Sunday, August 8, 2010

गोली नहीं, बोली से ही निकलेगा हल

घाटी की ताजा हिंसा में ग्यारह जून से अब तक करीब पचास लोगों की मौत हो चुकी है। हजारों की भीड़ कर्फ्यू तोड़कर शासन-प्रशासन के खिलाफ उग्र नारेबाजी कर रही है। सुरक्षाबल और राज्य सरकार जितने बेबस इस समय दिखाई दे रहे हैं, इससे पहले कभी नहीं दिखे। राज्य ही नहीं,केन्द्र सरकार भी हतप्रभ है। अलगाववाद की इस ताजा लहर को पाकिस्तान निश्चय ही हवा दे रहा है, लेकिन विचारणीय बात यह है कि घाटी के बिगड़े हालातों के लिए भारत कब तक पाकिस्तान को कोसता रहेगा?

क्या इस पर मंथन नहीं होना चाहिए कि केन्द्र और राज्य सरकार से कहां-कहां गंभीर चूकें होती रही हैं? उन भूलों को सुधारने की दिशा में जितने ईमानदार प्रयास होने चाहिए थे, क्या किए गए? सबसे अहम सवाल तो यही है कि आखिर कश्मीर को लेकर सरकार की नीति क्या है? हर नेता वहां की समस्या और उत्पन्न हालातों का आकलन अलग-अलग तरह से करके बयानबाजी कर रहा है। इससे हालात बिगड़ेंगे या सुधरेंगे? यह आश्चर्य की बात है कि मौजूदा हालातों को बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अमन बहाली के लिए राजनैतिक पैकेज की जरूरत बता रहे हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने संसद में घाटी को सुलगाने के पीछे पाकिस्तान की बदली हुई रणनीति को जिम्मेदार बताया है। कदम-कदम पर उमर अब्दुल्ला सरकार की नाक में दम करने वाली पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती इस हिंसा पर चुप्पी साधे बैठी हैं तो अलगाववादी नेता पुराना राग अलापने में लगे हैं कि भारतीय सेना को घाटी से बाहर किया जाए। पाकिस्तान भी यही चाहता है ताकि वहां आसानी से मनमर्जी कर सके।
कौन नहीं जानता कि पाकिस्तान कश्मीर को हड़पना चाहता है। इसके लिए वह जहां घाटी के अलगाववादियों को हर तरह की मदद देता है, वहीं कभी हिजबुल, कभी जैश, कभी जेकेएलएफ तो कभी पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी संगठनों को भारत
प्रशासित कश्मीर भेजकर अस्थिरता के हालात पैदा करता रहा है। अक्तूबर 1947 में हरिसिंह ने कश्मीर का भारत में विलय किया था। सच तो यह है कि पाकिस्तान ने कभी कश्मीर को भारत के अविभाज्य अंग के रूप में स्वीकार नहीं किया।
घाटी में हालात तब बिगड़ने शुरू हुए, जब शेख अब्दुल्ला नहीं रहे और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, खासकर 1989 से केन्द्र में अस्थिरता का दौर शुरू हुआ। शेख अब्दुल्ला को घाटी के लोग जितना सम्मान देते थे, उतना फारुख अब्दुल्ला या किसी दूसरे नेता को कभी नहीं मिला। नेशनल कांफ्रैंस पर केन्द्र की कठपुतली होने और चुनाव में धांधली करने के आरोप जरूर लगते रहे। यह हकीकत है कि जम्मू-कश्मीर में 1987 के चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली हुई। कहा तो यहां तक जाता है कि सैय्यद सलाउद्दीन चुनाव जीत गए थे, लेकिन धांधली से उनके स्थान पर नेशनल कांफ्रैंस के प्रत्याशी को विजयी घोषित कर दिया गया। इसके खिलाफ जनाक्रोश भड़का। बहुत से कश्मीरी युवक पाकिस्तान चले गए, जो पाक अधिकृत कश्मीर, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत और पंजाब सूबे में चलाए जा रहे प्रशिक्षण शिविरों में आतंकवाद का प्रशिक्षण लेकर लौटे। उन्होंने सबसे पहले कश्मीरी पंडितों और भारत का समर्थन करने वाले लोगों को निशाना बनाकर घाटी छोड़ने को विवश कर दिया।
कई घटनाएं एक साथ घटीं। सोवियत संघ का विघटन हुआ। ब्रिटेन और अमेरिका की कुटिल चालों के चलते पाकिस्तान को अत्याधुनिक हथियार मिले, जो उसने पहले पंजाब और बाद में कश्मीर में खून-खराबा करने वाले आतंकवादियों को दिए। कश्मीर में एक बार अस्थिरता का दौर शुरू हुआ तो भ्रष्टाचार, अकुशल प्रशासन और हालात से गलत तरीके से निपटने के तौर-तरीकों ने समस्या को और भी उलझा दिया। केन्द्र द्वारा वहां किए गए नित नए प्रयोगों ने हालात और जटिल कर दिए। वास्तविकता तो यह है कि भारत सरकार गफलत में रही और हालातों को उसने हाथों से फिसलने दिया। जमीनी हालात को समझकर आगे बढ़ने के बजाय केवल शक्ति के प्रयोग से समस्या का समाधान निकालने की कोशिशें की जाती रहीं। अलगाववादी हमेशा से ही भीड़ के सहारे हिंसा कराकर सुरक्षाबलों पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप चस्पा करके शासन-प्रशासन को रक्षात्मक मुद्रा में लाने का नापाक खेल खेलते रहे हैं।
1996 से 2000 के बीच का एक दौर ऐसा आया था, जब अलगाववादी अलग-थलग पड़ते दिखने लगे थे। उसके अलावा बीच में विधान सभा चुनावों के बाद कम से कम दो मौके और आए जब संवाद के जरिए मसले को हल करने की दिशा में तेजी से बढ़ा जा सकता था, लेकिन वे गंवा दिए गए। वास्तविकता तो यह है कि आम कश्मीरी अब भी अमन और विकास चाहता है। एक बड़ा तबका भारत के साथ जुड़े रहने के पक्ष में है लेकिन पाकिस्तान की कुटिल चालों, आतंकवादी हिंसा, अलगाववादियों की पाक परस्त राजनीति, राज्य के अकुशल नेतृत्व और केन्द्र की ढुलमुल व दिशाहीन नीति ने हालातों को बेहद पेचीदा कर दिया है। कभी धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर नर्क बन चुका है। आम कश्मीरियों को हिंसा, क्रकूरता, नफरत और आक्रमण का शिकार होना पड़ा है। धार्मिक सहिष्णुता को आघात लगा है और कश्मीरी पंडितों व सिखों के पलायन के चलते राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बट्टा लगा है। सह अस्तित्व की भावना भी खत्म हुई है। क्या यह सच नहीं है कि भारत सरकार पाकिस्तान के इस दुष्प्रचार की हवा निकालने में विफल साबित हुई है कि घाटी में इस्लाम खतरे में है? सही तो यह है कि कश्मीर में इस्लाम कभी खतरे में नहीं रहा बल्कि वह और फूला फला। वहां के आम आदमी भी यह स्वीकार करते हैं।
न्याय, समानता, बोलने की आजादी, सहिष्णुता, जीवन और आस्था का अधिकार मानवता के आधारभूत सिद्धांत हैं। अफसोस की बात है कि जेहाद के नाम पर आतंकवादी संगठनों ने इन्हें नष्ट करने के लिए निरंतर प्रयास किए हैं और इस मोर्चे पर हमारी सरकारें कुछ नहीं कर पाईं। घाटी में हालात कैसे सामान्य हो सकते हैं, इसे लेकर कश्मीर और भारत-पाक समस्या की समझ रखने वालों की राय अलग-अलग है। अब तक भारत सरकार, पाकिस्तान और आतंकवादी जमातों की समझ में यह बात आ जानी चाहिए थी कि किसी भी समस्या का समाधान गोली से नहीं हो सकता। हल अगर निकलना है तो बातचीत से ही निकलेगा। संसद में गृहमंत्री ने सही ही कहा है कि अमन बहाली के लिए सरकार को कश्मीरियों का दिल जीतना होगा। लेकिन केवल बयान देने से बात नहीं बनेगी। इस दिशा में तेजी से प्रयास भी करने होंगे।
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Tuesday, July 27, 2010

