Monday, July 27, 2009

देश ने क्या सीखा कारगिल से

छब्बीस जुलाई को देश ने कारगिल जंग का दसवां विजय दिवस मनाया. 15 मई 1999 में शुरू हुई लड़ाई 26 जुलाई को खत्म हुई थी। इसमें भारत के 533 जवान शहीद हुए तो पाकिस्तान को चार हजार जवानों से हाथ धोना पड़ा। यह संयोग है या सोची समझी रणनीति, समझना मुश्किल है लेकिन कारगिल के षड़यंत्रकारी, पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने हाल में दिए एक इंटरव्यू में बेशर्मी के साथ स्वीकार किया कि कारगिल की घुसपैठ में पाकिस्तानी सेना शामिल थी। जिस समय युद्ध हुआ, उस समय और बाद में भी पाकिस्तानी हकूमत यह दावा करती रही कि कारगिल में जेहादियों ने घुसपैठ की थी, न कि उसकी सेना ने। मुशर्रफ ने यह भी कहा है कि यदि कारगिल में घुसपैठ के बाद युद्ध न होता तो भारत कश्मीर मसले पर बातचीत को तैयार नहीं होता। बकौल मुशर्रफ, वे कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण करना चाहते थे। मुशर्रफ ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अंधेरे में रखकर इस कार्रवाई को अंजाम दिया। इसके कुछ ही समय पूर्व भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस से लाहौर गए थे। वाजपेयी और नवाज शरीफ दोनों देशों के बीच आपसी सहयोग व समझबूझ की नई गाथा लिखने की तैयारी में थे। वहां की सेना को यह गवारा नहीं था। मुशर्रफ के बयान से साफ है कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई भारत विरोधी तत्वों, आतंकवादियों, कथित जेहादियों और घुसपैठियों को न केवल संरक्षण देती रही है, बल्कि षड़यंत्र भी रचती रही है। भारत-पाकिस्तान के बीच अब तक चार युद्ध हो चुके हैं। चारों में पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी। वहां की सरकार और सेना जानती है कि वह भारतीय सेना से आमने-सामने की लड़ाई में कहीं नहीं टिक सकती। यही कारण है कि अब उसने छद्म युद्ध की साजिश को अंजाम देना शुरू कर दिया है। यह समझने में भी भारतीय निजाम ने कई साल जाया कर दिए।
कारगिल युद्ध के दस साल बीत जाने के बाद इसके विश्लेषण किए जा रहे हैं कि भारत ने कारगिल से क्या सबक सीखा है? कई सीख ली भी है कि नहीं? ली होती तो समुद्र के रास्ते पाकिस्तान के दस प्रशिक्षित आतंकवादी पिछले साल छब्बीस नवम्बर को मुंबई में घुसकर इतनी जघन्य वारदात को अंजाम नहीं दे पाते। इस घटना से तो यही लगता है कि भारतीय निजाम ने कारगिल से कोई सबक नहीं सीखा है। तब कारगिल में घुसपैठ हुई थी। आज नेपाल, बांग्लादेश की सीमाओं से बेखौफ घुसपैठ हो रही है। मुंबई पर समुद्री रास्ते से अटैक हुआ। कारगिल में हमला रोकने और घुसपैठ की जानकारी समय पर नहीं मिल पाने की वजह खुफिया तंत्र की विफलता को माना गया। सवाल है कि क्या उसके बाद खुफिया तंत्र को चुस्त-दुरूस्त करने के गंभीर प्रयास हुए? हर बजट में रक्षा बजट में बढोत्तरी होती जा रही है लेकिन क्या हमारी सेनाएं और खुफिया तंत्र देश की सरहदों को महफूज रखने में सफल हो पा रहे हैं। अफसोस की बात तो यह है कि हमारा निजाम इस तरह की घटनाओं से कोई सबक नहीं लेता।
कारगिल में घुसपैठ को रोकने में विफल रहने के कारणों की जांच के लिए केन्द्र सरकार ने एक जांच कमेटी बनाई थी। के सुब्रहण्यम इसके अध्यक्ष थे और वरिष्ठ पत्नकार वीजी वर्गीज के अलावा लेफ्टिनेंट जनरल के के हजारी और सतीश चंद्र सदस्य। तथ्य सामने थे इसलिए निष्कर्ष निकालने में कतई देरी नहीं हुई। समय पर कारगिल समीक्षा समिति की रिपोर्ट सौप दी गई, लेकिन इसे कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। कुल 9 हजार दस्तावेज कमेटी को दिए गए थे और जो सवाल पूछे गए उनके जवाब भी मिले थे। इसके 2200 पन्नों में सारे दस्तावेज और भारत की ओर से हुई गलतियों की भी खुल कर जानकारी दी गई थी। कमेटी ने उन सारे हालातों पर खुल कर विचार किया और अपने निष्कर्ष रखे जिससे कारगिल जैसे हालात दोबारा नहीं पैदा हो सके। यह आश्चर्य का विषय है कि सरकार ने इसके निष्कर्षों को संसद के सामने सार्वजनिक नहीं किया। देश को यह जानने का हक है कि कारगिल क्यों हुआ? रक्षा विशेषज्ञ कारगिल पर खुलकर अपनी राय जाहिर करते रहे हैं। अधिकांश का यही मत है कि हमारा खुफिया तंत्र खतरे को भांपने में पूरी तरह नाकाम रहा। भारत और पाकिस्तान के बीच दुनिया के सबसे उंचे रणक्षेत्न में हुए कारगिल युद्ध के बारे में कई रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यदि हमने इसके सबक को गंभीरता से लिया होता तो मुंबई पर गत वर्ष 26 नवंबर को हुए हमले जैसे हादसे नहीं हुए होते और रक्षा मामलों में हमारी सोच ज्यादा परिपक्व होती।
रक्षा विश्लेषक और नेशनल मैरीटाइम फाउंडेशन के निदेशक सी उदय भास्कर का कहना है कि यह युद्ध दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच हुआ। यह युद्ध चूंकि मई 1998 में पोखरण परमाणु विस्फोट के बाद हुआ था, लिहाजा पूरी दुनिया की निगाहें इस पर टिकी थी और भारत ने इसमें स्वयं को एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति साबित किया। उन्होंने कहा कि 10 साल बीतने के बाद भी हमने इससे कोई सबक नहीं लिया। इस तरह के युद्ध लड़ने के लिए सेना को जिस तरह के ढांचे की जरूरत है, वह आज तक मुहैया नहीं हो सकी है। भास्कर मानते हैं कि कारगिल युद्ध का एक बहुत बड़ा कारण हमारी खुफिया तंत्न की विफलता था। उनका कहना है कि मुंबई हमला समुद्री कारगिल था।
इंडियन डिफेंस रिव्यू पत्निका के संपादक भरत वर्मा के अनुसार कारगिल युद्ध से मुख्य तीन बातें सामने आईं, राजनीतिक नेतत्व द्वारा निर्णय लेने में विलंब, खुफिया तंत्न की नाकामी और रक्षा बलों में तालमेल का अभाव। उन्होंने कहा कि कारगिल के सबक को यदि हमनें गंभीरता से नहीं लिया तो मुंबई जैसे आतंकी हमले लगातार जारी रहेंगे। कारगिल युद्ध के दौरान दुश्मन हमारी जमीन में अंदर तक घुस आया, लेकिन हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने पाकिस्तान में स्कार्दू में प्रवेश कर घुसपैठियों की आपूर्ति को रोकने का निर्णय नहीं किया। यदि हमारा नेतृत्व यह फैसला करता तो इसके दूरगामी परिणाम होते। रक्षा विश्लेषक ब्रह्म चेलानी ने कहा कि कारगिल युद्ध का सबसे बड़ा सबक यह है कि पाकिस्तान हर उस स्थिति का फायदा उठाने से पीछे नहीं हटेगा, जहां सुरक्षा या सैन्य तैयारियों में कमी है। उन्होंने कहा कि कारगिल के बाद पाक समर्थित आतंकवादियों के आत्मघाती हमलों में काफी वृद्धि हो गई है।

