अमेरिकी राजनीति के लिहाज से 20 जनवरी 2009 का दिन वास्तव में एेतिहासिक है। इसलिए नहीं कि रिपब्लिकन राष्ट्रपति बुश की विदाई हो गई और डेमोक्रेट्स ने आठ वर्ष बाद फिर से सत्ता में वापसी की है। यह तारीख इसलिए महत्वपूर्ण हो गई है क्योंकि पहली बार एक अश्वेत बराक ओबामा ने अमेरिकी राष्ट्रपति का पद संभाल लिया है। सीनेट से राष्ट्रपति तक का उनका सफर किसी हसीन सपने को साकार कर लेने जैसा है। एक साधारण परिवार में जन्मे 47 वर्षीय ओबामा में अमेरिकन्स को आम आदमी की छवि के साथ-साथ चमत्कारिक नेतृत्व के गुण भी दिखाई दे रहे हैं। उनकी हर अदा लोगों को भा रही है। ओबामा की लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है। कभी वे वाशिंगटन के रेस्ट्रां में आम लोगों के बीच बैठकर दोपहर का भोजन कर लोगों को चौंकाते हैं तो कभी पहले रिपब्लिकन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के पदचिह्नों पर चलते हुए सपरिवार फिलाडेल्फिया से वाशिंगटन तक की यात्रा रेलगाड़ी में करते दिखते हैं। लिंकन 1860 में राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के लिए फिलाडेल्फिया से वाशिंगटन तक रेलगाड़ी में सवार होकर ही पहुंचे थे। ओबामा के लिए पागलपन इसी से पता चल जाता है कि उनके शपथग्रहण में शामिल होने के लिए लोग अमेरिका के हर कोने से वाशिंगटन पहुंचे। शपथग्रहण के टिकटों की बिक्री शुरू की गई तो सारे टिकट एक मिनट के भीतर ही बिक गए। हम अपने इलेक्ट्रोनिक मीडिया को अतिरंजना के लिए कोसते रहते हैं, लेकिन आज की तारीख में पश्चिम के मीडिया के पास ओबामा-राग के सिवा कोई दूसरा काम नहीं है। वहां की अधिकांश जनता भले ही इस सबमें ज्यादा विश्वास नहीं रखती हो, लेकिन मीडिया बराक ओबामा को किसी अवतार की तरह पेश कर रहा है। उनके तथाकथित चमत्कारिक व्यक्तित्व को लेकर अमेरीकियों की उम्मीदें कुछ ज्यादा ही बढ़ा दी गई हैं। हर किसी को लगता है कि उनके पद पर बैठते ही मंदी से छुटकारा मिल जाएगा। अभूतपूर्व वित्तीय संकट के चलते जिन लाखों लोगों की नौकरियां चली गई हैं, उनके घर फिर से खुशियां लौट आएंगी। बुश की गलत नीतियों के कारण विश्व बिरादरी में देश की जो छवि धूमिल हुई है, वह भी चुटकियां बजाते साफ-सुथरी हो जाएगी।
ओबामा ने परिवर्तन का नारा उछालकर यह चुनाव जीता है। अपने पहले भाषण में उन्होंने हालांकि कोई नई बात नहीं कही है। नया अमेरिका बनाने की बात उन्होंने कही जरूर है लेकिन वे किस तरह का अमेरिका बनाना चाहते हैं, यह आने वाला समय ही बताएगा। सभी अवगत हैं कि निवर्तमान राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने अपने आठ साल के कार्यकाल में कितनी गंभीर गलतियां की हैं। उनके राष्ट्रपति रहते वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर सबसे भीषण आतंकी हमला हुआ। अपनी निजी खुंदक निकालने के लिए उन्होंने इराक पर युद्ध थोपा। मद में चूर बुश ने अपने पिता के अपमान का बदला लेने के लिए सद्दाम हुसैन के परिवार को मारा डाला। सद्दाम को फांसी पर लटकवा दिया। खाड़ी के एक प्रगतिशील देश को खंडहर में बदलकर रख दिया। संयुक्त सेना इराक में आज भी जूझ रही है। उसे गुरिल्ला युद्ध का सामना करना पड़ रहा है। विदाई यात्रा पर इराक पहुंचे बुश का स्वागत भी इस बार एक नाराज पत्रकार ने उन पर अपने दोनों जूते फैंक कर किया। जाते-जाते उनकी सरकार पूरे विश्व को इस सदी के सबसे भयावह वित्तीय संकट में डाल गई। इराक देर-सबेर संभल जाएगा। विश्व वित्तीय संकट से उबर जाएगा, लेकिन उनके कार्यकाल में अमेरिका की जो छवि मिट्टी में मिली है, वह आसानी से वापस नहीं लौटेगी। उन्होंने अमेरिका की छवि मद में चूर एक एेसे देश की बना दी, जो न अंतरराष्ट्रीय कानूनों की परवाह करता है। न संयुक्चत राष्ट्र संघ और सुरक्षा परिषद को मानता है और न अपने विरोधियों को बर्दाश्त करने को तैयार है। बुश ने ईरान को धमकाने की कोशिशें भी कीं लेकिन वहां की सरकार ने बुश प्रशासन से दो टूक कह दिया कि ईरान पर हमला उसे बहुत भारी पड़ेगा।