तुम्हारा स्वागत है

सुबह गुनगुनी धूप
बहुत चुपके से
आ घुसी मेरे बिस्तर में
मैंने देखा, मुस्कुराया
पूरे मन से कहा
हे सूर्य किरण
तुम्हारा स्वागत है.
सैर करने निकला
यह देख हैरान हुआ
वो पसरी थी फूलों पर
पत्तियों पर, कलियों पर
ओंस से सराबोर पत्तों पर.
कुम्हला रहे पंछियों के
रंग बिरंगे पंखों पर.
तितलियों की थिरकन पर
हरियाली भरे रास्तों पर
स्कूल जा रहे बच्चों के
खिलखिलाते चेहरों पर
अल सुबह कबाड़ के ढेर से
फटे पुराने कपडे, बोतल
बचा खुचा खाना बीन रहे
नन्हे नन्हे हाथों पर
जवान उम्र को रिक्शे
पर बैठाकर ढोते हुए
झुर्रियों भरे चेहरे पर
मैंने देखा रात का
अंधकार छंट गया है
दिन के उजाले में
अंधकार मगर बाकी है
पंछी उड़ चले उस ओर
सूर्योदय हो रहा जिस ओर
जगमग प्रकाश था अब
गगन से धरा तक
उस गुनगुनी धूप को देख
मै ही नहीं मुस्कुराया
मुस्कुरा उठी थी
पूरी कायनात ही.

