Monday, December 28, 2009

फिर बेआबरू हुए एनडी तिवारी


इस महत्वपूर्ण दशक का यह अंतिम साल 2009 बस विदा ही होने वाला है। 3 दिन बाकी हैं। लोग नये साल 2010 का स्वागत करने की तैयारी में जुटे हैं। समाचार-पत्र 2009 की घटनाओं से अटे पड़े हैं। इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी पिछले कई दिन से बीत रहे इस वर्ष की चर्चित घटनाओं पर रोचक वृत्तचित्र देखने को मिल रहे हैं। एेसे में रविवार की सुबह के समाचार-पत्रों की सुर्खी बने 86 वर्षीय नारायण दत्त तिवारी। मीडिया में सैक्स स्कैंडल उछलने के बाद दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों में उन्हें आंध्र प्रदेश के राज्यपाल पद से इस्तीफा देना पड़ा। सही बात तो यह है कि कांग्रेस नेतृत्व को उनसे इस्तीफे के लिए कहना पड़ा। तिवारी करीब सत्तर साल से सार्वजनिक जीवन में हैं। मात्र सत्रह साल की उम्र में वे स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेते हुए पहली बार जेल गये थे। वे उन कुछ गिने-चुने राजनेताओं में हैं, जो उम्र के इस पड़ाव पर भी सक्रिय हैं। उन भाग्यशाली राजनेताओं में शुमार हैं, जिन्होंने अपने राजनीतिक जीवन के ज्यादातर वसंत महत्वपूर्ण पदों पर रहते हुए देखे।
21 मई 1991 में राजीव गांधी की श्री पेरूम्बदूर में लिट्टे के आत्मघाती दस्ते के हाथों हत्या के बाद प्रधानमंत्री पद की दौड़ में पीवी नरसिंहराव के मुकाबले तिवारी पिछड़ गये थे, जिसका उन्हें हमेशा मलाल रहा। दो साल पहले वे राष्ट्रपति बनना चाहते थे, लेकिन सोनिया गांधी उनके नाम पर राजी नहीं हुईं। उनकी पहली पसंद शिवराज पाटील थे, लेकिन जब वाममोर्चा सहमत नहीं हुआ तो पहली महिला राष्ट्रपति के रूप में प्रतिभा देवी सिंह पाटील को चुन लिया गया। वे उस समय राजस्थान की राज्यपाल थी। खिन्न एनडी तिवारी को बाद में राज्यपाल पद से संतुष्ट होना पड़ा। उन्हें आंध्र प्रदेश में गर्वनर बनाकर भेजा गया। इस उम्र में, कार्यकाल के बीच में ही इस तरह बेआबरू होकर राजभवन छोड़ना पड़ेगा, उन्होंने सोचा भी नहीं होगा। लेकिन इन हालातों के लिये कोई और नहीं, खुद तिवारी ही जिम्मेदार हैं।
सार्वजनिक जीवन में आने वाले हर व्यक्ति से यह उम्मीद की जाती है कि वह नैतिकता के उच्च मानदंडों को स्थापित कर आने वाली पीढ़ी के लिये श्रेष्ठ उदाहरण पेश करे। शुचितापूर्ण, संयमित जीवन जीने वाले राजनेताओं की अपने देश में कमी नहीं है, लेकिन बेहद विलासितापूर्ण और बैड़रूम पालिटिक्चस करने वालों की भी कमी नहीं है। और इसी के चलते राजनीति और नेताओं के स्तर व सम्मान में भारी गिरावट दर्ज की गयी है। आंध्र प्रदेश के राजभवन में जो कुछ घटा, उसने तिवारी ही नहीं, पूरी कांग्रेस को शर्मसार कर दिया है। तेलुगू न्यूज चैनल ने जो कुछ दिखाया, उसमें कितनी हकीकत है, यह तो फोरेंसिक जांच से ही सामने आयेगा, लेकिन कांग्रेस को यदि जरा भी संदेह होता तो तिवारी की इस तरह विदाई नहीं होती। इस प्रकरण ने एक बार फिर सार्वजनिक जीवन जीने वालों के आचरण को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं।
लगभग हर बड़े शहर में एकाधिक सरकारी अतिथि-गृह होते हैं। उनके बारे में जिस तरह की चर्चा और धारणा आमतौर पर बनी हुई है, उसे जब-तब इस तरह के होने वाले कर्मकांड पुष्ट ही करते हैं। राज्यपाल किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के संवेधानिक मुखिया होते हैं। हर छोटा-बड़ा फैसला राज्यपाल के नाम पर होता है। इस पद की अपनी एक गरिमा और मर्यादा रही है। कुछ् साल पहले तक भी गर्वनर पद पर एेसे किसी व्यक्ति की नियुक्ति नहीं होती थी, जिसके चरित्र, ईमानदारी और सार्वजनिक जीवन पर किसी तरह के प्रश्न चिह्न खड़े किये जा सकें। एक दौर एेसा भी था, जब सक्रिय राजनीति में रहने वालों की नियुक्ति राजभवनों में नहीं की जाती थी, लेकिन जिस तरह