Tuesday, August 25, 2009

लाइलाज बीमारी से ग्रस्त भाजपा

क्या भाजपा लाइलाज बीमारी की शिकार हो गई है? लोग जानना चाहते हैं कि पार्टी विद डिफरेंस के आकर्षक श्लोगन के साथ मुख्य धारा की कांग्रेस और दूसरी पार्टियों को चुनौती देकर केन्द्रीय सत्ता की दहलीज तक पहुंची इस पार्टी को आखिर किसकी
नजर लग गई है। जनता पार्टी, जनता दल, संयुक्त मोर्चा और राष्ट्रीय मोर्चा की सरकारों के प्रयोग की विफलता के बाद भाजपा नीत राजग गठबंधन ने छह साल तक केन्द्र में शासन करके कांग्रेस के इस दुष्प्रचार की हवा निकाल दी थी कि गैर कांग्रेसवाद का नारा बुलंद करने वाली विपक्षी पार्टियां वैकल्पिक, स्थायी और साफ-सुथरी सरकार नहीं दे सकती। कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां यह कहकर लोगों, खासकर अल्पसंख्यकों को डराते रहे कि यदि भाजपा की सरकार बन गई तो देश टूट जाएगा। 90 के दशक से राज्यों में भी भाजपा की सरकारें सफलता के साथ काम करती आ रही हैं और 1998 से 2004 तक केन्द्र में भी उसकी सरकार रही। न देश टूटा और न राज्यों में रहने वाले अल्पसंख्यकों को असुरक्षा का बोध हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी भी और चली भी।
कुछ आत्मघाती गलतियां नहीं होती तो राजग न 2004 में हारता और न 2009 के इस प्रतिष्ठित चुनाव में। 2004 में भाजपा के चुनाव प्रबंधक और रणनीतिकार अति आत्मविश्वास के शिकार हो गए। शाइनिंग इंडिया के आत्ममुग्ध प्रचार ने उनकी लुटिया डुबो दी, जबकि 2009 के आम चुनाव में नकारात्मक प्रचार शैली भारी पड़ गई। पार्टी नेता मतदाताओं को यह समझाने में नाकाम सिद्ध हुए कि डा. मनमोहन सिंह कैसे सबसे कमजोर प्रधानमंत्री हैं और लाल कृष्ण आडवाणी किस तरह मजबूत नेता हैं और निर्णायक सरकार देने में सक्षम हैं। मुंबई पर आतंकवादी हमले को मुद्दा बनाकर कांग्रेस को घेरने की उनकी रणनीति काम नहीं आई। कंधार प्रकरण पर कांग्रेस ने हमला बोला तो भाजपा बचाव की मुद्रा में आ गई ।
कहते हैं, घर में कंगाली की हालत हो तो कलह भी शुरू हो जाती है। भाजपा सत्ता से बाहर क्या हुई, इसके नेताओं में सिर-फुटौव्वल इस कदर बढ़ गई कि कई कद्दावर नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। लिस्ट लंबी होती जा रही है। शुरुआत तो हालांकि दस साल पहले गुजरात में शंकरसिंह वाघेला से हुई थी, लेकिन बाद में उत्तर भारतीय कई नेता बगावत करते हुए भाजपा से छिटक गए। इनमें उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं उमा भारती, पार्टी के थिंक टैंक माने जाने वाले गोविंदाचार्य, दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे मदन लाल खुराना और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी शामिल हैं। हाल में रक्षा, वित्त और विदेशमंत्री जैसे अहम पदों पर रहे जसवंत सिंह को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अब अरुण शौरी का नम्बर है। वसुंधरा राजे भी हठ पकड़े हुए हैं।