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Thursday, May 13, 2010

मनमोहन के अजब गजब मंत्री



डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-2 सरकार 22 मई को अपना एक साल पूरा करने जा रही है। उनकी पहली सरकार से इस सरकार की तुलना शुरू हो चुकी है। जाहिर है, उनकी दूसरी सरकार का पहला साल काफी मुश्किल और चुनौती भरा रहा है। महंगाई चरम पर रही। आम आदमी को राहत नहीं मिली। पेट्रोल-डीजल की मूल्य वृद्धि ने मुश्किलों को और बढ़ा दिया। संसद में विपक्ष एकजुट हुआ। काफी सालों बाद वित्त विधेयक पर किसी सरकार को विपक्ष के कट मोशन का सामना करना पड़ा। अन्य मुश्किलों के अलावा जो सबसे बड़ी दिक्चकत मनमोहन सिंह के सामने आई, वह थी कुछ मंत्रियों और घटक दलों के नेताओं की स्वेच्छाचारिता। लगता ही नहीं है कि मंत्री कैबिनेट की सामूहित जिम्मेदारी के प्रति प्रतिबद्ध हैं। एनसीपी नेता, कृषि मंत्री शरद पवार के बयानों ने जहां चीनी, चावल, दाल और दूध जसी जरूरत की खाद्य वस्तुओं की महंगाई और ज्यादा बढ़ाने का काम किया, वहीं तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी पर पश्चिम बंगाल की राजनीति हावी रहे। उन्होंने कई मुद्दों पर मनमोहन सरकार के समक्ष कठिनाई पेश की। डीएमके प्रमुख, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के पुत्र अलागिरी की संसद से अनुपस्थिति ने भी विपक्ष को मुद्दा दे दिया। आईपीएल की फ्रैंचाइजी को लेकर जहां विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर को मंत्री पद छोड़ना पड़ा, वहीं शरद पवार और उन्हीं की पार्टी के कोटे के दूसरे मंत्री प्रफुल्ल पटेल भी संदेह के घेरे में घिरते नजर आए। कमलनाथ और जयराम रमेश के बीच राष्ट्रीय राजमार्गो के निर्माण में अडंगेबाजी पर किच-किच हुई तो जयराम रमेश बड़बोलेपन के कारण चर्चा में रहे। भोपाल के एक दीक्षांत समारोह में उन्होंने गाउन उतार फैंका तो बीटी बैंगन मुद्दे पर बुलाई गई बैठक में उन्होंने एक वज्ञानिक के बार-बार सवाल उठाने पर धमकी तक दे डाली कि यदि वे बाज नहीं आए तो उन्हें उठवाकर बाहर फिंकवा देंगे। वही जयराम रमेश अपने बड़बोलेपन की वजह से इस समय मुश्किलों में फंसे हुए हैं। चीन यात्रा पर गए तो अपने ही गृह मंत्रालय की यह कहकर आलोचना कर आए कि चीनी कंपनियों को अनुमति देते समय भारत का गृह मंत्रालय कुछ ज्यादा ही घबरा जाता है। जाहिर है, मामले को तूल पकड़ना ही था। विपक्ष ने तो उन्हें बर्खास्त करने की मांग की ही, खुद गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखकर आशंका जाहिर की कि इस तरह के बयानों से भारत के चीन के साथ रिश्तों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। अब जयराम रमेश सफाई देते घूम रहे हैं। वे प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष के अलावा गृहमंत्री से मिलकर माफी मांग चुके हैं। प्रधानमंत्री ने तो बाकायदा उन्हें फटकार लगाई है। कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठक में भी इस पर गंभीर मंत्रणा हुई है। ताजा खबर यह आ रही है कि जयराम रमेश ने सोमवार को प्रधानमंत्री से मुलाकात कर इस्तीफे की पेशकश की थी, जिसे प्रधानमंत्री ने अस्वीकार कर दिया। फिलहाल यह मसला भले ही निपटा हुआ दिख रहा हो, लेकिन जयराम रमेश को लेकर सरकार की मुश्किलें कम नहीं हुई हैं। एक तो सरकार को यह शर्मिंदगी ङोलनी पड़ रही है कि उनके मंत्नी कहीं भी कुछ भी बोल रहे हैं। दूसरे, बीजेपी ने मामले को गंभीर बनाते हुए रमेश पर चीनी कंपनियों के लाबिइंग का आरोप पर मढ़ दिया है। ऐसे में सरकार और कांग्रेस पार्टी अपने मंत्नियों की टिप्पणियों और उनके कामकाज के तौर तरीकों पर लगातार उठ रहे सवालों से बेहद परेशान है।
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Tuesday, March 30, 2010