अन्य संवेधानिक पदों और संस्थानों में गिरावट देखने को मिली है, वैसा ही राजभवनों में भी देखने को मिलने लगा है। राजभवनों की गरिमा और मर्यादा का हनन और पतन दुर्भाग्य से इंदिरा गांधी के शासनकाल में प्रारंभ हुआ, जब जम्मू-कश्मीर से लेकर आंध्र प्रदेश तक की चुनी हुई सरकारों को असंवेधानिक तरीके से बर्खास्त कराया गया। अब तो इंतिहा ही हो गयी है। अधिकांश राजभवनों में ऐसे महामहिम विराजमान हैं, जो कुछ समय पहले तक किसी न किसी राज्य के मुख्यमंत्री थे। केन्द्र में जिस पार्टी की सरकार आती है, वह मौका मिलते ही राजभवनों में अपने प्यादों की तैनाती करती है.
जहां तक आंध्र प्रदेश के राजभवन में हुई घटना का सवाल है, यह वास्तव में अभूतपूर्व है। यदि यह घटना सही है तो कहना होगा कि राजनीति पतन के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी है। एनडी तिवारी 86 वर्ष के हैं। सहज ही विश्वास नहीं होता कि कोई व्यक्ति उम्र के अंतिम पड़ाव पर इस तरह की हरकत कर सकता है, लेकिन यह कोई अकेली घटना है, जिस पर इस कदर परेशान होकर स्यापा किया जाये। भारतीय राजनीति में नेताओं के सैक्स स्कैंडल, वीडियो, फोटो और पोस्टर पहले भी सामने आते रहे हैं। 2006 में घाटी में एक एेसा ही वीडियो सामने आया था, जिसमें राजनेताओं और नौकरशाहों को कम उम्र की युवतियों के साथ रंगरेलियां मनाते हुए दिखाया गया था। उस पर पूरी घाटी में जबरदस्त बवाल हुआ था। तब उमर अब्दुल्ला का नाम भी उछाला गया था। बाद में सीबीआई ने कहा कि उमर उनमें नहीं हैं। 2005 में संघ से भाजपा में आए संजय जोशी की भी एक सीडी प्रकट हुई थी। बाद में फोरेंसिक जांच में उसे नकली पाया गया। उत्तर प्रदेश के मधुमिता शुक्ला हत्याकांड को कैसे भुलाया जा सकता है? अमरमणि त्रिपाठी मधुमिता हत्याकांड में इस समय उम्रकैद की सजा भुगत रहे हैं। मेरठ की कविता चौधरी के साथ यूपी के कई जाने-माने नेताओं के रिश्तों की सैक्चस सीडी महीनों चर्चा में रही। कविता चौधरी की हत्या कर दी गयी। उसकी हत्या के आरोप में गिरफ्तार रवीन्द्र प्रधान भी गाजियाबाद की डासना जेल में रहस्यमय हालातों में मारे गये। नारायण दत्त तिवारी जिस समय उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे, उनके मंत्री हरक सिंह रावत भी एक महिला के साथ रिश्तों को लेकर फंसे थे। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। 1978 में बाबू जगजीवन राम के बेटे का एक किस्सा सूर्या पत्रिका में छपा तो पूरा देश सन्न रह गया था। राजग शासनकाल में तहलका टेप कांड ने इसी तरह की सनसनी फैलायी थी, जिसमें कई सैन्य व अन्य अधिकारी काल गर्ल की मांग करते और उनसे फ्लर्ट करते दिखाये गये थे।
कहने का आशय यह है कि राजनीति और नौकरशाही में एेसे लोगों की आज कोई कमी नहीं है, जो सार्वजनिक जीवन में उच्च मानदंडों की स्थापना के प्रति न तो चिंतित हैं और न उनका इस सबसे सरोकार है। इस तरह के मामलों को देखकर एक अहम सवाल यह भी उठता है कि इस तरह चरित्र के लोगों को राजनीतिक दल प्रश्रय क्यों देते हैं? घटना के मीडिया में उछलने के बाद चेहरे पर कालिख नहीं लगे, इससे बचने के लिये राजनीतिक दल भले ही एेसे लोगों को पद से हटाने, उन्हें निलंबित करने और सार्वजनिक जीवन में उच्च मानदंड स्थापित करने का विधवा विलाप करते नजर आते हों, हकीकत यही है कि एेसा करके वे सिर्फ और सिर्फ लोगों के खौफ से करते हैं। क्या कांग्रेस नेतृत्व को पहले से जानकारी नहीं थी कि एनडी तिवारी के बारे में किस तरह की चर्चाएं राजनीतिक गलियारों में उड़ती रहती हैं? उनके नाम के साथ इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं जुड़ी है। जब कांग्रेस नेतृत्व को उनके किस्सों और चरित्र की जानकारी थी तो उन्हें पहले उत्तराखंड का मुख्यमंत्री और बाद में आंध्र प्रदेश का गर्वनर क्यों बनाकर भेजा गया?