Monday, July 20, 2009

जमीन बचाने व हथियाने की जंग


मित्रों यह मेरी सौवीं पोस्ट है. जिन पर सौंवी पोस्ट लिखना चाहता था, नहीं लिख सका. जिन पर नहीं लिखना चाहता था, उन्हीं पर सौंवी पोस्ट जा रही है. सियासत पर लिखते हुए कोफ्त होती है लेकिन इसके सिवा चारा भी नहीं है. आप सभी दोस्तों का आभारी हूँ, जिनका सहयोग मिलता रहा.
-ओमकार चौधरी


उत्तर प्रदेश में सियासी महाभारत छिड़ गयी है। रीता बहुगुणा जोशी के बयान ने मायावती को मौका दे दिया है। लोकसभा चुनाव में अपने मंसूबों पर पानी फिरने की बड़ी वजह मायावती कांग्रेस के उभार को मानती हैं। वे कांग्रेस पर वार करने का मौका तलाश ही रही थी कि रीता जोशी ने दे दिया। वहां विधानसभा चुनाव में अभी तीन साल का वक्त है। कांग्रेस और बसपा के बीच
जिस तरह की सियासी जंग शुरू हुई है, उससे लगता है कि यह लड़ाई अभी और तेज होगी। मायावती जिस अंदाज में शासन चलाती हैं, उसमें घटने के बजाय टकराव और बढ़ने की आशंका है। सत्ता और शक्ति उनके पास है। जिन बयानों पर उन्होंने किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत, वरुण गांधी और रीता जोशी के खिलाफ गंभीर धाराओं में मुकदमें कायम कराकर जेल भेजने का बंदोबस्त किया, कोई और मुख्यमंत्री होता तो शायद नोटिस भी नहीं लेता, क्योंकि राजनीति में इस तरह के जुमले आम बात है। जनवरी 2007 में खुद मायावती ने भी ठीक इसी तरह की भाषा का प्रयोग तब के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के लिये किया था। वे भी उसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बनाकर मायावती को जेल की हवा खिलवा सकते थे, लेकिन उन्होंने एेसा नहीं किया। रीता जोशी पर दलित उत्पीड़न एक्ट बनता भी है कि नहीं, यह तो अब अदालत तय करेगी, लेकिन इससे एक बात साफ हो गयी है कि लोकसभा चुनाव से पहले सर्वजन समाज की बात करने वाली मायावती की समझ में आ गया है कि बिना दलितों को एकजुट रखे, वे पावर में नहीं रह पाएंगी। राज्य में बिजली-पानी-बदत्तर होती कानून व्यवस्था और बेरोजगारी बड़ी चुनौती के रूप में उनके सामने हैं। लोगों की नाराजगी बढ़ रही है। खासकर सवर्ण तबके में उनके शासन के तौर-तरीके से नाराजगी बढ़ रही है। एेसा नहीं होता तो लोकसभा चुनाव में बसपा की एेसी गत नहीं होती।
ताजा प्रकरण के बाद कुछ सवाल आम लोगों के मन मस्तिष्क में उठ रहे हैं। रीता जोशी ने अभद्र टिप्पणी की। मायावती ने उन्हें गिरफ्तार करवाकर जेल भिजवा दिया। वकीलों की हड़ताल का बहाना बनाकर दो दिन तक उनकी जमानत को रोके रखा। भीड़ ने लखनऊ में रीता जोशी के घर और कारों को आग लगा दी। पुलिस एक डेढ़ घंटे तक मौके पर नहीं पहुंची। कांग्रेस ने बसपा के एक विधायक के खिलाफ नामजद रिपोर्ट करायी, लेकिन उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया। अगर दोषी रीता जोशी हैं तो उनकी गिरफ्तारी के साथ मामला यहीं खत्म होना चाहिए था। इसके आगे की कार्रवाई अदालत में होनी थी, लेकिन मायावती ने इसे सियासी रंग देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने रीता जोशी ही नहीं, कांग्रेस और सोनिया गांधी को भी दलित विरोधी साबित करने की कोशिश की। इसके लिए वे लगातार दो दिन तक लखनऊ में प्रेस कांफ्रैंस करती रही। मानो राज्य में इससे बड़ा मसला कोई है ही नहीं। जिस तरह उन्होंने बेवजह सोनिया गांधी को विवाद में घसीटा, उसे लोगों ने पसंद नहीं किया। इस राजनीतिक लंद-फंद से मायावती खासकर दलित समाज की सहानुभूति तो बटोर सकती हैं परन्तु अन्य तबकों में जिस तरह की प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है, उससे नुकसान होने की आशंका अधिक है।
अब जरा यह भी समझ लिया जाये कि मायावती कांग्रेस और सोनिया गांधी से इस कदर नाराज क्यों हैं? उन्हें यह नागवार गुजरा कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में दलितों के घर गये। वहां भोजन किया और वहीं एक खाट डालकर सो गए। तब मायावती ने कहा कि उन्हें पता चला है कि कांग्रेस का यह युवराज दलितों से मिलकर जब दिल्ली लौटता है तो विशेष साबुन से स्नान करता है और अपनी शुद्धि भी करवाता है। 2007 में मायावती अपने बलबूते सत्ता में लौटी तो इसलिए क्योंकि उन्हें दलितों के साथ-साथ अगड़ों ने भी वोट दिया। सत्ता में आने के बाद बिगड़ी कानून व्यवस्था की सबसे अधिक शिकार यही अगड़े बने। मुलायम सिंह यादव के कथित गुंडा राज को विदा करने की गर्ज से लोगों ने मायावती को जनादेश दिया, लेकिन वे बिजली-पानी-बेरोजगारी जैसी समस्याओं के समाधान के बजाय अपनी मूर्तियां लगवाने और बड़े-बड़े पार्क बनवाने में हजारों करोड़ रुपया खर्च करने में लग गयी। विपक्ष में रहते हुए उन्होंने जिन माफियाओं का विरोध किया, लोकसभा चुनाव में उनमें से कई को टिकट थमा दिया। जिस सवर्ण वर्ग ने उन्हें यूपी की सत्ता सौंपी थी, उसी ने लोकसभा चुनाव में उन्हें वोट नहीं देकर एक करारा झटका दे डाला।
मायावती की उम्मीदें दलितों के साथ-साथ मुसलमान और अगड़ों पर टिकी थी। राहुल गांधी ने कुछ हद तक ही सही, मायावती के दलित वोट बैंक में भी सेंध लगायी। मुसलमानों ने सपा-बसपा को कम और कांग्रेस को अधिक संख्या में वोट डाले। सवर्ण और नौजवान मतदाताओं ने भी कांग्रेस में विश्वास जाहिर किया। नतीजतन यूपी में जो कांग्रेस विधानसभा चुनाव में चौथे स्थान पर थी, वह लोकसभा चुनाव में दूसरे नम्बर की पार्टी बन गयी। बसपा पिछड़ गयी। केन्द्र की सत्ता में वापसी के बाद सोनिया गांधी ने मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बनाकर एक और मास्टर स्ट्रोक लगा दिया। यही नहीं, कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह मायावती को यह धमकी भी दे आये कि उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर झूठे मुकदमें दर्ज कराकर यदि उत्पीड़नात्मक कार्रवाई की तो ध्यान रहे कि उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले में सीबीआई जांच भी चल रही है। उन्हें भी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। मायावती को लगता है कि कांग्रेस उनके लिये बड़ा खतरा बन सकती है। वे जानती हैं कि उनकी राजनीतिक जमीन खिसकी तो कांग्रेस को लाभ मिलेगा। ताजा सियाजी जंग की वजह ही यह है कि मायावती अपनी राजनीतिक जमीन को बचाना चाहती हैं और कांग्रेस उसे हथियाना चाहती है।