कह सकते हैं कि भारतीय जनता पार्टी की अंतरकलह खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। जसवंत सिंह प्रकरण अभी शांत भी नहीं हुआ है कि अटल सरकार में मंत्री रहे अरुण शौरी ने भी शीर्ष नेतृत्व पर हमला बोल दिया है। उन्होंने भले ही पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का नाम नहीं लिया हो, लेकिन उनके निशान पर वही हैं। उन्होंने कुछ अप्रिय लगने वाले सवाल दाग दिए हैं। मसलन, लोकसभा चुनाव में नाकामी के लिए राज्यों के नेताओं को बलि का बकरा क्यों बनाया जा रहा है। पार्टी नेतृत्व खुद इसकी जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा क्यों नहीं दे देता? उन्होंने सवाल पूछा है कि विधायकों का समर्थन प्राप्त उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद से भुवन चंद खंडूडी को क्चयों हटाया गया? इसी तरह राजस्थान में विपक्ष की नेता वसुंधरा राजे को 57 विधायकों के समर्थन के बावजूद पार्टी नेतृत्व हटाने पर क्यों तुला हुआ है। उन्होंने यह सवाल भी पूछा है कि भाजपा के संस्थापक सदस्य जसवंत सिंह को निष्कासित करने से पूर्व नोटिस देने की औपचारिकता तक क्यों नहीं निभाही गई। शौरी के बगावती तेवरों से एक बार फिर पार्टी नेतृत्व सकते में है।
लोकसभा चुनाव में हार के बाद शुरू हुई कलह थमने का नाम नहीं ले रही है। जसवंत सिंह, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा उन वरिष्ठ नेताओं में रहे हैं, जो लोकसभा चुनाव में हार की जिम्मेदारी तय करने की मांग जोर-शोर से उठाते रहे हैं। दबाव के बाद राजनाथ सिंह ने बाल आप्टे के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई, जिसे हार के कारणों को तलाशने की जिम्मेदारी सौंपी गई। आप्टे कमेटी ने शिमला की चिंतन बैठक में अपनी रिपोर्ट पेश कर दी। वह मीडिया के हाथ भी लग गई। आप्टे कमेटी ने साफ कहा है कि पार्टी नेतृत्व न तो चुनाव का एजेंडा तय कर पाया और न ही महंगाई, आतंकवाद जैसे मुद्दों पर कांग्रेस को घेर पाया। बल्कि मजबूत नेता-निर्णायक सरकार का उसका नारा भी लोगों को प्रभावित करने में नाकाम सिद्ध हुआ। मनमोहन सिंह को अब तक सबसे कमजोर प्रधानमंत्री कहना लोगों को नागवार गुजरा। चुनाव के बीच में नरेन्द्र मोदी का नाम भी भावी प्रधानमंत्री के रूप में उछालना भाजपा को भारी पड़ा।
आश्चर्य की बात यह है कि पार्टी नेतृत्व ने इस रिपोर्ट पर गंभीरता से विचार करने के बजाय उसके पेश किए जाने से ही इंकार कर दिया। आज हालत यह है कि पार्टी के कई वरिष्ठ नेता नेतृत्व पर अपनी भड़ास निकालते हुए नजर आ रहे हैं। यह सही है कि 2004 में भाजपा की इतनी बुरी हार नहीं हुई थी, जितनी इस बार हुई है। ऊपर से हर बड़े नेता को कोई न कोई अहम पद की लालसा है। एेसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि अटल बिहारी वाजपेयी स्वस्थ होते और फैसलों में सक्रिय भूमिका निभाते तो क्या इस तरह की नौबत आती? निश्चित ही पार्टी को अटल जी के मार्गदर्शन और नेतृत्व की बेहद कमी खल रही है। कहना होगा कि भाजपा अजीबोगरीब संकट से गुजर रही है, जिससे निकलना उसके नेतृत्व के लिए इस समय सबसे बड़ी चुनौती है। जसवंत सिंह, अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और वसुंधरा राजे नासमाझ या छोटे-मोटे कार्यकर्ता नहीं हैं। अनुशासन का डंडा चलाकर सबको चुप कराने के बजाय यदि मूल समस्या के समाधान की तरफ गंभीर पहल की जाए तो यह पार्टी के व्यापक हित में होगा।