बुश प्रशासन के कारनामों ने आम अमेरीकियों का भी उनसे मोहभंग किया। राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी की जो गत हुई, उसका पूरा श्रेय बुश को जाता है। इसे संयोग ही कहिए कि जब चुनाव हुए, विश्व की महाशक्ति अमेरिका के बैंक पाई-पाई को तरसते देखे गए। गलत नीतियों के चलते कई बैंक दिवालिया हो गए। पहली बार लाखों अमेरिकियों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। इतनी बुरी गत के बावजूद बुश ने खुली और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की वकालत करना नहीं छोड़ा। इन्हीं सबके चलते ओबामा का बदलाव का नारा इतना असरदार हुआ कि उसकी आंधी में रिपब्लिकंस के तंबू उखड़ गए। अब सबकी उम्मीदें बराक पर आ टिकी हैं। जार्ज बुश (6 जुलाई, 1946) की अपेक्षा बराक ओबामा (4 अगस्त, 1961) नौजवान हैं। उनमें ऊर्जा है। वश्विक वित्तीय संकट से उबरने को उन्होंने अपनी सवरे प्राथमिकताओं में रखा है। शपथग्रहण के लिए रवाना होते समय उन्होंने फिलाडेल्फिया की जनसभा में कहा भी कि हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि अमेरिका में हम जो परिवर्तन लाना चाहते थे, वो चुनाव के साथ खत्म नहीं हो गया है। बल्कि यह एक शुरुआत है। उन्होंने कहा कि वाशिंगटन यात्रा में वे अपने साथ आम अमेरीकियों की उम्मीदें भी अपने साथ ले रहे हैं।
एक अच्छी बात यह है कि ओबामा हवा में नहीं उड़ रहे हैं। जमीन पर रहकर अमेरिकंस की समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने की दिशा में सकारात्मक प्रयास करते दिख रहे हैं। उन्हें करोड़ों अमेरीकियों के साथ-साथ शेष दुनिया की उम्मीदों पर भी खरा उतरना है। अफगानिस्तान, इराक, फलस्तीन-इजरायल की बड़ी चुनौतियां तो उनके सामने हैं ही, आतंकवाद का वश्विक संकट भी मुंह बाए उनके सामने खड़ा है। वे खुद ही चुके हैं कि वित्तीय संकट से पार पाना उनकी सवरे प्राथमिकता है। कूटनीति के जानकार टकटकी लगाए व्हाइट हाउस की तरफ देख रहे हैं कि नया निजाम अपनी विदेश नीति में बदलाव लाता है कि नहीं। जहां तक भारत का सवाल है, कुछ समय पूर्व कश्मीर समस्या के निपटारे के लिए विशेष राजदूत की नियुक्ति की बात कहकर ओबामा ने खासकर दक्षिण एशिया के हालातों के बारे में अपने अल्पज्ञान का ही परिचय दिया था। यदि बराक प्रशासन ने कोई नादानी की तो बुश प्रशासन ने एटमी करार को सिरे चढ़ाकर भारत के साथ दोस्ती और विश्वास का जो नया अध्याय शुरू किया है, उसे खत्म होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। यह सही है कि ओबामा को लेकर खासकर अमेरिकंस की उम्मीदें कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं। विशेषकर पश्मिच मीडिया इस गुब्बारे में उम्मीदों की हवा कुछ ज्यादा ही भरने में लगा है। हवा उतनी ही भरनी चाहिए, जहां तक गुब्बारे के फूटने का खतरा न हो।
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12 comments:
ओमकार जी, फुलाने दीजिए इन्हें ओबामा का गुब्बारा, जितना ज्यादा फुलाएंगे उतना ही जल्दी फटेगा, वैसे सही बात है कि ओबामा के आने से कोई चमत्कार नहीं होगा
Is samay Obama ko sar pe bitha rahe hai...
kal ko putle bhi yahi log jalayenge.
badiya lakh. dsekhna hai ki hava bhara ye gubbara kitni uchaie tak jata hai.
vandana
आगे आगे देखिये, होता है क्या.
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एक अलग नजरिये के साथ आपने अपनी बात को रखा। अच्छी प्रस्तुति।
Omkar ji aapki tippani satik hai. Kathani aur Karani mei ek hath ka fark rahata hai. Dekhte hai Obama ne jo itne vayede kar diye hai unko nibha payengein?
... प्रसंशनीय लेख है।
acha likha h is bindu ki traf kisi ka dhyan nahi gya
bahut hi accha lekh hai sir, aaj jitni tarif obama ki ho rahi hai pata nahi kal ho na ho, because ati buri hoti hai
ek achhe lekh ke liye badhai. obama ko logon ne spiderman samjh liya hai, jo chutki bajate hi sab samsyaon ka hal kar dega
हम और हमारा मीडिया जिसका गुब्बारा फुलाता है तो ऐसे ही फुलाता है। इस वक्त ओबामा और तालिबान की बहार है। दोनों ही वक्त रहते फूट जाएंगे।
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