Sunday, September 20, 2009

थरूर जैसों को मंत्री होना चाहिए ?


शशि थरूर का नाम तो आप जानते होंगे? वही, थरूर जो सयुंक्त राष्ट्र महासभा में 2006 तक उप सचिव के पद पर रहे और कोफी अन्नान रिटायर हो रहे थे तो नए महासचिव पद के लिए हुए चुनाव में जिन्हें भारत ने अपनी ओर से उम्मीदवार बनाया। जो बान की मून से हार गए। अब भी नहीं समङों हों तो बता दें कि आजकल ये महाशय भारत सरकार में विदेश राज्य मंत्री हैं। यूएन से भारत लौटे तो कांग्रेस ने उन्हें केरल से लोकसभा का टिकट थमा दिया। वे जीतकर आए तो जैसे मंत्री पद उनकी राह देख रहा था। आमतौर पर पहली बार के सांसद को मंत्री पद नहीं मिलता लेकिन चूकि उनका प्रोफाइल बड़ा ही समृद्ध था, इसलिए मनमोहन सरकार में शपथ लेने के लिए उन्हें पापड़ भी नहीं बेलने पड़े।
उन्हीं लेखक, राजनयिक, राजनीतिक और मंत्री महोदय ने ट्वीटर पर एक पत्रकार के सवाल के जवाब में कहा कि विमान के इकोनोमी क्लास में यात्रा करने वाले लोग मवेशी यानि जानवर की तरह होते हैं। शायद उन्हें इसका इल्म नहीं था कि उनकी यह अभद्र टिप्पणी उनके आगे के करियर पर विराम भी लगा सकती है। जब उन्होंने टिप्पणी की, उसके दो दिन पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी मुंबई गई तो विमान की इकोनोमी क्लास में बैठकर और लौटी भी उसी क्लास में। राहुल गांधी ने भी नई दिल्ली से लुधियाना तक की यात्रा स्वर्ण शताब्दी एक्सप्रेस से की। यानि सोनिया और राहुल ने मवेशियों की तरह विमान और ट्रेन में सफर किया।
शशि थरूर के इस दंभपूर्ण वाहियात बयान से देश भर से तीखी प्रतिक्रिया आई हैं। खुद कांग्रेस के कई नेता उबल पड़े हैं। उन्हें लगता है कि थरूर ने सोनिया और राहुल गांधी का अपमान किया है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने थरूर से इस्तीफे की मांग की है तो पार्टी प्रवक्ता जयंती नटराजन ने इस टिप्पणी को पूरी तरह अस्वीकार्य बताया है। मनीश तिवारी ने कहा है कि पार्टी उचित समय पर थरूर के खिलाफ कार्रवाई करेगी। दिल्ली के दो आलीशान पांच सितारा होटलों में तीन महीने तक रहने का रिकार्ड जिन दो मंत्रियों ने कायम कर करोडो़ रुपया खर्च किया है, उनमें शशि थरूर भी हैं। वे और विदेश मंत्री एसएम कृष्णा फाइव स्टार होटलों में डेरा जमाए हुए थे। यह मामला मीडिया में तब उछला जब वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने प्रेस के सामने इन दोनों को सलाह दी कि वे या तो अपने आवासों में जाएं या फिर हैदराबाद हाउस के अतिथि गृह में चले जाएं। इन्हें होटलों से जाना पड़ा। प्रणब दा ने मंत्रियों को यह सलाह भी दी थी कि मंदी के दौर को देखते हुए मंत्री पांच सितारा होटलों में कार्यक्रम वगैरा न रखें और बिजनेस क्लास के बजाय विमान की इकोनोमी क्लास में यात्रा करें। कई मंत्रियों ने उस समय इस पर नाक-भौं भी सिकोड़ी।