Friday, July 17, 2009

अमर्यादित और बदले की राजनीति


पिछले सवा साल में रीता बहुगुणा जोशी तीसरी नेता हैं, जिन्हें मायावती सरकार ने बदजुबानी के आरोप में सींखचों के पीछे भेजा है। पिछले साल मार्च-अप्रैल में किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत को बिजनौर में आपत्तिजनक बयान देने के आरोप में बुक किया गया था। इस साल लोकसभा चुनाव के समय पीलीभीत में भड़काऊ भाषण देने पर वरुण गांधी को गिरफ्तार किया गया और अब मुरादाबाद में मायावती के संबंध में अभद्र भाषा का प्रयोग करने पर रीता बहुगुणा जोशी को एससी एसटी अधिनियम के तहत जेल भेजा गया है। टिकैत को उनके गांव सिसौली से गिरफ्तार करने पहुंची पुलिस को
जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा। कई दिन के टकराव के बाद भी शासन नाकाम रहा तो टिकैत को बिजनौर में सरेंडर का मौका दिया गया। वरुण गांधी ने सरेंडर किया तो उनके समर्थकों ने पीलीभीत में उग्र प्रदर्शन किया। नतीजतन टकराव हुआ और मायावती को वरुण पर रासुका लगाने का बहाना मिल गया। हालांकि कोर्ट के निर्देश पर न केवल वरुण रिहा हुए और उनसे रासुका भी हटी। रीता जोशी कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष हैं। भाषण देते समय उन्होंने निश्चय ही मुख्यमंत्री

मायावती के संबंध में अमर्यादित भाषा का उपयोग किया, जिस कारण उन्हें मुरादाबाद से दिल्ली लौटते समय गाजियाबाद में गिरफ्तार किया गया, लेकिन जिस तरह लखनऊ में रीता जोशी के घर को आग लगायी गयी, उससे साफ है कि मामला राजनीतिक रंजिश का बन चुका है। कांग्रेस नेत्री ने अमर्यादित भाषा का उपयोग कर कोई श्रेष्ठ उदाहरण पेश नहीं किया, लेकिन उसके बाद मायावती की पार्टी के लोगों ने जो कुछ किया है, उसे उचित कैसे ठहराया जा सकता है?
इस पूरे प्रकरण को राजनीतिक दृष्टि से देखें तो बसपा-कांग्रेस के बीच टकराव के असल कारण समझ में आ जाएंगे। लोकसभा चुनाव से पहले मायावती ने राज्य में एेसी हवा बनायी कि वे पचास सीटें जीतेंगी और तब उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। उन्होंने गुंडों, माफियाओं और अपराधिक छवि के कई लोगों को टिकट दिये तो लोगों का माथा ठनका। लोगों ने उन्हें मुलायम सिंह यादव के निरंकुश शासन से तंग आकर सत्ता सौंपी थी क्योंकि माया ने तब नारा दिया था, चढ़ गुंडन की छाती पर-मोहर लगेगी हाथी पर। लोगों ने देखा कि मायावती तो खुद भी गुंडों को प्रश्रय दे रही हैं। लोकसभा चुनाव में बसपा दो दर्जन सीटें भी नहीं जीत सकीं। राहुल गांधी ने चुनाव से पहले जिस तरह दलितों के घरों में पहुंचकर भोजन और विश्राम किया, उससे कांग्रेस के प्रति दलितों के नजरिये में बदलाव आया। कांग्रेस को न केवल मुसलमानों के वोट मिले बल्कि दलितों ने भी वोट डाले। मायावती के लिये यह बड़ा राजनीतिक झटका था। मायावती जहां छिटक रहे दलितों और मुसलमानों को फिर से बसपा के साथ जोड़ने की जुगत में लगी हैं, वहीं कांग्रेस भी उत्तर प्रदेश की बदली हुई राजनीतिक फिजां में अपने खोये जनाधार को पाने के लिये हाथ-पांव मार रही है। यह मायावती को नागवार गुजर रहा है।
