Friday, February 27, 2009

कैसे याद करें इस लोकसभा को


छब्बीस फरवरी को सुबह ग्यारह बजे यह सोचकर संसद भवन पहुंचा कि 14वीं लोकसभा के अंतिम सत्र के अंतिम दिन शायद कुछ एेसे लम्हे देखने को मिलें, जिन्हें सुखद स्मृतियों में सजाकर रखा जा सके। निराशा ही हाथ लगी। संसदीय कार्यवाही में प्रश्नकाल और शून्यकाल का विशेष महत्व है। रेल, उड्डयन, पर्यटन और श्रम मंत्री ने सदस्यों के प्रश्नों के उत्तर दिए। बारह बजे शून्यकाल से पहले लोकसभा अध्यक्ष ने जरूरी विधायी कार्य निपटवाए। समितियों-मंत्रालयों के प्रतिवेदन पटल पर रखे गए। यह देखकर गहरी निराशा हुई कि प्रश्नकाल और शून्यकाल में भी सदस्यों की उपस्थिति बहुत कम थी। नजर घुमाकर देखा तो अहसास हुआ कि अधिकांश मंत्री नदारद थे। सत्तापक्ष की बैंचें भी खाली पड़ी थीं। यही हाल विपक्षी दलों की बैंचों का था। कई दलों के संसदीय दलों के नेता सत्र के अंतिम दिन के शुरुआती घंटों में सदन में नहीं थे। जनता ने 2004 में कुछ फिल्मी हस्तियों को बड़ी उम्मीद के साथ 14वीं लोकसभा के लिए चुनकर भेजा था। उनमें से अधिकांश की दिलचस्पी संसदीय कार्यवाही में बहुत कम रही। नजर दौड़ाकर देखा तो केवल जया प्रदा पीछे बैठीं नजर आईं। धर्मेन्द्र, गोविन्दा और विनोद खन्ना अंतिम दिन भी लोकसभा नहीं पहुंचे। विनोद खन्ना फिर भी जब-तब सदन में दिखाई दे जाते थे परन्तु बाकी ने कभी भी सदन की कार्यवाही के प्रति दिलचस्पी नहीं दिखाई।
यह कयास लगाए जा रहे थे कि ह्रदय की शल्य चिकित्सा के बाद स्वास्थ्य लाभ कर रहे प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अंतिम दिन सदन में पहुंचकर सबकी शुभकामनाएं लेंगे और सदस्यों को फिर से चुनकर आने की शुभकामनाएं देंगे लेकिन वे नहीं आए। सदन के नेता प्रणब मुखर्जी की सीट भी खाली पड़ी थी। पता चला कि राज्यसभा में होने के नाते शुरुआती घंटों में वे लोकसभा नहीं आए। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी दोपहर बाद सदन में पहुंची, जब सोमनाथ चटर्जी विदाई भाषण देने वाले थे। सुबह नेता प्रतिपक्ष लाल कृष्ण आडवाणी की सीट भी खाली थी। वे भी विदाई भाषण से कुछ पहले पहुंचे। सत्तापक्ष और विपक्ष की अग्रिम पंक्ति की सीटें खाली ही पड़ी थीं। सत्र के अंतिम दिन भी वैसा ही वातावरण था, जैसा पिछले पांच साल में रहा। वैसी ही बेफिक्री, वैसी ही उदासीनता। वैसा ही तौर-तरीका। लोकसभा में भले ही यूपीए सरकार के मंत्री और सांसद कम संख्या में नजर आए लेकिन सरकारी कामकाज और विधायी कार्यो को निपटा लेने में वे पीछे नहीं थे। बृहस्पतिवार की सुबह संसद में ही केबिनेट की बैठक हुई, जिसमें अनेक फैसलों पर मुहर लगाई गई। लोकसभा में बिना चर्चा के कई विधेयकों को आनन-फानन में स्वीकृति दिला दी गई। विपक्ष ने भी इसका विरोध नहीं किया।

17 मई 2004 को इस लोकसभा का गठन हुआ था। इसे कई प्रकरणों और घटनाओं के लिए याद किया जाएगा। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें गठित होने के बाद यह मानकर तेरहवीं लोकसभा को समय से पहले भंग कराने और नया जनादेश लेने का निर्णय लिया था कि हवा राजग के पक्ष में है। इंडिया शाइनिंग का नारा बुलंद किया गया। परिणाम आए तो भाजपा को बड़ा झटका लगा। बहुमत हालांकि किसी को भी नहीं मिला। कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी लेकिन 543 सीटों वाली लोकसभा में उसे डेढ़ सौ सीट भी नहीं मिलीं। भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए वामपंथियों ने कई दलों के यूपीए गठबंधन को सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया। साझा न्यूनतम कार्यक्रम बना। सोनिया गांधी नेता चुनी गईं लेकिन उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय लिया। 1984 में सिखों के कत्लेआम के बाद से कांग्रेस से नाराज सिख समुदाय के जख्मों पर वे इस बहाने मरहम भी लगाना चाहती थीं।
बहरहाल, सरकार बनीं। उसने अपना कार्यकाल भी पूरा किया लेकिन इस दौरान अनेक एेसी घटनाएं हुईं, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। 14वीं लोकसभा में सर्वाधिक 125 दागी सांसद पहुंचे। कई अपराधी सांसद मंत्री पदों से नवाजे गए। कई जेल में पड़े रहे। भ्रष्टाचार के आरोप में दस सांसदों को लोकसभा अध्यक्ष ने बर्खास्त कर दिया। उन पर पैसे लेकर संसद में प्रश्न पूछने के गंभीर आरोप लगे थे। पक्ष-विपक्ष के सदस्यों के बीच आरोप-प्रत्यारोप तो पहले भी होते थे लेकिन इस लोकसभा में बात धक्कामुक्की तक जा पहुंची। सदन में इतना शोर-शराबा और हंगामा हुआ कि अनेक बार स्पीकर को गहरी नाराजगी जाहिर करते देखा गया। कई बार उन्होंने इस्तीफे तक की पेशकश कर डाली। कुल कार्यवाही का 24 प्रतिशत समय हंगामे की भेंट चढ़ गया। सबसे कम बैठकें होने का कलंक भी इस लोकसभा के माथे पर लगा। सोमनाथ चटर्जी ने सदस्यों के आचरण को शर्मनाक बताते हुए अंतिम सत्र में यहां तक कह दिया कि देश की जनता देख रही है। इस बार आप सब हारोगे।
वामपंथियों ने मनमोहन सरकार को कभी चैन से नहीं रहने दिया लेकिन अमेरिका के साथ एटमी करार के बाद उसने समर्थन वापस लेकर सरकार को गिराने के लिए पूरी ताकत झोंक दी। शायद यही होना शेष था। संसद में शक्ति परीक्षण के समय भाजपा के तीन सांसदों ने नोटों की गड्डियां सदन में उछालते हुए आरोप लगाया कि उन्हें समर्थन देने के लिए सत्तापक्ष ने खरीदने की कोशिश की है। इन अप्रिय घटनाओं के अलावा निसंदेह कुछ अच्छे फैसले भी इस लोकसभा में हुए। सूचना के अधिकार का कानून बना। रोजगार गारंटी कानून को स्वीकृति मिली। देर से ही सही, आतंक निरोधक कानून को सख्य बनाते हुए राष्ट्रीय जांच एजेंसी के गठन पर मुहर लगी। महिला आरक्षण विधेयक यह लोकसभा भी पारित नहीं कर सकी, जिसका वादा पिछले चुनाव में किसी और ने नहीं, सोनिया गांधी ने देश की महिलाओं से किया था।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Monday, February 23, 2009

