Tuesday, April 28, 2009

बोफोर्स आज भी बड़ा मुद्दा

शहर भी उनका। अदालत भी उनकी। मुंसिफ भी वही। मुझे पता है-मेरा कसूर निकलेगा। इसे आज के परिपेक्ष्य में यूं भी कह सकते हैं-सरकार भी उनकी। कानून मंत्रालय भी उनका। सीबीआई भी उनकी। अटार्नी जनरल भी उनका। मुझे पता है-बोफोर्स में दलाली खाने वाले इतालवी व्यापारी ओत्तावियो क्वात्रोक्की का कुछ नहीं बिगड़ेगा। और एेसा ही होता नजर आ रहा है। केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने इंटरपोल से कहा है कि बोफोर्स तोप मामले में अभियुक्त ओत्तावियो क्वात्रोक्की का नाम रेड कार्नर नोटिस सूची से हटा दिया जाये। भारत के कहने पर ही क्वात्रोक्की का नाम बारह साल पहले रेड कार्नर नोटिस में डाला गया था। सीबीआई 30 अप्रैल को कोर्ट के समक्ष यह अपील करने जा रही है। सीबीआई के प्रवक्ता की मानें तो एजेंसी ने एटार्नी जनरल मिलान बैनर्जी से सलाह लेने के बाद ही यह फैसला लिया है। करीब 21 साल पहले यह बात सामने आयी थी कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें सप्लाई करने का सौदा हथियाने के लिये 80 लाख डालर की दलाली चुकायी थी। उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, जिसके प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। स्वीडन की रेडियो ने सबसे पहले 1987 में इसका खुलासा किया।
आरोप था कि राजीव गांधी परिवार के नजदीकी बताये जाने वाले इतालवी व्यापारी ओत्तावियो क्वात्रोक्की ने इस मामले में बिचौलिये की भूमिका अदा की, जिसकी एेवज में उसे दलाली की रकम का बड़ा हिस्सा मिला। कुल चार सौ बोफोर्स तोपों की खरीद का सौदा 1.3 अरब डालर का था। आरोप है कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारत के साथ सौदे के लिए 1.42 करोड़ डालर की रिश्वत बांटी थी। काफी समय तक राजीव गांधी का नाम भी इस मामले के अभियुक्तों की सूची में शामिल रहा लेकिन उनकी मौत के बाद नाम फाइल से हटा दिया गया। सीबीआई को इस मामले की जांच सौंपी गयी लेकिन सरकारें बदलने पर सीबीआई की जांच की दिशा भी लगातार बदलती रही। एक दौर था, जब जोगिन्दर सिंह सीबीआई चीफ थे तो एजेंसी स्वीडन से महत्वपूर्ण दस्तावेज लाने में सफल हो गयी थी। जोगिन्दर सिंह ने तब दावा किया था कि केस सुलझा लिया गया है। बस, देरी है तो क्वात्रोक्की को प्रत्यर्पण कर भारत लाकर अदालत में पेश करने की। उनके हटने के बाद सीबीआई की चाल ही बदल गयी। इस बीच कई एेसे दांवपेंच खेले गये कि क्वात्रोक्की को राहत मिलती गयी। दिल्ली की एक अदालत ने हिंदुजा बंधुओं को रिहा किया तो सीबीआई ने लंदन की अदालत से कह दिया कि क्वात्रोक्की के खिलाफ कोई सबूत ही नहीं हैं। अदालत ने क्वात्रोक्की के सील खातों को खोलने के आदेश जारी कर दिये। नतीजतन क्वात्रोक्की ने रातों-रात उन खातों से पैसा निकाल लिया।
2007 में रेड कार्नर नोटिस के बल पर ही क्वात्रोक्की को अज्रेटिना पुलिस ने गिरफ्तार किया। वह बीस-पच्चीस दिन तक पुलिस की हिरासत में रहा। सीबीआई ने काफी समय बाद इसका खुलासा किया। सीबीआई ने उसके प्रत्यर्पण के लिए वहां की कोर्ट में काफी देर से अर्जी दाखिल की। तकनीकी आधार पर उस अर्जी को खारिज कर दिया गया, लेकिन सीबीआई ने उसके खिलाफ वहां की ऊंची अदालत में जाना मुनासिब नहीं समझा। नतीजतन क्वात्रोक्की जमानत पर रिहा होकर अपने देश इटली चला गया। पिछले बारह साल से वह इंटरपोल के रेड कार्नर नोटिस की सूची में है। सीबीआई अगर उसका नाम इस सूची से हटाने की अपील करने जा रही है तो इसका सीधा सा मतलब यही है कि कानून मंत्रालय, अटार्नी जनरल और सीबीआई क्वात्रोक्की को बोफोर्स मामले में दलाली खाने के मामले में क्लीन चिट देने जा रही है। चूकि चुनाव का समय है, इसलिये कांग्रेस के विरोधी इस मामले को सस्ते में निपटने नहीं देंगे। विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी, माकपा महासचिव प्रकाश करात, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती सहित कई शीर्षस्थ नेताओं के तीखे बयान आ चुके हैं। आडवाणी ने साफ कहा कि इस कदम से साफ हो गया है कि यूपीए सरकार को चुनाव में अपनी वापसी का भरोसा नहीं रह गया है। पिछले पांच साल में सीबीआई के राजनीतिक दुरुपयोग के लिये उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को दोषी ठहराने में गुरेज नहीं किया।
हालांकि गौर करने वाली बात यह भी है कि 1998 से 2004 तक छह साल केन्द्र में भाजपा की सरकार भी रही। नब्बे के दशक में वी पी सिंह, चंद्रशेखर, एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल भी गैर कांग्रेसी सरकारों के प्रधानमंत्री के तौर पर सत्तानशीं रहे, लेकिन कोई भी सरकार इस चालाक इतालवी व्यापारी को अर्जेटीना और मलेशिया से प्रत्यर्पित कर भारत लाने में सफल नहीं हो सके। इसलिए कपिल सिब्बल कांग्रेस सरकार और सीबीआई का बचाव करते हुए यदि लाल कृष्ण आडवाणी पर यह कहते हुए निशाना साधते हैं कि जब उनकी सरकार थी, तब वे क्वात्रोक्की के खिलाफ कोई सबूत क्यों नहीं ला सके तो उनका तर्क भी समझा जा सकता है। ठीक लोकसभा चुनाव के बीच बोफोर्स दलाली से जुड़े इस प्रकरण में नये सिरे से उबाल आ गया है। प्रमुख विपक्षी दलों भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए फिर गोला दाग दिया है कि अपने राजनीतिक हित साधने के लिए मनमोहन सरकार ने फिर सीबीआई का दुरुपयोग किया है।
यह जानते-समझते हुए कि लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं और विपक्षी दल इसे मुद्दा बनाने से नहीं चूकेंगे, सरकार और सीबीआई ने इंटरपोल से क्वात्रोक्की का नाम मोस्ट वांटेड सूची से हटाने की अपील करने का निर्णय क्यों किया, यह समझने की जरूरत है। आश्चर्य की बात है कि कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज और सीबीआई के प्रवक्ता एेसी सफाई दे रहे हैं, जो किसी के गले आसानी से नहीं उतर सकती। भाजपा कह रही है कि कांग्रेस को चुनाव में अपनी हार का अहसास हो गया है, इसलिए सत्ता हाथ से जाने से पहले वह अपने मित्रों को क्लीन चिट देना चाहती है। सरकार ने यह फैसला एेसे समय किया है, जब चुनाव चल रहे हैं। इसलिए कांग्रेस भाजपा व विपक्षी दलों के पलटवार पर बचाव की मुद्रा में आ गयी है। क्वात्रोक्की प्रकरण में सीबीआई की भूमिका संदिग्ध बन गई है। साफ-साफ दिखायी दे रहा है कि उसने नयी सरकार के गठन से कुछ ही समय पहले किसी के इशारे पर यह कदम उठाया है, जिनसे क्वात्रोक्की को कानूनी लाभ मिल सके और वह पूरी दुनिया में जहां चाहे, स्वच्छंद तरीके से घूम-फिर सके।
जाहिर है, विपक्ष इसे आसानी से हाथ से नहीं जाने देगा। अभी दो चरण का मतदान पूरा हुआ है। तीन चरणों का शेष है। यह एेसा मसला है, जिस पर 1989 में राजीव गांधी की सरकार चली गयी थी। वीपी सिंह हीरो के तौर पर उभरे थे। यह अलग बात है कि उनकी सरकार भी बोफोर्स दलाली का सच सामने लाने में विफल रही थी। बाद में भी समय-समय पर यह मुद्दा देश में राजनीतिक तूफान लाता रहा। इस प्रकरण के सामने आते ही जिस तरह की राजनीतिक हलचल शुरू हुई, उससे साफ है कि बोफोर्स दलाली आज भी भारत में बड़ा राजनीतिक मुद्दा है। कांग्रेस को चुनाव में इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Monday, April 27, 2009