Tuesday, August 11, 2009

स्वाइन फ्लू का हौव्वा ठीक नहीं


क्या स्वाइन फ्लू वास्तव में इतनी खतरनाक बीमारी है, जितनी मीडिया के द्वारा बताने की कोशिशें की जा रही हैं? क्या अन्य पश्चिमी देशों की तरह यह भारत में भी महामारी का रूप धारण कर चुकी है? क्या सरकार इसे रोकने में नाकाम साबित हो गई है और इतने लोग इसकी चपेट में आ गए हैं कि जिससे लोग अपने को असुरक्षित महसूस करने लग गए हैं। यदि मीडिया की कवरेज को देखें तो कुछ एेसे ही संकेत मिलते हैं, लेकिन जिस तरह का वातावरण बनाया जा रहा है, क्या हालात वैसे ही हैं? यह जानने के लिए तथ्यों पर गौर करना आवश्यक है। अमेरिका के मेक्सिको से शुरू हुई यह बीमारी अब तक दुनिया के 167 देशों तक फैल चुकी है। खुद अमेरिका की बात करें तो वहां अब तक साढ़े छह हजार लोग स्वाइन फ्लू की चपेट में आए हैं, जिनमें से 436 की मृत्यु हुई है। अर्जेटीना में 7 लाख 60 हजार लोग इसकी चपेट में आए हैं और 337 लोगों की मौत हुई है। आस्ट्रेलिया में करीब 25 हजार लोग स्वाइन फ्लू से ग्रस्त पाए गए हैं, जिनमें से 85 की मृत्यु हुई है। ब्रिटेन में एक लाख दस हजार लोग इससे प्रभावित हुए हैं और छत्तीस की मौत हुई है। भारत में अब तक केवल 860 लोग स्वाइन फ्लू से ग्रस्त पाए गए हैं। जिन्हें स्वाइन फ्लू होने का संदेह था, एेसे छत्तीस सौ लोगों की जांच-पड़ताल की गई है। स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद की मानें तो भारत सरकार ने समय रहते हवाई अड्डों और सी-पोर्ट्स पर ही विदेशों से आने वालों के स्वास्थ्य के परीक्षण का महत्वपूर्ण फैसला लिया। अब तक 47 लाख लोगों की स्क्रीनिंग हवाई अड्डों और सी-पोर्ट्स पर की गई है। जिन पर भी संदेह हुआ, उन्हें तुरंत नजदीकी अस्पतालों में भर्ती करके चिकित्सा मुहैया कराई गई। नतीजतन, खतरा टल गया, लेकिन बाहर से आने वाले बहुत से लोगों ने यह बात छिपाई कि उन्हें स्वाइन फ्लू है। इसी का नतीजा है कि देश के कुछ बड़े महानगरों में स्वाइन फ्लू फैला लेकिन बाकी देशों के मुकाबले यह बहुत कम है और यहां मृत्यु दर भी बहुत कम है। अब तक छह मौतें हुई हैं। देश में हर साल 4 लाख लोग एड्स से मर जाते हैं। करीब तीन लाख लोग टीबी के शिकार होते हैं। डेढ़ हजार हर साल मलेरिया से मर जाते हैं और 78 हजार महिलाएं प्रसवकाल में दम तोड़ देती हैं। सवाल है कि स्वाइन फ्लू से ज्यादा मौतें हो रही हैं या अन्य बीमारियों से। मीडिया में बाकी बीमारियों के इन भयावह आंकड़ों को क्यों नहीं दिखाता? जिस तरह स्वाइन फ्लू की कवरेज की जा रही है, उससे लोग जागरूक और सजग होने के बजाय घबरा रहे हैं। स्कूल-कालेजों में छुट्टी की जा रही हैं। किसी को हल्की खांसी-जुकाम जैसी बीमारी भी हो रही है तो वे स्वाइन फ्लू की आशंका में अस्पतालों की ओर दौड़ रहे हैं। पूरे देश में भय का वातावरण बना दिया गया है। प्रधानमंत्री से लेकर स्वास्थ्य मंत्री तक इस पर ब्यौरे ले रहे हैं। यह अच्छी बात है कि एहतियात बरती जाए, लेकिन किसी भी बीमारी को सनसनीखेज तरीके से प्रसारित कर टीआरपी बढ़ाने की कोशिश करना क्या किसी भी दृष्टि से उचित है?