omkarchaudhary@gmail.com

Wednesday, December 23, 2009

किस्मत खराब है झारखंड की !


झारखंड के नतीजे आ गये हैं। हालात कमोबेश जस के तस हैं। इन नतीजों ने लोगों को थोड़ा हैरान और परेशान किया है। झारखंड से जो संकेत मिले हैं, वे शुभ नहीं हैं। इनसे निराशा का भाव उत्पन्न होता है। सवाल है कि क्या झारखंड की किस्मत में जोड़-तोड़ और मोल-भाव के आधार पर बनने वाली अस्थिर सरकारें ही लिखी हैं? या इस राज्य के राजनीतिक, सामाजिक और जातीय समीकरण ही कुछ एेसे बन गये हैं कि कोई एक दल अपने दम पर बहुमत हासिल करने की दशा में ही नहीं रह गया है? झारखंड नवम्बर 2000 में छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के साथ अस्तित्व में आया था। वहां की सरकारें विकास के पथ पर कदम आगे बढ़ा चुकी हैं, लेकिन इस आदिवासी बाहुल्य राज्य का दुर्भाग्य देखिये कि यहां नौ साल में छह सरकारें बन चुकी हैं और राज्य के लोग पांच मुख्यमंत्री देख चुके हैं। राजनीतिक अस्थिरता ही झारखंड की सबसे बड़ी समस्या नहीं है, राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार अकूत खनिज संपदा वाले इस धनी किन्तु गरीब और बेबस राज्य की जड़ों में मट्ठा डालकर इसे भीतर ही भीतर खोखला कर रहा है। धनी इसलिये, क्योंकि यदि यहां स्थिर सरकारें बनतीं और खनिज संपदा पर देसी-विदेशी थैलीशाह सरकारों से मिलकर डाका नहीं डालते, कायदे की योजनायें बनतीं, उन्हें सुनियोजित ढंग से लागू किया जाता तो झारखंड की गरीबी और लाचारी का अब तक कुछ उपचार तो हो गया होता। एेसा नहीं हुआ। जिन उम्मीदों को लेकर आदिवासियों ने अपने लिये अलग राज्य की मांग के लिये लंबे समय तक संघर्ष किया, वे उम्मीदें कभी की धराशायी हो चुकी हैं। इस खंडित जनादेश ने विकास, सामाजिक न्याय और बेकारी के निराकरण की बाट जोह रहे लोगों को और भी निराश किया है। झारखंड फिर जोड़-तोड़, बेमेल गठबंधन सरकार की ओर बढ़ रहा है।
इस जनादेश ने इस कारण भी लोगों को हैरान और निराश किया है, क्योंकि उन्हें लगता था कि जिन ताकतों ने वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ खिलवाड़ करते हुए भ्रष्टाचार किया है अथवा उन्हें प्रश्रय देने का काम किया है, मतदाता उन्हें सजा देंगे। नतीजों से तो नहीं लगता कि मतदाताओं ने एेसे दलों और नेताओं को कोई सीख दी है। कौन नहीं जानता कि पौने दो साल के अल्प समय में साढ़े चार हजार करोड़ का घोटाला करने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री मधु कौड़ा किसकी कृपा से सत्ता में पहुंचे थे? वे निर्दलीय थे। उनके साथ चार और निर्दलीय विधायक थे। कांग्रेस और लालू यादव के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल ने भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के मकसद से मधु कौड़ा को मुख्यमंत्री पद सौगात में सौंप दिया। मुख्यमंत्री पद पर बैठा व्यक्ति किस हद तक भ्रष्टाचारी हो सकता है, ये मधु कौड़ा के कारनामों ने देश को बताया। वह इस समय जेल की हवा खा रहे हैं। यह इस लोकतंत्र की विसंगतियां हैं या लोगों की मतांधता कि जिस मधु कौड़ा ने लोगों की मेहनत की कमाई को लूटा, उन्हीं लोगों ने उनकी पत्नी गीता कौड़ा को जिताकर विधानसभा भेज दिया है?