रीता जोशी ने मुरादाबाद के एक गांव में दलित लड़कियों पर हो रहे बलात्कार के मामले में मायावती सरकार को यह कहते हुए घेरा कि डीजीपी हेलीकाप्टर की उड़ान पर सात लाख खर्च करते हैं और बलात्कार की शिकार दलित महिलाओं के परिजनों को केवल पच्चीस हजार रुपये की मदद देते हैं। इसी झोंक में वे मायावती के बारे में आपत्तिजनक शब्द कह गयीं। राजनीतिक मंचों से कई बार इस तरह के शब्द मुंह से निकल जाते हैं, जिन पर आमतौर पर सत्तारूढ़ दलों के मुखिया नोटिस भी नहीं लेते। मायावती के साथ एेसा नहीं है। वे अपनी आलोचना को पचा नहीं पातीं। यहां तो मामला अमर्यादित भाषा का भी था। सो, उन्होंने इसे कांग्रेस बनाम दलित की बेटी बनाने में देर नहीं की। उनके सिपहसलार सतीश मिश्र ने संसद को ठप्प करा दिया। नेशनल प्रेस के सामने बयान दिया कि चूकि कांग्रेस दलित विरोधी है, इसलिए रीता जोशी ने सोनिया गांधी के इशारे पर एक दलित की बेटी मायावती के खिलाफ इस तरह की भाषा का प्रयोग कर उन्हें अपमानित करने की चेष्टा की। अब सोनिया संसद में माफी मांगें। आश्चर्य की बात है की जिस भाषा का प्रयोग रीता जोशी ने किया है, ठीक उसी तरही की बातें खुद मायावती ने जनवरी २००७ में मुलायम सिंह यादव के लिए की थी. मायावती अपनी उन कटु टिप्पणियों को भूल गई.
कांग्रेस की ओर से नपे-तुले शब्दों में प्रतिक्रिया आयी। कहा गया कि रीता जोशी पहले ही उन शब्दों के लिये खेद व्यक्त कर चुकी हैं। कांग्रेस भी इस तरह के शब्दों के उपयोग को सही नहीं मानती लेकिन प्रतिक्रिया स्वरूप जिस तरह उनके घर और कारों को आग लगायी गयी, और पुलिस घंटों तक मौके पर नहीं पहुंची, उससे साफ है कि यह सब सरकार की शह पर किया गया। इस घटना से प्रदेश की राजनीति गरमा गयी है। करीब एक दर्जन सीटों पर वहां विधानसभा उप चुनाव हो रहे हैं। बसपा अब इस मामले को तूल देकर कांग्रेस को घेरने की कोशिश करेगी। कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं को सड़कों पर उतारकर संगठन को सक्रिय करेगी। समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी इसे कांग्रेस-बसपा की नूरा-कुश्ती बताकर पल्ला झाड़ लिया है। जाहिर है, इस बेवजह के विवाद के चलते राज्य की मूलभूत समस्याएं कुछ समय के लिये नेपथ्य में चली जाएंगी। यही मायावती चाहती हैं।
कांग्रेस के कुछ नेता कह रहे हैं कि रीता बहुगुणा जोशी को जिस तरह गिरफ्तार किया गया, वह सही नहीं है। वे खेद व्यक्त कर चुकी थीं। उन्हें सफाई का मौका दिया जाना चाहिए था। जब वरुण गांधी को मायावती सरकार ने लपेटा था, तब यही कांग्रेसी नेता माया सरकार की कार्रवाई को सही ठहराते नजर आ रहे थे। भड़काऊ, आपत्तिजनक और अमर्यादित बयान देने की छूट किसी को भी क्यों होनी चाहिए? वो टिकैत हों, वरुण गांधी या फिर रीता जोशी। यदि उन्होंने कानून तोड़ा है तो उन पर कार्रवाई होनी ही चाहिए। वे राजनेता हैं, इसलिये उनके प्रति नरमी दिखायी जानी चाहिए-एेसा कहने और सोचने वाले क्चया कानून के राज में विश्वास रखते हैं? हालांकि जिस तरह लोकसभा चुनाव में मायावती ने वरुण गांधी की गिरफ्तारी को वोटों में तब्दील करने की कोशिश की, उसे भी सही नहीं ठहराया जा सकता। रीता जोशी की गिरफ्तारी भी उन्होंने एससी एसटी एक्ट में करायी है। इससे लगता है कि मायावती कांग्रेस को दलित विरोधी करार देने की कोशिश करेंगी। राजनीति अपनी जगह है, लेकिन राजनीतिक स्कोर के लिये इस तरह की राजनैतिक पैंतरेबाजी को सही नहीं ठहराया जा सकता। क्या यह सही समय नहीं है, जब हमारे नेता आत्मचिंतन करें कि वे किस तरह का आचरण करने लगे हैं। बाहर ही नहीं, कई बार तो संसद तक में असंसदीय शब्दों का प्रयोग किया जाता है। वैसे एक सवाल राज्य की मुख्यमंत्री मायावती से भी है कि वे रीता जोशी के घर को जलाने के कृत्य को गैर कानूनी मानती हैं या नहीं? अगर हां तो जितनी जल्दबाजी उन्होंने रीटा को गिरफ्तार करने में दिखायी है, इस मामले में क्यों नहीं दिखायी? घटना के 24 घंटे बाद भी अपराधियों को गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया, जबकि नामजद रिपोर्ट करायी जा चुकी है?