Monday, August 10, 2009

भारत-पाक और अमेरिकी हस्तक्षेप


सोलह जुलाई को शर्म अल शेख में जारी साझा बयान को एक महीना भी नहीं हुआ और पाकिस्तान अपनी असलियत पर उतर आया है। सैय्यद यूसुफ रजा गिलानी ने डा. मनमोहन सिंह को आश्वसान दिया था कि मुंबई हमले के दोषियों को किसी सूरत में नहीं बख्शा जाएगा। मनमोहन सिंह ने विपक्ष की चिंताओं के जवाब में संसद में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि भारत उस समय तक पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय बातचीत शुरू नहीं करेगा, जब तक वह अपना वादा पूरा नहीं कर देता। देश शर्म अल शेख में जारी हुए बयान को शंका की दृष्टि से देख रहा है। बयान की भाषा से साफ है कि भारतीय नेतृत्व बयान जारी करने के लिए दबाव रहा है। आतंकवाद को बातचीत की प्रक्रिया से अलग रखने और बयान में ब्लूचिस्तान का जिक्र आने से साफ है कि इसमें अमेरिका की अहम भूमिका रही है। पाकिस्तान-अफगानिस्तान की सरहद पर तालिबान और अलकायदा से छिड़ी जंग में फंसा अमेरिका पाकिस्तान को खुश रखना चाहता है। इसके लिए वह भारत की चिंताओं, हितों और स्वतंत्र विदेश नीति तक को दांव पर लगा रहा है। अमेरिका नहीं चाहता कि भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़े और पाक हकूमत को भारत के साथ लगती सीमा पर सेना तैनात करने का बहाना मिल जाए।
अमेरिका जिस तरह भारत के मामलों में दखलांदाजी कर रहा है, वह आगे चलकर बेहद घातक सिद्ध हो सकती है। साझा बयान को आनन-फानन में तैयार करवाया गया। जल्दबाजी में खराब ड्राफ्टिंग की बात खुद विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी ने स्वीकार की। विपक्षी दल प्रधानमंत्री के इस तर्क से सहमत नहीं है कि जब ब्लूचिस्तान में हमारी कोई दखल ही नहीं है तो भारत को साझा बयान में उसका जिक्र कर देने भर से क्यों चिंतित होना चाहिए। रक्षा विशेषज्ञ और विदेश नीति के जानकार पहले ही इसे प्रधानमंत्री की एेतिहासिक भूल और चूक बता चुके हैं।
विपक्ष और रक्षा विशेषज्ञों की शंका बेवजह नहीं है। अभी साझा बयान में पाकिस्तान द्वारा दिए गए आश्वासन की स्याही सूखी भी नहीं है कि मुंबई हमले के प्रमुख षड़यंत्रकारी जमात उद दावा के चीफ हाफिज सईद को लाहौर उच्च न्यायालय के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी क्लीन चिट दे दी। आश्चर्य की बात तो यह है कि पाकिस्तान सरकार ने हाफिज सईद को रिहा किए जाने के फैसले के खिलाफ कोर्ट में पुख्ता सबूत पेश ही नहीं किए, जो भारत पहले ही सौंप चुका है। सबूतों की चौथी खेप हाल ही में उसे सौंपी गई है। इससे भी आश्चर्य का विषय यह है कि वहां के गृहमंत्री और विदेशमंत्री भारत से सईद के खिलाफ और पुख्ता सबूतों की मांग कर रहे हैं। पाकिस्तानी मंत्रियों के रवये से साफ है कि भारत द्वारा पहले सौंपे गए सबूतों को लेकर वे कतई संजीदा नहीं हैं। मुंबई हमले को लेकर पहले ही दिन से पाकिस्तान का रवया असहयोग का बना हुआ है। उसमें आज भी कोई बदलाव नहीं दिख रहा।