आस्कर ने भी कहा, भारत की जय हो


लंबे समय से इस पर बहस होती रही है कि फिल्म जगत के लिए आस्कर सर्वोच्च पुरस्कार है कि नहीं। अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता भी कहते रहे हैं कि आस्कर ही अंतिम मानदंड नहीं है, लेकिन इसके बावजूद हर वर्ष भारत का फिल्म उद्योग अपनी कोई न कोई फिल्म विदेशी भाषा वर्ग में पुरस्कार के लिए वहां भेजता है। लगान, पहेली से लेकर तारे जमीं पर जैसी चर्चित फिल्में वहां भेजी गईं लेकिन दुनिया भर से आई विभिन्न भाषाओं की फिल्मों के बीच मुकाबले में पिछड़ गई. और कभी पुरस्कार नहीं जीत सकी। इस पर खुलकर बहस होनी ही चाहिए कि हमारे यहां विश्व स्तरीय फिल्में बनती भी हैं कि नहीं? शायद जावेद अख्तर सही कहते हैं कि हम अपने दर्शकों की पसंद को ध्यान में रखकर फिल्में गढ़ते हैं। आस्कर में जिस तरह की फिल्मों को पुरस्कारों से नवाजा जाता है, उनका दर्शक वर्ग एकदम अलग है। निर्माता-निर्देशक सुधीर मिश्रा इन हालातों के लिए बहुत हद तक यहां के निर्माताओं को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं कि वे लीक से हटकर फिल्म बनाने को राजी ही नहीं होते। एेसा नहीं है कि भारत में प्रतिभाओं की कमी है या बेहतरीन फिल्में यहां बनती ही नहीं हैं। सुधीर मिश्रा की बात में दम है। हिट फार्मूले में घिसी-पिटी कहानियों को अच्छा ट्रीटमैंट देकर निर्माता-निर्देशक फिल्में बनाते रहते हैं। भारतीय दर्शकों का नजरिया भी बदला है। जब भी लीक से हटकर कोई फिल्म बनाई जाती है, उसे हाथों हाथ लिया जाता है। एेसा नहीं है कि आस्कर मिलने से ही गुलजार और ए आर रहमान का नाम हुआ है या वे महान बने हैं। हकीकत यह है कि ए आर रहमान शुरू से ही विश्व स्तरीय संगीत देते आ रहे हैं और गुलजार ने अपने पहले ही गीत मोरा गोरा रंग लेई ले, मोहे श्याम रंग देई दे से बता दिया था कि वे किस दज्रे के गीतकार हैं। हकीकत तो यह है कि आस्कर को गुलजार, ए आर रहमान और भारतीय गीत-संगीत मिल गया है।
यह भी बहस का विषय है कि भारतीय राजनयिक विकास स्वरूप के इस उपन्यास क्यू एंड ए पर यदि कोई भारतीय फिल्म निर्माता निर्देशक यही ट्रीटमैंट देते हुए फिल्म बनाता तो भी क्या इसे आठ आस्कर मिलते? बेशक फिल्म की कथावस्तु मुंबई की स्लम बस्ती धारावी के जनजीवन और समस्या पर है। इसकी कहानी एक भारतीय ने लिखी है। इसमें भारत के जाने-माने संगीतकार ए आर रहमान ने बेहतरीन संगीत दिया है और हमेशा की तरह गुलजार ने दिल को छू लेने वाले गीत लिखे हैं। यह भी हकीकत है कि फिल्म में अनिल कपूर, इरफान सहित कई कलाकारों ने जीवंत अभिनय किया है लेकिन यह सब इससे पहले न जाने कितनी फिल्मों में हुआ है। रहमान की संगीत यात्रा कोई इसी फिल्म से शुरू नहीं हुई है। एेसा भी नहीं है कि स्लमडाग मिलेनियर से पहले उन्होंने श्रेष्ठ संगीत नहीं दिया है। उनका संगीत कई साल से लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। वह अद्भुत संगीतकार हैं। गुलजार के कौन-कौन से गीतों को याद करें? नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा-मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे और आने वाला पल जाने वाला है- हो सके तो इसमें जिंदगी बिता ले-पल जो ये जाने वाला है.जैसे दार्शनिक अंदाज वाले गीतों से लेकर बीड़ी जलाई ले जिगर से पिया, जिगर में बड़ी आग है और कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नैना जैसे गीतों ने समय समय पर लोगों के दिलों पर राज किया। उनके गीतों में अद्भुत प्रयोग हुए हैं। उनमें मिट्टी की सौंधी खुशबू आती है। वे कितने संवेदनशील हैं, इससे पता चलता है। जब न्यूयार्क गए तो उन्होंने कुछ महसूस किया। उन्हें चींटियां नजर नहीं आई। उन्होंने लिखा-तुम्हारे शहर में क्यूं चींटियों के घर नहीं हैं? गुलजार और रहमान के अलावा भी भारतीय फिल्म उद्योग ने एक से एक बेहतरीन गीतकार, संगीतकार, निर्माता-निर्देशक और फनकार दिए हैं। एक दौर में सुरीले गीत-संगीत की एेसी धारा बहती थी कि लोग उसे सुनने के लिए गली-कूचों में रुक जाया करते थे। मुगल-ए-आजम, मदर इंडिया, लगान और तारे जमीं पर जैसी अनेक फिल्में यहां बनी हैं, जिन्होंने लोगों के अंतरमन को झकझोर कर रख दिया। एक दौर में समानान्तर सिनेमा में एेसे-एेसे विषयों पर फिल्में बनी हैं, जिन पर आज कोई निर्माता फिल्म बनाने के बारे में सोचते भी नहीं हैं लेकिन वे फिल्में आज भी विश्व के बाकी सिनेमा पर भारी हैं और भारतीय फिल्मों में मील का पत्थर बनी हुई हैं। उस सिनेमा ने शबाना, स्मिता पाटिल, नसीरूद्दीन शाह, ओमपुरी जैसे कलाकार दिए तो सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी जैसे निर्माता-निर्देशक दिए।
सैंकड़ो साल गुलामी में जीने के बाद हमारी मानसिकता में कहीं गहरे तक हीन भावना पैठ गई है. पश्चिम जब तक हमारी पीठ नहीं थपथपाए, तब तक हम खुश नहीं होते। हमें यह मानसिकता त्यागनी होगी। कोई फिल्म आस्कर के लिए भेजी जाती है तो उम्मीदों के हवाई महल बनाते हुए एेसा माहौल बना दिया जाता है कि जैसे बस अब इसे अवार्ड मिलने ही वाला है। जसे ही वह दौड़ से बाहर होती है, एेसा माहौल बनाया जाता है, जैसे वह फिल्म उस स्तर की थी ही नहीं। यह भी कि हमारे यहां उस स्तर का सिनेमा बनता ही नहीं है। भारत में हर वर्ष बारह सौ से पंद्रह सौ तक फिल्में बनती हैं। इनमें हिंदी के अलावा भाषायी फिल्में भी होती हैं। हजारों करोड़ रुपया उनके निर्माण पर लगता है। यह सही है कि उनमें खराब फिल्मों की संख्या बहुतायत में होती है लेकिन नए विचारों, नई कहानी, नए ट्रीटमैंट के साथ भी फिल्में आती हैं। उनमें से कई फिल्में अच्छी चलती हैं। बहुत हैं, जो नए कीर्तिमान स्थापित करती हैं। आस्कर नहीं मिलने पर आंसू बहाने वालों को इस मानसिकता से ऊपर उठना होगा कि आस्कर ही सब कुछ है। दर्शक अगर आपकी फिल्म को पसंद कर रहे हैं तो उसके सामने आस्कर पुरस्कार कोई मायने नहीं रखता। हां, अगर मिलता है तो इसमें बुराई भी नहीं है।
कोई भी सिनेमा हो, उसका उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन करना होता है। हमारे यहां के दर्शक किस तरह का सिनेमा पसंद करते हैं, भारतीय फिल्मकारों के लिए यह अधिक महत्वपूर्ण है। कोई भी यह सोचकर फिल्में नहीं बना सकता कि उसे तो आस्कर जीतना है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि भारत में उस स्तर की फिल्में नहीं बनती। पहले भी बनी हैं। आज भी बन रही हैं और आगे और भी बेहतरीन दौर आने वाला है। नए निर्देशकों में कई एेसे हैं, जिन्होंने अपनी फिल्मों में अद्भुत काम किया है। इसलिए यह नहीं कहिए कि रहमान और गुलजार को आस्कर मिला है। यह कहिए कि आस्कर को रहमान व गुलजार जैसे संगीतकार और गीतकार मिल गए हैं। देर से ही सही, आस्कर को भी कहना पड़ा, भारत की जय हो।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Friday, February 20, 2009

टला नहीं अभी मुंबई जैसा खतरा


क्या देशवासियों को यह मान लेना चाहिए कि मुंबई जैसे आतंकवादी हमले आगे भी हो सकते हैं? पिछले दो दिनों में सत्ता प्रतिष्ठान की तरफ से दो एेसे बयान आए हैं, जिनसे इसके संकेत मिलते हैं। नौसेना प्रमुख एडमिरल सुरीश मेहता ने कहा कि आतंकी समुद्र के रास्ते परमाणु हथियार ला सकते हैं। इसके लिए वे माल ढोने वाले कंटेनरों का इस्तेमाल कर सकते हैं। नौसेना प्रमुख की आशंका निर्मूल नहीं है। विश्व में पचहत्तर प्रतिशत माल की ढुलाई कंटेनरों से की जाती है। यह किसी से छिपा नहीं है कि बंदरगाहों पर सामान के लदान और उतारने के समय किस कदर लापरवाही की जाती है। अमेरिका ने कंटेनरों से ढुलाई किए जाने वाले माल की सौ प्रतिशत स्केनिंग सुनिश्चित की है। मेहता ने नई दिल्ली में एक सेमिनार में इस पर जोर दिया कि भारतीय बंदरगाहों पर तो सौ प्रतिशत स्केनिंग की ही जाए, जिस देश से माल का लदान हुआ है, वह इसकी गारंटी दे कि उसकी सौ प्रतिशत जांच कर ली गई है।
गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा है कि अब भारत मुंबई जैसे आतंकवादी हमलों से निपटने के लिए पहले की तुलना में बेहतर ढंग से तैयार है। उनके अनुसार, अब अगर ऐसा कोई हमला होता है तो भारत उसका जवाब निर्णायक ढंग से दे सकेगा। तीन महीने पहले मुंबई में हुए चरमपंथी हमलों के बाद गृहमंत्री बने पी चिदंबरम ने कहा कि भारत के लिए मुख्य आतंकवादी ख़तरा सीमा पार पाकिस्तान से है। चिदंबरम ने ठीक ही कहा कि धर्मनिरपेक्षता और अनेकता में एकता की भारत की जो भावना है, उसे नष्ट करने के लिए देश को अस्थिर करने का षडयंत्र रचा जा रहा है।
दक्षिण एशिया सहित विश्व में जिस तरह का वातावरण है, उसमें भारत सहित कोई भी सरकार यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि अब मुंबई जैसे हमले नहीं होंगे। हाल में अलकायदा ने यह कहते हुए धमकाने की कोशिश की थी कि यदि भारत ने पाकिस्तान पर हमला किया तो वह मुंबई जैसे हमले झेलने को तैयार रहे। इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी पता चल गया कि अलकायदा, तालिबान, वहां से संचालित अन्य आतंकवादी संगठनों, आईएसआई और पाकिस्तान सरकार में मिलीभगत है। गनीमत है, अब अमेरिका भी इस मिलीभगत और षड़यंत्र को गहरे तक समझ रहा है। सरकार को यह बात समझनी होगी कि भारत की रक्षा-सुरक्षा के लिए कोई और नहीं आएगा। हमें ही पूरी तरह सतर्क रहना होगा और इस तरह के षड़यंत्रों के मुहतोड़ जवाब देने की पूरी तैयारी रखनी होगी।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Saturday, February 14, 2009

