका ने भारत की मुश्किलें घटाने के बजाय बढ़ाने का काम किया है। उसके नुमाइंदे दिल्ली में कुछ कहते हैं और इस्लामाबाद में कुछ। सीमा पार कुछ ऐसी ताकतें भी सक्रिय हैं, जो युद्ध चाहती हैं। भारत जानता है कि युद्ध में पाकिस्तान को एक और शिकस्त देने के बावजूद आतंकवाद खत्म नहीं होगा। वह तभी खत्म होगा, जब पाकिस्तान सरकार वहां चल रहे प्रशिक्षण केन्द्रों को खुद खत्म करेगी। ऐसा तब संभव है जब विश्व बिरादरी, संयुक्त राष्ट्र संघ और सुरक्षा परिषद के साथ-साथ अमेरिका भी उस पर निर्णायक दबाव बनाए।

Monday, January 5, 2009

पाक न माने तो कार्रवाई करे भारत

मुंबई हमले के तुरंत बाद पाकिस्तान के उन ठिकानों पर हमला नहीं करके क्या भारत ने रणनीतिक चूक नहीं कर दी है, जहां आतंकवादियों के लिए प्रशिक्षण केन्द्र चलाए जा रहे हैं? भारतीय नेतृत्व ने पाकिस्तान को सबक सिखाने का एक सुनहरी अवसर गवां दिया है। संसद पर आतंकवादी हमले के बाद भी भारत के पास हमले का विकल्प था। तब दस महीने तक सेना मोरचे पर खड़ी रही। अमेरिका ने तब भी सीधी कार्रवाई नहीं करने दी। भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद पाकिस्तान ने जैश ए मोहम्मद पर पाबंदी तो लगाई लेकिन वह नाम बदलकर तबाही की इबारत लिखता रहा। पूरी दुनिया जान चुकी है कि मुंबई हमले में आईएसआई का हाथ है। अमेरिका भी जान चुका है। भारत ने सबसे पहले अमेरिकी नेतृत्व को ही विश्वास में लिया, लेकिन इसका भारत को क्या सिला मिला? एफबीआई के जरिए भारत सरकार ने पाकिस्तान को कुछ अहम सबूत भिजवाए तो उसने उन्हें मानने से ही इंकार कर दिया। पाकिस्तान का रुख पूरी तरह असहयोग का है। पहले उसने एक मात्र जीवित पकड़े गए आतंकवादी अजमल कसाब के पाकिस्तानी होने से इंकार किया। उसके बाद कसाब की चिट्ठी पर चुप्पी साध ली। फिर कहना शुरू किया कि भारत ने हमला किया तो पाकिस्तान गैरतमंद कौम की तरह खड़ा हो जाएगा और माकूल जवाब देगा। दबाव बढ़ा तो कहा कि हिन्दुस्तान पहले सबूत दे। उसके बाद पाक सहयोग करेगा। दो दिन पहले एक अखबार के जरिए कहा गया कि भारतीय एजेंसियों को आरोपियों से पूछताछ की इजाजत दी जा सकती है, वह भी अपनी जमीन पर।
अमेरिका के सुर भी बदलते रहे हैं। हाल में अमेरिका ने पाकिस्तान को सलाह दी है कि वह आरोपियों को यदि नहीं सौंपना चाहता तो उन पर अपने देश में ही मुकदमा चलाए और सजा दे। कहने का तात्पर्य यह है कि अमेरिका ने मुंबई हमले को मजाक बनाकर रख दिया है। वह ये भी भूल गया है कि इस हमले में आठ अमेरिकी भी मारे गए हैं। क्या भारत अब भी अमेरिका का मुंह ताकते रहना चाहेगा? कूटनीतिक प्रयासों का समय खत्म हो गया है। अब यह कहने का वक्त भी खत्म हो गया है कि हमारे सभी विकल्प खुले हैं। अब उन विकल्पों पर अमल करने का समय आ गया है। यह मुंबई हमले के तुरंत बाद आतंकवादी ठिकानों पर हमला न करने की गलती सुधारने का समय है।
