Monday, May 18, 2009

ये जनादेश स्थिर सरकार के लिए


मतगणना से एक दिन पहले तक भी माकपा महासचिव प्रकाश करात एेलान कर रहे थे कि कांग्रेस को किसी भी कीमत पर समर्थन नहीं दिया जायेगा। गैर-कांग्रेस, गैर भाजपा सरकार के गठन के लिये उन्होंने 18 मई को तीसरे मोर्चे के नेताओं की दिल्ली में बैठक बुलाई थी। मतगणना से ठीक पहले खबर आयी कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अपने दूत सतीश मिश्रा को करात के पास भेजा है। रणनीति यह बनी कि यदि भाजपा एक सौ पचास से आगे बढ़ी तो वाम मोर्चा मायावती को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर घोषित कर देगा। उधर, तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक प्रमुख जयललिता तीसरे मोर्चे के बाकी नेताओं से एक निश्चित दूरी बनाये हुए थी ताकि नतीजे आने के बाद राजग, यूपीए और तीसरे मोर्चे से जमकर सौदेबाजी कर सके । एच डी देवगौड़ा ने नतीजे आने से दो दिन पहले अंधेरे में चुपके से अपने पुत्र कुमार स्वामी को 10 जनपथ भेजा ताकि सोनिया गांधी के मन को पढ़ सकें। भाजपा ने चंद्रबाबू नायडु, जयललिता, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी को पटाने के लिये अपने दूतों के जरिये संपर्क साधा। नरेन्द्र मोदी के चेन्नई जाकर जयललिता से बात करने की खबर आई। हैदराबाद से खबर आई कि टीआरएस नेता के चंद्रशेखर राव ने मतगणना शुरू होने से पहले ही अपनी पार्टी के लोकसभा और विधानसभा प्रत्याशियों को पार्टी दफ्तर में बंद कर बाहर से ताला लगा दिया है ताकि खरीद फरोख्त की संभावना को खत्म किया जा सके। चुनाव की घोषणा होते ही कांग्रेस का दामन झिटककर पासवान के साथ मिलकर लड़ने का एेलान करने वाले लालू यादव ने प्रचार के दौरान दंभपूर्ण घोषणा की कि चुनाव के बाद हम लोग तय करेंगे कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा। मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह कहते घूम रहे थे कि समाजवादी पार्टी के बिना केन्द्र में कोई सरकार नहीं बन सकेगी। मराठा क्षत्रप शरद पवार चुनाव तो यूपीए के साथ लड़ रहे थे लेकिन चुनाव सभाओं में दिखाई दे रहे थे कांग्रेस के विरोधियों के साथ। उन्हें भी लग रहा था कि तीसरे मोर्चे और बाकी दलों के सहयोग से वे प्रधानमंत्री बन सकते हैं। राम विलास पासवान के वे चित्र अब तक पाठकों को ध्यान होंगे, जो उन्होंने जस्टिस पार्टी के उदित राज और रामदास अठावले के संग खड़े होकर खिंचवाये थे और दावा किया था कि मायावती अगर प्रधानमंत्री बन सकती हैं तो वे क्चयों नहीं? मतदाताओं ने इन सबके मंसूबों पर पानी फेर दिया। इनमें से अधिकांश इस समय अपने जख्मों को सहला रहे हैं।
इन सबके दंभपूर्ण बयानों और गतिविधियों से एेसे संकेत मिल रहे थे मानो, कांग्रेस इस चुनाव में निपटने ही जा रही है। इनमें से कुछ को अगर बनने वाली सरकार को अपनी शर्तो पर ही समर्थन देने की गलतफहमी थी तो उसकी वजह समझने की जरूरत है। इनमें से अधिकांश अतीतजीवी हैं। मौजूदा हालात क्या हैं और देश का आम जनमानस क्या सोच रहा है, इसका इन्हें जरा भी भान नहीं है? होता तो इस तरह के भ्रम नहीं पालते। उन्होंने यह भ्रम क्यों पाला कि वे खुद भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं या किसी को बना सकते हैं? इसकी वजह है। इन्हें भरोसा था कि जनता उन्हें फिर ताकत देगी। 2004 के लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चा को साठ से अधिक सीटें मिली थीं। मुलायम सिंह यादव की पार्टी को 39 सीटें हासिल हुई थीं। मायावती को उम्मीद थी कि उन्हें पचास सीटों पर कामयाबी मिलेगी और इसके बाद वे तय करेंगी कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा। 2004 में बिहार में कुल 24 सीटें हासिल कर मनमोहन सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लालू यादव को इस बार भी उम्मीद थी कि बनने वाली सरकार की तकदीर वे ही लिखेंगे। इसी तरह दक्षिण की नेत्री जयललिता को उम्मीद थी कि द्रमुक और कांग्रेस का सफाया हो जायेगा और वे तीस से अधिक सीटें जीतकर दिल्ली में बनने वाली सरकार का स्वरूप तय करेंगी। दिल्ली की राजनीति करने के लिये उन्होंने बसंत कुंज इलाके में अपने लिये एक बंगला भी तैयार करवा लिया था। चंद्रबाबू नायडु से लेकर देवगौड़ा तक सौदेबाजी लिये रणनीति बनाने में जुटे थे। इनकी यह गलतफहमी बढ़ाने में मीडिया ने भी भूमिका निभायी।
आपको वे क्षण याद होंगे, जब जुलाई 2008 में अमेरिका से एटमी करार को नाक का सवाल बनाते हुए प्रकाश करात और उनकी टोली ने मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। समाजवादी पार्टी ने आगे आकर यूपीए सरकार को समर्थन देने का एेलान किया। मनमोहन सिंह सदन में बहुमत साबित नहीं कर पायें, इसके लिये वाम मोर्चा, मायावती और उनके सहयोगियों ने दिन-रात एक कर दिया। पूरी ताकत झोंक दी लेकिन सरकार नहीं गिरी। इस पूरे प्रकरण से मतदाताओं में यह संकेत गया कि एेसे में जबकि अमेरिका सहित विश्व के तमाम देश मिल-जुलकर वैश्विक मंदी से निपटने के लिये एकजुट हो रहे हैं, हमारे देश में कुछ राजनीतिक दल मनमोहन सिंह की सरकार को जान-बूझकर अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं। मनमोहन सिंह की छवि सीधे-सो और ईमानदार नेता की है। वे राजनीतिक लंद-फंदों और उठापटक से अलग रहकर चुपचाप अपना काम करने में विश्वास रखते हैं। लोगों को लगा कि वामपंथी बेवजह उन्हें समय-असमय अपमानित करते रहे हैं। मतदाताओं को भाजपा नेताओं की ओर से मनमोहन सिंह पर किये गये हमले भी नागवार गुजरे। उन्हें अब तक का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री बताना और 10 जनपथ का गुलाम कहना लोगों को अच्छा नहीं लगा।
प्रकाश करात, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती, चंद्रबाबू नायडु, देवगौड़ा और भाजपा नेताओं के पास राजनीति का लंबा अनुभव है। उन्हें अब तक यह बात समझ में आनी चाहिये थी कि देश के आम मतदाता एक तो नकारात्मकता को नापसंद करता है। दूसरे, जोड़-तोड़ को वह अच्छा नहीं मानता। राजनीति में बड़बोलेपन और अहंकारपूर्ण व्यवहार को भी लोग पसंद नहीं करते। अवसरवादियों, मौकापरस्तों, सौदेबाजों और येन केन प्रकारेण सत्ता पर कब्जा करने वालों को भी पसंद नहीं किया जाता। जनादेश आ गया है। कांग्रेस को न तो वामपंथियों के समर्थन के जरूरत है। न लालू-पासवान की। जो प्रधानमंत्री बनने अथवा बनवाने के ख्वाब देख रहे थे, उन्हें मतदाताओं की तरफ से इतने गहरे जख्म मिले हैं कि उन्हें भरने में ही काफी वक्त लग जायेगा। वामपंथियों, लालू-पासवान, मायावती, जयललिता, चंद्रबाबू और देवगौड़ा जैसों को मतदाताओं ने बिना कुछ कहे जबरदस्त सबक सिखा दिया। उन्होंने देश में एक स्थिर सरकार के लिये जनादेश दिया है, जो इन जैसों के रहमोकरम की मोहताज न हो। लालू ने अपनी गलती मान ली है। वामपंथी भी आत्मचिंतन कर रहे हैं। बाकी नेताओं को भी मतदाताओं की ओर से दी गयी इस सीख को समझना चाहिए। सीख यही है कि देश हित को दांव पर लगाकर पदों और सत्ता के लिये बेशर्म जोड़-तोड़, सौदेबाजी बर्दाश्त नहीं की जा सकती। सीख कांग्रेस के लिये भी है। मतदाताओं ने उस पर भरोसा किया है। उसे मतदाताओं के भरोसे और अपेक्षाओं पर खरा उतरना पड़ेगा।