लेकिन जरूरी है लिट्टे का खात्मा

श्रीलंका में अलग तमिल राष्ट्र हो या नहीं, यह अलग मुद्दा है. लिट्टे ने इसकी आड़ में हिंसा का रास्ता अपनाते हुए वहां जिस तरह के हालात पैदा किये, उनका समर्थन नहीं किया जा सकता. लिट्टे की हिंसा में अब तक नब्बे हजार नागरिकों की जान जा चुकी है. उनमे वहां के राष्ट्रपति प्रेमदासा, कई मंत्री और जाने-माने चेहरे शामिल हैं. भारत यह कैसे भूल सकता है की प्रभाकरन ने 1991 में लोकसभा चुनाव के दौरान तमिलनाडु के श्री पेराम्बुदूर में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की भी निर्मम हत्या करा दी थी.
श्रीलंका सरकार द्वारा लिट्टे के खिलाफ जारी कार्रवाई में हवाई हमलों और भारी हथियारों के इस्तेमाल को रोकने के एेलान से भारत, अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र, मानवाधिकारवादियों और तमिलनाडु में तमिल राजनीति करने वालों को निश्चय ही राहत मिली होगी। पिछले कई साल से सेना से लोहा ले रहे लिट्टे ने खुद को पूरी तरह घिरा हुआ पाकर दो दिन पहले एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की थी, जिसे सरकार ने मजाक बताते हुए ठुकरा दिया था। श्रीलंका सरकार की इस निर्णायक सैन्य कार्रवाई का ही नतीजा है कि प्रभाकरण और उनके लड़ाके उत्तर-पूर्वी श्रीलंका में मात्र छह किलोमीटर परिधि में सिमटकर रह गए हैं। तीन दिन पहले श्रीलंका के रक्षा मंत्री ने एेलान किया था कि जल्द ही प्रभाकरण को पकड़ लिया जायेगा अथवा मार गिराया जायेगा। राजपक्षे सरकार के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह आ गयी है कि युद्ध क्षेत्र बहुत सीमित हो गया है और वहां करीब एक लाख तमिल लोग फंस गये हैं। प्रभाकरण खुद को बचाये रखने के लिये उन्हें ढाल की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। उनमें बहुत से बीमार हैं। हजारों एेसे हैं, जिनके पास खाने का कोई सामान शेष नहीं बचा है। बहुत से सैन्य कार्रवाई और लिट्टे के जवाबी हमलों में जख्मी हो गये हैं।
यह और भी दु:खद है कि युद्ध क्षेत्र में बचाव व राहत दलों को प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा रही है। रेड़क्रास और यूएन के प्रतिनिधि भी लोगों तक राहत सामग्री नहीं पहुंचा पा रहे हैं। भारत-अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र समेत कई देशों ने श्रीलंका सरकार से अपील की थी कि मानवीय दृष्टिकोण को मद्देनजर रखते हुए वह युद्धविराम घोषित कर जरूरतमंदों को तुरंत राहत व मदद पहुंचाने की मुहिम शुरू करे। यह राहत की खबर है कि अंतत: श्रीलंका सरकार ने फिलहाल हवाई हमलों और भारी हथियारों के इस्तेमाल को स्थगित करने का निर्णय लिया है।
वहां हालात वाकई बहुत खराब हैं। सरकार यह दावा जरूर कर रही है कि युद्ध क्षेत्र से बाहर निकाले जा सके लाखों लोगों के लिए राहत शिविरों में खाने-रहने व उपचार की व्यवस्था कर दी गयी है, परन्तु वहां से आ रही खबरों से साफ है कि सरकार नाम मात्र की राहत ही उपलब्ध करा पा रही है। इन हालातों के लिये पूरी तरह महेन्द्र राजपक्षे सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। सरकार ने लिट्टे से अनेक बार यह अपील की है कि वह हथियार फैंककर आत्मसमर्पण कर दे, लेकिन प्रभाकरण और उनके कमांडो ने सुनवायी नहीं की। उन्हें लगता रहा कि युद्ध क्षेत्र में फंसे तमिल लोगों की ओट लेकर वे बचे रहेंगे, लेकिन सरकार ने इस बार आर-पार का फैंसला लेकर ही कार्रवाई शुरू की थी।
भारत सरकार आमतौर पर पड़ोसी देशों के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देती है, लेकिन तमिलनाड़ु में एम करुणानिधि और जयललिता की तमिल राजनीति उसे श्रीलंका सरकार पर दबाव बनाने को बाध्य करती रही है। करुणानिधि ने लोकसभा चुनाव में लाभ लेने की मंशा से सोमवार सुबह अचानक आमरण अनशन शुरू कर दिया। राहत की बात है कि श्रीलंका सरकार ने भी इस बीच व्यापक सैन्य कार्रवाई को स्थगित करने का निर्णय ले लिया। इसके बाद करुणानिधि ने अनशन खत्म कर दिया। अब यह जरूरी है कि युद्ध क्षेत्र में फंसे लोगों को वहां से निकालकर उन्हें राहत पहुंचायी जाये। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाये कि युद्ध विराम का लाभ उठाकर प्रभाकरण के लड़ाके भागने न पायें।
श्रीलंका सरकार ने कोलंबो से जारी एक बयान में कहा कि सेना का अभियान अब पूरा हो चुका है और भारी हथियारों, बंदूकों का इस्तेमाल रोक दिया गया है। बयान में कहा गया है कि अब प्राथमिकता युद्ध प्रभावित क्षेत्न में फंसे आम लोगों को बाहर निकालने और उनकी जान बचाने की है। श्रीलंका सरकार के इस बयान के तुरंत बाद ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्नी ने सोमवार की सुबह शुरू हुआ अपना अनिश्चितकालीन अनशन समाप्त कर दिया। छह घंटे बाद ही अपना अनशन वापस लेते हुए उन्होंने बताया कि ऐसा वो केंद्र सरकार की ओर से मिले आश्वासन के बाद कर रहे हैं। करुणानिधि सोमवार की सुबह छह बजे तमिलनाडु की राजनीति के स्तंभ रहे अन्नादुरई की समाधि पर गए और अनिश्चितकालीन अनशन शुरू कर दिया। उन्होंने अनशन शुरू करते हुए कहा कि एलटीटीई के संघर्षविराम के बावजूद राष्ट्रपति राजपक्षे ने लोगों को मारना बंद नहीं किया है। अगर वो तमिल नागरिकों को मार रहे हैं तो वो मुङो भी मार दें। श्रीलंका की सरकार वहाँ के तमिलों की ही तरह मेरी भी जान ले ले। डीएमके पार्टी और उनके पारिवारिक लोगों का कहना है कि उन्होंने किसी से इस बारे में सलाह भी नहीं की और ख़ुद ही तमिलों के मुद्दे पर क्षुब्ध होकर अनशन करने का फैसला ले लिया। राज्य के मुख्यमंत्नी और केंद्र में सत्तारूढ़ डीएमके नेता का अनशन राज्य के लोगों और देश के राजनीतिक गलियारों को स्तब्ध करने वाला
विशेषज्ञों की राय में करुणानिधि ने जो काम अब किया है उसे उन्हें इस मुद्दे पर कुछ समय पहले ही कर देना चाहिए था। इससे करुणानिधि अपने पक्ष में एक राजनीतिक माहौल भी बना पाते और सियासी हलकों में दबाव भी। चुनाव के दौर से गुजर रहे भारत में तमिलनाडु राज्य की संसदीय सीटों के लिए 13 मई को मतदान होना है। इस बार राज्य की राजनीति में श्री लंकाई तमिलों का मुद्दा सबसे प्रमुखता से छाया हुआ है और विपक्षी नेता जयललिता सहित कई राजनीतिक मोर्चे करुणानिधि और उनकी पार्टी डीएमके को घेरते रहे हैं, उनकी आलोचना करते रहे हैं। दो दिन पहले ही जयललिता ने यह कहकर श्री लंकाई तमिलों के मुद्दे को और हवा दे दी कि उनकी पार्टी श्रीलंका के उत्तर में एक पृथक तमिल राष्ट्र की पक्षधर है।

Sunday, April 26, 2009

मनमोहन की संभावना सबसे कम

दो चरणों के मतदान के बाद इसे लेकर भ्रम और गहरा हुआ है कि केन्द्र में अगली सरकार किसकी होगी। 2004 के मुकाबले
कांग्रेस की ताकत घटने की आशंका है। एेसा उसके मिथ्या अहंकारवादी रवैये और सहयोगियों की बयानबाजी से होने जा रहा है। कांग्रेस को भी कछ-कुछ वैसी ही गलतफहमी हो गयी है, जैसी 2004 में चुनाव से ठीक पहले भाजपा को हुई थी। उसे शाइनिंग इंडिया का प्रचार ले डूबा, कांग्रेस को जय हो की भाव भंगिमा मंहगी पड़ने जा रही है। लालू यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव और शरद पवार के बयानों से जनता में यह संकेत चला गया है कि कांग्रेस के नेतृत्व में अगली सरकार नहीं बनने जा रही। जयललिता, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडु और मायावती की रहस्यमय चुप्पी ने तीसरे मोर्चे के झंडाबरदार प्रकाश करात की चिंताएं बढ़ा दी हैं। ये चार एेसे चेहरे हैं, जो चुनाव परिणामों के बाद बड़ी राजनीतिक सौदेबाजी करके भाजपा के साथ भी जा सकते हैं। यह तभी संभव है, जब भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर सामने आये। अंदर से प्रकाश करात भले ही चिंतित हों, लेकिन कैमरों के सामने वे यही दर्शा रहे हैं कि किंग मेकर की भूमिका एक बार फिर लाल ब्रिगेड ही निभाने जा रही है। हालांकि जमीनी हकीकत यह है कि पश्चिम बंगाल और केरल से लेकर त्रिपुरा तक वामपंथियों की ताकत घटने जा रही है। जिस तरह लालू-पासवान-पवार और मुलायम अपने मतदाताओं को भ्रमित करके 2004जितनी सीटें जुगाड़ने में लगे हैं, वैसा ही भ्रम वामपंथी अपने कैडर में बनाए रखना चाहते हैं। इनमें से किसी को नहीं पता कि जनता क्या फैसला सुनाने जा रही है। इसलिए यह तय है कि असली खेल परिणाम आने के बाद शुरू होगा।
एेसे माहौल में कोई कैसे यह भविष्यवाणी कर सकता है कि सरकार किसकी बनेगी और प्रधानमंत्री कौन होगा? यदि कांग्रेस की ताकत घटी। लालू-पासवान-मुलायम-पवार जैसे नेताओं की चली और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भाजपा को सत्ता में आने से रोकने का खेल खेला गया तो वामपंथी अपनी घटी हुई शक्ति के बावजूद यह शर्त कांग्रेस के सामने रखेंगे कि वह इस बार तीसरे मोर्चे को सरकार बनाने के लिये बाहर से समर्थन दे। जाहिर है, कांग्रेस इसके लिये आसानी से तैयार नहीं होगी। गैर भाजपा दलों में सबसे बड़े दल के रूप में उभरने पर वह खुद सरकार का नेतृत्व करना चाहेगी। एेसे में वाम मोर्चा शर्तो के साथ समर्थन के लिए तैयार हो सकता है। वह शर्त डा. मनमोहन सिंह को लेकर होगी। वामपंथी उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। मनमोहन सिंह ने हाल ही में वामपंथियों पर यह कहते हुए फिर जबरदस्त हमला बोला है कि वे हमेशा राष्ट्र की मुख्य धारा के विपरीत दिशा में रहे हैं। अमेरिका से एटमी करार के मुद्दे पर वामपंथियों ने न केवल मनमोहन सरकार से समर्थन वापस ले लिया था, बल्कि सदन में सरकार को गिराने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत भी झोंक दी थी। देखने वाली बात यही होगी कि कांग्रेस एेसी शर्त के सामने झुकते हुए किसी और को प्रधानमंत्री के लिए आगे करेगी या विपक्ष में बैठने का फैसला लेगी।
भारतीय जनता पार्टी को लगता है कि 2004 के मुकाबले उसकी ताकत में इजाफा होगा। इसके बावजूद अपने गठबंधन सहयोगियों के बल पर वह 272 के जादुई आंकड़े के आस-पास तक पहुंच पाएगी, इसकी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है। सत्ता के खेल में भाजपा मात भी खा सकती है। तीसरे मोर्चे और कांग्रेस की नजर उनके 'सेक्यूलर' दोस्त नीतीश कुमार पर है, जो इस बार बिहार में बड़ी ताकत बनकर उभरने वाले हैं। गैर भाजपा-गैर कांग्रेस सरकार बनने की सूरत में नीतीश और शरद यादव राजग से बाहर जाने का निर्णय लेकर भाजपा को बड़ा झटका दे सकते हैं। हालांकि तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की संभावना सबसे कम है, क्योंकि मोर्चा किसी एक सर्वसम्मत नाम पर सहमत होगा, इसकी उम्मीद कम है। मायावती और देवगौड़ा के उसमें रहते मुलायम-पासवान-लालू रहेंगे, लगता नहीं। यदि नीतीश आए तो लालू नहीं होंगे। मायावती रहीं तो मुलायम नहीं रहेंगे। तीसरे मोर्चे की सरकार में बड़ी बाधा कांग्रेस भी रहने वाली है। भले ही दो महीने के भीतर फिर से चुनाव हो जायें, कांग्रेस तीसरे मोर्चे को समर्थन नहीं देगी। यह अंदरखाने तय हो चुका है।
एेसे में अहम सवाल यही है कि सरकार किसकी बनेगी? यदि कांग्रेस मनमोहन सिंह को ही प्रधानमंत्री बनाने पर अड़ गयी तो वामपंथी भी समर्थन नहीं देने का निर्णय कर सकते हैं। इसके लिए भले ही केन्द्र में भाजपा नीत सरकार के गठन का रास्ता साफ हो जाये। कांग्रेस-वामदलों की अहम की लड़ाई भाजपा और लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त करेगी। एेसी सूरत में जयललिता, मायावती, चंद्रबाबू नायडु, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी जैसे क्षत्रप अपनी शर्तो पर राजग सरकार को समर्थन का एेलान कर सकते हैं। परदे के पीछे से निश्चित ही इस समय इन सब विकल्पों, संभावनाओं और गुंजाइशों पर विभिन्न दलों के शीर्ष नेतृत्व के बीच बातचीत चल रही होगी।
कथित धर्मनिरपेक्ष दलों में जिस तरह की फूट नजर आ रही है, वह भाजपा की संभावनाएं पुख्ता कर रही हैं। भाजपा के पक्ष में एक और बात जा रही है। गैर भाजपा दलों-गठबंधनों-मोर्चो में इधर प्रधानमंत्री पद को लेकर बयानबाजी काफी तेज हुई है। कई दावेदार हैं, जो प्रधानमंत्री बनने के लिए अभी से बाकायदा पोजीशनिंग करा रहे हैं। राजग में प्रधानमंत्री पद को लेकर न भ्रम है और न मारामारी। लालू-पासवान-मुलायम-पवार तो सरेआम कहते घूम रहे हैं कि यूपीए का प्रधानमंत्री कौन होगा, इसका निर्णय परिणाम आने के बाद करेंगे। इस बयानबाजी का सीधा सा अर्थ है कि परिणाम आने के बाद गठबंधन टूटेंगे। निष्ठाएं बदलेंगी। लोग वहीं जाएंगे, जहां उन्हें सुकून दिखायी देगा। यही वजह है कि कोई यह कहने की स्थिति में नहीं है कि किसकी सरकार बनेगी, कौन प्रधानमंत्री होगा।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Friday, April 24, 2009

इतना कम मतदान शुभ संकेत नहीं

उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश में पचास प्रतिशत से भी कम मतदान क्या साबित करता है? जम्मू-कश्मीर में 46 प्रतिशत वोटिंग समझ में आती है, लेकिन हिन्दी क्षेत्र के इन ठेठ खांटी राज्यों में मतादाताओं की उदासीनता कई शंकाएं और सवाल खड़े करती है। सवाल इसका नहीं है कि कम मतदान होने का नफा-नुकसान किस पार्टी को होगा। सबसे अहम सवाल तो यही है कि तमाम कोशिशों के बावजूद लोकतंत्र के इस महापर्व के प्रति लोग इतने उदासीन क्यों बने हुए हैं? क्या उनका राजनीतिज्ञों से मोहभंग हो रहा है? लोकतांत्रिक प्रणाली से विश्वास उठ रहा है? सरकारों, नेताओं, नौकरशाही ने उन्हें निराश और हताश कर दिया है?

