Monday, April 6, 2009

सिरदर्द बनते कांग्रेस के सहयोगी

पिछले पांच साल से यूपीए सरकार का अहम हिस्सा रहे सहयोगी ही आजकल कांग्रेस पार्टी के लिए सबसे बड़े सिरदर्द बन गए हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार भुवनेश्वर में आयोजित बीजू जनता दल और तीसरे मोर्चे के नेताओं की रैली में जाने का एेलान करके कांग्रेस में हड़कंप मचाते हैं तो बिहार व झारखंड में राजनीतिक असर रखने वाले लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान लखनऊ पहुंचकर समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव से हाथ मिलाकर एेलान कर रहे हैं कि वे 134 लोकसभा सीटों वाले इन तीनों राज्यों में साझा तौर पर चुनाव प्रचार करेंगे। यूपीए के सहयोगियों की यह नाफरमानी कांग्रेस नेताओं की आंखों में चुभ रही है, लेकिन ये एेसे दल और नेता हैं, जिन्हें न निगलते बन रहा है, न उगलते। चुनाव परिणामों के बाद यही नेता तय करने की स्थिति में होंगे कि केन्द्र में बनने वाली सरकार का स्वरूप क्या हो।
कांग्रेस को पिछले दिनों एक के बाद एक, कई राजनीतिक झटके लगे हैं। यूपी में मुलायम सिंह यादव कांग्रेस के प्रभाव में नहीं आए। उन्होंने 17 सीटें कांग्रेस को आफर की। कांग्रेस दस एेसी सीटें भी चाह रही थीं, जो 2004 में समाजवादी पार्टी ने जीती थीं। कौन मूर्ख अपनी जीती हुई सीटें सहयोगी दल को देने की भूल कर सकता है? मुलायम ने कांग्रेस से हाथ नहीं मिलाकर एकला चलो का रास्ता अख्तियार करना मुनासिब समझा। बिहार में भी कांग्रेस कम से कम आठ सीटें चाहती थीं। लालू-पासवान 2004 में उसकी जीती हुई तीन सीटों से अधिक देने पर राजी नहीं हुए। नतीजा? कांग्रेस वहां भी पैदल हो गई। झारखंड में उसे शिबू सोरेन के बेटे ने यह कहकर झटका दे डाला कि कांग्रेस पहले घोषणा करे कि विधानसभा चुनाव के बाद शिबू सोरेन ही उसे मुख्यमंत्री के रूप में मान्य होंगे।
पिछले सप्ताह तमिलनाडु के एक प्रमुख घटक पीएमके ने यूपीए से किनारा कर जे जयललिता से हाथ मिला लिया। पीएमके नेता अंबुमणि रामदौस ने पांच साल तक स्वास्थ्य मंत्री रहकर सत्ता का सुख लूटा, लेकिन चुनाव आते ही वे दूसरे खेमे में छलांग मार गए। महाराष्ट्र में कांग्रेस का शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से सीटों का तालमेल बहुत झैं-झैं के बाद हो सका, लेकिन बिहार, उड़ीसा, उत्तराखंड, मेघालय और सिक्किम में कांग्रेस ने उसके साथ सीटों का तालमेल करने से इंकार कर दिया। नतीजतन पवार ने उन राज्यों में या तो अकेले लड़ना तय किया अथवा दूसरे गठबंधन सहयोगी तलाश लिये। उड़ीसा में उसका गठबंधन तीसरे मोर्चे के नेताओं के साथ खड़े बीजू जनता दल नेता नवीन पटनायक से है और इसी कारण वे शुक्रवार को भुवनेश्वर में आयोजित रैली में जाने वाले थे।
पिछले कई दिन से मीडिया में यूपीए के सहयोगी और केन्द्र में अब भी मंत्री शरद पवार, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान छाए हुए हैं। कांग्रेस को लगता है कि उसके सहयोगी उसका खेल बिगाड़ने में लगे हैं। लालू और पासवान ने शुक्रवार को लखनऊ में फिर कांग्रेस को कोसा। हालांकि यह कहना भी नहीं भूले कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह का वे बहुत सम्मान करते हैं। मुलायम सिंह यादव से इस चुनाव और आगे विधानसभा चुनाव में भी हाथ मिलाए रखने की जो बात उन्होंने कही है, उसका एक ही राजनीतिक मतलब है कि वे पिछड़ों, दलितों और मुसलमान मतदाताओं का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करना चाहते हैं। कांग्रेस के साथ-साथ उनके निशाने पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी हैं। तीसरे मोर्चे के नेताओं और वाम मोर्चा से लालू-पासवान-मुलायम इसी कारण नाराज हैं कि उन्होंने मायावती को उसमें शामिल कर लिया है।
शरद पवार की अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। वे आज नहीं, 1991 से प्रधानमंत्री पद की दौड़ में हैं, जब राजीव गांधी की हत्या के बाद तेलुगू बिड्डा पीवी नरसिंहराव को यह पद सौंप दिया गया था। तब नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह और प्रणब मुखर्जी के अलावा जो नेता हाथ मलते रह गए थे, उनमें शरद पवार भी हैं। कांग्रेस उन पर भरोसा नहीं करती है। 1978 में वे कांग्रेस छोड़कर जनता पार्टी के साथ चले गए थे। 1987 में राजीव गांधी के प्रयासों से वापस लौटे तो 1998-99 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल को मुद्दा बनाकर फिर कांग्रेस से रुखसत हो गए। तब यह माना गया था कि अब शरद पवार और सोनिया गांधी कभी एक मंच पर दिखायी नहीं देंगे, लेकिन राजनीति बड़ी अजीब है। महाराष्ट्र में एेसे हालात बने कि कांग्रेस को पवार की राकांपा के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ी और 2004 में एेसी नौबत आई कि शरद पवार उन्हीं सोनिया गांधी को नेता मानने को तैयार हो गए, जिनके विदेशी मूल को कोसते हुए कांग्रेस से बाहर चले गए थे। राकांपा से पवार और प्रफुल्ल पटेल केन्द्र में मंत्री बने। दोनों के पास महत्वपूर्ण कृषि और उड्डयन मंत्रालय रहे। सब जानते हैं कि सोनिया और पवार के बीच प्रफुल्ल पटेल ने सेतु का काम किया लेकिन सोनिया अथवा पार्टी हाईकमान के बाकी नेताओं ने पवार को कभी महत्व नहीं दिया। उन पर कभी विश्वास नहीं किया।
पवार को यह बात भीतर से कचोटती रही है। चालीस साल से भी अधिक का उनका राजनीतिक जीवन है। महाराष्ट्र में उनका अपना जनाधार है। वे जानते हैं कि अपने दस-बारह या पंद्रह लोकसभा सदस्यों के बल पर वे प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। तीसरे मोर्चे के नेताओं के अलावा अगर वे मुलायम सिंह यादव जैसे क्षेत्रपों के संपर्क में हैं, तो इसीलिए कि यदि चुनाव परिणामों के बाद गैर कांग्रेस-गैर भाजपा सरकार के गठन की नौबत बने और बाकी नेताओं के नाम पर सबकी सहमति न बने तो उनके नाम का छींका भी टूट सकता है। कांग्रेस उन्हें महाराष्ट्र के बाहर गठबंधन के लायक भी नहीं समझती और यदि वे दूसरे दलों से संपर्क बनाते हैं तो कपिल सिब्बल से लेकर पी चिंदम्बरम तक उन पर आंखें भी तरेरने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस को अपने इस व्यवहार पर गहन आत्मचिंतन करना चाहिए। उसकी इसी एंठ और गलतफहमी के कारण उसके सहयोगी एक-एक कर दूर जा रहे हैं। यही हालात रहे तो 2004 जितनी सीटें हासिल कर लेने के बाद भी कांग्रेस को इस बार सरकार बनाने के लाले पड़ सकते हैं।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