लालू मुलायम को विलेन न बनाएं


एक पुरानी कहावत है, सूत न कपास-जुलाहे से लटठ्म लट्ठा। वैसा ही कुछ आजकल भारतीय राजनीति में दिखाई दे रहा है। महिलाओं के लिए लोकसभा और विधान सभाओं में तैंतीस प्रतिशत सीटें आरक्षित करने संबंधी विधेयक भले ही राज्यसभा में पारित हो गया है, लेकिन अभी उसके लागू होने में बहुत से पेंच हैं। मुलायम सिंह यादव ने उद्योगपतियों, नौकरशाहों और धनाढ््य परिवारों की महिलाओं के चुनकर आने की आशंका जताई, यहां तक तो किसी को आपत्ति नहीं हो सकती, लेकिन इसके आगे उन्होंने जो कुछ कहा-वह आपत्तिजनक है। एेसी महिलाओं को देखकर लड़के सीटी बजाएंगे, यह कहना किसी को शोभा नहीं देता, लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं है। मुलायम ने जिन शब्दों का प्रयोग किया, उन्हें शालीन नहीं कहा जा सकता लेकिन उन सहित एक बड़ा वर्ग चुनकर आने वाली महिलाओं की राजनीतिक मसलों पर समझ को लेकर जो चिंता जाहिर कर रहा है, उसे आप सिरे से खारिज नहीं कर सकते। संसद और विधानसभाओं में हालांकि इस समय भी जिस तरह के लोग आ रहे हैं, उनके बारे में आप दावा नहीं कर सकते कि उन सबको राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों और समस्याओं की समझ होगी ही। तो भी महिला आरक्षण विधेयक ने भारतीय संसदीय प्रणाली में होने जा रहे आमूल परिवर्तनों पर एक बहस तो छेड़ ही दी है।
तय मानिए कि लोकसभा में इस विधेयक को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि मुलायम, लालू, शरद यादव ही नहीं, मायावती भी इसका विरोध कर रही हैं। अब तो कांग्रेस और भाजपा के सांसदों ने भी खुलेआम इसकी मुखालफत शुरू कर दी है। इन दलों के अधिकांश पुरुष सांसद और पदाधिकारी यह कहने में संकोच नहीं कर रहे हैं कि उन्हें अपने ही डैथ वारंट पर हस्ताक्षर करने को विवश होना पड़ रहा है। पंचायतों में पिछड़े और दलित वर्ग की महिलाओं को आरक्षण दिया गया है, लेकिन सवाल यह है कि जहां देश के भाग्य का निर्णय होता है, कानून बनते हैं, उन सदनों में उन्हें प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था आखिर कांग्रेस, भाजपा और वामदल क्यों नहीं करना चाहते हैं? लालू, मुलायम, शरद और माया जैसे क्षत्रप इसका इस कदर विरोध क्यों कर रहे हैं? भारतीय राजनीति की इन उलटबांसियों को गहराई से समझने की जरूरत है। जिस कांग्रेस ने पिछले साठ साल में कभी महिलाओं को आरक्षण देने के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई, उसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी इसे अब अपनी प्रतिष्ठा का सवाल क्यों बना रही हैं? कांग्रेस और भाजपा के प्रभावशाली नेताओं और मजबूत सांसदों व विधायकों तक में असुरक्षा का भाव पैदा क्यों होने लगा है?
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सोनिया गांधी राहुल गांधी को नेता के तौर पर प्रतिष्ठापित करने की दिशा में अग्रसर हैं। पार्टी के भीतर से उन्हें कोई चुनौती नहीं है लेकिन जहां तक देश को संभालने का सवाल है, उसके लिए किसी भी राजनेता के पास एक दृष्टि की आवश्यकता होती है। राहुल गांधी कोई तपे-तपाए राजनीतिज्ञ नहीं हैं। पार्टी को भी कारपोरेट मैनेजिंग स्किल के तौर-तरीकों से चलाना चाहते हैं। उन तौर-तरीकों में पार्टी के तपे-तपाए राजनीतिज्ञ, संसदविद् और कद्दावर नेता राहुल गांधी के साथ सहज अनुभव नहीं करते हैं। कांग्रेस पार्टी ही नहीं, भाजपा में भी राज्यवार एेसे नेताओं की कमी नहीं है, जो हाईकमान को भले ही फूटी आंखों नहीं सुहाते हैं, लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में उनका अपना जनाधार और प्रभाव है। हाईकमान को भी पता है कि वे ही उन क्षेत्रों से सीटें निकाल सकते हैं। महिला आरक्षण कानून लागू होने की सूरत में एेसे नेताओं की सीटें जब भी आरक्षित होंगी, उन्हें हाईकमान के रहमोकरम पर रहना पड़ेगा। एेसे में पार्टी नेतृत्व आसानी से उन्हें एेसी जगह से टिकट थमाकर साइड लाइन लगाने में सफल हो जाएगा, जहां से उसके जीतने की संभावना नगण्य होगी।