निठारी कांड का बुनियादी सच


निठारी कांड के मुख्य अभियुक्तों मोनिंदर सिंह पंधेर और उनके नौकर सुरेन्द्र कोली को सीबीआई अदालत ने नाबालिग रिम्पा हलदर (15) के अपहरण, बलात्कार और हत्या के मामले में फांसी की सजा सुनाई है। सीबीआई निठारी के उन्नीस में से सोलह अपहरण, बलात्कार और हत्याकांड मामलों में आरोप-पत्र दाखिल कर चुकी है। देश की राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के निठारी गांव में 2006 में बच्चो के कंकाल मिलने से पूरे देश में सनसनी फैल गई थी। सीबीआई को खोजबीन के दौरान मानव हड्डियों के कुछ हिस्से और 40 एेसे पैकेट मिले, जिनमें मानव अंगों को भरकर नाले में फेंक दिया गया था। जांच-पड़ताल में उजागर हुआ कि हत्या से पहले सभी का यौन शोषण किया गया था। पंधेर और कोली को 29 दिसंबर 2006 को गिरफ्तार किया गया था। यह आश्चर्य की बात है कि जिस पंधेर को विशेष अदालत ने फांसी की सजा सुनाई है, उन्हें मई 2007 में सीबीआई ने आरोपमुक्त कर दिया था। अदालत की फटकार के बाद पंधेर को सह अभियुक्त बनाया गया।
यह एेसा क्रूर और घिनौना मामला है, जिसने हमारी पूरी व्यवस्था और मानवीय संवेदनाओं को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है। मामला सिर्फ मासूम नाबालिगों के अपहरण, उन्हें अपनी हवस का शिकार बनाने, फिर उनकी निर्मम हत्या कर लाशों को गंदे नाले में फैंकने अथवा दफनाने का ही नहीं है, जब उन मासूमों के माता-पिता पुलिस और प्रशासन के पास न्याय की गुहार लेकर गए तो उनकी सुनवाई नहीं हुई। पूरे डेढ़ साल तक देश की राजधानी के ठीक बगल में नरपिशाच भोले-भाले मासूमों का यौन शोषण कर उनकी हत्या करते रहे परन्तु शासन-प्रशासन में बैठे अधिकारियों की तंद्रा भंग नहीं हुई। उनकी गैरत नहीं जागी। उनके भीतर का मानव कुंभकर्णी नींद सोता रहा। जब मामले ने तूल पकड़ा और दोनों आरोपी पकड़े गए, तब कुछ अधिकारियों को निलंबित और बर्खास्त कर शासन ने अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। यह सवाल पूछा ही जाना चाहिए कि जिन अधिकारियों ने गायब हुए बच्चो के अभिभावकों से यह कहते हुए दुर्व्यवहार किया कि उनकी लड़की किसी के साथ भाग गई होगी, उनके खिलाफ गंभीर धाराओं के तहत मुकदमें क्यों नहीं चलाए गए। यदि वे पहली शिकायत पर ही सतर्क होकर कार्रवाई करते तो एक के बाद एक उन्नीस मासूमों के अपहरण, यौन शोषण और हत्या नहीं होती।
बीबीसी के भारत संपादक संजीव श्रीवास्तव ठीक ही कहते हैं कि निठारी हत्याकांड शायद इक्कीसवीं शताब्दी के भारत का सबसे नृशंस, निर्मम, और बर्बर सच है लेकिन क्या हम इस सच्चाई को स्वीकार कर रहे हैं? या इस कांड से कोई सबक सीख रहे हैं? क्या दोबारा ऐसा नहीं होगा, यह बात कोई भी नेता, पुलिस अधिकारी, या पत्रकार थोड़ी भी ईमानदारी से कह सकता है? शायद नहीं। लेकिन क्यों? इसलिए कि हम घटना के अर्थ को देखते हुए भी अनदेखा कर रहे हैं? जिस देश में टेलीविजन पर क्राइम शो लोकप्रियता का नया पैमाना हैं वहाँ हमारी सोच क्या इतनी विकृत हो चुकी है कि हम निठारी कांड को भी महज एक नृशंस और सनसनीखेज वारदात से ज्यादा की तरह से नहीं देख पा रहे। व्यवस्था को इस सोच से ज्यादा कुछ माफि़क नहीं आता और इस व्यवस्था का हिस्सा हैं. राजनीतिक दल, प्रशासन, नेता, पुलिस, मीडिया.. सभी।
संजीव का कहना सही है कि इस जघन्य घटना से पहले तक एक वर्ग को यह खुशफ़हमी थी कि भारतीय लोकतंत्र में हर व्यक्ति को समान अधिकार है। कानून व्यवस्था, पुलिस प्रशासन, और सरकारी तंत्र आम भारतीय की सेवा और सुरक्षा के लिए है। निठारी एक ऐसा मामला है जिसमें भारतीय सरकारी तंत्र और व्यवस्था के हर दावे को झुठला दिया और यह साबित कर दिया कि भारत के कमजोर, गरीब और असहाय आम आदमी के लिए इस व्यवस्था में कोई जगह, पूछ या सुनवाई नहीं है। बात सिर्फ पुलिस लापरवाही और उसमें संवेदनशीलता की कमी की नहीं है। यह पूरा मामला शायद हाल के वषों में इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है कि इस पूरी व्यवस्था में गरीब का कोई माई-बाप नहीं है।
इससे यह बात भी साबित हुई है कि सरकारी तंत्र गरीब के प्रति स्वयं को किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं मानता। सोचने की बात है कि यदि किसी अमीर अथवा चर्चित व्यक्ति के बच्चों के साथ इस तरह का हादसा हो जाता तो क्या तब भी पुलिस अधिकारी इसी तरह का व्यवहार करते? सत्ता में बैठे लोग नौ प्रतिशत विकास दर के दावे करते हैं। 2020 तक महाशक्ति हो जाने की दावेदारी करते हैं। जल्दी ही चांद पर मानव भेजने की बात की जाती है। भारत संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी स्थान चाहता है, लेकिन तंत्र में जिस संवेदनशीलता की जरूरत है, वह कहीं नजर नहीं आती। अमीर-गरीब के बीच असमानता धन दौलत, संसाधनों और रुतबे के मामले में ही नहीं बढ़ी है, तंत्र के पक्षपातपूर्ण व्यवहार से भी साफ दिखने लगा है कि अमीरों के लिए कानून के अलग मायने हैं और गरीबों के लिए अलग।
देश तरक्की करे, सब चाहते हैं। सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट मिले, विश्व में भारत का नाम रोशन हो, रुतबा बढ़े-यह सबके लिए गर्व की बात है लेकिन निठारी जैसे कांड और उस पर सरकारी तंत्र का रवैया बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है? इस लोकतंत्र में तंत्र तो है, लेकिन लोक की कहीं सुनवाई नहीं है।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Friday, February 13, 2009