सोमवार सुबह भारत ने नई दिल्ली में स्थित पाकिस्तान के उच्चायुक्त शाहिद मलिक को बुलाकर वे सबूत भी सौंप दिए, जिनकी मांग वहां की सरकार करती रही है। विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने फिर दोहराया कि भारत मुंबई की गलती को माफ करने के मूड़ में नहीं है। क्या मान लिया जाए कि अब जो कदम उठाए जा रहे हैं, उनसे भारत अपने अंतिम कूटनीतिक प्रयासों को आजमाने की कोशिश कर रहा है। गृहमंत्री पी चिदम्बरम सबूत लेकर वाशिगंटन रवाना होने वाले हैं। चीन सहित सभी देशों को भी सबूतों से अवगत कराने का निर्णय सरकार ने लिया है। क्या माना जाए कि पूरी दुनिया के सामने अकाट्य सबूत पेश कर भारत पाकिस्तान पर निर्णायक अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाना चाहता है? यह सलाह भी दी जा रही है कि भारत को ये सबूत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सम्मुख भी रखने चाहिए ताकि पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित कराने की दिशा में ठोस पहल की जा सके, लेकिन क्या इन प्रयासों को अमेरिका और चीन जसे देशों का समर्थन हासिल होगा? चीन मुंबई हमले पर लगातार अनर्गल बयानबाजी करता चला आ रहा है। अमेरिका पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि वह भारत से पहले अपने सामरिक हितों की रक्षा करने को तरजीह दे रहा है। वह पाकिस्तान पर मुंबई हमले के आरोपियों को भारत के हवाले करने का निर्णायक दबाव इसलिए नहीं बढ़ा रहा क्योंकि वह पाक-अफगान सीमा पर फंसा हुआ है। पाकिस्तान ने सेना की कुछ टुकड़ियां वहां से हटाकर पूर्वी सीमा पर तैनात कर दी हैं। इससे तालिबान और अलकायदा के खिलाफ सीमांत प्रांत में चल रही अमेरिका की मुहिम को झटका लगने की आशंका है।
राष्ट्रपति जार्ज बुश हों अथवा बराक ओबामा, भारत यात्रा पर कोंडालिसा राइस आएं या मार्क वाउचर, उनकी कुल कोशिश यही है कि भारत चेतावनियों से आगे न बढ़ने पाए। अमेरिका के इस अंकुश और बेजा दखल के लिए खुद भारतीय नेतृत्व जिम्मेदार है। भारत की एकता-अखंडता और प्रभुसत्ता को कायम रखने के लिए लिये जाने वाले अहम निर्णयों के लिए भी अगर वह अमेरिका का मुंह ताकता रहेगा तो उसकी आगे चलकर और भी बुरी गत होने वाली है। भारत को यह तय करना होगा कि वह अमेरिका से बराबरी के रिश्ते बनाना चाहता है या पाकिस्तान जैसे देशों की तरह उसका पिछलग्गू बनना चाहता है। भारत को इजरायल से सीख लेनी चाहिए। फलस्तीनी सरकार अगर हमास जैसे बिगडैल आतंकवादी संगठन पर लगाम कसने की जिम्मेदारी नहीं ले रही है तो इजरायल ने उसे नेस्तनाबूद करने के लिए पहले हवाई हमला किया और अब जमीनी हमला बोलकर उसे गाजा पट्टी में घुसकर सबक सिखाने का फैसला लिया है। वहां अमेरिका इजरायल के साथ है। तो वह भारत के साथ क्यों नहीं है? क्योंकि भारत उस पर दबाव ही नहीं बना पा रहा है। भारत को उसे दो टूक समझाना होगा। बताना होगा कि अनिश्चिकाल तक वह खामोश नहीं रह सकता। अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर उसकी कार्रवाई पर असर न पड़े, इसके लिए जरूरी है कि अमेरिका पाकिस्तान पर निर्णायक दबाव बनाए कि वह आतंकवादी प्रशिक्षण केन्द्रों को पूरी तरह ध्वस्त करे और वांछित आरोपियों को भारत के हवाले करे। यदि अमेरिका ऐसा नहीं करता है तो भारत को अब जुबानी जमा खर्च बंद कर सीधी कार्रवाई कर देनी चाहिए। सीमा पार बैठकर जो लोग भी भारत के खिलाफ षड़यंत्र रच रहे हैं, उन्हें सबक सिखाने का वक्त आ गया है।