इस तथ्य का खुलासा बाद में हुआ कि प्रणब मुखर्जी ने दरअसल, प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की हिदायतों के बाद ही मीडिया के सामने इन मंत्रियों को सलाह दी थी ताकि इनके साथ-साथ दूसरे शाहखर्च मंत्रियों को भी संदेश चला जाए। प्रणब मुखर्जी एेसे मंत्रियों को सलाह देने तक सीमति नहीं रहे। पिछले सप्ताह वे कोलकाता गए तो सामान्य व्यवसायिक विमान की इकोनोमी क्लास में बैठकर। मनमोहन सिंह, सोनिया और राहुल को इसकी भनक लग गई थी कि कुछ मंत्रियों ने खर्चो में कटौती करने की उनकी मुहिम का विरोध किया है। संभवत: एेसे लोगों को नसीहत देने के लिए ही सोनिया ने मुंबई तक का सफर यात्री विमान की इकोनोमी क्लास में किया, जबकि सुरक्षा कारणों से एसपीजी, आईबी और दूसरी एजेंसियां उन्हें सलाह देती रही हैं कि वे विशेष विमान से ही यात्रा करें ताकि खतरे को कम किया जा सके।
थरूर की कौन सी ग्रन्थी ने उन्हें इतनी अभद्र टिप्पणी के लिए प्रेरित किया, यह तो वही जानें, लेकिन इससे उठे बवाल ने उनकी मुश्किलें बढ़ा दी हैं। सोनिया और राहुल उनकी हिमाकत से नाराज हैं। इसकी जानकारी मिलते ही न केवल उन्होंने बयान पर माफी मांगी बल्कि माफी मांगने के लिए शुक्रवार को सोनिया गांधी के आवास भी पहुंच गए। जाहिर है, उनकी कोशिश मंत्री पद बचाने की है। कांग्रेस ने संकेत दिए हैं कि शशि थरूर को माफ नहीं किया जाएगा और देर-सबेर उन्हें मंत्री पद से जाना होगा।
यहां सवाल यह उठता है कि लंदन में जन्मे, पढ़े-लिखे और 28 साल तक संयुक्त राष्ट्र महासभा यानि विदेश में ही नौकरी करने वाले शशि थरूर को भारत और यहां के नागरिकों, उनकी समस्याओं, माली हालत और जमीनी वास्तविकताओं की कितनी समझ है? अगर यह सब भी नहीं हो तो कम से कम उन्हें इसका ज्ञान तो होना ही चाहिए कि इस देश की एक सौ बीस करोड़ में से सौ करोड़ जनता तो विमानों में भी यात्रा नहीं करती है। वह तो ट्रेन, बसों, तांगों, ट्रकों वगैरा में ही सफर करती है। सवाल है कि जिस व्यक्ति को भारत जैसे गरीब देश की दशा और दिशा की जानकारी तक नहीं है, उसे मंत्री किसने बनाया है? उसी कांग्रेस ने न जो अपना हाथ आम आदमी के साथ बताकर वोट लेती रही है? तो दोषी कौन है?

Friday, September 11, 2009

जेट के लिए ये शुभ संकेत नहीं


लगता है कि भारत की निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी एयरलाइंस जेट एयरवेज में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। कभी प्रबंधन उन्नीस सौ कर्मचारियों की छंटनी का एेलान कर असंतोष को दावत देता है तो कभी अचानक सूचना मिलती है कि चार सौ से अधिक पायलट स्वास्थ्य खराब होने के कारण एक साथ छुट्टी पर चले गए हैं। एयरलाइंस के एक बड़े अधिकारी ने हाल में हैदराबाद में स्वीकार किया कि यात्रियों की संख्या में 20 से 25 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। मंदी और फ्यूल में बारह प्रतिशत की बढ़ोत्तरी का बहाना बनाकर एयरलाइंस इसी साल जून में घरेलू उड़ानों में किरायों में वृद्धि कर ही चुकी है। जेट एयरवेज कंपनी के साठ वर्षीय चेयरमैन नरेश गोयल का नागरिक उड्डयन क्षेत्र में अड़तीस वर्ष का अनुभव है। कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अवार्ड उनके नाम हैं। जेट एयरवेज को दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली एयर लाइंस का रुतबा हासिल है। 