यह सही है कि जार्ज बुश ने उस समय भारत की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। 1998 में परमाणु परीक्षण के बाद से तमाम तरह की पाबंदियों का सामना कर रहे भारत को प्रतिबंधमुक्त कराने में अहम भूमिका निभाई। दोनों देशों के बीच असैन्य परमाणु करार हुआ। ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए इस असैन्य परमाणु करार की जितनी जरूरत भारत को है, उससे कम अमेरिका को भी नहीं है। वह ऊर्जा उत्पादन के रिएक्टर, तकनीक, यूरेनियम वगैरा भारत को बेचेगा तो उससे अरबों डालर कमाएगा। उसके इंजीनियरों को यहां स्थापित होने वाले रिएक्यटरों में काम मिलेगा। यह सच है कि दोनों देशों के बीच आपसी सहयोग के नए युग की शुरुआत हुई है परन्तु अमेरिका ने जिस तरह भारत की विदेश और सामरिक नीति को प्रभावित करना शुरू किया है, उसके बहुत घातक परिणाम होने जा रहे हैं।
अभी तक को भारत यह आरोप लगाता रहा है कि पाकिस्तान सीमा पार से आतंकवादी भेजकर यहां खून खराबा कराता रहा है। ब्लूचिस्तान का जिक्र साझा बयान में आने से अब ठीक यही आरोप पाकिस्तान भारत पर मंढने से नहीं चूकेगा। यानि अमेरिकी हस्तक्षेप ने भारत के हाथ से एक बड़ा कूटनीतिक अस्त्र छीन लिया है। रक्षा विशेषज्ञ हिलेरी क्लिंटन की यात्रा के समय उस हुए उस समझौते को भी घातक मान रहे हैं, जिसमें कहा गया है कि एंड यूज मानिटरिंग अरेजमेंट को आगे से भारत द्वारा अमेरिकी रक्षा प्रोद्योगिकी और उपकरणों को खरीदने के उद्देश्य से भारत द्वारा स्वीकृति पत्र के रूप में माना जाएगा। इसका मतलब यही है भारत जो भी रक्षा सामग्री खरीदेगा, उसमें यह पूर्व शर्त होगी कि भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठानों और उपकरणों की अमेरिकी सरकार द्वारा एंड यूज मानिटरिंग की जाएगी। इसे देश की संप्रभुता का गंभीर उल्लंघन नहीं मानें तो क्या मानें?
एटमी परमाणु करार के समय यह आशंका प्रकट की जा रही थी कि अमेरिका और अन्य ईंधन व प्रोद्योगिकी आपूर्तिकर्ता देश इसके बदले में भारत को एनपीटी और सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने को बाध्य करेंगे। प्रधानमंत्री ने सदन को आश्वस्त किया कि एेसी कोई शर्त भारत पर नहीं थोपी गई है, लेकिन जी-आठ राष्ट्रों की बैठक में इन राष्ट्रों ने साफ कर दिया कि भारत को पुर्नसंस्करण व्यवस्थाओं और प्रक्रियाओं वाली प्रोद्योगिकी तभी दी जाएगी, जब वह एनपीटी पर हस्ताक्षर करेगा। इसका सीधा सा मतलब यही निकलता है कि अमेरिका ने भारत के साथ धोखाधड़ी की है। इन घटनाओं से साफ है कि अमेरिकी हस्तक्षेप और दबाव के चलते सरकार ने विदेश नीति और सामरिक हितों के मूलभूत आधार को ही हिला कर रख दिया है। यही हाल रहा तो अमेरिकी हस्तक्षेप भारत को कहीं का नहीं छोड़ेगा।

Thursday, August 6, 2009

जोनी के बिना रक्षा बंधन

इस बार का रक्षा बंधन हमारे परिवार के लिए अजीब सी खामोशी लेकर आया। सब चुप-चुप से थे। हमें पिछला रक्षाबंधन याद आ रहा था। पिछले साल जब मैं सोकर उठा तो देखा कि जोनी खुशी से फुदक रहा है। उसके माथे पर टीका लगा था और दाएं हाथ पर पंजे से थोड़ा ऊपर राखी का अनमोल धागा।
