Tuesday, August 25, 2009

लाइलाज बीमारी से ग्रस्त भाजपा

क्या भाजपा लाइलाज बीमारी की शिकार हो गई है? लोग जानना चाहते हैं कि पार्टी विद डिफरेंस के आकर्षक श्लोगन के साथ मुख्य धारा की कांग्रेस और दूसरी पार्टियों को चुनौती देकर केन्द्रीय सत्ता की दहलीज तक पहुंची इस पार्टी को आखिर किसकी
नजर लग गई है। जनता पार्टी, जनता दल, संयुक्त मोर्चा और राष्ट्रीय मोर्चा की सरकारों के प्रयोग की विफलता के बाद भाजपा नीत राजग गठबंधन ने छह साल तक केन्द्र में शासन करके कांग्रेस के इस दुष्प्रचार की हवा निकाल दी थी कि गैर कांग्रेसवाद का नारा बुलंद करने वाली विपक्षी पार्टियां वैकल्पिक, स्थायी और साफ-सुथरी सरकार नहीं दे सकती। कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां यह कहकर लोगों, खासकर अल्पसंख्यकों को डराते रहे कि यदि भाजपा की सरकार बन गई तो देश टूट जाएगा। 90 के दशक से राज्यों में भी भाजपा की सरकारें सफलता के साथ काम करती आ रही हैं और 1998 से 2004 तक केन्द्र में भी उसकी सरकार रही। न देश टूटा और न राज्यों में रहने वाले अल्पसंख्यकों को असुरक्षा का बोध हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी भी और चली भी।
कुछ आत्मघाती गलतियां नहीं होती तो राजग न 2004 में हारता और न 2009 के इस प्रतिष्ठित चुनाव में। 2004 में भाजपा के चुनाव प्रबंधक और रणनीतिकार अति आत्मविश्वास के शिकार हो गए। शाइनिंग इंडिया के आत्ममुग्ध प्रचार ने उनकी लुटिया डुबो दी, जबकि 2009 के आम चुनाव में नकारात्मक प्रचार शैली भारी पड़ गई। पार्टी नेता मतदाताओं को यह समझाने में नाकाम सिद्ध हुए कि डा. मनमोहन सिंह कैसे सबसे कमजोर प्रधानमंत्री हैं और लाल कृष्ण आडवाणी किस तरह मजबूत नेता हैं और निर्णायक सरकार देने में सक्षम हैं। मुंबई पर आतंकवादी हमले को मुद्दा बनाकर कांग्रेस को घेरने की उनकी रणनीति काम नहीं आई। कंधार प्रकरण पर कांग्रेस ने हमला बोला तो भाजपा बचाव की मुद्रा में आ गई ।
कहते हैं, घर में कंगाली की हालत हो तो कलह भी शुरू हो जाती है। भाजपा सत्ता से बाहर क्या हुई, इसके नेताओं में सिर-फुटौव्वल इस कदर बढ़ गई कि कई कद्दावर नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। लिस्ट लंबी होती जा रही है। शुरुआत तो हालांकि दस साल पहले गुजरात में शंकरसिंह वाघेला से हुई थी, लेकिन बाद में उत्तर भारतीय कई नेता बगावत करते हुए भाजपा से छिटक गए। इनमें उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं उमा भारती, पार्टी के थिंक टैंक माने जाने वाले गोविंदाचार्य, दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे मदन लाल खुराना और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी शामिल हैं। हाल में रक्षा, वित्त और विदेशमंत्री जैसे अहम पदों पर रहे जसवंत सिंह को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अब अरुण शौरी का नम्बर है। वसुंधरा राजे भी हठ पकड़े हुए हैं।
कह सकते हैं कि भारतीय जनता पार्टी की अंतरकलह खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। जसवंत सिंह प्रकरण अभी शांत भी नहीं हुआ है कि अटल सरकार में मंत्री रहे अरुण शौरी ने भी शीर्ष नेतृत्व पर हमला बोल दिया है। उन्होंने भले ही पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का नाम नहीं लिया हो, लेकिन उनके निशान पर वही हैं। उन्होंने कुछ अप्रिय लगने वाले सवाल दाग दिए हैं। मसलन, लोकसभा चुनाव में नाकामी के लिए राज्यों के नेताओं को बलि का बकरा क्यों बनाया जा रहा है। पार्टी नेतृत्व खुद इसकी जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा क्यों नहीं दे देता? उन्होंने सवाल पूछा है कि विधायकों का समर्थन प्राप्त उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद से भुवन चंद खंडूडी को क्चयों हटाया गया? इसी तरह राजस्थान में विपक्ष की नेता वसुंधरा राजे को 57 विधायकों के समर्थन के बावजूद पार्टी नेतृत्व हटाने पर क्यों तुला हुआ है। उन्होंने यह सवाल भी पूछा है कि भाजपा के संस्थापक सदस्य जसवंत सिंह को निष्कासित करने से पूर्व नोटिस देने की औपचारिकता तक क्यों नहीं निभाही गई। शौरी के बगावती तेवरों से एक बार फिर पार्टी नेतृत्व सकते में है।
लोकसभा चुनाव में हार के बाद शुरू हुई कलह थमने का नाम नहीं ले रही है। जसवंत सिंह, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा उन वरिष्ठ नेताओं में रहे हैं, जो लोकसभा चुनाव में हार की जिम्मेदारी तय करने की मांग जोर-शोर से उठाते रहे हैं। दबाव के बाद राजनाथ सिंह ने बाल आप्टे के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई, जिसे हार के कारणों को तलाशने की जिम्मेदारी सौंपी गई। आप्टे कमेटी ने शिमला की चिंतन बैठक में अपनी रिपोर्ट पेश कर दी। वह मीडिया के हाथ भी लग गई। आप्टे कमेटी ने साफ कहा है कि पार्टी नेतृत्व न तो चुनाव का एजेंडा तय कर पाया और न ही महंगाई, आतंकवाद जैसे मुद्दों पर कांग्रेस को घेर पाया। बल्कि मजबूत नेता-निर्णायक सरकार का उसका नारा भी लोगों को प्रभावित करने में नाकाम सिद्ध हुआ। मनमोहन सिंह को अब तक सबसे कमजोर प्रधानमंत्री कहना लोगों को नागवार गुजरा। चुनाव के बीच में नरेन्द्र मोदी का नाम भी भावी प्रधानमंत्री के रूप में उछालना भाजपा को भारी पड़ा।
आश्चर्य की बात यह है कि पार्टी नेतृत्व ने इस रिपोर्ट पर गंभीरता से विचार करने के बजाय उसके पेश किए जाने से ही इंकार कर दिया। आज हालत यह है कि पार्टी के कई वरिष्ठ नेता नेतृत्व पर अपनी भड़ास निकालते हुए नजर आ रहे हैं। यह सही है कि 2004 में भाजपा की इतनी बुरी हार नहीं हुई थी, जितनी इस बार हुई है। ऊपर से हर बड़े नेता को कोई न कोई अहम पद की लालसा है। एेसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि अटल बिहारी वाजपेयी स्वस्थ होते और फैसलों में सक्रिय भूमिका निभाते तो क्या इस तरह की नौबत आती? निश्चित ही पार्टी को अटल जी के मार्गदर्शन और नेतृत्व की बेहद कमी खल रही है। कहना होगा कि भाजपा अजीबोगरीब संकट से गुजर रही है, जिससे निकलना उसके नेतृत्व के लिए इस समय सबसे बड़ी चुनौती है। जसवंत सिंह, अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और वसुंधरा राजे नासमाझ या छोटे-मोटे कार्यकर्ता नहीं हैं। अनुशासन का डंडा चलाकर सबको चुप कराने के बजाय यदि मूल समस्या के समाधान की तरफ गंभीर पहल की जाए तो यह पार्टी के व्यापक हित में होगा।