हाथी को चीता बना देने का लालू का दावा


इस वित्तीय वर्ष के शुरुआती चार महीने के लिए रेलवे का अंतरिम बजट पेश करते हुए रेलमंत्री लालू प्रसाद बड़े रंग में दिखाई दिए। कह सकते हैं कि पिछले पांच साल में 90 हजार करोड़ का लाभांश कमाने का दावा करते हुए रेलमंत्री ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सभी दर्जे के यात्री भाड़े में दो प्रतिशत रियायत देने का एेलान करके मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किया है। वे यह दावा करना नहीं भूले कि उन्होंने हर बजट में यात्री किराए में कमी की है। लालू यादव ने अपने परंपरागत अंदाज में शेरो-शायरी करते हुए अपनी बात लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की। जब उन्होंने कहा कि उन्होंने रेलवे को हाथी से चीता बना दिया है तो उनके शायराना अंदाज और दावे पर सदन ठहाके लगाने पर विवश हो गया। उन्होंने अपने भाषण में पांच बार शेर सुनाए। उनका यह शेर सत्तापक्ष के सदस्यों को कुछ अधिक ही पसंद आया, कारीगरी का एेसा तरीका बता दिया, घाटे का जो भी दौर था बीता बना दिया, भारत की रेल विश्व में इस तरह की बुलंद, हाथी को चुस्त कर दिया, चीता बना दिया।
इसमें कोई शक नहीं कि लालू हाजिर जवाब हैं। सदस्यों की टोकाटाकी पर वे अक्सर विचलित नहीं होते। लच्छेदार मुहावरों के जरिए जवाब देते हैं। वामपंथी हों या मुख्य विपक्षी दल भाजपा के सदस्य, सबको त्वरित जवाब देने की कोशिश उन्होंने की। लालू यादव की अपनी ही शैली है। जिस अंदाज में वे बात करते हैं, उससे किसी को भी भ्रम हो सकता है। बहुत हैं, जिन्होंने लालू को राजनीति का मसखरा तक कहा, लेकिन वे एेसे हैं नहीं। जरूरत पड़ने पर अंग्रेजी में धाराप्रवाह बोलते हैं। कभी वे विदेशी छात्रों की जिज्ञासा को शांत करते नजर आते हैं तो कभी एमबीए के स्टूडैंट्स को मैनेजमैंट के गुर सिखाते हैं। बतौर मुख्यमंत्री भले ही वे बिहार का कोई भला नहीं कर पाए हों, लेकिन रेलमंत्री के रूप में उन्होंने भारतीय रेलवे और यात्रियों का भला जरूर किया है। उनके विरोधी भी मानते हैं कि बिना रेलभाड़ा बढ़ाए उन्होंने इस भारी-भरकम विभाग को घाटे से उबारकर मुनाफे में ला खड़ा किया है। भारतीय रेलवे की यह उपलब्धि विदेशियों के लिए भी कौतूहल का विषय है। उन्होंने वह तरीका अपनाया, जिसके बारे में आमतौर पर कोई सयाना उद्यमी ही सोच सकता है। उन्होंने माल भाड़े बढ़ाए, लेकिन उन क्षेत्रों के लिए, जो उसे वहन करने में सक्षम थे और जिनका सीधा असर आम आदमी पर नहीं पड़ रहा था।
भारतीय रेल एशिया का सबसे बड़ा रेलवे नेटवर्क है। यह डेढ़ सौ वषों से भारत के परिवहन क्षेत्र का मुख्य अंग है। इसके चौदह लाख से भी अधिक कर्मचारी हैं। यह न केवल देश की मूल संरचनात्मक आवश्यकताओं को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है अपितु बिखरे हुए क्षेत्रों को एक साथ जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। राष्ट्रीय आपदा के समय रेलवे आपदा ग्रस्त क्षेत्रों में राहत सामग्री पहुंचाने में भी अग्रणी रहा है। भारतीय रेलवे को देश की जीवन धारा भी माना जा सकता है। सामाजिक-आर्थिक विकास में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। व्यापार और पर्यटन के क्षेत्र में तो यह अहम भूमिका निभाता ही रहा है, तीर्थ और शिक्षा जगत के लिए भी उपयोगी है। कृषकों व उद्यमियों के लिए भी सुविधा मुहैया कराता है। यह सही है कि भारत में रेलों की शुरुआत 1853 में अंग्रेजों ने अपनी प्रशासनिक सुविधा के लिए की थी परंतु आज यह आम ओ खास की अहम जरूरत बन चुकी है। देश के सभी हिस्सों में इसका जाल बिछा है। रेल परिवहन का सस्ता और मुख्य साधन है। एक सौ छप्पन साल के इस सफर में रेलवे ने बहुतेरे उतार-चढ़ाव देखे हैं। टेढ़े-मेढ़े रास्तों को पार किया है। भीषण दुर्घटनाएं झेली हैं। लालू यादव से पहले कई मंत्रियों ने इस अनोखे तंत्र को सजाया संवारा है। इसलिए रेलवे को यहां तक लाने का पूरा श्रेय किसी एक मंत्री या सरकार को नहीं दिया जा सकता।
आज भारतीय रेलगाड़ियां रोज एक करोड़ तीस लाख यात्रियों और लगभग तीस लाख टन सामान को एक से दूसरी जगह पहुंचाती हैं। अकेले मुंबई में ही लगभग पैंसठ लाख लोग उपनगरीय रेलों का इस्तेमाल करते हैं। इसमें किसी को संदेह नहीं है कि रेल सेवाओं में काफी सुधार हुआ है, लेकिन ज्यादातर यात्री मानते हैं कि रेलवे के अधिकारी जरूरत के मुताबिक सुविधाएं नहीं जुटा पा रहे हैं। लालू यादव भले ही रेलवे को हाथी से चीता बनाने का दावा कर रहे हैं परन्तु हकीकत यह है कि चाहे रेलगाडियों और कैंटीनों में मिलने वाले भोजन की गुणवत्ता की सवाल हो अथवा यात्रियों को मिलने वाली अन्य सुविधाओं का प्रश्न, उस पर सवाल उठते रहे हैं। सुरक्षा के मोर्चे पर भी अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। ट्रेनों में क्षमता से अधिक यात्री सवार होकर सफर करने को विवश हैं। अनेक रेलगाडियां आज भी निर्धारित समय से काफी देरी से चलती हैं. लालू जी ने डिब्बे बढाकर आमदनी तो बढ़ा ली लेकिन जेल की गति ठीक नहीं कर पाए. ऐसे में यह कहना कि उन्होंने हाथी को चीता बना दिया है, बात हजम नहीं होती.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Wednesday, February 11, 2009

अखाड़ा नहीं बनाएं सदनों को


मंगलवार को उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्षी दलों ने जमकर हंगामा किया। विधायक मेजों पर चढ़ गए। समाजवादी पार्टी के सदस्यों ने राज्यपाल को भाषण नहीं देने दिया। उन पर कागज के गोले फैंके। भाजपा सदस्यों ने बहिष्कार किया। बुधवार को आंध्र प्रदेश विधानसभा में भी एेसे ही दृश्य देखने को मिले। वहां तेलुगु देशम और टीआरएस विधायकों ने हंगामा किया। टीआरएस और टीडीपी विधायकों को निलंबित कर दिया गया। सदन में हो रही नारेबाजी को रोकने के लिए स्पीकर ने मार्शल को बुलाया और विधायकों को सदन से बाहर करने का आदेश दिया। विधायकों और मार्शलों के बीच हुई धक्का मुक्की में एक विधायक घायल भी हो गया। इसी दिन उड़ीसा विधानसभा में कांग्रेस विधायकों ने हंगामा किया।
यूपी में बसपा की सरकार है। आंध्र में कांग्रेस की तो उड़ीसा में बीजू जनता दल और भाजपा की। एेसे में सवाल उठना लाजिमी है कि सभी राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें हैं, फिर हंगामा क्यों? जवाब है लोकसभा चुनाव की तैयारी। सत्तारूढ़ दल जहां लोकलुभावन घोषणाएं करके अपने पक्ष में जनादेश बनाने की कोशिश कर रहे हैं वहीं विपक्षी दल सदनों को राजनीति का अखाड़ा बनाने से नहीं चूक रहे। यह बेहद अफसोस की बात है कि लोकतंत्र के इन पवित्र मंदिरों की गरिमा व मर्यादा को हंगामों, प्रदर्शनों, नारेबाजियों से कुचलने की शर्मनाक कोशिशें की जा रही हैं।
वृहस्पतिवार से संसद का अल्पकालीन बजट सत्र शुरू हो रहा है। लोकसभा चुनाव से पहले यह अंतिम सत्र होगा, लिहाजा यहां भी हंगामे की पूरी आशंका है। सत्तारूढ़ यूपीए गठबंधन अंतरिम रेल और आम बजट में लोकलुभावन घोषणाएं करने की तैयारी कर रहा है, जबकि विपक्षी दल एटमी करार से लेकर महंगाई, घोटालों, आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर सरकार की विफलता जैसे मसले जोर-शोर से उठाएगा। तय है कि यह सत्र वैसे ही हंगामे की भेंट चढ़ेगा, जैसे पिछले सत्र चढ़ते आए हैं।
किसी जमाने में भारतीय संसद और विधानसभाएं गंभीर बहसों के लिए जानी जाती थीं लेकिन अब ये राजनीति के अखाड़े बन गए हैं। विरोधी दलों को लगता है कि सदन की कार्रवाई को बाधित कर वे अपनी बात जनता के बीच आसानी से पहुंचा सकते हैं। यह सोचा गया था कि सीधे प्रसारण से हंगामों पर अंकुश लगेगा, लेकिन उल्टा हुआ। सदनों में आए दिन होने वाले इन हंगामों से पूरा देश चिंतित है। आखिर संसद में जो होना चाहिए, वह क्यों नहीं हो रहा है? और जो नहीं होना चाहिए, वही क्यों हो रहा है?
सदनों की एक गरिमा और मर्यादा है, जिसे बनाए रखने की जिम्मेदारी सदस्यों और राजनीतिक दलों की है लेकिन बहस का स्तर ही नहीं गिरा है, सदस्यों के आचरण पर भी सवाल उठने लगे हैं। लगता है, इसकी परवाह किसी को नहीं है कि सदनों की कार्रवाई पर कितना पैसा खर्च होता है। सत्ता-पक्ष और विपक्ष के लिए राजनीतिक हित ज्यादा अहम हो गए हैं। अब तो यह आलम है कि रोज एक बहाने की तलाश होती है। उसे तूल दिया जाता है। बहस नहीं होती, शोर होता है। नारेबाजी होती है। एक-दूसरे पर बाहें चढ़ाई जाती हैं और स्पीकर ‘ये क्या हो रहा है?’ और ‘आप बैठकर उनकी सुनते क्यों नहीं हैं?’ कहते हुए नजर आते हैं। निरंकुश सदस्य चेयर की अनदेखी कर कार्रवाई ठप कर देते हैं।
आखिर संसद और विधानसभाएं राजनीति का अखाड़ा क्यों बनती जा रही हैं? सत्तापक्ष और विपक्ष इन हालातों के लिए एक-दूसरे को दोषी ठहराने में लगे हैं। आंकड़े यह बताने को काफी हैं कि पिछले दस-पंद्रह वर्षो में सदनों में गंभीर कामकाज के घंटे और दिन घटे हैं- शोर शराबे, हंगामे, स्थगन और टोकाटाकी की घटनाएं निरंतर बढ़ रही हैं। आलम यह है कि जब किसी गंभीर विषय पर बहस की नौबत आती है तो सदन में गिने-चुने सदस्य ही दिखाई देते हैं। वित्त विधेयकों चर्चा के समय कोरम तक पूरा नहीं हो पाता।
पक्ष-विपक्ष अपने-अपने राजनीतिक हितों को साधने में लगे हैं और चाहे अनचाहे सदन हंगामे और आरोप प्रत्यारोपों के अखाड़े बन गए हैं। अकेले संसद की एक दिन की कार्रवाई पर ही एक करोड़ तेईस लाख (1,23 करोड़) रुपया खर्च होता है।
दरअसल, संसद में यह हालात एकदम पैदा नहीं हुए हैं। 1988 तक भी सब ठीक चल रहा था। साल में लगभग 100 दिन संसद बैठकर कामकाज निबटाती ही थी लेकिन उसके बाद कभी 100 दिन नहीं बैठी जबकि अमेरिकी कांग्रेस साल में डेढ़ सौ दिन काम करती है तो ब्रिटेन की हाउस आफ कामैंस करीब पौने दो सौ दिन। भारतीय संसद में कामकाज के दिन घटकर 80 रह गए हैं। और उनमें से भी अधिकांश समय हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। दुखद स्थिति तो यह है कि गंभीर विषयों एवं विधेयकों तक पर संसद में गंभीर व सार्थक बहसें नहीं होतीं। अकाल जैसे मुद्दे पर बहस के समय सदन में 100 सांसद भी नहीं थे। इसके उलट हंगामे के समय उपस्थिति ठीक रहती है। निश्चित ही सदनों में सदस्यों और राजनीतिक दलों की कार्यशैली, भूमिका और रवये के साथ-साथ जिम्मेदारी तथा जवाबदेही पर देश में इस वक्त एक गंभीर बहस की जरूरत है।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Tuesday, February 10, 2009