कारण, चाहे जो हो, यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बहुत शुभ संकेत नहीं हैं। निर्वाचन आयोग, मीडिया और स्वयंसेवी संगठनों से लेकर तमाम वर्गो के जागरूक लोग पिछले दो महीने से मतदाताओं को अधिक से अधिक मतदान के लिए प्रेरित करने की कोशिशों में जुटे हैं। योग गुरू रामदेव ने भी इस बार अधिक से अधिक मतदान की अलख जगाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी, लेकिन इसके बावजूद यदि लोग घरों से नहीं निकल रहे हैं तो इसकी तह में जाकर जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर कारण क्या हैं?
सबसे बड़ी वजह तो खुद विभिन्न राजनीतिक दलों के वे नेता ही नजर आ रहे हैं, जिनके बयान लोगों में भ्रम पैदा कर रहे हैं। कुछ नेता एक-दूसरे पर सिर्फ कीचड़ उछालने में लगे हैं तो बहुत से नेता देश, समाज के सामने उपस्थित मूल मुद्दों को परे रखकर केवल भावनात्मक मुद्दों को उछालने की चेष्टा कर रहे हैं। लालू-पासवान-मुलायम-पवार-पटनायक-जयललिता जैसे क्षत्रपों ने मतदाताओं में भ्रम और निराशा भरने में अहम भूमिका अदा की है। लालू-मुलायम-पासवान-पवार यूपीए के साथ होकर भी साथ नहीं हैं। वे दो-दो जुबान बोलकर संकेत दे रहे हैं कि जहां उनकी ज्यादा कीमत लगेगी, वे उस ओर जाएंगे।
न यूपीए और न ही राजग मतदाताओं को यह विश्वास दिलाने में सफल हो पाए हैं कि वे स्थायी सरकार बनाने में कामयाब होंगे। कहने को भाजपा-कांग्रेस राष्ट्रीय दल हैं, लेकिन वे कुछ ही राज्यों में सिमटकर रह गए हैं। केन्द्र में यदि वे सरकार गठित करते हैं तो उन्हें क्षेत्रीय दलों के रहमोकरम पर निर्भर रहना पड़ता है। क्षेत्रीय दलों के उभार ने उन्हें राज्यों में समेट दिया है। सरकार के गठन और उसके स्वरूप को लेकर जैसा भ्रम इस बार है, वैसा कभी नहीं रहा। ज्यादातर राज्यों में मतदाता भ्रम का शिकार है। उसे समझ में नहीं आ रहा कि किसे वोट करे?
आम मतदाता को लगता है कि वह चाहे जिसे मत दे, चुनाव परिणाम आने के बाद राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल जोड़-तोड़ और राजनैतिक सौदेबाजी का एक नया खेल खेल खेलते नजर आएंगे। आज चुनावी मैदान में जो दल एक-दूसरे के खिलाफ खम ठोकते नजर आ रहे हैं, वे गलबहियां डालते नजर आएँगे। यही कारण है कि मतदाता निराश और हताश है और घर से नहीं निकल रहा है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि राजनीतिक दल मतदाताओं को भ्रमित करने के खेल में सफल हो गए हैं। यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए निश्चय ही अशुभ संकेत हैं।

Thursday, April 23, 2009

निर्वाचन आयोग की साख दांव पर

मंगलवार को नवीन चावला ने मुख्य चुनाव आयुक्त का पदभार संभाला। उसी दिन उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने लखनऊ में प्रेस कांफ्रैंस कर कहा कि चावला और एसवाई कुरैशी के निर्वाचन आयुक्त रहते देश में निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं हैं। उन्होंने इन दोनों को हटाने की मांग कर डाली। इससे एक दिन पहले भारतीय जनता पार्टी के महासचिव अरुण जेटली ने केन्द्र

सरकार से कहा कि वह उस दस्तावेज को सार्वजनिक करे, जो आरोप-पत्र के रूप में निवर्तमान मुख्य निर्वाचन आयुक्त एन गोपालस्वामी ने राष्ट्रपति को भेजकर नवीन चावला को चुनाव आयुक्त पद से हटाने की सिफारिश की थी। भाजपा का मानना है कि देश को यह जानने का हक है कि नवीन चावला को किस आधार पर निर्वाचन आयोग से हटाने की सिफारिश तत्कालीन मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने की। सरकार ने भाजपा की इस मांग को खारिज कर दिया है।
यह पहला अवसर नहीं है, जब विपक्षी दलों के नेताओं ने नवीन चावला को हटाने की मांग की है। मई 2005 में जब उनकी नियुक्ति हुई थी, उस समय भी खासा बवाल हुआ था। खासकर भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने उनकी नियुक्ति पर कड़ा एतराज जताते हुए कहा था कि उनके वहां रहने से निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल उठेंगे। उन पर कांग्रेस नेताओं का करीबी होने का गंभीर आरोप हैं। और यह आरोप हवा में नहीं हैं। इसके पुख्ता सबूत हैं कि किस तरह कांग्रेस के बड़े नेता उन्हें उपकृत करते रहे हैं। चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद निर्वाचन आयोग ने उत्तर प्रदेश के प्रधान गृह सचिव कुंवर फतेह बहादुर को हटाने का फरमान जारी किया। सभी अवगत हैं कि किसी भी राज्य के गृह सचिव सीधे तौर पर कानून और व्यवस्था से जुड़े होते हैं। उत्तर प्रदेश तो वैसे भी देश के सर्वाधिक संवेदनशील राज्यों में माना जाता हैं। मुख्यमंत्री मायावती ने इस पर अगर एतराज किया तो उसे नाजायज नहीं कह सकते। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने हरदोई की जनसभा में मायावती को जिस अंदाज में सीबीआई की धमकी दी, उससे साफ है कि केन्द्र सरकार उन्हें परेशान करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। एेसे में अगर मायावती नवीन चावला पर कांग्रेस के इशारे पर काम करने का आरोप लगा रही हैं तो इसमें गलत क्या है?
भारत के निर्वाचन आयोग की दुनिया भर में एक साख है। उसकी निष्पक्षता, पारदर्शिता और न्याय सम्मत निर्णयों की विदेशों में भी प्रशंसा होती रही है। दुर्भाग्य की बात है कि अब वही निर्वाचन आयोग राजनीति का अखाड़ा बनता दिख रहा है। सरकार और चावला के खिलाफ मोर्चा भाजपा ने खोला। बाद में कांग्रेस की ओर से भी यह आरोप लगाए गए कि निवर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी भाजपा के इशारे पर काम कर रहे थे और राजनीति के तहत ही उन्होंने चावला को चुनाव आयुक्त पद से हटाने की सिफारिश की। कांग्रेस और मनमोहन सरकार ने सफाई देने की कोशिश की कि चावला पर लगाए गए आरोप सही नहीं हैं, लेकिन तथ्य बताते हैं कि चावला कांग्रेस के चहेते अफसरों में रहे हैं। 10, जनपथ से उनकी करीबी भी किसी से छिपी नहीं है। 1969 बैच के आईएएस चावला आज तक इन आरोपों का खंडन नहीं कर सके कि उनकी पत्नी रूपिका रन के लाला चमनलाल एजूकेशन ट्रस्ट के लिए राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार ने जयपुर में छह एकड़ जमीन उपलब्ध करायी थी और ए ए खान, आर पी गोयनका, अंबिका सोनी, डा. कर्ण सिंह और ए आर किदवई ने सांसद निधि से इस ट्रस्ट को पैसा उपलब्ध कराया था। क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि चावला कांग्रेस के खासमखास हैं? यही कारण है कि जब गोपालस्वामी ने उन्हें हटाने की सिफारिश की तो पूरी कांग्रेस चावला के बचाव में उठ खड़ी हुई. मनमोहन सरकार ने केबिनेट की बैठक बुलाकर राष्ट्रपति की ओर से भेजे गए प्रस्ताव को खारिज करने में जरा भी देर नहीं लगाई गई। इसके कुछ ही समय बाद सरकारी तौर पर एेलान कर दिया गया कि चावला अगले मुख्य चुनाव आयुक्त होंगे।
तमाम विवादों, आशंकाओं और अटकलों के बीच तीस जुलाई 1945 को दिल्ली में जन्मे नवीन चावला ने 21 अप्रैल को आखिर मुख्य निर्वाचन आयुक्त के रूप में कार्यभार संभाल लिया। वे इस पद पर 29 जुलाई 2010 तक रहने वाले हैं। उन्होंने एेसे समय पदभार संभाला है, जब पंद्रहवीं लोकसभा के लिए पहले चरण का मतदान हो चुका है और चार चरणों का मतदान अभी शेष है। भारतीय चुनावी इतिहास में यह पहला मौका है, जब बीच चुनाव किसी मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल समाप्त हुआ है। एन गोपालस्वामी का कार्यकाल यूं तो साफ-सुथरा रहा, लेकिन अवकाश ग्रहण करने से कुछ ही समय पूर्व राष्ट्रपति को भेजे अपने पत्र में उन्होंने जिस तरह नवीन चावला पर पक्षपाती होने का आरोप लगाते हुए उन्हें चुनाव आयुक्त पद से हटाने की सिफारिश की, उस पर काफी हो-हल्ला हुआ। 16 मई 2005 को जब उन्हें मनमोहन सिंह सरकार ने चुनाव आयुक्त बनाने का निर्णय लिया तो विपक्षी दलों, खासकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने इसका तीखा विरोध किया था। बाद में नौबत यहां तक आ पहुंची कि राजग के 205 सांसदों ने हस्ताक्षर कर राष्ट्रपति से उन्हें चुनाव आयुक्त पद से हटाने की मांग तक कर डाली। राज्यसभा में विपक्ष के नेता जसवंत सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर उन्हें हटाने की मांग की, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त के समक्ष शिकायत करने का सुझाव दिया। इसी आधार पर मुख्य चुनाव आयुक्त ने जांच-पड़ताल की और नवीन चावला पर पक्षपाती होने का आरोप लगाते हुए राष्ट्रपति से उन्हें हटाने को कहा, लेकिन मनमोहन सिंह मंत्रीमंडल ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया। इस पर भी सवाल उठे कि मुख्य चुनाव आयुक्त को किसी चुनाव आयुक्त को हटाने की सिफारिश करने का अधिकार है भी कि नहीं।
बहरहाल, नवीन चावला ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त का कार्यभार संभाल लिया है और पहली प्रेस कांफ्रैंस में दूसरे चुनाव आयुक्तों एसवाई कुरैशी और वीएस संपत का विश्वास अर्जित करने की मंशा से उन्होंने कहा है कि तीनों आयुक्तों के अधिकार बराबर हैं। यह भी कहा कि आयोग पूरी तरह निष्पक्ष रहकर काम करेगा. वीएस संपत नए चुनाव आयुक्त हैं, जो चावला के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने से खाली हुए पद पर आए हैं। आंध्र प्रदेश कैडर से संपत की सर्विस अभी छह साल की है। कांग्रेस सरकार ने उनकी नियुक्ति भी काफी सोच-विचार कर की है। कांग्रेस जानती है कि अगर अगला लोकसभा चुनाव पांच साल बाद ही हुआ, तो भी उस समय मुख्य निर्वाचन आयुक्त संपत ही होंगे। ये एेसे तथ्य हैं, जिनसे पता चलता है कि सत्तारूढ़ दल किस तरह निर्वाचन आयोग में अपने मोहरे फिट करने की कोशिश करते हैं। संपत हों या नवीन चावला, उन्हें समझना होगा कि उन्होंने किन परिस्थितियों में नयी जिम्मेदारी संभाली है। उन्हें अपने आचरण, व्यवहार और कार्यो से भी यह साबित करना है कि उनकी निष्ठा किसी दल विशेष के प्रति नहीं हैं। उन राजनीतिक दलों का विश्वास भी उन्हें जीतना होगा, जो उन्हें कांग्रेस के आदमी के तौर पर शक की दृष्टि से देख रहे हैं। कह सकते हैं कि अपनी निष्पक्षता के लिए दुनिया भर में जाने जाने वाले चुनाव आयोग की साख दांव पर है। अगर कोई चुनाव आयुक्त किसी राजनीतिक दल के हाथों की कठपुतली बना तो इस संस्थान की विश्वसनीयता पर बट्टा लगते देर नहीं लगेगी।

Wednesday, April 22, 2009

क्या प्रभाकरण का अंत निकट है ?