6 comments:

निर्मल गुप्त said...

ओमकार भाई ,
सत्ता में आने का खवाब टूटने का दर्द है यह .
शोरी हों या जसवंत सिंह सत्ता के सपने
के टूट जाने के सदमे से उबर नहीं पा रहे
हैं .
वैसे मेरा मानना है कि एक किताब लिख
देने के आधार पर किसी को दल से बाहर
का रास्ता दिखा देना केन्द्रीय नेतृत्व
की बोक्लाहट का नतीजा है .
पर केन्द्रीय नेतृत्व इतना हताश क्यों
इस पर गौर अवश्य करना होगा .
निर्मल

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

सटीक और स्पस्ट विश्लेषण |

डॉ. हरिओम पंवार - वीर रस के कवि said...

bilkul sahi vishleshan kiya apne aajkal BJP ajib se faisle le rahi hai, yakinan ye digbharmita ki nishani hai.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

सही विश्लेषण, मेरा यह मानना है कि बाकी बातो को कुछ देर के लिए हम दरकिनार कर दे तो जो अभी मुख्य बीमारी है वह यह है कि आडवाणी जी अभी घर बैठ खटिया पकड़ना नहीं चाहते ! उन्हें "जी हजूर " लोग काफी पसंद है अतः राजनाथ जी अध्यक्ष पद पर आसीन रहते हुए उनके लिए एक उपयोग वस्तु है ! बी जे पी वाले अगर इस बीमारी को अभी तुंरत ठीक करने में सफल हो जाए तो एनी बीमारियां खुद व् खुद ठीक हो जायेंगी ! मेरा राजनाथ जी से कोई बैर नहीं मगर यदि आप पिछले कुछ सालो का लेखा जोखा करे तो अध्यक्ष पद पर रहते हुए उन्होंने बीजेपी का कोई फायदा नहीं पहुचाया, नुकशान ही ज्यादा हुआ !

जगदीश त्रिपाठी said...

भाई साहब
भाजपा ने शार्टकट से सत्ता हासिल की थी। सत्ता हासिल करने के लिए उसने अपराधियों से लेकर कभी संघ भाजपा को गाली देने वालों को भी पार्टी में शामिल करने और टिकट देने से परहेज नहीं किया। इतना ही नहीं उन्हें संगठन में भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दे गईं। सत्ता के प्रभाव गुटबाजी पनपी। अब तो बेहतर यही होगा कि सब कुछ नए सिरे से शुरू किया जाए।

सलीम अख्तर सिद्दीकी said...

bjp satta janit rogon se grast ho gayee thee. sahi waqt par ellaj nahin kiya gaya. rog badh gaya hai. bus ab to duaoon kee zarurat hai.