इस जनादेश से कुछ अहम सवाल उठे हैं। साढ़े चार हजार करोड़ का भ्रष्टाचार करने वाले को मुख्यमंत्री बनाने का पाप करने वाली पार्टियों को इस चुनाव में मतदाताओं ने किस बात का ईनाम दिया है? कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की सदस्य संख्या इस चुनाव में बढ़ गयी है, हालांकि वे बहुमत के आस-पास भी नहीं हैं और यदि कांग्रेस ने सरकार बनाने की चेष्टा की तो झारखंड मुक्ति मोर्चा के बिना यह संभव नहीं है। जिस शिबू सोरेन को तमाड़ के लोगों ने उप चुनाव में परास्त कर मुख्यमंत्री पद छोड़ने को मजबूर कर दिया था, उन्हें अब इतनी ताकत दे दी है कि उनके बिना कोई सरकार बनाने के बारे में सोच भी नहीं सकता है। यानि सत्ता की चाबी उन गुरू जी के हाथ में है, जो 2005 के विधानसभा चुनाव में नकार दिये गये थे। इसके बावजूद राज्यपाल सिब्ते सजी ने भाजपा गठबंधन के नेता के बजाय उन्हें बुलाकर मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। न उनके पास बहुमत था और न वे साबित कर सके। लिहाजा, उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। उन्हें हत्या जैसे संगीन आपराधिक मुकदमों की वजह से तीन बार केन्द्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। दो बार मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। और जब राजद व कांग्रेस के कहने पर मधु कौड़ा कुर्सी छोड़नी पड़ी तो उसके पीछे कारण यही गुरू जी महाराज थे। अमेरिका के साथ एटमी करार के विरोध में जब वाम मोर्चा ने डा. मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस लिया तो शिबू सोरेन इस शर्त पर सरकार को समर्थन देने पर राजी हुए थे कि झारखंड में उन्हें कौड़ा के स्थान पर मुख्यमंत्री पद सौंपा जाये। राजद और कांग्रेस ने उनकी शर्त मानी, लेकिन तमाड़ से जब उन्होंने उप चुनाव लड़ा तो इस खुली राजनीतिक सौदेबाजी से नाराज लोगों ने उन्हें सबक सिखा दिया। हारने के बाद उन्हें पद छोड़ना पड़ा। ताज्जुब की बात है कि साल भर के भीतर ही लोग शिबू सोरेन की करामात को भूल गये और कांग्रेस के इस पाप को भी कि उसने मधु कौड़ा जैसे भ्रष्टाचारी को मुख्यमंत्री बनवाया था।
लगता है, राज्य में अंतरकलह से घिरी भारतीय जनता पार्टी भी लोगों को यह विश्वास दिला पाने में नाकाम सिद्ध हुई कि वह बेहतर, पारदर्शी निर्णय करने वाली, साफ-सुथरी और स्थिर सरकार दे सकती है। भाजपा ने महंगाई, स्थिरता और भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाया था। गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों को एक रुपया किलो गेहूं, 25 पैसे किलो नमक, तीन महीने में राशन कार्ड देने और किसानों को केवल दो प्रतिशत पर ऋण देने के लोकलुभावन वादे करने वाली भाजपा के सदस्यों की संख्या में यदि इस बार कमी आई है तो उसे सोचना होगा कि एेसा क्यों हुआ? यह भाजपा ही नहीं, उसकी सहयोगी जनता दल यू के लिये भी खतरे की घंटी है, क्योंकि बिहार में विधानसभा चुनाव अब बहुत दूर नहीं रह गये हैं। अर्जुन मुंडा का यह बयान बहुत कुछ कहता है कि भाजपा-जदयू अपनी गलतियों की वजह से हारे हैं। कभी भाजपा के कुशल मुख्यमंत्री रहे बाबू लाल मरांडी ने इस चुनाव में कांग्रेस से हाथ मिलाया। इसका लाभ उन्हें भी मिला और कांग्रेस को भी।