राहुल गांधी की आगे की राजनीतिक यात्रा में संसद में आने वाली तैंतीस प्रतिशत महिलाएं बाधक नहीं होंगी, सोनिया और कांग्रेस के प्रबंधकों को एेसा लगता है। राहुल गांधी की लीडरशिप को किस तरह के नेताओं से परोक्ष या प्रत्यक्ष चुनौती मिल सकती है? लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, शरद पवार, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, मायावती और इसी तरह के वे नेता, जिनका अपना जनाधार रहा है और जो जमीन से संघर्ष करते हुए जमीनी अनुभवों के साथ यहां तक पहुंचे हैं। बहुमत नहीं मिलने की सूरत में चाहे गठबंधन सरकार गठित करने की राजनीतिक मजबूरी हो अथवा देश की प्रमुख समस्याओं पर अहम निर्णय लेने का सवाल, इस तरह के क्षत्रपों और नेताओं की वह अनदेखी नहीं कर पाएंगे। अब सवाल है कि इस तरह के कद्दावर नेताओं को कमजोर कैसे किया जा सकता है? महिला आरक्षण बिल में पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था नहीं करने के पीछे सोची-समझी रणनीति है। कांग्रेस ही नहीं, भाजपा और वामपंथी दल भी इन वर्गो की राजनीति करने वाले नेताओं को या तो पूरी तरह कमजोर कर देना चाहते हैं या भारतीय राजनीति में उनकी भूमिका ही खत्म कर देना चाहते हैं। कद्दावर नेताओं को घेरने और उन्हें सदनों से बाहर करने का इंतजाम इस बिल से स्वत: ही हो जाने वाला है।
कारपोरेट जगत के लिए इन कद्दावर क्षत्रप नेताओं को साधना इतना असान नहीं होता है। वे बार्गेनिंग की स्थिति में हैं, लेकिन यदि ये राजनीतिक रूप से कमजोर होते हैं और दूसरे दलों के टिकट पर फिल्म जगत, उद्योगपतियों के परिवारों से या नौकरशाहों की रिश्तेदार महिलाएं यदि उनकी सीटों और क्षेत्रों से जीतकर आती हैं तो कारपोरेट जगत हो या दूसरे घराने, उनके लिए उन्हें मैनेज करना उतना मुश्किल नहीं होगा। महिलाएं स्वभावत: राजनीतिक मामलों में उतनी दिलचस्पी नहीं लेती हैं। सबसे बड़ी दिक्कत यह भी होने वाली है कि पैसे वाले घरों की महिलाएं ही संसद और विधानसभाओं में भारी तादाद में पहुंचेंगी। गरीब, वंचित, पिछड़े, दलित व अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाएं नहीं क्योंकि साजिशन न तो उनके लिए कोटे में कोटे की व्यवस्था की गई है और न उनके पास उतने संसाधन होंगे कि वे धनाढ््य परिवारों की महिलाओं का मुकाबला कर सकें। नौकरशाहों, उद्योग घरानों और फिल्म क्षेत्र से आने वाली महिला सांसदों को कारपोरेट घराने और प्रमुख राजनीतिक दल ज्यादा सहज तरीके से मैनेज कर पाएंगे। वे संसद में भी और सरकार का हिस्सा बनने के बाद भी उनके हितों की पैरवी कर सकेंगी। इसलिए मुलायम सिंह, शरद यादव और लालू यादव के शब्दों पर जाने के बजाय यदि उनकी पीड़ा और चिंता को समझने की कोशिश करेंगे तो समझ में आएगा कि वे पूरी तरह गलत नहीं हैं। इस बिल के जरिए खासकर क्षेत्रीय दलों के कद्दावर नेताओं की राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका शनै: शनै: समाप्त करने का बंदोबस्त किया जा रहा है।
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Tuesday, March 9, 2010