क्या यह मान लिया जाए कि लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण का खेल अब खत्म ही होने वाला है? श्रीलंका सेना ने देश के उत्तरी इलाके की घेराबंदी कर ली है, जहां प्रभाकरण अपने मुक्ति चीतों के साथ अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं। लंबी और इस निर्णायक कार्रवाई में श्रीलंका सरकार ने लिट्टे की कमर तोड़ डाली है। प्रभाकरण दक्षिण भारत में बैठे अपने शुभचिंतकों के जरिए भारत सरकार पर दबाव बनवाने की फिराक में हैं कि वह श्रीलंका सरकार पर युद्ध विराम के लिए दबाव बढ़ाए, लेकिन भारत सरकार के रुख से साफ है कि वह एेसी कोई पहल नहीं करने जा रही है। यही बुधिमतापूर्ण निर्णय भी है, क्योंकि भारत नौवें दशक में वहां शांति सेना भेजकर एक बार अपने हाथ जलवा चुका है। बाद में राजीव गांधी को अपनी जान देकर इसकी बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। भारत को वहां हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
इसमें दो राय नहीं है कि श्रीलंका में हालात बेहद खतरनाक स्थिति में पहुंच गए हैं। श्रीलंका सेना और तमिल विद्रोही संगठन एलटीटीई की लड़ाई में तमिल मूल के नागरिक मारे जा रहे हैं। सेना उन्हें युद्ध क्षेत्र से बाहर निकालने की कोशिश कर रही है ताकि लिट्टे विद्रोहियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की जा सके, जबकि विद्रोही युद्ध क्षेत्र में फंसे नागरिकों को ढाल के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। पिछले एक सप्ताह के भीतर पचास हजार से अधिक नागरिक किसी तरह वहां से निकलकर भागे हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय रेड़क्रास की मानें तो वहां अभी भी चालीस हजार से एक लाख तक नागरिक फंसे होने की आशंका है। श्रीलंका सेना ने विद्रोहियों को समर्पण के लिए जो चौबीस घंटे का समय दिया था, वह मंगलवार को खत्म हो गया। इसके बावजूद सेना निर्णायक हमला करने से बचने की कोशिश कर रही है, क्योंकि उस पर भारत, अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई देशों का दबाव है कि वह खून खराबे से बचे। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने श्रीलंका सरकार से कहा है कि वह एेसा कोई कदम न उठाए, जिससे निर्दोष लोगों की कीमती जान चली जाए।
युद्ध क्षेत्र से अंतरविरोधी खबरें आ रही हैं। बुधवार को जानकारी मिली कि लिट्टे के दो कमांडरों दया मास्टर और जार्ज ने सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। उधर लिट्टे ने वीडियो जारी कर दावा किया है कि श्रीलंका सेना की कार्रवाई में करीब एक हजार तमिल नागरिक मारे गए हैं। लिट्टे ने उनकी लाशों के चित्र भी जारी किए हैं। सेना का दावा है कि उसकी कार्रवाई में नागरिक नहीं मारे जा रहे हैं। श्रीलंका सरकार की इस कार्रवाई ने भारतीय राजनीति, खासकर तमिलनाडु में राजनीतिक सरगर्मी बढा दी है। वहां के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने भारत सरकार से कहा है कि वह श्रीलंका सरकार पर युद्ध विराम के लिए दबाव बनाए। उधर, अंतरराष्ट्रीय समुदाय की ओर से भी युद्ध क्षेत्न में फंसे हुए लाखों नागरिकों को बचाने के लिए दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। कई देशों ने श्रीलंका सेना और एलटीटीई से कहा है कि युद्ध प्रभावित क्षेत्न से लोगों को निकलने दिया जाए और वहाँ जारी गोलीबारी को रोका जाए। देश के उत्तरी हिस्से में श्रीलंका की सेना और एलटीटीई लड़ाकों के बीच भीषण संघर्ष जारी है। अमेरिका ने इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि उस इलाके में अभी तक दोनों ओर से गोलीबारी जारी है, जहाँ बड़ी तादाद में आम नागरिक फंसे हुए हैं। युद्ध प्रभावितों की मदद कर रही संस्था, रेडक्रास ने देश के उत्तर में ताज़ा स्थिति को भयावह और त्नासद बताया है। आईसीआरसी के अभियानों के प्रमुख पिए क्रानबुल ने जिनीवा में कहा कि श्रीलंका में संघर्ष वाले इलाक़े लगातार घट रहे हैं मगर वहाँ पर अब भी हजारों आम लोग फँसे हुए हैं। उन्होंने तमिल टाइगर विद्रोहियों पर आरोप लगाया कि वे लोगों को उन क्षेत्नों से निकलने नहीं दे रहे हैं जबकि सरकारी फौजें चिकित्सा आपूर्ति पहुँचाने में बाधा डाल रही है। वहाँ संघर्ष वाला इलाक़ा अब घटकर 12 वर्ग किलोमीटर रह गया है। स्थिति के बारे में क्रानबुल ने कहा कि मुङो याद नहीं आता कि इतनी कम जगह में मैंने इतने ज्यादा लोगों को फँसे देखा हो और वो भी इन हालात में जहाँ उनके पास सुरक्षा पाने की उम्मीद भी बहुत ही कम है। फँसे हुए लोगों में रेड क्रास के भी 80 लोग हैं और उन लोगों ने बताया है कि पिछले कुछ दिनों में सैकड़ों आम लोग मारे गए हैं। आईसीआरसी का कहना है कि आम लोगों की मौत रोकने के लिए दोनों ही पक्षों को तुरन्त कुछ क़दम उठाने चाहिए। उनके मुताबिक़ तमिल विद्रोहियों को फँसे हुए लोगों को बाहर निकलने देना चाहिए और सरकार को उन लोगों तक राहत सामग्री पहुँचने देनी चाहिए.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Tuesday, April 21, 2009

लंगड़ी सरकार के लिए तैयार रहिये

लालू यादव ने दरभंगा की जनसभा में जो कुछ कहा, उसके गहरे संकेत हैं। उन्हें लगता है कि कांग्रेस की वापसी नहीं होने जा रही। उनके बयान से साफ है कि परिणाम आने के बाद वे यूपीए का हिस्सा नहीं रहेंगे। एेसा लगता है कि बिहार ही नहीं, देश भर से आने वाले नतीजों का उन्हें आभास हो चला है। उनकी पार्टी का आधार खिसक रहा है और कुछ सीटों पर मुस्लिम वोटर कांग्रेस को भी वोट कर सकता है। कुछ और बातें भी साफ हो गयी हैं। अब तक तो यह केवल चर्चा थी लेकिन बाबरी विध्वंस के लिए कांग्रेस को भी जिम्मेदार ठहराने संबंधी लालू के बयान से साफ हो गया है कि वे और मुलायम सिंह बिहार और यूपी में कांग्रेस को संभलने का मौका नहीं देना चाहते। वे जानते हैं कि वे कांग्रेस की कीमत पर ही आगे बढ़े हैं। यादव-मुस्लिम समीकरण ने इन दोनों को राजनीतिक ताकत दी है। बिहार में जहां नीतीश कुमार की तेज हवा में लालू की लालटेन बुझने की आशंका है, वहीं उत्तर प्रदेश में मायावती का हाथी मुलायम की साईकिल को रौंदता हुआ दिल्ली की ओर बढ़ता नजर आ रहा है। लालू और मुलायम की राजनीति अब कुछ-कुछ समझ में आने लगी है। प्रत्यक्ष तौर पर वे भले ही यूपीए में बने रहकर मनमोहन सिंह को ही दोबारा प्रधानमंत्री बनवाने की बात कर रहे हैं, हकीकत यह है कि कांग्रेस को कमजोर कर वे इतनी ताकत जुटा लेना चाहते हैं कि तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की सूरत में मायावती की जरूरत ही नहीं रहे। एक सोची समझी रणनीति के तहत ही इन दोनों ने कांग्रेस से तालमेल को सिरे नहीं चढ़ने दिया। एेसा नहीं होता तो मुलायम अमर सिंह के जरिए कांग्रेस पर तीखे हमले नहीं करा रहे होते और लालू बिहार की जनसभाओं में बाबरी विध्वंस के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए नजर नहीं आते।
लोकसभा सीटों के लिहाज से उत्तर प्रदेश और बिहार देश के सबसे बड़े राज्यों में गिने जाते हैं। इन राज्यों से ही लोकसभा के लिए 120 सांसद चुनकर आते हैं। जिस तरह के हालात हैं, उनमें कांग्रेस का बिहार में इस बार खाता भी नहीं खुलेगा और उत्तर प्रदेश में उसकी सीटें 2004 के मुकाबले बढ़ने के बजाय और कम होने की आशंका है। 2004 में उसे बिहार में 40 में से 3 और यूपी में 80 में से 9 सीटें नसीब हुई थीं। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु से भी कांग्रेस को ज्यादा सीटें मिलने की उम्मीद नहीं है। इन दो बड़े राज्यों से लोकसभा के लिए 81 सांसद आते हैं। तमिलनाडु में कांग्रेस की सहयोगी डीएमके की इस बार खस्ता हालत है। इसलिए कांग्रेस को भी नुकसान तय है। जो सर्वे आए हैं, उन पर भरोसा करें तो तमिलनाडु की 39 में से कांग्रेस को दो-तीन सीटें ही मिलेंगी। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी के साथ चुनाव मैदान में उतरी है। इससे वाम मोर्चा की सीटें घटेंगी, लेकिन कांग्रेस को इससे ज्यादा लाभ नहीं मिलता दिख रहा। वहां ममता की सीटें बढ़ेंगी। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश से कांग्रेस नेता ज्यादा उम्मीदें नहीं पाल रहे हैं। दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल जसे छोटे राज्यों में भी उसकी ताकत घटेगी। गुजरात और महाराष्ट्र से भी उसे बढ़कर सीटें मिलने की उम्मीद नहीं है।
जिन राज्यों में कांग्रेस की ताकत बढ़ सकती है, उनमें राजस्थान, उड़ीसा, जम्मू-कश्मीर, पंजाब और केरल हैं। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में तीसरे मोर्चे की ताकत बढ़ती नजर आ रही है। वाम मोर्चा हालांकि पश्चिम बंगाल और केरल में अपनी जमीन खोता दिख रहा है, लेकिन इसके बावजूद वह तीस से अधिक लोकसभा सीटें जीत कर तीसरे मोर्चे को ताकत देगा। जिस तरह के राजनीतिक हालात बन रहे हैं और देश भर से सूचनाएं आ रही हैं, उससे लग रहा है कि कांग्रेस की सीटें 2004 के मुकाबले घट सकती हैं। तब उसे 145 सीटें मिली थीं। भाजपा की सीटों की संख्या 138 थी। 2004 के चुनाव में भाजपा को 1999 के मुकाबले काफी कम सीटें मिली थीं। ऊपर से उसके गठबंधन सहयोगियों का प्रदर्शन भी काफी खराब रहा। इस बार भाजपा पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी के बिना चुनाव लड़ रही है। लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में राजग निर्णायक नेता और मजबूत सरकार देने के वादे के साथ मैदान में है। भाजपा के पक्ष में कहीं हवा नजर नहीं आ रही। उसके 11 साल पुराने सहयोगी नवीन पटनायक ठीक चुनाव के वक्चत साथ छोड़ गए। हालांकि असम गण परिषद, राष्ट्रीय लोकदल और इंडियन नेशनल लोकदल जसी पार्टियां उसके साथ फिर से जुड़ी भी हैं। इसके बावजूद एेसा नहीं लगता कि 1999 की तरह उसे जनादेश मिल पाएगा।
तो क्या तीसरे मोर्चे की सरकार बनेगी? क्चया उसे इतनी सीटें मिलने की संभावना है कि वह यूपीए और राजग का खेल बिगाड़ दे? बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि कर्नाटक में एचडी देवेगौड़ा, तमिलनाडु में जयललिता, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडु-चंद्रशेखर राव, उत्तर प्रदेश में मायावती और उड़ीसा में नवीन पटनायक कितनी ताकत के साथ उभरते हैं। तीसरे मोर्चे को जिन दलों और नेताओं के साथ आ मिलने की आस है, उनमें लालू-मुलायम-पासवान-शरद पवार और अजित सिंह शामिल हैं। दरअसल, गठबंधन के इस दौर में इस बार भी क्षेत्रीय दल केन्द्र में बनने वाली सरकार का रूप-रंग तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं। लालू-मुलायम और पासवान ही नहीं, शरद पवार जसे क्षत्रपों को भी लगता है कि कांग्रेस की सरकार नहीं बनने जा रही। हालांकि तीसरे मोर्चे के पेंच भी कम नहीं है। मायावती और मुलायम एक मंच पर साथ-साथ खड़े नहीं होना चाहते तो देवगौड़ा और लालू यादव एक-दूसरे को फूटी आंखों देखना पसंद नहीं करते। इसके बावजूद चुनाव परिणाम आने के बाद की राजनीतिक उठापटक, जोड़तोड़ और परदे के पीछे होने वाली दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक सौदेबाजी देश देखने को अभिशप्त होगा।
दिल्ली, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में जब विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे थे, तब उसे सत्ता का सेमीफाइनल बताया जा रहा था। विश्लेषकों का मानना था कि जिस दल को सेमीफाइनल में बढ़त मिलेगी, वह फाइनल यानि लोकसभा चुनाव में भी बाजी मारेगा। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा ने दोबारा सरकार बनायी तो कांग्रेस ने दिल्ली में हैट्रिक लगायी और राजस्थान भाजपा के हाथों से छीन लिया। हिसाब-किताब बराबर। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस के सहयोग से उमर अब्दुल्ला ने सरकार बना ली। इसलिए कह सकते हैं कि सेमीफाइनल से किसी की हवा नहीं बन पायी। इसका असर लोकसभा चुनाव पर साफ तौर पर देखा जा रहा है। न भाजपा के पक्ष में हवा है और न कांग्रेस के पक्ष में। तीसरे और चौथे मोर्चे ने हालात एेसे बना दिये हैं कि देश एक लंगड़ी-लूली सरकार की तरफ बढ़ता हुआ नजर आ रहा है।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Sunday, April 19, 2009