इसमें अब किसी को शक नहीं है कि झारखंड एक बार फिर अस्थिरता की ओर बढ़ता नजर आ रहा है। जिन शिबू सोरेन से इस चुनाव में कांग्रेस ने गठबंधन तक करना मुनासिब नहीं समझा, उनके बिना वह किसी सरकार की कल्पना भी नहीं कर सकती। शिबू सोरेन ने अभी कुछ ही दिन पहले बोकारो में कहा था कि सत्ता की चाबी उनके हाथ में रहने वाली है। उनका यह राजनीतिक आत्मविश्वास सही साबित हुआ। अगले कुछ दिनों में यदि गुरूजी फिर झारखंड की कमान संभालते हुए दिखाई दें तो आश्चर्य नहीं करिएगा। उनकी पार्टी को 81 के सदन में एक चौथाई सीटें भी नसीब नहीं हुई हैं, लेकिन यही हमारे इस लोकतंत्र की सबसे बड़ी खामी है कि चंद सांसदों के बल पर चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बन जाते हैं। चार निर्दलियों के साथ मधु कौड़ा पौने दो साल तक मुख्यमंत्री बने रहकर हजारों करोड़ का घोटाला करने में कामयाब हो जाते हैं। ऐसे में यदि झामुमो नेता सोरेन फिर कांग्रेस और दूसरे दलों की कृपा से मुख्यमंत्री बनते हैं तो कैसा आश्चर्य? इन हालातों के लिये बहुत हद तक खुद झारखंड के लोग ही जिम्मेदार हैं, जो खंडित जनादेशों के फलस्वरूप बन और बिगड़ रही सरकारों और पनप रहे भ्रष्टाचार से कोई सबक लेने को तैयार ही नहीं दिख रहे।
omkarchaudhary@gmail.com

Sunday, December 13, 2009

क्यों जरूरी हैं नए, छोटे राज्य


तेलंगाना राज्य की मांग मानकर लगता है, केन्द्र ने बर्र के छत्ते में हाथ में डाल दिया है। आंध्र प्रदेश की राजनीति में तो भूचाल आ ही गया है, हरित प्रदेश, बुंदेलखंड, पूर्वाचल, महाकौशल, विंध्याचल, ग्रेटर कूचविहार, गोरखालैंड, कोच राजभोगसी मातृभूमि, बोड़ोलैंड, सौराष्ट्र, विदर्भ, रायलसीमा, त्रवणकौर, कुर्ग, तुल्लुनाडु, लद्दाख और पानून सहित देश के विभिन्न हिस्सों में अट्ठारह नये राज्यों की मांग के समर्थन में चलते रहे आंदोलनों के फिर से जोर पकड़ने की आशंका उत्पन्न हो गयी है। गोरखालैंड के लिए जहां अनशन शुरू हो गया है, वहीं अजित सिंह ने शीतकालीन सत्र के बाद हरित प्रदेश के लिए व्यापक आंदोलन छेड़ने का एेलान कर दिया है। आंध्र प्रदेश में टीडीपी और प्रजा राज्यम पार्टी तो तेलंगाना के विरोध में सड़कों पर आ ही गयी हैं, कांग्रेस के भीतर से भी विरोध के स्वर तेज हो गये हैं। के चंद्रशेखर राव के आमरण अनशन से घबरायी केन्द्र सरकार ने अलग तेलंगाना गठित करने की प्रक्रिया शुरू करने का एेलान तो कर दिया है, लेकिन लगता है कि वह बुरी तरह फंस गयी है। हालात इतने विषम हो चले हैं कि उसकी आंध्र प्रदेश की सरकार शहीद भी हो सकती है। दिवंगत राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन मोहन रेड्डी के रोसैया को मुख्यमंत्री के रूप में पचा नहीं पा रहे हैं. पहले विधायकों के इस्तीफों का नाटक हुआ और अब बीस मंत्रियों ने भी अपने त्यागपत्र सौंप दिए हैं. कांग्रेस हाई कमान को सीधा सन्देश है कि आन्ध्र में वाही होगा जो राजशेखर रेड्डी का परिवार चाहेगा. संकट गहरा है. यही वजह है कि शनिवार को प्रणब मुखर्जी ने जगन मोहन रेड्डी से बात की और पार्टी नात्रत्व की नाराजगी से उन्हें अवगत करा दिया.