चौदह साल का ये वनवास ख़त्म हो



देश की आधी आबादी के लिए निसंदेह यह ऐतिहासिक दिन है। राम को चौदह साल का वनवास हुआ था। महिलाओं का वनवास काल तो बहुत लंबा हो गया है। 63 साल का। 1996 में पहली बार महिला आरक्षण बिल पेश करने की कोशिश हुई थी। इस हिसाब से इस विधेयक के वनवास का अर्सा भी चौदह साल बैठता है। लंबी जद्दोजहद के बाद यह दिन आया है, जब पंचायतों और स्थानीय निकायों की तरह लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में भी महिलाओं को वाजिब हिस्सेदारी मिलने का रास्ता साफ होता नजर आने लगा है। भाजपा, वामदलों और कुछ अन्य दलों के सहयोग के अश्वासन के बाद आखिर कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल पेश करने का निर्णय लिया। सोमवार और मंगलवार को सदन में राजद, सपा, बसपा और जदयू के सदस्यों ने जिस तरह का आचरण किया, उससे लोकतंत्र एक बार फिर शर्मसार हुआ। सभापति और सदन के सम्मान की रक्षा का दायित्व सदस्यों पर है। यदि वे ही इस तरह का आचरण करेंगे तो समझा जा सकता है कि हमारा लोकतंत्र किस तरफ जा रहा है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए श्रेष्ठ संसदीय परंपराओं को बनाए रखना जरूरी है।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि आजादी के इतने बरसों बाद भी महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक तौर पर वह अधिकार, सम्मान और हिस्सेदारी नहीं मिल सकी, जिसकी वह हकदार है। 1996 के बाद से कई बार सरकारों ने इस अहम बिल को संसद के समक्ष पेश किया, लेकिन हर बार इसे राजनीति का शिकार होना पड़ा। वे बाधाएं अभी भी पूरी तरह दूर नहीं हुई हैं। पिछड़ों, अति पिछड़ों और दलितों की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन समाज पार्टी और जनता दल यूनाइटेड अब भी बिल का विरोध कर रही हैं। उन्हें आशंका है कि यदि इन वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था नहीं की गई तो सदनों में धनाढ्य परिवारों की महिलाएं बड़ी संख्या में पहुंच जाएंगी। ऐसे में गरीब, पिछड़े, अति पिछड़े और दलित परिवारों की महिलाओं को देश के अहम फैसलों में भागीदारी का अवसर नहीं मिल सकेगा।
निश्चित ही उनकी चिंता जायज है लेकिन सवाल यह है कि भले ही अब तक सदनों में 33 प्रतिशत आरक्षण की कानूनी बाध्यता नहीं है, तो भी क्या इन दलों ने स्वविवेक से अपने संगठनों में और टिकटों के बंटवारे में इन वर्गों की महिलाओं को सम्मानजनक हिस्सेदारी देने की कोशिश की है? जवाब है, नहीं। वस्तुस्थिति यह है कि पिछड़ों का राग अलापने वाली ये पार्टियां ही नहीं, ज्यादातर राजनीतिक दल और उनके नेता महिलाओं को आरक्षण देने के पक्ष में नहीं रहे हैं। भीतर से वे यह सोचकर भयभीत हैं कि कानून बनते ही 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी और पुरुषों की उतनी ही सीटें कम हो जाएंगी। इसके अलावा जो सीटें दस या पंद्रह साल के लिए महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी, वहां से पुरुष चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। यही वजह है कि सांसदों और दलों ने अतीत में यहां तक सुझाव दे डाले कि सदनों में सीटों की संख्या बढ़ा दी जाए और 33 प्रतिशत सीटों से दो-दो सांसद अथवा विधायकों के चुने जाने की व्यवस्था कर दी जाए ताकि पुरुषों की सीटों और संख्या में कटौती न हो सके। इसी तरह के कई और सुझाव भी दिए गए।
इस तरह की सलाह देने वालों की मानसिकता से साफ है कि वे महिलाओं के लिए सीटें छोड़ने को कतई तैयार नहीं हैं। कांग्रेस, भाजपा और वामदल महिला आरक्षण विधेयक को इसी स्वरूप में पारित कराने पर सहमत हैं। फिर क्या वजह है कि उन्हें अपने सांसदों के लिए व्हिप जारी करना पड़ रहा है? वजह साफ है। पार्टियों को लगता है कि पुरुष सांसद जेहनी तौर पर इतने बड़े त्याग के लिए अभी भी तैयार नहीं हैं। दूसरे, पिछड़े, अति पिछड़े और दलित वर्ग के सांसद आरक्षण के भीतर आरक्षण देने की मांग की अनदेखी किए जाने से नाराज हैं और वे वोटिंग के समय बिल के खिलाफ मत जाहिर करके इसे पारित कराने के मंसूबों पर पानी भी फेर सकते हैं। इसके बावजूद इस बार के हालातों से लग रहा है कि महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा ही नहीं, लोकसभा से भी पारित हो जाएगा। इसका विरोध करने वाले दलों के नेताओं में भी मतभेद नजर आने लगे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पार्टी लाइन से इतर जाकर बयान दिया है कि कोटे के भीतर कोटा हो जाता तो अच्छा रहता, लेकिन अब इस बिल का विरोध नहीं होना चाहिए। हालांकि शरद यादव अभी भी इसके विरोध में खड़े हैं, लेकिन कुछ खास करने की दशा में नहीं हैं।
जहां तक राज्यसभा और लोकसभा में संख्या बल और इस विधेयक के पारित होने, नहीं होने का प्रश्न है, तो इसके पारित होने में अब किसी को भी शंका नहीं है। 544 सदस्यीय लोकसभा में दो तिहाई समर्थन के लिए 363 सांसदों की दरकार है, जबकि समर्थक सांसदों की संख्या 410 है। इनमें कांग्रेस गठबंधन के 244, भाजपा के 116, वामदलों के 20 और अन्यों की संख्या 30 है। इसी तरह 233 सदस्यीय राज्यसभा में 155 सांसदों के समर्थन की जरूरत है, जबकि इसका समर्थन करने वाले सांसदों की संख्या 165 है। इनमें कांग्रेस के 71, भाजपा के 45, वामदलों के 22 और अन्यों की तादाद 27 है। जद यू, सपा, बसपा और राजद के सदस्य दोनों सदनों में इसका वैसा ही विरोध कर सकते हैं, जैसा अतीत में करते आए हैं।
दोनों सदनों द्वारा पारित किए जाने के बाद इस विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजा जाएगा। राष्ट्रपति राज्य विधानसभाओं की स्वीकृति और राय के लिए इसे राज्यों को भेजेंगी। इस पर कम से कम आधे राज्यों की सहमति की मुहर लगनी जरूरी है। बीस से ज्यादा राज्यों में कांग्रेस, भाजपा, वामपंथियों और बिल के समर्थक दलों की सरकारें हैं। इसलिए वहां भी इसकी राह में कोई बड़ी मुश्किल पेश आने की शंका नहीं है। यह माना जा सकता है कि इस बिल के लिए इससे बेहतर अवसर और वातावरण न रहा है और न आगे रहने की सभावना है। इस समय राष्ट्रपति महिला हैं। लोकसभा अध्यक्ष पद पर महिला आसीन हैं। यूपीए-कांग्रेस की अध्यक्ष महिला हैं। पांच राजनीतिक दलों की अध्यक्ष इस समय महिला हैं, जिनमें से अधिकांश इस विधेयक के पक्ष में हैं। तो क्या मान लिया जाए कि अब सदनों में महिलाओं को उनका हक मिलने में बड़ी बाधा नहीं है? संकेत तो यही हैं, लेकिन इसके बावजूद महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटों के चिह्नीकरण का काम भी बाकी रहेगा, जो राजनीतिक दलों की सहमति से चुनाव आयोग को करना पड़ेगा और यह काम आसान नहीं होगा। यह यक्ष प्रश्न भी
खड़ा है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में ही महिलाओं को उनका हक मिल जाएगा या उसे अभी और इंतजार करना होगा? क्योंकि राज्यों की मुहर वाली प्रक्रिया में भी वक्त लगेगा।
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Wednesday, March 3, 2010