मेरे लिए यह थोड़ा-थोड़ा सुखद और कुछ आश्चर्यजनक था। मैंने बीती रात सोने के लिए जाते समय इस तरह के दृश्य की कल्पना नहीं की थी। सुखद इसलिए था कि मेरी बेटी कावेरी ने घर में बिल्कुल हमारे बच्चे की तरह ही पले और रहे जोनी को वही प्यार और सम्मान प्रदान किया, जो वह अपने भाई अंकुर और मुङो देती आई है। आश्चर्यजनक शायद इसलिए कि कावेरी ने हमारे सोकर उठने, स्नान कर तैयार होने और राखी बंधवाने का इंतजार नहीं किया था। मैने देखा कि अंकुर अभी भी सोया पड़ा है और कावेरी हमारे जगने से पहले ही जोनी के दाएं हाथ पर राखी बांध चुकी है।

मुङो उस घटना ने भीतर से बहुत आह्लादित कर दिया था। काश, सब इन मूक जानवरों को इसी तरह प्यार और सम्मान देते। पिछले साल हमारा राखी बंधवाने का नम्बर जोनी के बाद आया। डोगी को राखी बांधने पर मैंने कावेरी से चुटकी भी ली, लेकिन हमारे परिवार का कोई भी सदस्य जोनी के साथ उस तरह पेश नहीं आता था, जैसा आमतौर पर डोगी के साथ लोग पेश् आते हैं। उसे हमेशा सदस्य की तरह ही माना।
इस बार परिवार में राखी के रोज इसलिए खामोशी सी पसरी रही, क्योंकि जोनी हमारे बीच नहीं था। वह हमसे इतनी दूर चला गया, जहां से कोई लौटकर वापस नहीं आता। कभी-कभी लगता है कि हम लोग कितने बेबस हैं। जिन्हें प्यार करते हैं, उन्हें हमेशा के लिए अपने पास नहीं रख पाते। वह चौदह साल से हमारे परिवार का अभिन्न अंग था। उदास होता था.तो हम परेशान हो उठते थे। बीमार होता तो तुरंत डाक्टर के यहां ले जाते। खेलता रहता तो सुकून मिलता। जब पूरा परिवार साथ बैठकर किसी मसले पर चर्चा करता था तो वह भी उचककर खाली पड़े सोफे पर आ बैठता था। हमारी तरफ टुकुर-टुकुर कर देखता रहता था। मानो, कह रहा हो कि मैं भी सब सुन और समझ रहा हूं। मेरी पत्नी कमलेश उसे धमकाकर सोफे से नीचे उतारती तो शरारती जोनी उसकी निगाह फिरते ही फिर वहीं आ जमता था।
पिछला एक साल उसके और हमारे लिए कष्ट भरा रहा। डीएलए के स्वामी और प्रधान संपादक अजय अग्रवाल ने करीब दो साल पहले मुङो मेरठ संस्करण का दायित्व सौंपा। हमारा परिवार दिल्ली से मेरठ शिफ्ट हो गया। संस्करण शुरू हुआ। मैं करीब दस महीने मेरठ में रहा, लेकिन चूकि दोनों बच्चे दिल्ली में पढ़ रहे थे, इसलिए हमें वापस दिल्ली लौटना पड़ा। मैंने दोबारा हरिभूमि ज्वाइन किया। चूकि घर-परिवार-सामान शिफ्ट हो रहा था, इसलिए मां ने कहा कि कुछ समय के लिए जोनी को गांव में उनके पास छोड़ दें। एेसा ही हुआ। शुरू में तो नहीं परन्तु बाद में उसका वहां मन लग गया। इस बीच खबर आई कि वह बीमार रहने लगा है। बड़े भैय्या ने उसे दिखाया। दवा दिलाई। थोड़ा ठीक हुआ लेकिन फिर बीमार पड़ गया।
एक दिन अंकुर ने कहा कि पापा जोनी को ले आते हैं। यहां उसकी ठीक से सेवा टहल हो जाएगी। मैं और कावेरी उसे संभाल लेंगे। वो यहां ठीक हो जाएगा। उसने जैसे मेरे मन की कह दी थी। हालांकि मैं और कमलेश जोनी की बीमारी को समझ रहे थे, लेकिन बच्चों के सामने कह नहीं रहे थे। जोनी की उम्र दरअसल पूरी हो चली थी। वह चौदह साल से हमारे परिवार के साथ था। पामेलियन नस्ल के डोगी की इससे ज्यादा उम्र आमतौर पर नहीं होती है। हमें पता था कि अब इसका आखिरी समय निकट आ गया है। बहुत दिन तक वह हमारे साथ नहीं रहेगा।