नये राज्यों के गठन की मांग को लेकर आंदोलन चलाने वालों के जो तर्क हैं, उन्हें आप खारिज नहीं कर सकते। भारत की आबादी 115 करोड़ से ऊपर पहुंच रही है। प्रदेश हैं कुल पैंतीस। इनमें 28 राज्य हैं और सात केन्द्र शासित प्रदेश। इनमें कई राज्य तो क्षेत्रफल और जनसंख्या के मामले में दुनिया के साठ देशों से भी बड़े हैं। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या सोलह करोड़ को पार कर चुकी है। राजस्थान की आबादी करीब 6 करोड़ है। बिहार और पश्चिम बंगाल की आठ करोड़ से अधिक। तमिलनाड़ु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात छह करोड़ से अधिक की आबादी वाले राज्य हैं। इसके विपरीत पुंडुचेरी, लक्ष्यदीप, दमन और दीव, दादरा नगर हवेली, चंडीगढ़, अंडमान निकोबार द्वीप समूह, उत्तराखंड, त्रिपुरा, सिक्किम, मिजोरम, मणिपुर और गोवा दस से अधिक राज्य एेसे हैं, जिनकी जनसंख्या एक करोड़ भी नहीं है। बड़े राज्यों में कई तरह की समस्याएं हैं। बेरोजगारी, कानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था ही नहीं, शासन-प्रशासन के स्तर पर भी फैसले लेने और हर क्षेत्र के संतुलित विकास में साफ-साफ झोल दिखायी देते हैं।
अमेरिका की जनसंख्या दुनिया की कुल जनसंख्या का केवल पांच प्रतिशत है, लेकिन वहां साठ के करीब राज्य हैं। भारत की जनसंख्या दुनिया की कुल जनसंख्या की सत्रह प्रतिशत है, लेकिन यहां केवल पैंतीस राज्य हैं। दर्जनों राज्यों में जनसंख्या का घनत्व कहीं ज्यादा है। वहां कई तरह की समस्याएं खड़ी होनी शुरू हो चुकी हैं। एक-दो राज्यों को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो अधिकांशत: यह देखने में आया है कि छोटे राज्यों के विकास तेज गति से होते हैं। मौजूदा राज्यों में हरियाणा को आदर्श राज्य के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि भौगोलिक रूप से इसे दिल्ली के पास होने और अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा करीब होने का सीधा लाभ भी मिला है, लेकिन नक्चसल प्रभावित राज्यों को छोड़ दें तो बाकी छोटे राज्यों में आमतौर पर असंतुलित विकास और समस्याओं की अनदेखी करने के आरोप सुनने में कम ही आते हैं।
यह सही है कि कई क्षेत्रों में राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की मंशा से भी नये राज्यों के गठन की मांग को लेकर आंदोलन हुए हैं, लेकिन इसे दूसरे नजरिये से देखने की जरूरत है। बदले हुए हालातों में छोटे राज्यों के महत्व और जरूरत को बहुत देर तक टाला नहीं जा सकेगा। देश के विभिन्न भागों में करीब डेढ़ दर्जन नये राज्यों की मांग इस समय चल रही है। तेलंगाना की घोषणा के बाद आंध्र प्रदेश में इसके समर्थन और विरोध में जिस तरह के हालात उत्पन्न हो गये हैं, हो सकता है उस पर थोड़ा पानी डालने के मकसद से ही कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने नये राज्यों के लिये राज्य पुर्नगठन आयोग बनाने की जरूरत बतायी हो, लेकिन यह हकीकत है कि इसका गठन अविलंब होना चाहिए, जो देखे कि कहां-कहां नये राज्यों का गठन जरूरी है। देश के अट्ठारह क्षेत्रों में यदि सरकारें आंदोलनों का सामना करेंगी तो स्वाभाविक है, वहां तमाम तरह के विकास कार्य सीधे तौर पर प्रभावित होंगे।
omkarchaudhary@gmail.com