ये जिद पड़ सकती है भारी


महंगाई पर विपक्ष संसद से सड़कों तक पर विरोध कर रहा है। आम आदमी महंगाई की मार से बुरी तरह कराह रहा है। उसे उम्मीद थी कि आम बजट में कुछ एेसे प्रावधान जरूर होंगे, जिनसे राहत मिल सके, लेकिन बजट आफत बनकर उनके ऊपर गिरा। वित्त मंत्री ने पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद और सीमा शुल्क बढ़ाकर जले पर नमक छिड़कने का काम कर डाला। आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रणब मुखर्जी ही नहीं, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह भी रोल बैक करने को तैयार नहीं हैं। संयुक्त अरब अमीरात की अपनी यात्रा के दौरान ही उन्होंने एेलान कर दिया कि पेट्रोलियम पदार्थो के मूल्यों में की गई बढोत्तरी को वापस नहीं लिया जाएगा। सोनिया गांधी ने कोर कमेटी की बैठक बुलाई, लोगों को लगा कि शायद वे सरकार को रोल बैक करने को कहेंगी, लेकिन कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ का नारा बुलंद कर दो-दो बार केन्द्र में सरकार गठित करने का जनादेश लेने वाली पार्टी की मुखिया ने भी प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री की हां में हां मिलाई। अब विपक्ष के विरोध की परवाह न करते हुए कांग्रेस ने खुला एेलान कर दिया है कि बढ़ाई गई कीमतें वापस नहीं ली जाएंगी। सरकार ने अपनी पार्टी को यह पहाड़ा पढ़ा दिया है कि इस वर्ष यदि आर्थिक विकास दर आठ प्रतिशत के पार ले जानी है और राजकोषीय घाटा कम करके पांच प्रतिशत के स्तर पर लाना है तो कड़े उपाय करने ही होंगे। कांग्रेस को लगता है कि यही एेसा साल है, जिसमें कड़े कदम उठाए जा सकते हैं। अगले साल पश्चिम बंगाल से लेकर तमिलनाड़ु तक में विधानसभा चुनाव होने हैं, लिहाजा अगले साल तो बजट में रियायतों की घोषणा करनी ही पड़ेगी। यानी जब वोट लेना हो, तब मतदाताओं पर मेहरबानी दिखाइए और जब मतलब निकल जाए तो विकास दर का रोना रोकर उसे महंगाई के बोझ में दबा दीजिए। विपक्षी दल काफी आक्रामक मूड़ में हैं। 1975 में देश पर इमरजंसी थोपे जाने के वक्त समूचा विपक्ष कांग्रेस के खिलाफ इस तरह एकजुट हुआ था। आज आलम यह है कि भाजपा के साथ उसके सहयोगियों के अलावा वामपंथी पार्टियां, राजद, सपा, टीडीपी, और बसपा सहित लगभग सभी छोटे दल भी एकजुट होकर कांग्रेस नीत यूपीए सरकार को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। कांग्रेस के पास विपक्षी दलों के इस आरोप का कोई जवाब नहीं है कि जब-जब कांग्रेस सत्ता में आती है, महंगाई बढ़ जाती है। इस बार तो महंगाई ने सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए हैं। विपक्ष इसके लिए सरकारी नीतियों को जिम्मेदार बताते हुए कह रहे हैं कि एेसा आर्थिक कुप्रबंधन उसने कभी नहीं देखा। बुधवार को भी विपक्ष ने संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी। लोकसभा और राज्यसभा को पहले बारह बजे तक स्थगित किया गया। फिर दो बजे तक. विपक्ष के कड़े रुख के बाद कांग्रेस के सूत्र कुछ चुनींदा टीवी चैनलों के माध्यम से यह संकेत देने की कोशिश कर रहे हैं कि सरकार पेट्रोल के दामों में तो कमी नहीं करेगी, लेकिन डीजल के दाम एक रुपया कम करने का एेलान कर सकती है। सरकार नहीं चाहती कि इसका श्रेय विपक्षी दलों को मिले। सरकार इसका श्रेय सोनिया गांधी को देना चाहती है। इसलिए विपक्ष के तेवर ढीले होने पर ही इस तरह का एेलान किया जा सकता है। भारतीय गणतंत्र की यह अजीब विडंबना है कि जिस पार्टी की सरकार मनमानी पर उतारू है, उसकी मुखिया ज्वलंत समस्या पर गहरी खामोशी अख्तियार किए हुए है। सरकार को यह समझना होगा कि उसके लिए विपक्ष की एकजुटता और लोगों की गहरी नाराजगी खतरे की घंटी साबित हो सकती है।
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शिवेंद्र पर यह अत्याचार क्यों ?