मुङो आज भी याद है। मैं उस समय दैनिक जागरण मेरठ में था। फोटोग्राफर आबिद एक जूते के डिब्बे में इसे लेकर आया था। जोनी उस समय मुश्किल से पंद्रह दिन का था। मैंने ही उसे कह रखा था कि पामेलियन बच्चा मिले तो लेकर आना। मैं उसे घर लेकर गया तो सब लोग बहुत खुश हुए। पहले ही दिन से वह सबका चहेता बन गया। जोनी के साथ हमारे परिवार की अनगिनत यादें हैं। गांव में छोड़े हुए उसे हालांकि ज्यादा समय नहीं बीता था, लेकिन लग रहा था, जैसे कई साल हो गए हैं।
मैं अगली सुबह ही गांव पहुंच गया। जोनी तो जसे मेरा इंतजार ही कर रहा था। मां ने बताया कि कई दिन से यह आंखें ही नहीं खोल रहा है। चुप-चाप पड़ा रहता है। मैं पहुंचा तो उसकी आंखों में चमक लौट आई। मैंने उसकी खाने की कटोरी गाड़ी में रखी। खिड़की खोली तो पता नहीं उसके शरीर में कहां से जान आ गई। उसने उछलकर गाड़ी में छलांग लगा दी। मुङो लगा कि वह अंकुर, कावेरी और कमलेश के पास जाने को इस कदर उतावला है। मैने गाड़ी स्टार्ट की। आगे बढ़ाई तो वह पिछली सीट से उठकर मेरी बराबर वाली सीट पर आ गया। थोड़ी देर उचक-उचक कर बाहर का नजारा लेता रहा लेकिन जब शरीर ने साथ नहीं दिया तो कान दबाकर बैठ गया। आंखें बंद कर ली। वह सफर पूरा होने का इंतजार कर रहा था।
उस दिन तीन जामों में गाड़ी फंसी। पहला जाम मोदीनगर में मिला। दूसरा मुरादनगर में और तीसरा वसुंधरा में। मोदीनगर में मैंने उसे पानी दिया तो गप-गप करके वह पी गया। मुङो भूख लग आई थी। भुने हुए चने का डिब्बा खोला। कुछ निकाले तो जोनी ने हसरत और शिकायत भरी निगाह से मेरी ओर देखा, जैसे कह रहा हो कि यह क्या बदत्तमीजी है? क्या मुङो भूख नहीं लगी है? मैंने तीन-चार दाने उसके पास टपकाए तो उसने तुरंत लपक लिए। मैंने यह जानने के लिए कम दाने डाले थे कि यह खाता भी है कि नहीं। उसके बाद मैंने मुट्ठी भर दाने सीट पर डाल दिए, जिन्हें वह रास्ते भर खाता रहा। डेढ़ घंटे का सफर उस दिन हमने साढ़े तीन घंटे में तय किया।
जोनी की वापसी ने परिवार पूरा कर दिया। सब खुश थे। जोनी भी। अगली सुबह कावेरी ने उसे साबुन से नहलाया। थोड़ी देर धूप में उसने उलटी-पलटी करके खुद को सुखाया, लेकिन साफ लगा कि उसके शरीर में पहले जैसी ताकत नहीं बची है। शाम को उसे दस्त लग गए। जो खा रहा था, वह बाहर निकल रहा था। लगता है, ठंडा पानी सहन नहीं कर पाया। दवा दिलवाई गई। वह संभल गया। कुछ दिन ही निकले, वह फिर उदास हो गया। उसने खाना छोड़ दिया। कमजोर इतना हो गया कि चलते-चलते बैठ जाता था। दो दिन तक जब उसने कुछ नहीं खाया तो अंकुर डाक्टर के पास ले गया। डाक्टर ने जांच-पड़ताल के बाद बताया कि उसके फेफड़े जवाब दे चुके हैं। शरीर में ज्यादा ताकत नहीं बची है। यही कारण है कि वह बार-बार बीमार पड़ रहा है। उसे ग्लूकोज चढ़वाया गया। इसके बाद उसने कुछ आंखें खोली। घर लौटा तो थोड़ा खाना भी खाया। हम लोगों की जान में जान आई, लेकिन यह सब क्षणिक सिद्ध हुआ। तीन दिन बाद उसकी दशा अचानक बिगड़ गई।
मैं क्नाट प्लेस दफ्तर में था। कावेरी इतनी घबरा गई थी कि फोन तक नहीं कर सकी। उसकी मम्मी ने फोन पर मुङो बताया कि जोनी उठ नहीं रहा है। उसका शरीर अकड़ गया है। पानी डालते हैं तो मुंह से वापस आ जाता है। वह कराह रहा है। मैं समझ गया कि जोनी हमें छोड़कर हमेशा के लिए जा रहा है। मैंने कमलेश से कहा कि उसके पास बैठ जाओ। उसके शरीर पर हाथ फेरते रहो। शायद आखिरी सांस लेते समय उसका कष्ट कुछ कम हो। इसके तीन मिनट बाद ही कमलेश ने रोते हुए मुङो फोन किया। बताया कि जोनी चला गया है।