Friday, July 10, 2009

ज़रदारी के बयान पर खामोशी क्यों


हर कोई हैरान है। इस पर भी कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने यह सच स्वीकार कर लिया कि आतंकवादी पाकिस्तान ने ही पाले-पोसे हैं और इस पर भी कि भारत सरकार पाक की इस स्वीकारोक्ति के बाद भी खामोश बनी हुई है। हैरानी यह देखकर भी हुई कि जी-आठ देशों ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ी जा रही जंग में पाकिस्तान को पूरा सहयोग करने का एेलान किया है। अमेरिका पहले ही पाकिस्तान को दी जा रही आर्थिक सहायता में तीन गुना वृद्धि कर चुका है। सवाल यह है कि जरदारी के खुलासे के बाद पाकिस्तान को आतंकवाद का पोषक मानें या उससे पीड़ित? जरदारी के बयान के बाद आतंकवाद के मामले में पाकिस्तान की भूमिका पर क्या किसी को शंका होनी चाहिए? भारत तीस साल से पाक प्रायोजित आतंकवाद का शिकार है। भारत कहता आया है कि पाकिस्तान न केवल आतंकियों की जमात तैयार करने में लगा है बल्कि उसने इसे सरकारी नीति में शामिल कर लिया है। आईएसआई और सेना के पूर्व अधिकारी आतंकवादियों को भर्ती करते हैं। उन्हें प्रशिक्षण देते हैं। अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्र चलाने की सघन ट्रेनिंग के बाद उन्हें मुंबई, हैदराबाद, दिल्ली, बंगलुरू, अयोध्या, संसद, लालकिला जैसे टारगेट दिये जाते हैं। वे अवैध रूप से भारतीय सीमा में घुसपैठ करते हैं। मासूमों का कत्लेआम करते हैं। आतंकियों को घुसपैठ कराने के लिए पाकिस्तानी सेना हर हथकंडा अपनाती है। शुरू में पश्चिमी देशों ने भारत के इन खुलासों को गंभीरता से नहीं लिया लेकिन 2001 में जैसे ही अमेरिका पर अटैक हुआ, उनकी समझ में आ गया कि पाकिस्तान की धरती पर किस तरह के सांप-सपोले तैयार किए जा रहे हैं। वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर हमला करने वाले आतंकवादियों में से अधिकांश के तार किसी न किसी तरह से पाकिस्तान से जुड़े थे।
आसिफ अली जरदारी ने राष्ट्रपति पद पर रहते हुए जो कटु सत्य स्वीकार किया, उसके लिए उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। सर्वोच्च पद पर बैठा व्यक्ति दो ही सूरतों में इस तरह की सच्चाई स्वीकार करता है। या तो उसे इसका इल्म ही न हो कि वह जो कहने जा रहा है, उसके नतीजे क्या होंगे या फिर वह व्यक्ति एेसा खुलासा कर सकता है, जिसे शासन चलाने में दिक्कतें पेश आ रही हों और उसके मातहत काम करने वाले उसकी सुन ही नहीं रहे हों। जरदारी किन हालातों में इस पद तक पहुंचे हैं, यह किसी से दबी-छुपी बात नहीं है। उन्होंने बेनजीर भुट्टो को आतंकवाद के हाथों खोया है। कई साल के वनवास के बाद जब वे पाकिस्तान लौटी तो आत्मघाती हमले में मारी गईं। उस समय जनरल परवेज मुशर्रफ राष्ट्रपति थे। सेना, शासन-प्रशासन सब उनके इशारे पर काम करता था। अपनी हत्या से पहले बेनजीर यह आरोप लगा चुकी थीं कि उन्हें पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी जा रही है। उनकी हत्या के बाद इस तरह के आरोप लगे कि आईएसआई के कुछ अधिकारी नहीं चाहते थे कि बेनजीर की सत्ता में वापसी हो। बेनजीर की हत्या के बाद आम चुनाव हुए। उनकी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को जनादेश मिला। यूसुफ रजा गिलानी प्रधानमंत्री बने और बेनजीर के पति आसिफ अली जरदारी राष्ट्रपति।