5 comments:

हरि said...

ये सब ड्रामा है। चुनाव बाद फिर उसी घर में आना है।

MANVINDER BHIMBER said...

पिछले दो दशकों से भी पीछे की कांग्रेस की कहानी आप ने खोल दी है....अब क्या कहें ......आपके ब्लॉग पर आ कर निशब्द हो जाना मेरे लिया नया अनुभव नहीं है.... ...अक्सर एसा ही होता है .....यही कह सकती हूँ...... हे गोपाल ....कांग्रेस को तू ही संभाल

dharmendra said...

manvindra sir ke baat se mai bhi sahmut hun. aapke lekh par kya comment kiya jaye. aapne to sub kuch baata diya hai. aise bhi mera pas itna experience nahi hai jo kuch kah sakun.

निर्मल गुप्त said...

धर्मंद्र भाई ,
माना आपका तजुर्बा कम है लेकिन बेचारी मंविन्द्र को सर क्यों बना दिया
चित्र को ध्यान से देखें तो मंविन्द्र मैडम का जेंडर ठीक से समझ में
आयेगा .ओमकार भाई की खरी बात मर्म को छू जाती है.

dharmendra said...

nirmal ji
mujhe apni galti ka ahsas ho gaya tha. lekin mujhe edit ka option nahi pata hai isliye main chahkar bhi kuch nahi kar saka.