कितना गिरेगा राजनीति का स्तर

लोकसभा चुनाव के प्रचार के समय जिस तरह की बयानबाजी हो रही हैं, उससे राजनीति के गिरते स्तर का तो पता चलता ही है, यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि क्या चुनावी प्रक्रिया इतनी लंबी खिंचनी चाहिए? लम्बी प्रक्रिया में चुनाव प्रचार भी लम्बा खिंचता है और नेता ज्यादा से ज्यादा वोटों को अपने पक्ष में करने के लिए ऐसी बयानबाजी करते हैं, जो समाज को बांटने का काम करती है. यह अपने आप में आश्चर्य की बात है कि विभिन्न दलों में जिम्मेदार पदों पर बैठे नामचीन नेता भी अपनी जुबान पर नियंत्रण खोते दिख रहे हैं। संभवत: यह पहला चुनाव है, जब प्रधानमंत्री और प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के बीच मर्यादा को लांघती बयानबाजी देशवासियों ने देखी। शुक्र है, कम से कम उनके बीच तो कुछ दिन से एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने वाली तीव्र बयानबाजी बंद है।
विपक्ष की यह संवधानिक जिम्मेदारी है कि वह सत्तापक्ष की कमजोरियों को सामने लाए, लेकिन इस बार सत्ता में बैठे लोगों की उग्र बयानबाजी देखने को मिल रही है, जिस पर आप हैरान हुए बगैर नहीं रह सकते। खासकर जिन नेताओं को अपनी राजनीतिक जमीन खिसकती दिखायी दे रही है, वे आपा खोते दिख रहे हैं। बिहार में इस बार लालू यादव को उसकी आधी सीटें भी मिलने की उम्मीद नहीं है, जितनी 2004 में मिली थी। लालू जिस तरह की बयानबाजी पिछले कुछ समय से कर रहे हैं, उससे पता चलता है कि वे वाकई आपा खो बैठे हैं। केन्द्र में वे मंत्री हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, वह न तो कानून सम्मत है और न ही उनकी उस शपथ के अनुरूप, जो उन्होंने मंत्री पद संभालते समय ली थी। पांच साल तक कांग्रेस के साथ सत्ता का स्वाद चखते रहे लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान ने सीटों के बंटवारे व तालमेल के वक्त कांग्रेस को जो धोबी पाट मारा, उसका दर्द अभी तक गया नहीं था कि शनिवार को लालू ने यह कहकर दर्द को और बढ़ाने का काम कर दिया है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए भारतीय जनता पार्टी सहित कांग्रेस भी जिम्मेदार है।
यह अजीब बात है कि वे कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) में रहते हुए भी कांग्रेस पर वार पर वार किए जा रहे हैं। आश्चर्य का विषय यह भी है कि वे अब भी रेलमंत्री हैं। मनमोहन सिंह की सरकार का हिस्सा हैं। पांच साल तक इसी कांग्रेस के साथ सरकार में रहे हैं, जिसे आज वे बाबरी विध्वंस के लिए भाजपा जितना ही जिम्मेदार बताकर अल्पसंख्यक वोटों को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ समय पहले किशनगंज की एक सभा में उन्होंने कहा था कि वे गृहमंत्री होते तो मुसलमानों के बारे में आपत्तिजनक बयान देने वाले वरुण गांधी की छाती पर रोलर चलवा देते। बाद में चाहे जो होता। लालू अल्पसंख्यक वोटों के लिए इस हद तक जा सकते हैं, कोई सोच भी नहीं सकता। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और जनता दल युनाइटेड ने लालू प्रसाद यादव को उनके इस बयान पर आड़े हाथों लिया है। लालू ने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को भारतीय जलाओ पार्टी भी कहा है। शनिवार को दिल्ली में बिहार के मुख्यमंत्नी और जनता दल(यू) के नेता नीतीश कुमार ने लालू यादव को समझौतावादी क़रार देते हुए कहा कि बाबरी मस्जिद का मुद्दा उठाने के बाद लालू का पर्दाफाश हो गया है और उन्हें बताना पड़ेगा कि आख़िर वो कांग्रेस के साथ सत्ता में भागीदार क्यों रहे हैं।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Friday, April 17, 2009

धोनी और भज्जी की अक्षम्य हरकत

भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी और उनके साथी खिलाड़ी हरभजन सिंह के पद्म पुरस्कार समारोह में भाग नहीं लेने की देश भर में कड़ी आलोचना हो रही है। खेल मंत्री मनोहर सिंह गिल भी आश्चर्यचकित और नाराज हैं। उनका मंत्रालय खिलाड़ियों को नया सर्कुलर जारी कर यह दिशा-निर्देश देने की तैयारी कर रहा है कि भविष्य में कोई भी खिलाड़ी पद्म पुरस्कारों का इस तरह निरादर नहीं करेगा और न ही उन्हें लेने के लिए अपने बजाय किसी और को भेजेगा। पिछले साल धोनी को खेल रत्न पुरस्कार से नवाजा गया था लेकिन उसे लेने के लिए भी वह नहीं गए थे। हालांकि टीम इंडिया तब श्रीलंका के दौरे पर थी, तो भी यह माना जा रहा है कि वह एक दिन का समय निकालकर राष्ट्रपति भवन पहुंच सकते थे।
खिलाडियों में यह प्रवृति बढती जा रही है कि पदम् और खेल रत्ना जैसे उन प्रतिष्ठित पुरस्कारों को लेने के लिए भी वे अपने परिवार के किसी सदस्य को भेज देते हैं, जिन्हें खुद राष्ट्रपति प्रदान करती हैं. ऐसे खिलाडियों को अमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित, अभिनव बिंद्रा और सचिन तेंदुलकर जैसे नामचीन सितारों से कुछ सीख लेनी चाहिए, जो सपरिवार उन्हें ग्रहण करने राष्ट्रपति भवन पहुंचे. माधुरी दीक्षित सात समंदर पार अमेरिका से उड़ान भरकर नई दिल्ली पहुंची तो अभिनव बिंद्रा ने टिपण्णी कि अगर उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिले तो वे भले ही दुनिया के किसी भी कोने में हों, उसे प्राप्त करने के लिए जरूर पहुँच जाएँगे. कोई भी खिलाडी अथवा कलाकार किसी देश, खेल अथवा उस संस्था से बड़ा नहीं हो सकता, जो उसे राष्ट्रीय सम्मान से अभिनंदित कर रही है, इस तरह के पुरस्कारों को नहीं लेने जाना राष्ट्रपति का भी निरादर है.
इस बार पद्म पुरस्कारों के लिए दो समारोह आयोजित किए गए। धोनी और हरभजन दोनों ही अवसरों पर नहीं पहुंचे। पहले समारोह के समय उनकी अनुपस्थिति समझ में आती है। वे दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर थे, लेकिन दूसरे समारोह के समय तो दोनों देश में ही थे। यह और भी दुखद है कि इन दोनों ने राष्ट्रपति भवन में आयोजित समारोह में जाने के बजाय उस दिन और उसके अगले दिन विज्ञापन फिल्मों की शूटिंग में भाग लेने का तरजीह दी। इस पूरे प्रकरण पर अभी तक धोनी ने सफाई भी देना मुनासिब नहीं समझा है जबकि बेजा हरकतों के लिए अक्चसर सुर्खियों में रहने वाले हरभजन सिंह यह कहकर पद्म पुरस्कारों और लोगों की नाराजगी के प्रति फिर से निरादर का भाव प्रस्तुत किया कि समारोह में न जाकर उन्होंने कोई गलती नहीं की है। अगर कोई एेसा मानता है तो अगली बार जब उन्हें कोई एेसा पुरस्कार मिलेगा तो वे दो दिन पहले ही वहां (राष्ट्रपति भवन) जाकर बैठ जाएंगे। इस तरह के बयान से साफ है कि पिछले कुछ महीनों की टीम की कामयाबी ने क्रिकेट खिलाड़ियों के दिमाग खराब कर दिए हैं। न उन्हें इसका अहसास है कि वे क्या कह रहे हैं और न इसकी परवाह कि जिस तरह का रवैया वे अपना रहे हैं, उस पर देशवासी और उनके प्रशंसक क्या सोचेंगे? यह और भी आश्चर्य की बात है कि बीसीसीआई खिलाड़ियों के इस व्यवहार पर कड़ा रुख अपनाने के बजाय उनका बचाव करती दिख रही है। इस पर बहस होनी ही चाहिए कि जिन पुरस्कारों को राष्ट्रपति के हाथों प्राप्त करने का हर भारतीय का स्वप्न होता है, उसके प्रति यदि बद-दिमाग किस्म के खिलाड़ी इस तरह का रवैया अपनाएं तो आगे से उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिए ही नहीं जाएं। थोड़ी सी कामयाबी से ही कमीज के कालर खड़े कर लेने वाले भज्जी जैसे खिलाड़ियों को सचिन तेंदुलकर से सीख लेनी चाहिए, जो पिछले साल पद्म पुरस्कार प्राप्त करने के लिए सपरिवार राष्ट्रपति भवन के आलीशान अशोक हाल पहुंचे थे। सचिन आज भी इन सबसे अधिक विज्ञापन करते हैं, लेकिन उन्होंने राष्ट्रीय सम्मान पर कभी धन-दौलत और विज्ञापन अनुबंधों को इस तरह तरजीह नहीं दी।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Thursday, April 16, 2009

यह खतरे की घंटी है !!