जाहिर है, मुशर्रफ और उनकी सरकार के उन चेहरों की विदाई हो गई जो लंबे समय से पाकिस्तानी निजाम पर काबिज थे। वैसे तो मुशर्रफ के रहते हुए ही तालिबान, अलकायदा और कुछ दूसरे चरमपंथी संगठनों ने आंखें तरेरनी शुरू कर दी थी लेकिन जैसे ही बेनजीर की पार्टी सत्ता में आई, इन जमातों ने खुलकर खून-खराबा शुरू कर दिया। मुशर्रफ की विदाई और जरदारी की ताजपोशी अमेरिका की इस शर्त पर हुई थी कि यह सरकार एक तो मुशर्रफ के खिलाफ किसी तरह की बदले की भावना से कार्रवाई नहीं करेगी। दूसरे, पाक सरकार अफगानिस्तान सीमा पर चल रही अमेरिकी कार्रवाई में सहयोग देगी। जाहिर है, चरमपंथी संगठनों को पाकिस्तान सरकार द्वारा अमेरिकी हकूमत के इशारों पर नाचना नागवार गुजरा। उन्होंने स्वात ही नहीं, लाहौर, इस्लामाबाद, कराची से लेकर देश के सभी प्रमुख शहरों में बड़े धमाके किए। विदेशी पर्यटकों की पहली पसंद पांच सितारा होटलों, विदेशी दूतावासों, पुलिस, सेना और अधिकारियों पर अटैक शुरू कर दिए। आज पाकिस्तान में हालात कितने भयावह हैं, यह पूरी दुनिया जान चुकी है। श्रीलंका की क्रिकेट टीम को दौरा बीच में ही छोड़कर किन हालातों में स्वदेश लौटना पड़ा, यह सबने देखा। जब से यह सरकार बनी है, तब से देश में पूरा निजाम ठप है। विदेशियों की आमद में भारी कमी दर्ज की गई है।
राष्ट्रपति जरदारी बच्चे नहीं हैं। जानते हैं कि जो कह रहे हैं, उसके नतीजे क्या होंगे। हालांकि पाकिस्तान सरकार ने उनके बयान पर सफाई देकर मामले की गंभीरता को कम करने की कोशिश की है परन्तु कमान से तीर निकल चुका है। जुबान से निकली बात पर कितनी भी लीपा-पोती की कोशिश की जाए, उससे पल्टा नहीं जा सकता। उन्होंने जो कुछ कहा, उसके अर्थ साफ हैं। उनके निशाने पर पूर्व राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ ही नहीं, उनके पूर्ववर्ती शासनाध्यक्ष भी हैं, जिन्होंने भारत और अफगानिस्तान को अस्थिर करने के लिए आतंकवादियों को न केवल पाला-पोसा, बल्कि संरक्षण भी दिया। पाकिस्तान के चेहरे पर पड़ा नकाब तब उतरना शुरू हुआ था, जब सीमा पार से भेजे गए आतंकियों की पहचान भारत ने की और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाक को बेनकाब किया। जरदारी ने कहा कि पाकिस्तान ने अपने सामरिक हितों को साधने के लिए ही आतंकवादियों को पाला-पोसा लेकिन आतंकियों ने 9-11 की घटना के बाद उन्होंने पाकिस्तान को ही निशाना बनाना शुरू कर दिया।
दरअसल, पाकिस्तानी निजाम की समझ में अब आ रहा है कि आतंकवादियों को पाल-पोस और प्रश्रय देकर उसने कितनी बड़ी भूल की है। अलकायदा, तालिबान, लश्कर ए तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन सहित अनेक आतंकवादी संगठनों को वहां से लगातार खाद-पानी मिलता रहा। ओसामा बिन लादेन हों या मुल्ला उमर, हिजबुल-लश्कर और जमात उद दावा के हाफिज मोहम्मद सईद हों या बैतुल्लाह-वे तभी तक शांत थे, जब तक पाकिस्तान उन्हें मनमानी करने की छूट दिए हुआ था। जैसे ही अमेरिकी सेनाओं ने उन पर शिकंजा कसा, इन सभी चरमपंथी संगठनों की बंदूक की नालें पाकिस्तानी निजाम की ओर तन गई। अभी भी पाकिस्तानी सेना और आईएसआई में एेसे बहुत से अफसर हैं, जो चरमपंथियों के प्रति हमदर्दी रखते हैं। वे नहीं चाहते कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग उनकी करतूतों का इस तरह खुलासा करें क्योंकि इससे मुशर्रफ सहित अनेक चेहरों पर पड़े नकाब उतर जाने का खतरा है। जरदारी के बयान पर खामोशी औढ़ने के बजाय भारत को सारे विश्व को बताना चाहिए कि पाकिस्तान ने प्रशिक्षित आतंकियों को भेजकर किस तरह यहां मासूमों की हत्या कराई और मुंबई जैसे हमले करवाकर भारत को अस्थिर करने का षड़यंत्र रचा। जब तक पाकिस्तान आतंकियों के ढाचे को पूरी तरह खत्म नहीं कर दे, तब तक भारत को उससे किसी स्तर की बातचीत भी नहीं करनी चाहिए।