1993 में जेट के पहले विमान ने उड़ान भरी थी और निसंदेह इस सोलह साल के सफर में इसने कई आयाम स्थापित किए। एक सौ सात विमानों के बेड़े के साथ जेट एयरवेज रोजाना 65 शहरों के लिए तीन सौ तीस उड़ानें भरता है। न्यूयार्क, बैंकाक, सिंगापुर, लंदन सहित सोलह विदेशी शहरों तक भी जेट की उड़ानें उपलब्ध हैं। जाहिर है, विश्व स्तरीय सेवा उपलब्ध कराने के उसके दावे को देखते हुए ही सरकार ने उसे इतनी ऊंची उड़ान भरने के लिए लाइसैंस जारी किए, लेकिन अहम सवाल यही खड़ा हो रहा है कि क्चया जेट एयरवेज वे उच्च मानदंड बनाए रखने में सफल रही है, जिसके वह दावे करती है? जेट के विमानों में यात्रा करने वाले अधिकांश यात्रियों के हाल के महीनों के अनुभव कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। चाहे टिकट बुकिंग का मसला हो, पैसे वापस लौटाने का, फ्लाइट कैंसिंल होने की सूरत में यात्रियों को होटलों आदि में ठहराने की व्यवस्था का अथवा फ्लाइट के संबंध में महत्वपूर्ण सूचनाएं देने का, जेट का हाल सरकारी एयरलाइंस से भी बदत्तर नजर आने लगा है।
घरेलू उड़ानों में यदि जेट यात्रियों की पहली पसंद बनी तो इसकी कुछ पुख्ता वजहें रहीं। आरामदेह यात्रा के मामले में किंगफिशर ने भी अपना विशेष स्थान बनाया है लेकिन मंदी का रोना रोते हुए जिस तरह इन नामचीन निजी एयरलाइनों ने एक-एक कर सुविधाओं में कमी करनी शुरू की है, उससे इनके पेशेवर होने पर ही संदेह होने लगा है। निजी एयरलाइनों ने पैकेज लेने के लिए सरकार पर दबाव बनाने की गर्ज से एक दिन की हड़ताल का एेलान किया, लेकिन उन्हें सरकार के कड़े रुख के बाद हड़ताल वापसी का निर्णय लेना पड़ा। निजी एयरलाइनें भले ही मंदी का रोना रो रही हैं, वास्तविकता यह है कि अधिकांश रूट्स पर उनके विमानों में कोई सीट खाली नहीं होती। कुछ रूट्स पर तो हफ्तों पहले बुकिंग कराने के बावजूद टिकट कन्फर्म नहीं होते हैं।
यात्रियों के प्रति जिम्मेवारी और जवाबदेही के मामले में निजी एयरलाइनें किस कदर बेपरवाही दिखाने लगी हैं, इसका अंदाजा हाल की लेह-लद्दाख की यात्रा के दौरान खुद लेखक को हुआ। यह ठीक है कि रिमोट एरिया की अपनी कुछ दिक्कतें हैं और मौसम खराब होने की हालत में कोई भी एयरलाइन हो, उड़ान का खतरा नहीं उठा सकती। लेह और आसपास के पूरे क्षेत्र में इस समय तापमान दस से पंद्रह डिग्री सेल्सियस के बीच है। दूर नजर आने वाली पहाड़ियों पर बर्फबारी साफ दिखती है। पहाड़ी इलाकों में कब घना कोहरा छा जाए। धुंध के साथ बारिश शुरू हो जाए, कहा नहीं जा सकता। वापसी के समय हमें भी मौसम की बेरुखी का शिकार होना पड़ा। तय समय पर लेह एयरपोर्ट पर पहुंचे। सिक्योरिटी जांच के बाद बोर्डिंग पास ले लिया लेकिन खराब मौसम के चलते दिल्ली से लेह पहुंचने वाला जेट का विमान दिल्ली से रवाना ही नहीं हो सका। साढ़े तीन घंटे तक एयरपोर्ट पर ही इंतजार करते रहे। अंतत: यह उद्घोषणा हुई कि फ्लाइट कैंसिल कर दी गई है। बोर्डिंग पास वापस ले लिए गए। टिकटों पर सुबह सवा पांच पहुंचने का समय दर्ज कर दिया गया। बताया गया कि दिल्ली से विशेष विमान आएगा, जो सात बजे उड़ान भरेगा।