पहले गृहमंत्री पी चिंदम्बरम। उनके बाद कुरूक्षेत्र से कांग्रेस के लोकसभा सदस्य और प्रत्याशी नवीन जिंदल। और अब पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आडवाणी। जूता फैंकने की शुरुआत बगदाद से हुई। एक पत्रकार ने अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश पर एक

के बाद एक, दोनों जूतों से वार किया। इसके बाद चीनी प्रधानमंत्री पर लंदन में सेमिनार में एक छात्र ने यह कहते हुए जूता उछाला कि वे तानाशाह हैं। भारत की बात करें तो पी चिदम्बरम पर पत्रकार जरनैल सिंह ने जूता फैंका। उनकी नाराजगी इसे लेकर थी कि 25 साल बाद भी 1984 के सिख विरोधी दंगों के पीड़ित परिवारों को न्याय नहीं मिला और जिन्हें जिम्मेदार माना जाता है, उन जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को कांग्रेस ने फिर से टिकट दे दिया था। व्यापक प्रदर्शनों के बाद

तीन दिन के भीतर पार्टी को उनसे टिकट वापस लेना पड़ा। नवीन जिंदल पर एक पूर्व शिक्षक ने इसलिए जूता उछाला क्योंकि कांग्रेस के शासनकाल में उनके बेटे की नौकरी चली गई और वे अभावों की जिंदगी जीने को अभिशप्त हैं। बृहस्पतिवार को मध्य प्रदेश के कटनी शहर में भाजयुमो के एक पूर्व कार्यकर्ता ने लाल कृष्ण आडवाणी की ओर निशाना साधकर एक खड़ाऊ फैंकी, जो मंच पर जा गिरी। आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया।

इन दिनों देश का एक बड़ा वर्ग इन घटनाओं पर मुस्कराते हुए चटखारे ले रहा है। टीवी चैनल अपनी टीआरपी बढ़ा रहे हैं। बहुत हैं, जो कहते हैं कि यह सब इतनी जल्दी शुरू हो जाएगा, सोचा नहीं था। बुद्धिजीवियों का मानना है कि एक दिन यह होना ही था, क्योंकि राजनीति और व्यवस्था ने आम आदमी को बहुत निराश-हताश किया है। आजादी के बाद से अब तक उन्हें हर पांच साल बाद सुनहरे सपने दिखाए गए। एक से बढ़कर एक वादे किए लेकिन उन्हें पूरा करने की दिशा में गंभीरता से प्रयास नहीं किए गए। इस पर चिंतन-मनन का समय आ गया है कि आखिर ये घटनाएं क्या जाहिर करती हैं?
न तो पत्रकार का काम जूते उछालने का है, न शिक्षक या पूर्व शिक्षक का। न किसी पार्टी का कोई कार्यकर्ता अपने शीर्ष नेता पर इस तरह गुस्से का इजहार करता है। इसे पागलपन कहकर टाला नहीं जा सकता। यह हमारी राजनीति और व्यवस्था के चेत जाने का समय है। इसे खतरे की घंटी मानना होगा। देश के समक्ष उपस्थित मूल मुद्दों गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, अन्याय, गैर-बराबरी और भ्रष्टाचार के उन्मूलन के प्रति गंभीरता दिखानी होगी। ये वारदातें किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं हो रही हैं। ये व्यवस्था और उस सोच के खिलाफ विद्रोह है, जो सिर्फ चीजों को टालने में विश्वास करती है। इसलिए यह चेत जाने का समय है। जनता यदि इस तरह के मूड में दिखने लगे तो इसे खतरे की घंटी ही मानना चाहिए।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

कैसे कहें उन्हें मजबूत प्रधानमंत्री

विगत दो सप्ताह से देश अखिल भारतीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के बीच तीखे आरोप-प्रत्यारोपों को देख-सुनकर हैरान और परेशान है। हैरान इसलिए क्योंकि जिनके कंधों पर देश को चलाने की जिम्मेदारी है, उनसे एेसी बहस में पड़ने की उम्मीद उन्हें नहीं थी, जिससे राष्ट्र का कोई भला नहीं होने जा रहा। परेशानी की वजह यह है कि देश के समक्ष उपस्थित मूल मुद्दे पूरी तरह बिसरा दिए गए हैं। महंगाई, आतंकवाद, बेरोजगारी, मंदी, किसानों की आत्महत्या, भ्रष्टाचार और विदेशी बैंकों में जमा काले धन पर कोई चर्चा करने को तैयार नहीं है। एेसा लगता है कि शीर्ष नेतृत्व के लिए ये बहस के मुद्दे ही नहीं हैं। तेजी से बढ़ती असमानता, अमीर-गरीब के बीच बढ़ रही खाई, गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों की बढ़ती तादाद, लाचारी, न्याय मिलने में होने वाली देरी, अराजक होती पुलिस और पथभ्रष्ट होती कार्यपालिका पर कोई चिंतित नजर नहीं आता। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में रहे मामलों में बीस-पच्चीस साल में भी फैसला नहीं आता, लेकिन इसे देश के खेवनहार कोई मुद्दा मानने को तैयार नहीं हैं। अमेरिका से हुए एटमी करार पर सत्तापक्ष संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और वाम मोर्चा के बीच इस कदर ठन गई थी कि समर्थन वापसी के बाद प्रकाश करात और उनकी टोली किसी भी सूरत में मनमोहन सरकार को गिरा देने पर आमादा थी। इसके लिए उन्होंने ताज कोरिडोर से लेकर आय से अधिक संपत्ति के मामले में सीबीआई जांच का सामना कर रही बसपा नेत्री मायावती तक से हाथ मिलाने में कोई गुरेज नहीं किया, लेकिन कमाल की बात है कि उस पर न वाम मोर्चा अब कुछ कह रहा है और न कांग्रेस नेता। आतंकवाद निसंदेह देश ही नहीं, समूची दुनिया के सामने बड़ी चुनौती है, लेकिन अपने यहां इस मुद्दे पर जिस तरह की राजनीति हो रही है, वह शर्मनाक है।
इन दोनों राष्ट्रीय (?) दलों ने कुछ ही दिन पहले घोषणा-पत्र जारी किए हैं। समाज के हर वर्ग के वोट हासिल करने की मंशा से उनमें तमाम लोकलुभावनी घोषणाएं की गई हैं। आश्चर्य की बात है कि दोनों दलों का शीर्ष नेतृत्व घोषणा-पत्रों पर कुछ नहीं बोल रहा है। पहले वरुण गांधी, फिर लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी, उनके बाद नरेन्द्र मोदी से लेकर बी के हरिप्रसाद के जहर बुझे बयान मीडिया की सुर्खियां बनते रहे। देश के समक्ष जो बुनियादी मसले हैं, उन पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही। चर्चा का केन्द्र बिन्दू यह बन गया है कि डा. मनमोहन सिंह कमजोर हैं या लाल कृष्ण आडवाणी। पिछले दो सप्ताह से शीर्ष नेतृत्व के बीच शब्दों की जो जंग छिड़ी है, उससे देश का आम मतदाता हैरान और परेशान ही नहीं, निराश भी हुआ है। पिछले पांच साल में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की छवि देश-विदेश में शांत, सौम्य, मृदु व मितभाषी नेता की बनी है। एेसा माना गया कि वे चुप रहकर अपने काम में लगे रहने वाले नेता हैं। इस खासियत के चलते एक बड़े वर्ग में उनका खास सम्मान रहा है, लेकिन जब से उन्होंने चु्प्पी तोड़कर प्रतिपक्ष के नेता आडवाणी पर आक्रमण किया है, उनके बारे में लोगों की धारणा बदली है। सत्तारूढ़ दलों के सामने कभी न कभी एेसे दुर्गम क्षण आते हैं, जब उन्हें देशवासियों के व्यापक हित में फैसले करने पड़ते हैं। 1999 में कंधार विमान अपहरण के समय तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी को भी सैंकड़ों देशी-विदेशी यात्रियों की प्राण-रक्षा के लिए एक कटु और अप्रिय फैसला लेना पड़ा था। दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास पर उन यात्रियों के रिश्तेदार प्रदर्शन कर रहे थे, जिन्हें बंधक बना लिया गया था। कंधार में छह-सात दिन तक चले उस प्रहसन का अंत तभी हुआ, जब सरकार ने यात्रियों को मुक्त कराने के लिए तीन आतंकवादियों को छोड़ दिया।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और राहुल गांधी ने रणनीतिक तौर पर आक्रामक होते हुए विमान अपहरण कांड पर तत्कालीन राजग सरकार और खासकर पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आडवाणी को निशाने पर लिया है। कांग्रेस नेताओं को लगता है कि बचाव का सबसे आसान तरीका यही है कि आक्रमण किया जाए। तीन दिन पहले मुंबई में प्रेस कांफ्रैंस के दौरान जब प्रधानमंत्री से सवाल पूछा गया कि कंधार विमान अपहरण के समय यदि उन्हें फैसला लेना होता तो वे क्या करते, तो मनमोहन सिंह ने एेसा जवाब दिया, जो सुनने में तो अच्छा लगता है लेकिन उस पर अमल करना उतना ही मुश्किल होता है, जितना तब की अटल सरकार के लिए था। उन्होंने कहा कि हमारी सरकार ने जिस दृढ़ता का परिचय मुंबई में दिया, वैसा ही तब भी दिखाते। पुलिस, सेना और कमांडो कार्रवाई के बावजूद मुंबई के ताज, आबेराय होटल और छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन पर कुल 183 लोगों की जान चली गई। तो क्या कांग्रेस सरकार विमान यत्रियों की हत्या हो जाने देती? यह बात हालांकि भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कही है, लेकिन इसका जवाब कांग्रेस के पास नहीं है। विमान यात्रियों की एेवज में तीन आतंकवादियों को छोड़ने के मुद्दे पर अटल सरकार को निशाने पर लेने वाले कांग्रेस नेतृत्व से उन्होंने पूछा है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार में गृहमंत्री रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भी अपनी बेटी रुबैया सईद की एेवज में 1990 में कई आतंकवादी जेल से छोड़ दिए थे। उनके साथ कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर में साझा सरकार क्यों बनाई? जवाब न आना था, न आया।
पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी ने चुनाव की घोषणा होने पर ही डा.मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री नहीं कहा है। वे शुरू से यह बात कहते आ रहे हैं। पांच साल में मनमोहन सिंह ने कभी इस पर नाराजगी जाहिर नहीं की। कभी पलटकर वार नहीं किया, फिर अब कौन सी परिस्थितियां बदल गईं, जो उन्होंने कड़ा रुख अपनाते हुए उल्टे आडवाणी को आईना दिखाने की ठान ली। जिस तरह के सवाल मनमोहन सिंह इन दिनों कर रहे हैं, उससे एेसा लगता है कि आडवाणी ने उनकी किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया है। वह कुछ और नहीं, उन्हें कमजोर प्रधानमंत्री कहना ही है। मनमोहन सिंह जानते हैं कि वे कमजोर हैं और इसकी वजह वह हालात हैं, जिनके चलते उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी सोनिया गांधी की कृपा से हासिल हुई। वे जनाधार वाले नेता नहीं हैं। एक बार दिल्ली से लोकसभा का चुनाव लड़ने की हिम्मत दिखायी, लेकिन भाजपा के विजय कुमार मल्होत्रा के हाथों पराजित हो गए।
आडवाणी ने कुछ दिन पहले उनकी इस दुखती रग पर भी यह कहते हुए हाथ रख दिया कि प्रधानमंत्री उसी को बनना चाहिए, जिसे जनता चुनकर लोकसभा में भेजे। इससे मनमोहन इतने असहज हुए कि घोषणा-पत्र जारी करने के लिए बुलाए गए संवाददाता सम्मेलन में एचडी देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल का उदाहरण दे बैठे कि जब वे प्रधानमंत्री बने तो राज्यसभा के ही सदस्य थे। उन्होंने दो कदम आगे बढ़ते हुए यह भी कहा कि संविधान में एेसा कुछ नहीं कहा गया है कि राज्यसभा का सदस्य प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। मनमोहन सिंह अगर कमजोर नहीं दिखना चाहते हैं तो उन्हें लोकसभा चुनाव लड़कर आडवाणी और अपने आलोचकों को जवाब देना चाहिए था। एेसा करने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाए।
मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, लाल कृष्ण आडवाणी, नरेन्द्र मोदी और लालू प्रसाद यादव से लेकर वरुण गांधी तक को यह समझना होगा कि भारतीय जनमानस एक सीमा तक ही आक्रामक राजनीति को पसंद करता है। खासकर जो लोग जिम्मेदार पदों पर हैं, उनकी तल्ख टिप्पणियां, जिद और पलटवार देश का आम आदमी पसंद नहीं करता। मनमोहन सिंह कमजोर हैं, इसके पक्ष में कई दलीलें उदाहरणों के साथ दी जा सकती हैं। क्या यह सही नहीं है कि सरकार के तमाम अहम फैसले प्रधानमंत्री के सरकारी आवास 7, रेसकोर्स रोड़ के बजाय सोनिया गांधी के निवास 10, जनपथ से होते हैं? केन्द्र में कौन मंत्री होगा, इसका फैसला मनमोहन नहीं, सोनिया करती रही हैं। क्चया 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए जिम्मेदार माने जाने वाले जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार के टिकट मनमोहन सिंह की सहमति से दिए गए थे? प्रधानमंत्री रहते हुए भी वे कांग्रेस के स्टार प्रचारक क्यों नहीं हैं? बिहार और यूपी जसे राज्य में कांग्रेस को पुर्नजीवित करने के लिए क्यों नहीं जा रहे हैं? एेसे ही कई और सवाल हैं, जो मनमोहन सिंह की दुखती रग है। भाजपा ये सवाल उठाती है तो उन्हें अपमानजनक लगता है। एेसा नहीं लगता कि मनमोहन सिंह ने यह हालत खुद ही बनाई है? निश्चित ही वे एक काबिल अर्थशास्त्री, ईमानदार व्यक्ति और परिश्रमी हैं, लेकिन यह भी सच है कि वे जनाधार वाले नेता नहीं हैं. अपने दम पर महत्वपूर्ण फैंसले नहीं लेते हैं. वे हरदम सोनिया गांधी के ताबेदार नजर आते हैं। यदि वे कम से कम लोकसभा चुनाव ही लड़ने का निर्णय कर लेते तो विपक्ष के तीखे हमलों से कुछ हद तक बच सकते थे। पता नहीं, किस भय से ग्रस्त होकर उन्होंने चुनाव नहीं लड़ने का निर्णय लिया। फिर कैसे उन्हें मजबूत प्रधानमंत्री कहा जाए?