2 comments:

Ankur's Arena said...

यह बात तो तय है कि इस जनादेश ने घटिया राजनीति करने वालों और केवल जेबें भरने वालों को करारा सबक दिया है. लेकिन यह भी देखना होगा कि क्या कांग्रेस जनता के भरोसे पर खरी उतर पाती है या नहीं. राहुल से उम्मीदें हैं, उन्होंने खुद को राजनीति का अच्छा और सच्चा खिलाडी साबित भी किया है. लेकिन क्या वे दशकों से तरस रहे इस देश को युवा नेतृत्व दे पाएंगे? यह बड़ा सवाल है, मुझे ऐसी उम्मीद कम है, लेकिन मैं आशावादी हूँ... देखिये क्या होता है.

annu said...

इस पूरे प्रकरण से मतदाताओं में यह संकेत गया कि एेसे में जबकि अमेरिका सहित विश्व के तमाम देश मिल-जुलकर वैश्विक मंदी से निपटने के लिये एकजुट हो रहे हैं, हमारे देश में कुछ राजनीतिक दल मनमोहन सिंह की सरकार को जान-बूझकर अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं। मनमोहन सिंह की छवि सीधे-सो और ईमानदार नेता की है। वे राजनीतिक लंद-फंदों और उठापटक से अलग रहकर चुपचाप अपना काम करने में विश्वास रखते हैं। लोगों को लगा कि वामपंथी बेवजह उन्हें समय-असमय अपमानित करते रहे हैं। मतदाताओं को भाजपा नेताओं की ओर से मनमोहन सिंह पर किये गये हमले भी नागवार गुजरे। उन्हें अब तक का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री बताना और 10 जनपथ का गुलाम कहना लोगों को अच्छा नहीं लगा।

sahi karan khojen hain apne. padhia post.