Monday, July 6, 2009

भोजन का अधिकार क्यों नहीं


करोड़ों परिवारों और लोगों के पास आज भी अपना घर नहीं है। मध्यम आय वर्गीय परिवार शहरों में किराए के मकानों में रहने को विवश हैं, क्योंकि जमीनों के दाम आसमान छू रहे हैं। बैंकों से ब्याज पर ऋण लेने की वे हिम्मत नहीं कर पाते। ब्याज दरें हद से ज्यादा हैं, जिन्हें बैंक कम करने को तैयार नहीं हैं। यह हाल तो नौकरीपेशा, मध्य आय वर्गीय परिवारों का है। अब जरा उनके बारे में सोचिए, जो दूर दराज के राज्यों से एक जोड़ी कपड़ों में महानगरों, नगरों और कस्बों की ओर रोजी-रोटी की तलाश में चले आते हैं। इनमें मजदूर, रिक्शा चालक और भीख मांगकर अपना पेट भरने वाले करोड़ों लोग शामिल हैं। ये लोग फुटबाथ पर रातें गुजारने को मजबूर हैं। तपती रातें हों, कड़ाके की ठंड अथवा बरसात का मौसम, इनके लिए कोई बचाव नहीं है। हालात भयावह हैं। भुखमरी, कुपोषण, गरीबी, अभाव-एेसे अभिशाप बन गए हैं, जो भारत की करीब तीस-पैंतीस करोड़ आबादी का दामन छोड़ने को तैयार नहीं हैं। जब हमें आजादी मिली, तब देश की आबादी लगभग इतनी ही थी। इस गरीब आबादी पर सरकारों को भी दया नहीं आती। शायद इसलिए, क्योंकि यह अपने मताधिकार का उपयोग भी नहीं कर पाती है। लाखों नौजवान शहरों में कामकाज की तलाश में आते हैं लेकिन जब नौकरी नहीं मिलती तो रिक्शा चलाकर या दिहाड़ी कमाकर किसी तरह उदर पूर्ति करते हैं। किराए बहुत ज्यादा होने के कारण ये लोग रहने का ठौर-ठिकाना भी नहीं कर पाते। इनके सामने फुटबाथों पर रातें गुजारने के सिवा कोई चारा नहीं बचता। डा. मनमोहन सिंह सरकार ने अगले पांच साल में शहरों को झुग्गी-झोंपड़ियों मुक्त करने का एेलान तो किया है लेकिन उस आबादी को छत देने का भरोसा उसने भी नहीं दिया है, जो सड़कों के बीच या किनारों पर स्थित फुटबाथ पर रातें बिताती है।
आंकड़े चौंकाने वाले हैं, लेकिन यह वास्तविकता है कि आजादी के बासठ साल बाद भी भारत की बीस करोड़ से अधिक आबादी कुपोषण और भुखमरी की शिकार है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा से तो भुखमरी की खबरें मिलती ही रहती हैं, बाकी राज्य भी अपवाद नहीं हैं। पूरे विश्व में हर दिन करीब 18 हजार बच्चे भूख से मर रहे हैं। विश्व की करीब 85 करोड़ आबादी रात में भूखे पेट सोने के लिए विवश है। पूरी दुनिया में करीब 92 करोड़ लोग भुखमरी की चपेट में हैं। भारत की बात करें तो हमारे देश में 42.5 फीसद बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 2006 एेसा वर्ष रहा, जिसमें भूख या इससे होने वाली बीमारियों के कारण पूरे विश्व में 36 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ भारत में करीब 20 करोड़ लोग खाली पेट रात में सोने के लिए विवश हैं। पिछले दिनों न्यूयार्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, पूरे विश्व के तमाम देशों की तुलना में भारत में वृहत पैमाने पर बाल पोषण कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसके बावजूद भारत की हालत चिंताजनक है। भारत में जब से आर्थिक उदारीकरण आया है, एक अद्भुत विरोधाभास उदारवादियों में देखने को मिला है। जहां भारत में कई जगह अभ्युदय हो रहा है, वहीं हालात 20 साल से ज्यादा खराब होते गए हैं। खासकर लोगों की खुराक कम हुई है। सिर्फ जिंदा रहने के लिए लोग इस देश में भोजन ग्रहण कर रहे हैं और इसका मूल कारण जनसंख्या का बढ़ना नहीं है, जैसा कि अनुमान लगाया जाता रहा है। कारण है, सरकारों की उदासीनता। सरकारी नीतियां अत्यंत गरीबों और वंचितों को केन्द्र में रखकर बनाई ही नहीं जाती।