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Tuesday, April 14, 2009

मास्टर ब्लास्टर को एक और सम्मान


यह अकेले सचिन तेंदुलकर ही नहीं, भारतीय खेल जगत के लिए भी गौरव का विषय है कि मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर की मूर्ति लंदन के मैडम तुस्साद म्युजियम में लगने जा रही है। वह पहले भारतीय खिलाड़ी हैं, जिन्हें यह सम्मान मिलने जा रहा है। आस्ट्रेलिया के जिस महान स्पीनर ने एकाधिक बार यह कहा कि उन्हें सपने में भी उनकी गेंदों पर सचिन तेंदुलकर धमाकेदार बल्लेबाजी करते हुए नजर आते हैं, उन शेन वार्न की मूर्ति वहां पहले ही लग चुकी है।
सचिन के अलावा जिन भारतीयों को अब तक यह सम्मान मिला है, उनमें गांधी जी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, अमिताभ बच्चन, एश्वर्य राय बच्चन, सलमान खान और शाहरुख खान शामिल हैं। मैडम तुस्साद म्युजियम में ब्रायन लारा, डेविड मेकहम, मार्टिना नवरातिलोवा, मार्टिना हिंगिस, मोहम्मद अली जैसे विश्व प्रसिद्ध खिलाड़ियों से लेकर चार्ली चैपलिन, एंजलिना जौली, बार्बरा विंडसर, ब्रूस ली, एलिजाबैथ टेलर, जूलिया रार्बट्स जसी नामचीन विदेशी फिल्मी हस्तियों और दलाई लामा, डायना, हिलेरी व बिल क्लींटन, मिसेल व बराक ओबामा, क्वीन एलिजाबैथ, मार्गरेट अल्वा, नेलसन मंडेला, नेपोलियन, पाप जोन पाल, अब्राहिम लिंकन जैसी विश्व प्रसिद्ध हस्तियों की मूर्तियां लगी हैं। यही वजह है कि सचिन तेंदुलकर ने इसे खास सौगात और लम्हे बताते हुए कहा कि उनके जन्म दिन 24 अप्रैल के लिए इससे खास तोहफा और क्या हो सकता है?
पाठकों को यह जानकर थोड़ा आश्चर्य होगा कि हमारे देश की एक हस्ती एेसी भी है, जिसने मैडम तुस्साद म्युजियम का उनकी मूर्ति लगाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। वह कोई और नहीं, फिल्म अभिनेता आमिर खान हैं। बहरहाल, सचिन तेंदुलकर एेसे आठवें भारतीय हैं, जिन्हें यह सम्मान मिलने जा रहा है। इस पर बहस और चर्चा हो सकती है कि उनसे पहले यह सम्मान सुनील गावस्कर, कपिल देव अथवा हाकी के जादूगर ध्यानचंद को क्यों नहीं दिया गया। टैगोर से लेकर प्रेमचंद और राजकपूर से लेकर ए आर रहमान तक अनेक एेसी हस्तियां हैं, जो इस सम्मान की पात्र हैं, लेकिन इस बहस में पड़ने के बजाय इस खास मौके पर खुशी जाहिर करने की जरूरत है, जो सामने है।
सचिन भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए विशेष खिलाड़ी हैं। उनके रिकार्डस किसी को भी चमत्कृत कर सकते हैं। बीस साल से वे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेल रहे हैं और रनों की उनकी भूख आज भी पहले जैसी हैं। दस दिन बाद वे 36 वर्ष के हो जाएंगे लेकिन उनके चेहरे पर होशा बाल सुलभ मुस्कान उनकी महानता और उदारमन की परिचायक है। उन्हें जीनियस कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी प्रतिमा म्युजियम में होगी तो पर्यटकों को निश्चित ही नित नई ऊंचाईयां छूने के लिए प्रेरित करती रहेगी।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Friday, April 10, 2009

मूल मुद्दों की किसे फिक्र है ?

महंगाई, बेरोजगारी, आतंकवाद, आंतरिक सुरक्षा, मंदी और किसानों की आत्महत्या जैसे ज्वलंत मुद्दों पर अधिकांश राजनीतिक दल और नेता खामोश हैं। घोषणा-पत्र या तो जारी कर दिए गए हैं अथवा हो रहे हैं। हर चुनाव में वादे किए जाते हैं, जनता को ख्वाब दिखाए जाते हैं, लेकिन चुनाव परिणाम आने और सरकार बन जाने के बाद न जनता वादों का हिसाब लेती है और न नेता जवाबदेह बनना पसंद करते हैं। अफसोस की बात है कि देश के समक्ष उपस्थित मूल मुद्दों पर चर्चा अथवा बहस नहीं हो रही है। बहस के मुद्दे बन गए हैं जूते। बगदाद से शुरू हुई यह खतरनाक परिपाटी लंदन और दिल्ली होते हुए कुरूक्षेत्र तक पहुंच गई है, जिस पर तत्काल कड़ाई से रोक लगाए जाने की जरूरत है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन नेता अपने आचरण पर भी गौर करें।
देश, समाज, युवाओं, किसानों, महिलाओं, पिछड़े-दबे-कुचले वंचित वर्गो की मूलभूत समस्याओं के समाधान के प्रति वे कितने संजीदा हैं, उन्हें अपने आप से पूछना चाहिए। हर चुनाव में राजनीतिक दल और उनके नेता किसी भावनात्मक मुद्दे को तूल देकर लाभ लेने की कोशिश करते हैं। एेसा करते समय वे भूल जाते हैं कि इससे कितने लोगों की भावनाएं फिर से आहत होती हैं? फिर से बरसों पुराने जख्म हरे हो जाते हैं, लेकिन वोट के सौदागरों को शायद लोगों की पीड़ा से कुछ खास लेना-देना नहीं रह गया है। येन-केन-प्रकारेण वे सीटों की संख्या इतनी बढ़ा लेना चाहते हैं कि सत्ता के द्वार तक पहुंचने में दिक्कत न आए।
देश के प्रमुख नेता भाषणों के दौरान किस तरह की अवांछित बयानबाजी कर रहे हैं, इसे पूरा देश देख और सुन रहा है। केन्द्र में मंत्री पद की शपथ लेते समय लालू प्रसाद यादव ने संविधान की रक्षा की शपथ भी ली थी लेकिन एक कौम विशेष की वोटों के ध्रुवीकरण के लिए वरुण गांधी के संबंध में एेसी टिप्पणी कर गए, जिस पर सहज यकीन नहीं होता कि कोई मंत्री एेसी बात कह सकता है? 1984 के सिख विरोधी दंगों ने हजारों परिवारों को गहरे जख्म दिए थे। हर चुनाव में राजनीतिक दल उन जख्मों को जानबूझकर कुरेदते हैं। भोले-भाले लोगों को उत्तेजित कर हर बार सड़कों पर प्रदर्शन के लिए उकसाते हैं। क्या किसी भी दल ने इसके प्रति गंभीरता दिखायी कि जो भी दंगों के पीछे रहा, उसे जल्दी से जल्दी कठोर सजा मिले? जवाब है नहीं, क्योंकि एेसा होने पर हर बार एक वर्ग की वोटों का जुगाड़ करने वाला एक मुद्दा हमेशा के लिए दफन हो जाने की आशंका है। आखिर किस दिशा में जा रहा है हमारा राजनीतिक निजाम?