राहुल गांधी पर दांव लगाएगी कांग्रेस

कांग्रेस इस लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी पर दांव लगाने जा रही है। सोनिया गांधी और डा. मनमोहन सिंह के अलावा वे पार्टी के तीसरे स्टार प्रचारक होंगे। देश भर में भेजी जा रही प्रचार सामग्री में उन्हें सोनिया और मनमोहन सिंह के साथ प्रमुखता से स्थान दिया गया है। दिल्ली में सड़कों के दोनों ओर लगे होर्डिग्स और प्रचार सामग्री में भी राहुल गांधी को इन दोनों के साथ दर्शाया जा रहा है। पार्टी के इस कदम से एक बार फिर इन चर्चाओं को पंख लग गए हैं कि यदि कांग्रेस को फिर जनादेश मिला तो राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन सकते हैं। एेसे कयास लगाए जा रहे हैं कि एेसा मौका अने पर मनमोहन सिंह खुद पीछे हटते हुए गांधी-नेहरू खानदान की इस अगली पीढ़ी के लिए रास्ता बना देंगे।

राहुल गांधी को सभी अहम फैसलों में शामिल ही नहीं किया जा रहा है, बल्कि उनकी राय को खास तरजीह दी जा रही है। कार्यसमिति की बैठक में उनकी इच्छा को देखते हुए ही तीस प्रतिशत टिकट नौजवानों को देने का नीतिगत निर्णय लिया गया। माना जा रहा है कि राहुल चाहते हैं कि कांग्रेस की कमान अब धीरे-धीरे युवा नेताओं के हाथ में सौंप दी जाए। हाल ही में खुद उनकी मां सोनिया गांधी ने भी बुजुर्ग नेताओं को युवाओं को आगे आने देने की नसीहत दी थी।
कांग्रेस सूत्रों की मानें तो राहुल गांधी पार्टी के प्रचार के लिए देश भर में जाएंगे। कुछ जनसभाएं वे अपनी मां सोनिया गांधी के साथ संबोधित करेंगे तो कुछ जनसभाओं में प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह के साथ जाएंगे। कई राज्यों में वे अकेले जाकर रोड़ शो भी करने वाले हैं। पार्टी नेताओं को लगता है कि राहुल के धुंआधार प्रचार में उतरने से कांग्रेस के पक्ष में हवा बनेगी।
19 जून 1970 में जन्मे राहुल गांधी अमेठी से लोकसभा के सदस्य हैं। वह एेसे परिवार से हैं, जिसने भारत पर 37 वर्ष शासन किया है। उनके नाना जवाहरलाल नेहरू 1947 से 1964 तक, सत्रह साल प्रधानमंत्री रहे। उनकी दादी इंदिरा गांधी ने 15वर्ष तक प्रधानमंत्री पद संभाला। उनके पिता राजीव गांधी ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पांच साल तक देश की बागडोर संभाली। 2004 में उनकी मां सोनिया गांधी को भी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की नेता के नाते यह अवसर मिला था, लेकिन उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला लिया। उन्हें लगा कि विपक्षी दल उनके विदेशी मूल के मुद्दे को तूल देकर कदम-कदम पर मुश्किलें खड़ी करेंगे। 2004 में लोकसभा चुनाव जीतने वालों में राहुल गांधी भी थे, तब उनकी उम्र (34 वर्ष) थी और राजनीतिक अनुभव भी न के बराबर था। उनके पिता राजीव गांधी जब 1984 में प्रधानमंत्री बने, तब उनकी आयु 40 साल थी। जून 2009 में राहुल भी 39 वर्ष के हो जाएंगे। इसलिए यह माना जा रहा है कि कांग्रेस की ओर से वे भी प्रधानमंत्री पद के तगड़े दावेदार हैं। हो सकता है कि लोकसभा चुनाव में जाते समय सोनिया गांधी मनमोहन अथवा राहुल के नाम को आगे न करें लेकिन यदि परिणाम अच्छे रहे तो हो सकता है कि तब राहुल को कमान थमाने का निर्णय हो। यह भी संभव है कि खुद मनमोहन इस तरह का प्रस्ताव रख दें।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Friday, February 6, 2009

सिरमौर बनने की राह पर टीम इंडिया


महेन्द्र सिंह धोनी और उनकी इस यूथ ब्रिगेड ने वह करिश्मा कर दिखाया है, जो अभी तक कोई भी भारतीय कप्तान अथवा टीम नहीं कर सकी थी। लगातार नौ वनडे मैच जीतने का कारनामा। यह चौथी सीरीज है, जिसे धोनी की टीम ने भारत के नाम किया है। एक समय था, जब भारतीय क्रिकेट सुनील गावस्कर और कपिलदेव के नाम से जाना जाता था। उसके बाद सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड और सौरव गांगुली का दौर आया। यह दौर लंबा खिंचा। यह कहा जाने लगा कि जब ये लोग नहीं होंगे, भारतीय क्रिकेट में एक खालीपन आ जाएगा, जिसे भर पाना आसान नहीं होगा।
ग्रेग चैपल कोच के रूप में आए तो उन्होंने और डराया। दस-दस हजार रन बनाने वाले इन दिग्गजों की काबिलियत पर भी सवाल खड़े किए। यह सोचकर उन्हें कोच बनाया गया था कि वे विश्व विजेता आस्ट्रेलिया को हराने की तरकीब बताएंगे लेकिन यह सच है कि उनके रहते भारतीय टीम और रसातल में चली गई। नामचीन सितारों का मनोबल भी गिर गया। हालांकि भारतीयों को चैपल के इस सुझाव के लिए उनका आभारी होना चाहिए कि युवा क्रिकेटरों को मौके दिए जाने चाहिए। पहले सौरव, फिर द्रविड की वनडे टीम से विदाई हुई। अब सचिन को भी विश्राम दिया जाने लगा है।
गौतम गंभीर, युवराज सिंह, वीरेन्द्र सहवाग और महेन्द्र सिंह धोनी जैसे युवाओं ने कमान संभाल ली है। नतीजा सामने है। उन दिग्गजों के बिना भी टीम नए नए मुकाम हासिल करती जा रही है। पहले ट्वेंटी-ट्वेंटी विश्व कप जीता। उसके बाद से अब तक यह टीम चार वनडे सीरीज अपने नाम कर चुकी है। जिन्हें परास्त किया है उनमें विश्व विजेता आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, पाकिस्तान और श्रीलंका शामिल हैं। इनमें से कोई भी दोयम दज्रे की टीम नहीं है। नम्बर वन टीम बनने के लिए उसे अब सिर्फ दो पायदान और चढ़ने हैं। अगर धोनी ब्रिगेड न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका को भी हरा देती है तो वह पहले पायदान पर होगी। वैसे भी उसने अब तक जो उपलब्धियां हासिल की है, वह काबिले तारीफ हैं।
इस टीम ने श्रीलंका को चौथे एक दिवसीय मैच में हराकर नया रिकार्ड क़ायम किया है। भारत सीरीज़ तो पहले ही जीत चुका है लेकिन महेंद्र सिंह धोनी की कप्तानी में लगातार नौ वनडे जीतकर भारत ने नया इतिहास रचा है। इससे पहले भारत ने सुनील गावसकर, सौरव गांगुली और राहुल द्रविड़ की कप्तानी में लगातार आठ वनडे मैच ही जीते थे। कह सकते हैं कि इस टीम को जीत का चस्का लग चुका है। अब भरोसा कर सकते हैं कि अगर इसी तरह खेलती रही तो इसे विश्व चैम्पियन बनने से कोई नहीं रोक सकता।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Thursday, February 5, 2009