भारत विश्व की दूसरी सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था हो सकती है लेकिन मंजिल अभी भी बहुत दूर है क्योंकि भुखमरी को दूर करना सबसे बड़ी समस्या है और विश्व में भारत को इसमें 94वां स्थान मिला है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में जारी अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था के विश्व भुखमरी सूचकांक -2007 में भारत को 118 देशों में 94वें स्थान पर रखा गया है। भारत का सूचकांक अंक 25.03 है, जो वर्ष 2003 (25.73) के मुकाबले कुछ ही बेहतर हुआ है। आंकड़े बताते हैं कि हालात कितने खराब हैं। लगता ही नहीं कि सरकारें गरीबी दूर करने, असमानता मिटाने और बेहद अभावों में जी रहे लोगों का जीवन स्तर बेहतर बनाने की दिशा में ठोस उपाय कर रही है। सभी राजनीतिक दल नारे तो बहुत आकर्षक देते आए हैं परन्तु उनकी नीतियां गरीब विरोधी रही हैं। सरकारें अपना बजट या तो कारपोरेट घरानों की सलाह पर बनाती हैं अथवा मध्यम आय वर्गीय परिवारों के दबाव में, जिनके बारे में यह धारणा बन गई है कि सरकारें बनाने या गिराने में यह वर्ग ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। आजादी के बाद की विकास यात्रा का अध्ययन करें तो पता चलता है कि अमीर और अमीर हुए हैं। गरीब और ज्यादा गरीब होते चले गए हैं। यह आंकड़े आंखें खोलने वाले हैं। यहां के 35 अरबपति परिवारों की संपत्ति 80 करोड़ गरीब, किसानों, जमीन से वंचित ग्रामीणों, मजदूरों, शहरी झुग्गी-झौंपड़ी वालों की कुल संपत्ति से ज्यादा है। दूसरी तरफ दुनिया में 14 करोड़ 30 लाख बो कुपोषण के शिकार हैं। इनमें से 5 करोड़ 70 लाख भारत में हैं, जो 47 प्रतिशत होता है। एक हकीकत यह भी है कि गरीब ज्यादा तेजी से मर रहे हैं। उनकी आबादी भी बढ़ रही है।
कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ का नारा देकर फिर से सत्ता में लौटी डा. मनमोहन सिंह की सरकार ने बजट सत्र में शिक्षा के अधिकार का विधेयक लाने का एेलान किया है। यह अपने आप में कम हैरत की बात नहीं है कि अब तक बनी सरकारों को शिक्षा के अधिकार का कानून बनाने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। चूकि मनमोहन सरकार ने यह पहल की है, इसलिए उसे साधूवाद दिया जाना चाहिए, लेकिन कुपोषण-भुखमरी और अत्यंत गरीबी को देखते हुए क्या सरकार का यह फर्ज नहीं बनता है कि वह भोजन के अधिकार का कानून भी बनाए। राज्य सरकारें भले ही बदनामी के भय से भुखमरी की घटनाओं से इंकार करें परन्तु हकीकत यह है कि लगभग हर राज्य में भूख और बेहद गरीबी से लोग मर रहे हैं। देश को आजाद हुए बासठ साल हो गए हैं। आश्चर्य और अफसोस की बात है कि आज तक भी किसी सरकार ने भोजन के अधिकार का कानून नहीं बनाया। कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने इस आशय का विधेयक विधानसभा में लाने की घोषणा की है। बाकी राज्य सरकारें अभी तक चुप्पी साधे बैठी हैं। देखना यही है कि क्या केन्द्र की सरकार इस दिशा में पहल करेगी? क्या प्रणब मुखर्जी गरीबों को यह अधिकार देने की पहल करेंगे? पूरे देश की निगाहें प्रणब मुखर्जी पर टिकी थी। हर साल बजट पेश करने की परंपरा का निर्वहन करते हुए उन्होंने सोमवार को लोकसभा में इस साल के शेष बचे आठ महीनों के लिए बजट पेश किया। लोगों को उम्मीद थी कि वे राइट टु फूड (भोजन का अधिकार) पर कुछ ठोस पहल करेंगे, लेकिन उन्होंने केवल खाद्य सुरक्षा की बात की। जाहिर है, इससे अत्यंत गरीबों और वंचितों को फिर गहरी निराशा हुई होगी।