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Monday, April 6, 2009

सिरदर्द बनते कांग्रेस के सहयोगी

पिछले पांच साल से यूपीए सरकार का अहम हिस्सा रहे सहयोगी ही आजकल कांग्रेस पार्टी के लिए सबसे बड़े सिरदर्द बन गए हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार भुवनेश्वर में आयोजित बीजू जनता दल और तीसरे मोर्चे के नेताओं की रैली में जाने का एेलान करके कांग्रेस में हड़कंप मचाते हैं तो बिहार व झारखंड में राजनीतिक असर रखने वाले लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान लखनऊ पहुंचकर समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव से हाथ मिलाकर एेलान कर रहे हैं कि वे 134 लोकसभा सीटों वाले इन तीनों राज्यों में साझा तौर पर चुनाव प्रचार करेंगे। यूपीए के सहयोगियों की यह नाफरमानी कांग्रेस नेताओं की आंखों में चुभ रही है, लेकिन ये एेसे दल और नेता हैं, जिन्हें न निगलते बन रहा है, न उगलते। चुनाव परिणामों के बाद यही नेता तय करने की स्थिति में होंगे कि केन्द्र में बनने वाली सरकार का स्वरूप क्या हो।
कांग्रेस को पिछले दिनों एक के बाद एक, कई राजनीतिक झटके लगे हैं। यूपी में मुलायम सिंह यादव कांग्रेस के प्रभाव में नहीं आए। उन्होंने 17 सीटें कांग्रेस को आफर की। कांग्रेस दस एेसी सीटें भी चाह रही थीं, जो 2004 में समाजवादी पार्टी ने जीती थीं। कौन मूर्ख अपनी जीती हुई सीटें सहयोगी दल को देने की भूल कर सकता है? मुलायम ने कांग्रेस से हाथ नहीं मिलाकर एकला चलो का रास्ता अख्तियार करना मुनासिब समझा। बिहार में भी कांग्रेस कम से कम आठ सीटें चाहती थीं। लालू-पासवान 2004 में उसकी जीती हुई तीन सीटों से अधिक देने पर राजी नहीं हुए। नतीजा? कांग्रेस वहां भी पैदल हो गई। झारखंड में उसे शिबू सोरेन के बेटे ने यह कहकर झटका दे डाला कि कांग्रेस पहले घोषणा करे कि विधानसभा चुनाव के बाद शिबू सोरेन ही उसे मुख्यमंत्री के रूप में मान्य होंगे।
पिछले सप्ताह तमिलनाडु के एक प्रमुख घटक पीएमके ने यूपीए से किनारा कर जे जयललिता से हाथ मिला लिया। पीएमके नेता अंबुमणि रामदौस ने पांच साल तक स्वास्थ्य मंत्री रहकर सत्ता का सुख लूटा, लेकिन चुनाव आते ही वे दूसरे खेमे में छलांग मार गए। महाराष्ट्र में कांग्रेस का शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से सीटों का तालमेल बहुत झैं-झैं के बाद हो सका, लेकिन बिहार, उड़ीसा, उत्तराखंड, मेघालय और सिक्किम में कांग्रेस ने उसके साथ सीटों का तालमेल करने से इंकार कर दिया। नतीजतन पवार ने उन राज्यों में या तो अकेले लड़ना तय किया अथवा दूसरे गठबंधन सहयोगी तलाश लिये। उड़ीसा में उसका गठबंधन तीसरे मोर्चे के नेताओं के साथ खड़े बीजू जनता दल नेता नवीन पटनायक से है और इसी कारण वे शुक्रवार को भुवनेश्वर में आयोजित रैली में जाने वाले थे।
पिछले कई दिन से मीडिया में यूपीए के सहयोगी और केन्द्र में अब भी मंत्री शरद पवार, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान छाए हुए हैं। कांग्रेस को लगता है कि उसके सहयोगी उसका खेल बिगाड़ने में लगे हैं। लालू और पासवान ने शुक्रवार को लखनऊ में फिर कांग्रेस को कोसा। हालांकि यह कहना भी नहीं भूले कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह का वे बहुत सम्मान करते हैं। मुलायम सिंह यादव से इस चुनाव और आगे विधानसभा चुनाव में भी हाथ मिलाए रखने की जो बात उन्होंने कही है, उसका एक ही राजनीतिक मतलब है कि वे पिछड़ों, दलितों और मुसलमान मतदाताओं का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करना चाहते हैं। कांग्रेस के साथ-साथ उनके निशाने पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी हैं। तीसरे मोर्चे के नेताओं और वाम मोर्चा से लालू-पासवान-मुलायम इसी कारण नाराज हैं कि उन्होंने मायावती को उसमें शामिल कर लिया है।
शरद पवार की अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। वे आज नहीं, 1991 से प्रधानमंत्री पद की दौड़ में हैं, जब राजीव गांधी की हत्या के बाद तेलुगू बिड्डा पीवी नरसिंहराव को यह पद सौंप दिया गया था। तब नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह और प्रणब मुखर्जी के अलावा जो नेता हाथ मलते रह गए थे, उनमें शरद पवार भी हैं। कांग्रेस उन पर भरोसा नहीं करती है। 1978 में वे कांग्रेस छोड़कर जनता पार्टी के साथ चले गए थे। 1987 में राजीव गांधी के प्रयासों से वापस लौटे तो 1998-99 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल को मुद्दा बनाकर फिर कांग्रेस से रुखसत हो गए। तब यह माना गया था कि अब शरद पवार और सोनिया गांधी कभी एक मंच पर दिखायी नहीं देंगे, लेकिन राजनीति बड़ी अजीब है। महाराष्ट्र में एेसे हालात बने कि कांग्रेस को पवार की राकांपा के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ी और 2004 में एेसी नौबत आई कि शरद पवार उन्हीं सोनिया गांधी को नेता मानने को तैयार हो गए, जिनके विदेशी मूल को कोसते हुए कांग्रेस से बाहर चले गए थे। राकांपा से पवार और प्रफुल्ल पटेल केन्द्र में मंत्री बने। दोनों के पास महत्वपूर्ण कृषि और उड्डयन मंत्रालय रहे। सब जानते हैं कि सोनिया और पवार के बीच प्रफुल्ल पटेल ने सेतु का काम किया लेकिन सोनिया अथवा पार्टी हाईकमान के बाकी नेताओं ने पवार को कभी महत्व नहीं दिया। उन पर कभी विश्वास नहीं किया।
पवार को यह बात भीतर से कचोटती रही है। चालीस साल से भी अधिक का उनका राजनीतिक जीवन है। महाराष्ट्र में उनका अपना जनाधार है। वे जानते हैं कि अपने दस-बारह या पंद्रह लोकसभा सदस्यों के बल पर वे प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। तीसरे मोर्चे के नेताओं के अलावा अगर वे मुलायम सिंह यादव जैसे क्षेत्रपों के संपर्क में हैं, तो इसीलिए कि यदि चुनाव परिणामों के बाद गैर कांग्रेस-गैर भाजपा सरकार के गठन की नौबत बने और बाकी नेताओं के नाम पर सबकी सहमति न बने तो उनके नाम का छींका भी टूट सकता है। कांग्रेस उन्हें महाराष्ट्र के बाहर गठबंधन के लायक भी नहीं समझती और यदि वे दूसरे दलों से संपर्क बनाते हैं तो कपिल सिब्बल से लेकर पी चिंदम्बरम तक उन पर आंखें भी तरेरने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस को अपने इस व्यवहार पर गहन आत्मचिंतन करना चाहिए। उसकी इसी एंठ और गलतफहमी के कारण उसके सहयोगी एक-एक कर दूर जा रहे हैं। यही हालात रहे तो 2004 जितनी सीटें हासिल कर लेने के बाद भी कांग्रेस को इस बार सरकार बनाने के लाले पड़ सकते हैं।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Wednesday, April 1, 2009

संजय दत्त पर फैंसले के सबक


भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था मुख्यत: तीन स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर टिकी है। सभी जानते और मानते हैं कि विधायिका यानि जनता के चुने हुए नुमाइंदे और कार्यपालिका यानि नौकरशाही और व्यवस्थापिका (सरकारें) अपने कर्तव्य पथों से लगभग भटक चुकी हैं। ले-देकर न्यायपालिका है, जिस पर देश आज भी आंख मूंदकर भरोसा करता है। विधायिका की हालत यह है कि वह संसद और विधानमंडलों में अपने द्वारा ही बनाए गए कानूनों को ताक पर रखने में शर्म नहीं करती। न्यायपालिका और निर्वाचन आयोग जैसी संवेधानिक संस्थाओं के निर्देशों को भी राजनैतिक दल ताक पर रखने लगे हैं। देश में जिस तरह का राजनैतिक वातावरण बन गया है, उसमें छोटे-बड़े सभी दल अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए हर हथकंडा अपना रहे हैं। यह बात सही है कि यह गठबंधन सरकारों का युग है. बिना घातक परिणामों के बारे में सोचे संसद व विधानसभाओं में अपनी संख्या बढ़ाने के लिए राजनैतिक दल बाहुबलियों और दागियों को भी टिकट देने की होड़ में शामिल हो चुके हैं। सदनों की हालत क्या होती जा रही है, इसी से पता चल जाता है कि पिछली लोकसभा में 543 में से 128 सांसद एेसे थे, जिन पर कोई न कोई मुकदमा चल रहा था। देश में इस पर गंभीर चर्चा जारी है कि दागी किस्म के लोगों को वोट दिया जाना चाहिए या नहीं, लेकिन लगता है कि पार्टियों पर इसका कोई असर नहीं हो रहा। अगर होता तो वे इस बार गंभीर आपराधिक धाराओं में निरूद्ध व्यक्तियों को उम्मीदवार नहीं बनातीं। यह तो और भी आश्चर्य की बात है कि जिन्हें अदालत दो से अधिक वर्ष की सजा सुना चुकी है, एेसे व्यक्ति को भी प्रत्याशी बनाने की चेष्टा की गई। अब तो देश की जनता को ही तय करना है कि एेसी मानसिकता और सोच वाले दलों को क्या शिक्षा देनी है?
यह मानना होगा कि राजनैतिक दलों ने अपनी सोच और आचरण से देशवासियों को बेहद निराश किया है। राजनैतिक व्यवस्था तंत्र में घुन की तरह लग चुकी भ्रष्टाचार की बीमारी को दूर कर पाएंगे, लोगों को विश्वास नहीं रह गया है। कार्यपालिका के संबंध में सभी अवगत हैं कि वह न केवल पथभ्रष्ट हो चुकी है बल्कि विधायिका-व्यवस्थापिका को भी उसने उसी रास्ते पर डाल दिया है। ले-देकर न्यायपालिका और मीडिया ही एेसे स्तंभ बचे हैं, जो जब-तब आस-उम्मीद बंधाते हैं। प्रेस इसलिए क्योंकि जब भी संवेधानिक संस्थाओं पर राजनैतिक दल अथवा नौकरशाही छुपकर वार करने की कोशिश करते हैं अथवा किसी लाचार को सताया जाता है तो वह उन्हें बेनकाब करने की कोशिश करता है, लेकिन मीडिया के एक बड़े वर्ग में भी अब सत्तर छेद नजर आने लगे हैं। यह वाकई बेहद निराश करने वाले क्षण हैं। एेसे माहौल में न्यायपालिका से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह अकेले ही पूरे तंत्र को दुरूस्त कर देगी? क्या लोकतंत्र के बाकी तंत्रों की कोई जिम्मेदारी नहीं है? देश में कुछ लोग अभी भी व्याधियों और गलत सोच से जंग लड़ने की कोशिश करते दिख रहे हैं। वे धारा के विरूद्ध तैरने की कोशिश कर रहे हैं। ठीक एेसे, जैसे आंधी का मुकाबला कोई दीया कर रहा हो।
राजनीति में अपराधियों को क्यों संरक्षण दिया गया और उन्हें चुनाव लड़वाकर सदनों में भेजने की मानसिकता के पीछे कौन सी ग्रंथी काम करती है, यह देशवासी जान चुके हैं। यह अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि जिस मीडिया से उम्मीद की जाती है कि वह गलत आचरण करने वालों को हतोत्साहित करे और राष्ट्रभक्त, सद्चरित्र व पुरुषार्थ के बल पर अपना स्थान बनाने वालों को प्रोत्साहित करे, लेकिन अक्सर देखने में आता है कि गलत आचरण करने, कानून तोड़ने, गंभीर किस्म के अपराध करने और देश के विरूद्ध विध्वंसक गतिविधियों में लिप्त लोगों को वह हीरो की तरह पेश करता है। उसमें भी अगर फिल्मी ग्लैमर का तड़का लगा हो तो उसके लिए सोने पर सुहागे वाली बात हो जाती है। फिल्म अभिनेता संजय दत्त के मामले में समाजवादी पार्टी और भारतीय मीडिया ने यही तो किया है। क्या मीडिया को इसकी जानकारी नहीं है कि उन्हें 1993 के मुंबई बम धमाकों के लिए जिम्मेदार देश विरोधी ताकतों से अवैध हथियार लेने और घर में रखने के जुर्म में टाडा अदालत 31 जुलाई 2007 को छह साल की सजा सुना चुकी है? चूकि सजा के खिलाफ उन्होंने ऊपरी अदालत में याचिका दायर कर रखी है, इसलिए कानूनी प्रावधानों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें 27 नवम्बर 2007 को जमानत पर रिहा करने के आदेश दिए थे। इन तथ्यों को पूरी तरह नजर अंदाज करके समाजवादी पार्टी ने उनकी ग्लेमर की छवि को भुनाने के लिए लखनऊ सीट से लड़ाने का एेलान किया और टीआरपी के लिए कुछ भी दिखाने वाले इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने उन्हें नायक की तरह हाथों-हाथ ले लिया।
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को संजय दत्त पर जो फैसला दिया है, वह राजनैतिक दलों और मीडिया के साथ-साथ संजय दत्त जैसे महत्वाकांक्षियों के लिए कड़ा सबक है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव लड़ने की इजाजत देने की अपील वाली उनकी याचिका को खारिज करते हुए दो टूक शब्दों में कहा कि उन पर गंभीर किस्म के आरोप हैं। उन्हें चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भले ही उन्होंने पहली बार अपराध किया है लेकिन इससे अपराध की गंभीरता कम नहीं हो जाती। सपा नेताओं को पता नहीं यह भ्रम कैसे हो गया कि इस देश की सर्वोच्च अदालत कानून के खिलाफ जाकर छह साल की सजा पा जा चुके संजय दत्त को चुनाव लड़ने की इजाजत दे देगी? क्या उन्हें इसका इल्म नहीं था कि संगीन अपराधों में लिप्त रहे व्यक्ति को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं मिलती है। केवल नवजोत सिंह सिद्धू अपवाद हैं, जिन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति दी गई लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि संजय दत्त की सिद्घू के मामले से तुलना नहीं की जा सकती। अहम् सवाल यही है कि राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के समय-समय पर आने वाले इस तरह के फैंसलों से सीख और संकेत लेने की कोशिश क्यों नहीं करते. संजय दत्त मामले से क्या पार्टियाँ कुछ सबक लेंगी ? लगता तो नहीं.

ओमकार चौधरी
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