पांच करोड़ नौकरियों पर संकट


संयुक्त राष्ट्र से जुड़े संगठन अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) का कहना है कि वैश्विक आर्थिक मंदी की वजह से इस वर्ष पाँच करोड़ से अधिक लोगों को नौकरी गँवानी पड़ सकती है। संगठन की मानें तो इस कारण दुनिया भर में बेरोज़गारी का आंकड़ा सात प्रतिशत तक पहुँच जाएगा जबकि इस समय यह छह प्रतिशत के करीब है। आईएलओ का कहना है नौकरियों में होने वाली कटौतियों का सबसे बुरा असर विकासशील देशों, खासकर चीन और भारत पर पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) का कहना है कि दुनिया भर में आर्थिक विकास की दर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अब तक के सबसे निचले स्तर पर है। आईएमएफ़ का कहना है कि भारत और चीन जैसे देश दुनिया भर से मिलने वाले आर्डरों की कमी की वजह से बुरी हालत में जा पहुँचेंगे।
इस वैश्विक मंदी का असर केवल विकासशील देशों पर ही नहीं पड़ रहा है। अमेरिका की हालत सबसे ज्यादा खस्ता दिखाई दे रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को सत्ता की बागडोर संभालते ही कुछ कटु अनुभवों से दो-चार होना पड़ा है। इस तथ्य ने उन्हें भीतर तक परेशान किया है कि प्रमुख बैंकों के बड़े अधिकारियों ने महामंदी और घाटे के बावजूद बोनस के नाम पर अरबों डालर की रकम हासिल करने में जरा भी संकोच नहीं किया। ओबामा ने इसे शर्मनाक बताया कि पिछले साल आला बैंक अधिकारियों ने भारी बोनस लिए। बकौल ओबामा, अधिकारियों को नाकामी के लिए ईनाम नहीं दिया जाना चाहिए।
ओबामा ने घोषणा की है कि जिन कंपनियों को सरकारी वित्तीय पैकेज से मदद चाहिए, उनको अपने अधिकारियों के वेतन की सीमा पाँच लाख डा¬लर निर्धारित करनी होगी। इस कटु टिप्पणी के साथ ओबामा ने अमेरिकी संसद से वित्तीय संस्थानों को उबारने के लिए लगभग 800 करोड़ के पैकेज को पारित करने की अपील भी की। ओबामा को वित्तीय संकट की गंभीरता का अहसास हो चुका है। उन्होंने हाल में कहा है कि कुछ और बैंक दीवालिया हो सकते हैं। ओबामा के सामने बदहाल अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना सबसे बड़ी चुनौती होगी। 2008 की शुरुआत से ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में है और अगले एक साल तक इससे निजात मिलने की उम्मीद नहीं है। वहां बेरोज़गारी की दर लगातार बढ़ रही है।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

लम्बी नहीं खिंचे लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया

लोकसभा चुनाव की दुंदुभि बज चुकी है। निर्वाचन आयोग की तैयारियां अंतिम चरण में पहुंच गई है। राष्ट्रीय व राज्यस्तरीय राजनीतिक दलों की बैठक में चुनाव आयोग ने जानने की कोशिश की कि मतदान प्रक्रिया के लिए सही समय कौन सा हो सकता है। बोर्ड की परीक्षाओं को देखते हुए अधिकांश दलों ने अप्रैल के अंत में चुनाव करा लेने और प्रक्रिया को अनावश्यक लंबा नहीं खींचने का सुझाव दिया। पिछले चुनावों से सीख लेते हुए राजनीतिक दलों ने कहा कि चुनावी प्रक्रिया तीन सप्ताह से अधिक नहीं खिंचनी चाहिए। चार चरणों के भीतर ही मतदान संपन्न करा लिया जाना चाहिए। आचार संहिता के नाम पर विकास कार्यो को नहीं रोका जाना चाहिए और एक राज्य में एक ही दिन में मतदान करा लिया जाना चाहिए। दलों ने निर्वाचन आयोग के तीनों आयुक्तों में बेहतर समझबूझ पर भी बल दिया।
दरअसल, चुनाव आयोग की यह बैठक ऐसे समय में हुई जब मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी ने राष्ट्रपति से चुनाव आयुक्त नवीन चावला को बर्खास्त करने की सिफ़ारिश की है। हालांकि केन्द्र की यूपीए सरकार ने इसे खारिज कर दिया है। इस विवाद के बाद पहली बार इस बैठक में गोपालस्वामी और नवीन चावला एक साथ दिखे। इतना ही नहीं इस बैठक से कुछ दिनों पहले तीसरे चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी ने लंदन में कहा था कि लोकसभा चुनाव आठ अप्रैल से पंद्रह मई के बीच हो सकते हैं। इस पर भी मुख्य चुनाव आयुक्त ने प्रतिक्रिया जताते हुए कहा था कि अभी कार्यक्रम तय नहीं हुआ है। इससे यही संकेत गए कि निर्वाचन आयोग में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
भारतीय चुनाव आयोग निष्पक्ष, पारदर्शी और स्वतंत्र चुनावी प्रक्रिया के लिए विश्व भर में जाना जाता है। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में भी आयोग ने जितने पारदर्शी तरीके से चुनावी प्रक्रिया संपन्न कराई है, उसकी हर स्तर पर प्रशंसा हुई है। राजनीतिक दलों की इस दलील में दम है कि कई चरणों में चुनाव होने से संसाधनों और सुरक्षा व्यवस्था में दिक्कतें होती हैं। आचार संहिता के कारण विकास के काम भी सीधे तौर पर प्रभावित होते हैं। इसके अलावा लंबी चुनावी प्रक्रिया के कारण राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों के खर्चे भी बेतहाशा बढ़ने लगे हैं। इसलिए इस सुझाव पर आयोग को गंभीरता से विचार करना चाहिए।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