एेसी दशा में एयरलाइनें यात्रियों को होटलों में ठहराने, उनके खान-पान और लाने-ले जाने की व्यवस्था करती है। यात्रियों को जेट एटरलाइन के लेह प्रबंधकों ने इस तरह की सुविधा देने से इंकार कर दिया। इससे भी बड़ा आश्चर्य हमें तब हुआ, जब सुबह पौने पांच बजे होटल छोड़कर हम लेह एयरपोर्ट पहुंचे और वहां बताया गया कि हमारी फ्लाइट तो ग्यारह बजे है। जब जेट के प्रबंधक को पकड़ा गया तो उसने माना कि पहले सात बजे ही फ्लाइट उड़ान भरने वाली थी। बाद में इसमें संशोधन हुआ, जिसकी सूचना वे लोग कुछ यात्रियों को नहीं दे सके। इन कुछ यात्रियों की तादाद बीस से ऊपर थी। आप सहज ही कल्पना कर सकते हैं कि विश्व स्तरीय सुविधाएं देने का दावा करने वाली जेट एयरलाइंस के प्रबंधकों का क्या हाल है। वह भी देश के रिमोट एरियाज में। कहा-सुनी के बाद आखिर हम लोगों को सवा सात बजे रवाना होने वाली किंगफिशर की फ्लाइट में जगह मिल पाई।
अब यह घटनाएं आम हैं। आम आदमी के लिहाज से हमारी घरेलू एयरलाइनें आज भी सस्ती नहीं हैं। खासकर किंगफिशर, जेट, एयर इंडिया वगैरा की यात्रा बाकी के मुकाबले महंगी हैं। इनमें यात्रियों की घटती संख्या की एक बड़ी वजह बढ़ते किराये और घटती सुविधा है तो बहुत हद तक यह रवैया भी है कि यात्रियों की गर्ज है तो वह खुद फ्लाइट के कैंसिल होने की जानकारी हासिल करे। नियमानुसार एेसी दशा में एयरलाइनों को यात्रियों को एसएमएस अथवा फोन काल से सूचना देनी होती है। जेट एयरलाइन देश की निजी क्षेत्र की सबसे अच्छी विमान सेवा होने का दावा करती है, लेकिन यही हाल रहा तो बहुत जल्दी उसे अपने रुतबे से हाथ धोना पड़ेगा। पिछले साल अक्तूबर में दीवाली से ठीक पहले अचानक उन्नीस सौ कर्मचारियों की छंटनी के फरमान के बाद इस एयरलाइन्स को जबरदस्त आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था। तब नरेश गोयल को खुद सामने आकर आंदोलनरत कर्मचारियों से माफी मांगनी पड़ी थी। जिस तरह चार सौ से अधिक पायलट एक साथ छुट्टी पर चले गए हैं, उससे जहां एयरलाइन में बढ़ रहे असंतोष के संकेत मिलते हैं, वहीं यह भी पता चलता है कि अनुशासनहीनता चरम पर है और यात्रियों को होने वाली असुविधा की चिंता उन्हें नहीं है। जाहिर है, किसी भी एयरलाइन के लिए ये कोई शुभ संकेत नहीं हैं।

Monday, September 7, 2009

वाई एस आर, सोनिया और कांग्रेस


वाई एस आर के नाम से लोकप्रिय आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री डा. वाई एस राजशेखर रेड्डी को श्रधांजलि देते समय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का गला रुंध आया। कैमरों के सामने बड़ी मुश्किल से उन्होंने भावनाओं पर काबू पाने की चेष्टा की, लेकिन नाकाम रहीं। सोनिया ने अपनी सास इंदिरा गांधी, पति राजीव गांधी और देवर संजय गांधी को बेहद दुखद हादसों में खोया है। इंदिरा और राजीव आतंकवाद के शिकार हुए तो संजय गांधी विमान हादसे में मारे गए। कांग्रेस के कुछ ऊर्जावान, नौजवान और संभावनाओं से भरे हुए कुछ अन्य नेताओं को भी इसी तरह काल का ग्रास बनते उन्होंने देखा है। इनमें राजेश पायलट और माधव राव सिंधिया प्रमुख हैं। पचास और साठ की अल्पायु में यदि कोई इतना दूरदर्शी-ऊर्जावान नेता चला जाए तो यह पूरे देश की क्षति होती है। सोनिया गांधी की इस कदर उदासी के पीछे कहीं न कहीं अपने बहुत करीबियों की वे बेमिसाल यादें हैं, जो हर इस तरह के हादसे के बाद उन्हें और भी परेशान कर जाती हैं।
