Friday, February 27, 2009

कैसे याद करें इस लोकसभा को


छब्बीस फरवरी को सुबह ग्यारह बजे यह सोचकर संसद भवन पहुंचा कि 14वीं लोकसभा के अंतिम सत्र के अंतिम दिन शायद कुछ एेसे लम्हे देखने को मिलें, जिन्हें सुखद स्मृतियों में सजाकर रखा जा सके। निराशा ही हाथ लगी। संसदीय कार्यवाही में प्रश्नकाल और शून्यकाल का विशेष महत्व है। रेल, उड्डयन, पर्यटन और श्रम मंत्री ने सदस्यों के प्रश्नों के उत्तर दिए। बारह बजे शून्यकाल से पहले लोकसभा अध्यक्ष ने जरूरी विधायी कार्य निपटवाए। समितियों-मंत्रालयों के प्रतिवेदन पटल पर रखे गए। यह देखकर गहरी निराशा हुई कि प्रश्नकाल और शून्यकाल में भी सदस्यों की उपस्थिति बहुत कम थी। नजर घुमाकर देखा तो अहसास हुआ कि अधिकांश मंत्री नदारद थे। सत्तापक्ष की बैंचें भी खाली पड़ी थीं। यही हाल विपक्षी दलों की बैंचों का था। कई दलों के संसदीय दलों के नेता सत्र के अंतिम दिन के शुरुआती घंटों में सदन में नहीं थे। जनता ने 2004 में कुछ फिल्मी हस्तियों को बड़ी उम्मीद के साथ 14वीं लोकसभा के लिए चुनकर भेजा था। उनमें से अधिकांश की दिलचस्पी संसदीय कार्यवाही में बहुत कम रही। नजर दौड़ाकर देखा तो केवल जया प्रदा पीछे बैठीं नजर आईं। धर्मेन्द्र, गोविन्दा और विनोद खन्ना अंतिम दिन भी लोकसभा नहीं पहुंचे। विनोद खन्ना फिर भी जब-तब सदन में दिखाई दे जाते थे परन्तु बाकी ने कभी भी सदन की कार्यवाही के प्रति दिलचस्पी नहीं दिखाई।
यह कयास लगाए जा रहे थे कि ह्रदय की शल्य चिकित्सा के बाद स्वास्थ्य लाभ कर रहे प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अंतिम दिन सदन में पहुंचकर सबकी शुभकामनाएं लेंगे और सदस्यों को फिर से चुनकर आने की शुभकामनाएं देंगे लेकिन वे नहीं आए। सदन के नेता प्रणब मुखर्जी की सीट भी खाली पड़ी थी। पता चला कि राज्यसभा में होने के नाते शुरुआती घंटों में वे लोकसभा नहीं आए। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी दोपहर बाद सदन में पहुंची, जब सोमनाथ चटर्जी विदाई भाषण देने वाले थे। सुबह नेता प्रतिपक्ष लाल कृष्ण आडवाणी की सीट भी खाली थी। वे भी विदाई भाषण से कुछ पहले पहुंचे। सत्तापक्ष और विपक्ष की अग्रिम पंक्ति की सीटें खाली ही पड़ी थीं। सत्र के अंतिम दिन भी वैसा ही वातावरण था, जैसा पिछले पांच साल में रहा। वैसी ही बेफिक्री, वैसी ही उदासीनता। वैसा ही तौर-तरीका। लोकसभा में भले ही यूपीए सरकार के मंत्री और सांसद कम संख्या में नजर आए लेकिन सरकारी कामकाज और विधायी कार्यो को निपटा लेने में वे पीछे नहीं थे। बृहस्पतिवार की सुबह संसद में ही केबिनेट की बैठक हुई, जिसमें अनेक फैसलों पर मुहर लगाई गई। लोकसभा में बिना चर्चा के कई विधेयकों को आनन-फानन में स्वीकृति दिला दी गई। विपक्ष ने भी इसका विरोध नहीं किया।