मुलायम को महंगे पड़ेंगे कल्याण

उत्तर प्रदेश की सियासी जंग तेज हो गई है। मुलायम सिंह यादव ने जब से कल्याण सिंह को साथ लिया है, कांग्रेस उखड़ी-उखड़ी नजर आ रही है। उसके उखड़ने की कुछ और वजहें भी हैं। सुनील दत्त के अभिनेता पुत्र संजय दत्त को अमर सिंह ने सपा से जोड़ा और लखनऊ से लड़ाने का एेलान किया तो कांग्रेस नेताओं के माथे पर बल पड़ गए। यूपी में लोकसभा सीटों के तालमेल को लेकर कांग्रेस, खासकर राहुल गांधी ने जिस तरह की उदासीनता और हठधर्मिता दिखाई, उससे मुलायम को झटका लगा, लेकिन अमर सिंह ने एक के बाद एक जो गुगली फैंकी, उससे कांग्रेस नेता तिलमिला गए हैं। अब वे एेलान कर रहे हैं कि जिन कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री रहते बाबरी विध्वंस हुआ, उनके सपा में रहते हुए कांग्रेस को सोचना पड़ेगा कि वह गठबंधन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाए कि नहीं। यह कहते हुए कांग्रेस भूल जाती है कि जब बाबरी ढांचे को गिराया गया, तब केन्द्र में पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस की ही सरकार थी। वे भी हाथ पर हाथ रखे बाबरी विध्वंस को देखते रहे। इस घटना के बाद से ही मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग हुआ और पार्टी उत्तर प्रदेश में सिकुड़ती चली गई। अब कल्याण सिंह को मोहरा बनाकर कांग्रेस मुलायम पर निशाना साध रही है ताकि मुसलिम सपा से कटकर फिर उसका दामन थाम लें।
यह सही है कि 1992 में जब कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और अन्य हिन्दूवादी संगठनों ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था। कल्याण सिंह सहित भाजपा की तीन राज्य सरकारों को तब बर्खास्त कर दिया गया था। कल्याण सिंह को इसी कारण एक दिन की जेल की सजा भी भुगतनी पड़ी। कांग्रेस कल्याण सिंह को मुसलिम विरोधी बताकर सपा को घेरने की कोशिश कर रही है। इस बीच कल्याण के उस दौर के उग्र भाषणों की सीडी ढूंढ-ढूंढकर निकाली जा रही हैं, जिनमें उन्होंने मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला था। उन भाषणों के अंश टेलीविजन चैनलों को उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इससे बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती का मनोरथ भी पूरा हो रहा है। यूपी के प्रभारी महासचिव दिग्विजय सिंह सहित कुछ कांग्रेस नेताओं के इधर आए बयानों से साफ होने लगा है कि कल्याण सिंह की सपा से नजदीकियों के चलते कांग्रेस अब गठबंधन नहीं करना चाहती। राजस्थान और दिल्ली में वापसी के बाद से वैसे भी कांग्रेस के भीतर कुछ ज्यादा ही आत्मविश्वास अनुभव किया जा रहा है। कांग्रेस अब भी यूपी में खुद को चुका हुआ मानने को तैयार नहीं है, जबकि सपा उसके लिए ज्यादा सीटें छोड़ने को तैयार नहीं है। इसलिए माना जा रहा है कि सपा-कांग्रेस गठबंधन सिरे नहीं चढ़ेगा।
सभी जानते हैं कि कांग्रेस अब उत्तर प्रदेश में बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं रह गई है। पिछले कुछ चुनावों के परिणाम यही बताते हैं कि बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी यूपी में निर्णायक ताकत बनकर उभरी हैं। कांग्रेस इसे जातीय व धार्मिक राजनीति का परिणाम बताकर अतीत में हुई गंभीर किस्म की गलतियों पर परदा डालने की कोशिश करती रही है, जबकि भाजपा को लगता है कि मायावती को तीन बार समर्थन देकर मुख्यमंत्री बनवाना उसकी बड़ी राजनीतिक चूक रही है। बदले हुए हालातों में बसपा को रोकने के लिए शेष राजनीतिक दल गठबंधन अथवा सीटों के तालमेल की कवायद में लगे हैं।
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि कल्याण सिंह के बेटे को समाजवादी पार्टी में शामिल कर और खुद कल्याण सिंह को दोस्त बताकर मुलायम सिंह फंस गए हैं। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एेसा करके उन्होंने मुसलमानों को नाराज कर लिया है। उनकी पार्टी के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क और आजम खां ने भी मुलायम के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। मुलायम को सफाई देनी पड़ी कि उन्होंने बाबरी विध्वंस मामले में कल्याण सिंह को क्चलीन चिट नहीं दी है। न ही वे सपा में शामिल हुए हैं। कल्याण सिंह एेलान कर चुके हैं कि वे प्रदेश भर में घूमकर समाजवादी पार्टी के पक्ष में प्रचार करेंगे। जाहिर है, एेसा कर वे अकेले भाजपा को ही चोट नहीं पहुंचाएंगे, 1992 के बाद से सपा से साथ जुड़े रहे मुसलमानों को भी नाराज करेंगे। मुलायम को लगता है कि कल्याण सिंह के साथ जुड़ने से एटा, इटावा, मैनपुरी, कन्नौज, फरूखाबाद और फिरोजाबाद क्षेत्र में सपा की हवा बनेगी। मुलायम मैनपुरी और उनके पुत्र अखिलेश फिरोजाबाद से चुनाव लड़ने वाले हैं। खुद कल्याण सिंह एटा सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे, जिन्हें समाजवादी पार्टी समर्थन देगी। इस क्षेत्र में यादव के अलावा लोध, शाक्य और अन्य पिछड़े वर्ग के मतदाता निर्णायक स्थिति में हैं।
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कल्याण सिंह को दोस्त बनाकर मुलायम सिंह ने बड़ा राजनीतिक खतरा मोल ले लिया है। उनसे मुसलिम मतदाता छिटककर मायावती की तरफ रुख कर सकते हैं। इसके अलावा नेता जी यह भी भूल रहे हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव में कल्याण सिंह सर्वाधिक लोध मतादाताओं वाली सीट से नहीं जितवा पाए थे। अपनी राजनीतिक कलाबाजियों, बड़बोलेपन और अहंकारी स्वभाव के चलते खुद कल्याण सिंह की छवि भी खराब हो चुकी है। एेसे में मुलायम सिंह का यह राजनीतिक दांव उल्टा पड़ने की आशंका ज्यादा है।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Tuesday, February 3, 2009

भारत का एटमी वनवास खत्म

भारत द्वारा अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के साथ सुरक्षा निगरानी संबंधी एक समझौते पर वियना में हस्ताक्षर करने के साथ ही लंबे समय से चला आ रहा एटमी वनवास पूरी तरह समाप्त हो गया है। अब संयुक्त राष्ट्र भारतीय परमाणु संयंत्रों की जांच कर सकेगा। दूसरी ओर भारत को परमाणु सामग्री और तकनीक आयात करने की छूट मिल जाएगी। इस समझौते को आईएईए के सदस्य देशों ने पिछले साल अगस्त में मंज़ूरी दे दी थी। समझौते के तहत भारत को अपने बाईस में से चौदह असैन्य परमाणु संयंत्रों को निगरानी के लिए आईएईए को मंजूरी दे दी है। सितंबर में परमाणु तकनीक के निर्यात और बिक्री पर नियंत्रण रखने वाला पैंतालीस सदस्यीय परमाणु सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) भी भारत को विशेष छूट देने पर सहमत हो गया था। अमेरिका के साथ परमाणु समझौते से पहले ही भारत के सामने सुरक्षा संबंधी समझौते पर दस्तख़त करने की शर्त रखी गई थी ताकि वह परमाणु संपन्न राष्ट्रों के साथ परमाणु सामग्री और तकनीकी का असैन्य इस्तेमाल कर सके । इस समझौते के बाद आईएईए के पर्यवेक्षक भारतीय असैनिक परमाणु ठिकानों की निगरानी करेंगे ताकि परमाणु ईंधन सैनिक कार्यों के लिए इस्तेमाल न हो। इस समय भारत अपनी बिजली की जरूरतों का तीन प्रतिशत परमाणु संयंत्रों से बनाता है। अनुमान लगाया गया है कि 2050 तक देश पच्चीस प्रतिशत बिजली परमाणु संयंत्रों से बनाने लगेगा। भारत के पास यूरेनियम और कोयले का सीमित भंडार है लेकिन भारत के पास दुनिया के थोरियम भंडार का 25 प्रतिशत है और संभावना है कि इसके उपयोग से भारत को भारी लाभ मिलेगा। भारत सरकार का मानना है कि इस समझौते से उसे देश और अर्थव्यवस्था की बढ़ती ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने में मदद मिलेगी। हालांकि भारत में अनेक विपक्षी दल इस तर्क से सहमत नहीं हैं। उधर अंतरराष्ट्रीय समीक्षकों का मानना है कि इससे परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न करने के बावजूद भारत को अपने परमाणु ऊर्जा उद्योग का विस्तार करने की अनुमति मिल गई है। भारत अमरीका असैन्य परमाणु समझौता एक ऐतिहासिक समझौता है। इस समझौते के साथ ही परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में पिछले तीन दशकों से चला आ रहा भारत का कूटनीतिक वनवास ख़त्म हो जाएगा। इस समझौते को लेकर मनमोहन सिंह सरकार को बड़ी राजनीतिक और कूटनीतिक अड़चनों को पार करना पड़ा है।
हालाँकि जहाँ एक ओर भारत को परमाणु तकनीक और ईंधन मिलने का रास्ता साफ़ हुआ है, वहीं दूसरी ओर उसे अपने गैर परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को आई ऐ ई ऐ की निगरानी के लिए खोलने होंगे. आस्ट्रेलिया जैसे देश अब भी इस जिद पर अडे हुए हैं की भारत पहले परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करे. कुछ रक्षा विशेषज्ञ गैर परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को आई ऐ ई ऐ की निगरानी के लिए खोलने को सही नहीं मान रहे हैं. उनका कहना है कि यह देश के व्यापक हित में नहीं है.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Monday, February 2, 2009

चुनाव आयोग पर सियासत सही नहीं

अपनी निष्पक्षता, पारदर्शिता और संवेधानिक दायित्वों के प्रति गंभीरता के लिए पूरे विश्व में विख्यात भारत का निर्वाचन आयोग आम चुनाव से ठीक पहले विवादों में घिर गया है। अब इस मसले पर राजनीति भी शुरू हो गई है। जहां भाजपा चावला को हटाने की मांग कर रही है, वहीं कांग्रेस नेताओं और कानून एवं विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज ने उल्टे मुख्य चुनाव आयुक्त की मंशा पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। संवेधानिक संस्थाओं की मर्यादा, गरिमा और विश्वसनीयता बनी रहे, यह सत्तापक्ष-विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी है। कोशिश होनी चाहिए कि संवेधानिक संस्थाओं में एेसे व्यक्ति नियुकत न हो, जिनका जुड़ाव किसी खास विचारधारा, पार्टी अथवा नेता से हो। इसके अलावा, नियुकत किए गए व्यक्ति को अपने आचरण से एेसा संकेत नहीं देना चाहिए कि वह उस संवेधानिक संस्था के बजाय किसी और का हित साध रहा है। मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी ने राष्ट्रपति को नवीन चावला को बर्खास्त करने संबंधी जो पत्र भेजा है, उसमें इसी तरह के गंभीर आरोप लगाए गए हैं। निर्वाचन आयोग में गोपालस्वामी की नियुक्ति अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय हुई थी। नवीन चावला की नियुक्ति मनमोहन सरकार ने की है। जब उनकी आयुक्त के रूप में तैनाती हुई, उसी समय से भाजपा चावला के खिलाफ मोरचा खोले हुए है। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को भेजी गई शिकायती चिट्ठी में 204 सांसदों ने कहा था कि नियुक्ति से ठीक पहले कांग्रेस से जुड़े सांसदों ने अपनी निधि से चावला की पत्नी के एक ट्रस्ट में डोनेशन दिए हैं। उनके तार 10, जनपथ से भी जुड़े रहे हैं। ये गंभीर आरोप थे, जिन्हें राजनीतिक कारणों से अनदेखा कर दिया गया। एन गोपालस्वामी ने अपने पत्र में यही कहा है कि चावला का अब तक का कार्यकाल पक्षपात पूर्ण फैसलों वाला रहा है। यह गंभीर आरोप है। इन्हें राजनीतिक कारणों से हवा में उड़ाना देशहित में नहीं होगा। अफसोस की बात है कि आयुक्तों को राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है, जिस कारण रिटायरमैंट से ठीक पहले गोपालस्वामी की इस पहल को भी शंका की दृष्टि से देखा जा रहा है।
सर्वविदित है की गोपाल स्वामी अप्रैल में मुख्य चुनाव आयुक्त पद से मुक्त होने जा रहे हैं. कांग्रेस नेता उनकी मंशा पर यह कहते हुए सवाल उठा रहे हैं कि अवकाश ग्रहण करने से कुछ ही माह पहले उन्होंने चावला को हटाने कि सिफारिश क्यों की है. क्या गोपाल स्वामी भी भाजपा के हित तो नहीं साधना चाह रहे हैं. वरिष्ठता क्रम के हिसाब से गोपाल स्वामी के बाद चावला ही मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यभार सँभालने वाले हैं. आम आदमी के बीच इस विवाद से यही संकेत जा रहे हैं कि निर्वाचन आयोग को भी राजनितिक दलों ने अपने अपने हित साधने का अखाडा बनाकर रख दिया है. इन विवादों के चलते निर्वाचन आयोग सहित सभी प्रमुख संवेधानिक संस्थाओं की गरिमा किस कदर प्रभावित होती है, इसका अंदाजा शायद इन्हे नहीं है.
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Sunday, February 1, 2009