वह तीन जून की दोपहर थी। मैंने अंकुर को फोन किया। वह जामिया में था। मैंने उसे तुरंत घर पहुंचने को कहा। मैं रात में करीब साढ़े आठ बजे घर पहुंच सका। सन्नाटा पसरा पड़ा था। कावेरी गुमसुम थी। अंकुर अखबार में सिर दिए बैठा था। कमलेश बेहद उदास। मेरी रुलाई फूट पड़ी। हम सब थे.जोनी नहीं था। हमें लगा कि घर का अभिन्न अंग हमें छोड़कर चला गया। अंकुर ने अपने दोस्तों के साथ जाकर पीछे नहर के पास उसे अंतिम विदाई दी। हम लोगों को संभलने में कई दिन लग गए। कावेरी की खामोशी और बातचीत में दर्द बहुत कुछ बता रहा था। मैं जानबूझकर उसका जिक्र नहीं कर रहा था। जानता था कि खुद को रोने से रोक नहीं सकूंगा। फिर बच्चों को कैसे संभालूंगा।
जिस दिन जोनी गया, उससे पहली रात को मेरी तीन बार आंख खुली। आमतौर पर वह मेरे बिस्तर के पास मेरे जूते या चप्पलों पर सिर रखकर सोता था। उस रात उसे वहां नहीं देखकर मैं सकपकाया। उठकर देखा तो वह बाहर बैठक में खड़ा पता नहीं किसे निहार रहा था। मैं फिर लेट गया। सोचा कि कोई चुहिया देख ली होगी। थोड़ी देर बाद फिर जगा तो वह वहां भी नहीं था। उठकर देखा तो अंकुर के कमरे में खड़ा उसके बिस्तर की ओर देख रहा था। वह शायद अंकुर को वहां नहीं पाकर निराश था। अंकुर उस दिन घर नहीं आया था। अपने हास्टल में रुक गया था। सुबह देखा कि जोनी उठ ही नहीं पा रहा है। जब पता चला कि वह नहीं रहा तो मुङो रात की बातें याद आ गई। मुङो लगा कि जोनी को अपने अंत का अहसास हो गया था। वह रात में सो नहीं पाया और विदा लेने से पहले घर के हर सदस्य और कोने को देख लेना चाहता था। हम तीनों से तो वह मिल लिया लेकिन अंकुर से नहीं मिल पाया।
इस बार रक्षा बंधन की सुबह पूरे परिवार ने जोनी को बेहद मिस किया। कावेरी एकदम खामोश थी। हम जगे। स्नान किया। थोड़ी देर मैंने प्राणायाम किया। इसके बाद उसने पहले अंकुर और बाद में मेरी कलाई पर राखी बांधी। थोड़ी देर बाद उसने अपनी मम्मी से कहा कि यह राखी मेरे (कावेरी के) हाथ पर बांध दो। मैं उसे नकलची बंदर कहकर चिढ़ाता रहता हूं। मैंने उसे चिढ़ाया तो उसने बताया कि यह राखी जोनी की है, जिसे मैं अपने हाथ में बंधवा रही हूं। ओफ्फ...मैं उसे देखता ही रह गया। मुंह से एक लफ्ज नहीं निकल पाया। पिछले रक्षाबंधन का सारा दृश्य मेरी आंखों के सामने चलचित्र की तरह चलने लगा। हम जोनी को भुलाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन कावेरी उसे नहीं भूल सकी थी। मैं वहां से खड़ा हुआ। बाथरूम में जा घुसा। वहां पहुंचते ही रुलाई फूट पड़ी। जब संयत हो गया, तभी बाहर निकला।
मैं अभी तक भी यह समझने की कोशिश कर रहा हूं कि क्या जिसे हम जानवर कहते हैं, वह परिवार का इस कदर अभिन्न अंग बन सकता है? वो अब नहीं है लेकिन हमें लगता है कि वह हमेशा हमारे बीच रहने वाला है। राखी पर वह उतनी ही शिद्दत से याद आएगा, जितना इस बार आया।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com