17 मई 2004 को इस लोकसभा का गठन हुआ था। इसे कई प्रकरणों और घटनाओं के लिए याद किया जाएगा। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें गठित होने के बाद यह मानकर तेरहवीं लोकसभा को समय से पहले भंग कराने और नया जनादेश लेने का निर्णय लिया था कि हवा राजग के पक्ष में है। इंडिया शाइनिंग का नारा बुलंद किया गया। परिणाम आए तो भाजपा को बड़ा झटका लगा। बहुमत हालांकि किसी को भी नहीं मिला। कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी लेकिन 543 सीटों वाली लोकसभा में उसे डेढ़ सौ सीट भी नहीं मिलीं। भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए वामपंथियों ने कई दलों के यूपीए गठबंधन को सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया। साझा न्यूनतम कार्यक्रम बना। सोनिया गांधी नेता चुनी गईं लेकिन उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय लिया। 1984 में सिखों के कत्लेआम के बाद से कांग्रेस से नाराज सिख समुदाय के जख्मों पर वे इस बहाने मरहम भी लगाना चाहती थीं।
बहरहाल, सरकार बनीं। उसने अपना कार्यकाल भी पूरा किया लेकिन इस दौरान अनेक एेसी घटनाएं हुईं, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। 14वीं लोकसभा में सर्वाधिक 125 दागी सांसद पहुंचे। कई अपराधी सांसद मंत्री पदों से नवाजे गए। कई जेल में पड़े रहे। भ्रष्टाचार के आरोप में दस सांसदों को लोकसभा अध्यक्ष ने बर्खास्त कर दिया। उन पर पैसे लेकर संसद में प्रश्न पूछने के गंभीर आरोप लगे थे। पक्ष-विपक्ष के सदस्यों के बीच आरोप-प्रत्यारोप तो पहले भी होते थे लेकिन इस लोकसभा में बात धक्कामुक्की तक जा पहुंची। सदन में इतना शोर-शराबा और हंगामा हुआ कि अनेक बार स्पीकर को गहरी नाराजगी जाहिर करते देखा गया। कई बार उन्होंने इस्तीफे तक की पेशकश कर डाली। कुल कार्यवाही का 24 प्रतिशत समय हंगामे की भेंट चढ़ गया। सबसे कम बैठकें होने का कलंक भी इस लोकसभा के माथे पर लगा। सोमनाथ चटर्जी ने सदस्यों के आचरण को शर्मनाक बताते हुए अंतिम सत्र में यहां तक कह दिया कि देश की जनता देख रही है। इस बार आप सब हारोगे।
वामपंथियों ने मनमोहन सरकार को कभी चैन से नहीं रहने दिया लेकिन अमेरिका के साथ एटमी करार के बाद उसने समर्थन वापस लेकर सरकार को गिराने के लिए पूरी ताकत झोंक दी। शायद यही होना शेष था। संसद में शक्ति परीक्षण के समय भाजपा के तीन सांसदों ने नोटों की गड्डियां सदन में उछालते हुए आरोप लगाया कि उन्हें समर्थन देने के लिए सत्तापक्ष ने खरीदने की कोशिश की है। इन अप्रिय घटनाओं के अलावा निसंदेह कुछ अच्छे फैसले भी इस लोकसभा में हुए। सूचना के अधिकार का कानून बना। रोजगार गारंटी कानून को स्वीकृति मिली। देर से ही सही, आतंक निरोधक कानून को सख्य बनाते हुए राष्ट्रीय जांच एजेंसी के गठन पर मुहर लगी। महिला आरक्षण विधेयक यह लोकसभा भी पारित नहीं कर सकी, जिसका वादा पिछले चुनाव में किसी और ने नहीं, सोनिया गांधी ने देश की महिलाओं से किया था।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

3 comments:

222222222222 said...

सर, आज सुबह ही हरिभूमि में मैंने इस लेख को पढ़ लिया था। बाजिव चिंता है आपकी। इस लोकसभा को हम भारी मन से ही याद कर सकते हैं क्योंकि यहां इस बार भी कुछ नहीं हुआ सिवाय भाषा-खर्च के।

Anonymous said...

इस लोकसभा को वामपंथियों के ड्रामें और लोकसभा अध्‍यक्ष सोम दा के लिए याद किया जाएगा। याद किया जाएगा सोम दा का वह श्राप जिसे उन्‍होंने हंगामा कर उत्‍पात मचाते, संसद का समय नष्‍ट करते सदस्‍यों को दिया था। काश! सोम दा का श्राप सही हो। सरकार की रोजगार गारंटी योजना जैसे अच्‍छे काम भी आपने याद किए। नोटों की गड्डियां लहराने का सुपर ड्रामा भी संसद पर एक धब्‍बे की तरह हमेशा दिखेगा।

Manvinder said...

लोक सभा के भारी अवम बहुत कुछ सोचने को मजबूर करते क्षणों को आपने महसूस किया .......ये क्षण सचमुच एक नई इबारत के संकेत हैं .......इस लोक सभा को कई कारणों से याद किया जाएगा ......