राजीव गांधी जब तमिलनाडु के श्री पेरुम्ब्दूर में लिट्टे के आत्मघाती हमले के शिकार हुए, तब उनकी उम्र मात्र 46 वर्ष थी। सोनिया और राजीव ने प्रेम विवाह किया था। उन दोनों का दाम्पत्य जीवन 21 वर्ष ही चला कि उन्होंने अपने सबसे प्रिय को अचानक हुए दर्दनाक हादसे में हमेशा के लिए खो दिया। इटेलियन मूल की होने के बावजूद सोनिया ने जिस तरह एक के बाद एक हादसों के बाद खुद को, परिवार और कांग्रेस को संभाला, वह अपने आप में एक मिसाल है। कोई और होता तो वाई एस आर की मौत के बाद ज्यादा से ज्यादा आंध्र प्रदेश की जनता के नाम एक भावुक संदेश देकर कर्तव्य की पूर्ति कर लेता लेकिन सोनिया हैदराबाद गईं। रेड्डी की पत्नी और परिवार के लोगों से मिलीं। उन्हें हिम्मत बंधाने की चेष्टा की। विमान हादसे में माधवराव की मृत्यु के बाद भी इसी तरह के दृश्य देखे गए थे, जब सोनिया उनके परिवार के बीच दो दिन बैठी रहीं।
सोनिया गांधी कांग्रेस जसी एेतिहासिक पार्टी का किस तरह नेतृत्व कर रही हैं, इन घटनाओं से पता चलता है। 2004 में वे चाहतीं तो प्रधानमंत्री बन सकती थीं, लेकिन उन्होंने बड़ा त्याग किया। 2009 में चाहतीं तो अपने पुत्र राहुल गांधी की ताजपोशी करा सकती थीं। डा. मनमोहन सिंह ने यह कोशिश भी की कि कम से कम राहुल केबिनेट मंत्री की उनकी पेशकश को तो मान ही लें, परन्तु वह नहीं माने। निश्चित ही इन घटनाओं ने मौजूदा राजनीति में इस परिवार का सम्मान और भी बढ़ा दिया है। हालांकि यह भी सच है कि सोनिया और राहुल गांधी का जो रुतबा, रसूख और धमक बिना पद के भी है, वह पदों पर बैठे हुए सैंकड़ों लोगों को नसीब नहीं है। सोनिया और राहुल ने विपक्ष के उस आरोप की एक तरह से हवा निकाल दी है कि यह पार्टी तो परिवारवाद और गांधी-नेहरू खानदान की बांदी बनकर रह गई है। यह सही है कि कांग्रेस में 1998 में नए प्राण इसी परिवार ने फूंके लेकिन जिस तरह सोनिया और राहुल महत्वपूर्ण सरकारी पदों से खुद को दूर रखे हुए हैं, वह न केवल दूसरों के लिए मिसाल है, बल्कि विपक्षी हमलों को भोथरा करने की उनकी रणनीति का हिस्सा भी है।
अब वाईएसआर के असामयिक निधन पर सोनिया गांधी के गला रुंध आने के दूसरे पहलू पर गौर करें। कांग्रेस के भीतर इस समय पीढ़ीगत बदलाव का दौर चल रहा है। इसकी गति भले ही धीमी हो लेकिन सोनिया गांधी के फैसलों से साफ है कि कुछ पदों को छोड़कर बाकी पर धीरे-धीरे वे अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व को आगे लाने का निर्णय ले चुकी हैं। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी, विदेश मंत्री एसएम कृष्णा, इस्पात मंत्री वीरभद्र सिंह, प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्री व्यलार रवि ही कांग्रेस की ओर से मंत्रीपरिषद में एेसे नेता हैं, जिनकी उम्र सत्तर के पार है। माना जाता है कि राजनीति में पचास और साठ की उम्र में ही जाकर प्ररिपक्वता आती है। यहां तक कि 1984 में 31 अक्तूबर को जब इंदिरा गांधी की दुखद हत्या के बाद राजीव गांधी को सातवें प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ दिलाई गई थी, तब उन्हें भी नौसिखिया कहा गया था। उनके बहुतेरे फैसले एेसे थे, जिनकी विपक्षी दल और मीडिया खिल्ली उड़ाता था। सही मायने में राजीव गांधी में उसी समय परिपक्वता दिखाई दी था, जब काल के क्रूर हाथों ने उन्हें छीन लिया। उस हादसे से तीन दिन पहले उन्होंने खुद अपने एक करीबी से कहा था कि इस बार अगर देशवासियों ने उन्हें दायित्व सौंपा तो वह उन्हें पूरी तरह बदले हुए राजीव गांधी के रूप में देखेंगे। राजीव एेसे समय चले गए, जब वे बेहतर प्रधानमंत्री हो सकते थे।
राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद सौंपने की मांग करने वाले कांग्रेस के भीतर एेसे नेताओं की कमी नहीं है, जो राजीव गांधी के 39 साल की आयु में प्रधानमंत्री बनने के तर्क पेश करते हैं। डा. मनमोहन सिंह ने जब 2004 में प्रधानमंत्री पद संभाला तो वे 72 के थे। हालांकि उनकी दो बार बाईपास सर्जरी हो चुकी है, लेकिन पूरी तरह स्वस्थ, चुस्त-चौकस नजर आते हैं। उनकी केबिनेट में कुछ अहम पदों पर भले ही कुछ उम्र दराज नेता विराजमान हैं लेकिन जिस तरह पचास-साठ की उम्र और उससे भी कम आयु के नेताओं को आगे लाया गया है, उससे संकेत साफ हैं कि अनुभव के साथ-साथ कांग्रेस नई पीढ़ी को धीरे-धीरे आगे ला रही है। आंध्र के दिवंगत मुख्यमंत्री रेड्डी की उम्र भी साठ थी। कांग्रेस अध्यक्ष के गमगीन होने की एक बड़ी वजह यह भी है। रेड्डी ने 2004 के चुनाव से पहले तीन महीने की पदयात्रा करके आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को दस साल बाद पुर्नजीर्वित किया था। 2009 में तो उन्होंने और भी बड़ा करिश्मा किया। 2004 में मिली लोकसभा सीटों में उन्होंने और वृद्धि कर दी। दोबारा वहां सरकार तो बनाई ही। यही वजह है कि चार बार लोकसभा सदस्य और छह बार विधानसभा सदस्य रहे वाईएसआर को सोनिया और मनमोहन सिंह ने दूरदर्शी और संभावनाओं से भरा नेता बताते हुए याद किया।
जमीन से जुड़े नेताओं को आज अंगुलियों पर गिना जा सकता है। खासकर कांग्रेस में एेसे नेता गिने-चुने ही हैं। ज्यादातर राज्यों में सरकारें इसलिए बन जाती हैं क्चयोंकि शासन कर रही सरकारों के खिलाफ स्वभाविक जन नाराजगी होती है। शीला दीक्षित और वाईएसआर जैसे मुख्यमंत्री कम ही देखने को मिलते हैं, जो पांच और दस साल के शासन के बाद फिर भी जन विश्वास हासिल करने में सफल रहें। 2009 में वाईएसआर ने विकास और विश्वास के नारे पर जनादेश हासिल किया। निश्चित ही कह सकते ैहैं कि वे संभावनाओं से भरे नेता थे और कांग्रेस नेतृत्व यदि सदमे में है तो इसकी वजह समझी जा सकती है। वाईएसआर जसे ऊर्जावान नेता साल-दो-साल में तैयार नहीं होते हैं। जनता एेसे ही किसी पर इतना भरोसा नहीं करती है। उनकी मौत के बाद सवा सौ लोगों के जान दे देने की घटना किसी को भी आश्चर्य में डाल सकती है। इससे पता चलता है कि वे कितने लोकप्रिय थे।