पहले गृहमंत्री पी चिंदम्बरम। उनके बाद कुरूक्षेत्र से कांग्रेस के लोकसभा सदस्य और प्रत्याशी नवीन जिंदल। और अब पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आडवाणी। जूता फैंकने की शुरुआत बगदाद से हुई। एक पत्रकार ने अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश पर एक
के बाद एक, दोनों जूतों से वार किया। इसके बाद चीनी प्रधानमंत्री पर लंदन में सेमिनार में एक छात्र ने यह कहते हुए जूता उछाला कि वे तानाशाह हैं। भारत की बात करें तो पी चिदम्बरम पर पत्रकार जरनैल सिंह ने जूता फैंका। उनकी नाराजगी इसे लेकर थी कि 25 साल बाद भी 1984 के सिख विरोधी दंगों के पीड़ित परिवारों को न्याय नहीं मिला और जिन्हें जिम्मेदार माना जाता है, उन जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को कांग्रेस ने फिर से टिकट दे दिया था। व्यापक प्रदर्शनों के बाद
तीन दिन के भीतर पार्टी को उनसे टिकट वापस लेना पड़ा। नवीन जिंदल पर एक पूर्व शिक्षक ने इसलिए जूता उछाला क्योंकि कांग्रेस के शासनकाल में उनके बेटे की नौकरी चली गई और वे अभावों की जिंदगी जीने को अभिशप्त हैं। बृहस्पतिवार को मध्य प्रदेश के कटनी शहर में भाजयुमो के एक पूर्व कार्यकर्ता ने लाल कृष्ण आडवाणी की ओर निशाना साधकर एक खड़ाऊ फैंकी, जो मंच पर जा गिरी। आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया।
इन दिनों देश का एक बड़ा वर्ग इन घटनाओं पर मुस्कराते हुए चटखारे ले रहा है। टीवी चैनल अपनी टीआरपी बढ़ा रहे हैं। बहुत हैं, जो कहते हैं कि यह सब इतनी जल्दी शुरू हो जाएगा, सोचा नहीं था। बुद्धिजीवियों का मानना है कि एक दिन यह होना ही था, क्योंकि राजनीति और व्यवस्था ने आम आदमी को बहुत निराश-हताश किया है। आजादी के बाद से अब तक उन्हें हर पांच साल बाद सुनहरे सपने दिखाए गए। एक से बढ़कर एक वादे किए लेकिन उन्हें पूरा करने की दिशा में गंभीरता से प्रयास नहीं किए गए। इस पर चिंतन-मनन का समय आ गया है कि आखिर ये घटनाएं क्या जाहिर करती हैं?
न तो पत्रकार का काम जूते उछालने का है, न शिक्षक या पूर्व शिक्षक का। न किसी पार्टी का कोई कार्यकर्ता अपने शीर्ष नेता पर इस तरह गुस्से का इजहार करता है। इसे पागलपन कहकर टाला नहीं जा सकता। यह हमारी राजनीति और व्यवस्था के चेत जाने का समय है। इसे खतरे की घंटी मानना होगा। देश के समक्ष उपस्थित मूल मुद्दों गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, अन्याय, गैर-बराबरी और भ्रष्टाचार के उन्मूलन के प्रति गंभीरता दिखानी होगी। ये वारदातें किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं हो रही हैं। ये व्यवस्था और उस सोच के खिलाफ विद्रोह है, जो सिर्फ चीजों को टालने में विश्वास करती है। इसलिए यह चेत जाने का समय है। जनता यदि इस तरह के मूड में दिखने लगे तो इसे खतरे की घंटी ही मानना चाहिए।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com
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4 comments:
खतरे की घंटी नहीं
नेताओं के लिए
यह
जोखिम का घंटा है।
इसके बाद से नेताओं
हर पल, पल पल
उछल फुदक कर चल
उछला जूता चप्पल
जिससे जाए छिटक।
जैसे नेता रहे हैं
कुर्सी देखकर भटक
लटक रहे हैं वेटिंग में
पी एम की कुर्सी की सैटिंग में।
खतरे की घण्टी सही नेता सुधर तो जाय।
लोगों के आक्रोश का कुछ तो करे उपाय।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
अब इसे खतरे की घंटी कहें या कुछ or लेकिन ये विरोध करने का चलन सा बनता जा रहा है .....सोचना यह है की इसके peeche क्या karan हैं ......
jarnail ka juta sahi tha lekin ab yeh fashion sa banta ja raha jo sahi nahi hai.
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