क्यों चुनें भ्रष्ट, बेईमान और अपराधियों को?

देशवासी संसद, विधानसभा और स्थानीय निकायों में किस तरह के जनप्रतिनिधि चाहते हैं? अपराधी, दागी, भ्रष्ट, बेईमान, अनपढ़ और गैर जिम्मेदार अथवा फिर देशभक्त, ईमानदार, शिक्षित, जिम्मेदार और साफ-सुथरी छवि वाले। पिछली कुछ लोकसभा, विधानसभा, विधान परिषदों, स्थानीय निकायों को देखें तो गहरी निराशा होती है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 14वीं लोकसभा में एेसे सदस्यों की संख्या सौ से ऊपर रही, जिन पर कोई न कोई मुकदमा चल रहा था। कई राज्यों के विधानसभाओं में एेसे विधायक चुनकर पहुंचे, जिन पर हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, बलात्कार और लूट जैसी गंभीर धाराओं में मुकदमें चल रहे हैं। केन्द्र की यूपीए सरकार में कई एेसे मंत्री हैं, जिन पर गंभीर मामले अदालतों में विचाराधीन हैं। यही हाल कई राज्य सरकारों का है।
जहां सरकारों और सदनों में बहुतायत में एेसे दागी बैठकर फैसले करते हों, वहां जनता की भलाई की बात कैसे सोची जा सकती है? चुनाव से पहले जो जनप्रतिनिधि हाथ जोड़कर घर-घर वोट मांगते नजर आते हैं, चुने जाने के बाद उनके आवासों पर जनता-जर्नादन नहीं, बड़े-बड़े बिल्डर, कांट्रेक्टर, भू-माफिया, छंटे हुए बदमाश, व्यवसायी और शराब माफिया नजर आने लगते हैं। पिछले चुनाव में जो जनप्रतिनिधि अपनी संपत्ति का ब्योरा लाखों में दर्शाते हैं, वे एक-दो चुनाव के बाद करोड़ों के मालिक हो जाते हैं। सदनों में जनहित और देशहित से जुड़े मसलों पर गंभीर बहसों के बजाय एेसे मसलों पर शोर-शराबे होने लगे हैं, जिन पर वोट मिलने की उम्मीद रहती है। पूरा देश टेलीविजन पर सदन की गरिमा तार-तार होते हुए देखता है।
एक-दो को छोड़कर किसी भी राजनीतिक दल के नेता यह संकल्प लेने को तैयार नहीं दिखते कि वे दागियों को टिकट नहीं देंगे। चुनाव के समय राजनीतिक दलों में इसे लेकर होड़ मचती है कि कौन ज्यादा बाहुबलियों को अपनी ओर खींचता है। निर्वाचन आयोग की सख्ती के बावजूद धनबल और बाहुबल का भौंडा प्रदर्शन बेरोक-टोक जारी है। एेसे माननीयों को भी चुनाव लड़वाने में राजनीतिक दलों को शर्म नहीं आती, जिनके खिलाफ तीस से चालीस तक मुकदमें दर्ज हैं।
एेसे राजनीतिक दल भी हैं, जो धनपतियों से मोटी धनराशि लेकर उन्हें टिकट थमाने में हिचक महसूस नहीं करते। एेसे जनप्रतिनिधि चुने जाने के बाद भेंट चढ़ाई गई उस धनराशि को न केवल ब्याज सहित वसूलने में जुट जाते हैं, बल्कि अपनी आने वाली सात पुश्तों का बंदोबस्त भी कर जाते हैं। जोड़-तोड़, गणेश-परिक्रमा और धनबल के आधार पर यदि मंत्री पद मिल जाता है तो एेसे माननीय अपने पूरे खानदान, रिश्तेदारों, जान-पहचान वालों और समर्थकों के साथ-साथ चुनाव के समय मोटा चंदा देने वालों के तमाम कष्ट दूर कर डालते हैं। हर नया प्रोजेक्ट उन्हें दुधारू गाय नजर आता है।
आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले स्वाधीनता सेनानियों ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि अंग्रेजों के जाने के बाद जब सत्ता और शक्ति देशवासियों के हाथों में आएगी तो भ्रष्टाचार पूरी व्यवस्था और लोगों की उम्मीदों को इस तरह लील जाएगा। आम आदमी हतप्रभ और लाचार है। चुनाव से पहले उनकी तमाम दिक्कतों को दूर करने का वादा करने वाले राजनीतिक दल और उनके नेता चुने जाने के बाद अपने परिवार की दिक्कतें दूर करने में जुट जाते हैं। आम आदमी अपने जायज काम करवाने के लिए एक विभाग से दूसरे विभाग और एक बाबू से दूसरे बाबू व अधिकारी के यहां धक्के खाता रहता है, परन्तु सिवाय हताशा के उसे कुछ नहीं मिलता। इंसाफ पाने के लिए वह न्यायालयों की शरण में जाता है तो उसे वहां भी गहरी निराशा हाथ लगती है। एक मामूली से मामले में न्याय पाने के लिए कई बार तो उसे दस से पंद्रह साल तक वकीलों, कोर्ट-कचहरी और मोहर्रिर के चक्चकर काटने पड़ते हैं। लुट-पिटकर भी तारीख ही उसके हिस्से में आती है।
देश में इस पर गंभीर चर्चा छेड़े जाने की जरूरत है कि मतदाताओं को किस तरह के जनप्रतिनिधि चुनने चाहिए। टेलीविजन चैनलों पर कभी-कभार इस पर बहस होती है, लेकिन इस बहस को शहरों की गलियों, नुक्कड़ों और चौराहों से लेकर गांव की चौपालों तक ले जाए जाने की जरूरत है। जिस सरकारी तंत्र को देश की जनता को अपना माई-बाप समझना चाहिए, वह उनके इशारों पर कत्थक नृत्य करता नजर आता है, जो वंशवाद को बढ़ाने में लगे हैं और जिन्होंने माफियाओं, बाहुबलियों, अपराधियों और मुनाफाखोरों के हाथों में सत्ता और अपने जमीर को गिरवी रख दिया है। पुलिस-प्रशासन लोकसेवक के अपने दायित्व को भूलकर एेसे राजनेताओं की जी-हुजूरी में दुम हिलाते नजर आने लगे हैं, जो सिर्फ और सिर्फ अपने, अपने परिवारजनों और अपनी पार्टी के हित के बारे में सोचते हैं। किस क्षेत्र में कौन सा विकास कार्य होना है और उसका उसे क्या राजनीतिक और अािर्थक लाभ मिलेगा, यह सोचकर फैसले लिए जाते हैं। विकास को तरसती जनता आजादी के इतने वर्षो बाद भी खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रही है। हर पांच साल बाद वह इस आस-उम्मीद में दूसरी पार्टी को सत्ता सौंपती है कि शायद वह उसके सपने पूरे करेगी लेकिन सिवाय निराशा के उसे कुछ नहीं मिलता।
सवाल है कि इस निराशाजनक स्थिति से कैसे उबरा जाए? इसका एक ही उपाय है कि लोगों को जागरूक करने का अभियान छेड़ा जाए। वे चाहे किसी भी राजनीतिक दल के समर्थक हों, उन्हें इसके लिए शिक्षित किया जाए कि चुनाव में एेसे उम्मीदवार को किसी भी सूरत में वोट न दें, जो भ्रष्ट, बेईमान, अपराधी, गैर जिम्मेदार और अराजक हो। संसद, विधानसभाओं और स्थानीय निकायों में यदि लोगों ने पढ़े-लिखे, स्वच्छ छवि वाले, देशभक्त और ईमानदार जनप्रतिनिधि ही भेजने का पक्का प्रण ले लिया तो मौजूदा हालात सुधरने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com