पाकिस्तान के खिलाफ पहला गोल दागकर भारतीय हाकी टीम को पूरी तरह लय में ले आने वाले स्टार फारवर्ड शिवेन्द्र सिंह पर दो मैचों का प्रतिबंध किसी के भी गले से नहीं उतर रहा है। मैच डायरेक्टर ने आरोप लगाया है कि उन्होंने जानबूझकर पाकिस्तानी खिलाड़ी फरीद अहमद को स्टिक से चोट पहुंचाई। यह बड़े ताज्जुब की बात है कि न पाकिस्तानी टीम ने इसकी शिकायत की और न फील्ड अम्पायरों ने। इसके बावजूद मैच डायरेक्टर केन रीड ने इस महत्वपूर्ण भारतीय खिलाड़ी पर पहले तीन मैचों का प्रतिबंध लगा दिया और अपील करने के बाद उसे घटाकर दो मैच कर दिया। नतीजतन शिवेन्द्र सिंह न तो मंगलवार को आस्ट्रेलिया के खिलाफ हुए प्रतिष्टापूर्ण मैच में खेल सके और न गुरुवार को स्पेन के खिलाफ खेल पाएंगे। इस नादिरशाही फैसले से एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि पश्चिमी देशों के खेल अधिकारी भारतीय महाद्वीपीय खिलाड़ियों के खिलाफ सजा सुनाने के बहाने ढूंढ़ते रहते हैं। वरना क्या जरूरत थी शिवेन्द्र सिंह के खिलाफ इतनी बड़ी सजा सुनाने की। विश्व कप के मैचों में यदि बेवजह इस तरह किसी विशेषज्ञ फारवर्ड खिलाड़ी को टीम से बाहर बैठने को विवश कर दिया जाता है तो उससे पूरी टीम के मनोबल पर बुरा असर पड़ता है। यही नहीं, उसके ओवर आल परफारमैंस पर भी प्रभाव पड़ता है। जैसी कि उम्मीद थी, पूर्व हाकी खिलाड़ियों, कप्तानों और हाकी विशेषज्ञों ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जताई है। खुद शिवेन्द्र सिंह ने भी इस पर हैरत जताते हुए कहा कि उनकी स्टिक पाकिस्तानी खिलाड़ी को लग गई है, इसका उन्हें आभास तक नहीं था. उन्होंने बताया कि एक पाकिस्तानी खिलाडी ने जब उन्हें पैर से बाधा पहुंचाई तो वह गिरने लगे. इस से बचने के लिए उन्होंने संतुलन बनाने के लिए स्टिक वाला हाथ ऊपर को किया. संभवत : उसी दौरान स्टिक पाकिस्तानी खिलाडी को छू गई. उसे कोई चोट भी नहीं आई. न उन्होंने उसे चोट पहुँचाने कि मंशा से ऐसा किया. फिर भी यदि उन पर पाबन्दी थोपी जा रही है तो उन्हें इसका पूरी ज़िन्दगी अफ़सोस रहेगा. इसका आभास भी उन्हें तब हुआ, जब डीनर के समय कोच ने उन्हें बताया कि मैच डायरेक्टर ने सुबह उन्हें सुनवाई के लिए तलब किया है। दिलचस्प और आश्चर्यजनक बात यह है कि केन रीड ने शिवेन्द्र सिंह की सफाई को मानने से इंकार कर दिया। शिवेंद्र सिंह ने कहा कि जिस अपराध के लिए ग्रीनकार्ड की भी आशंका नहीं थी, उसके लिए इतनी बड़ी सजा सुना दी गई। इसका मलाल उन्हें ताउम्र रहेगा। कहा तो यह भी जा रहा है कि एफआईएच में भारत का प्रतिनिधित्व नहीं होने की वजह से उनके साथ यह नाइंसाफी हुई है। एक और दिलचस्प बात यह है कि दूसरे हाफ में भारतीय खिलाड़ी गुरविंदर सिंह चांडी को भी पाकिस्तानी खिलाड़ी ने चोट पहुंचाई थी, लेकिन उसे नोटिस नहीं किया गया। जफर इकबाल और मीररंजन नेगी जैसे पूर्व खिलाड़ियों ने भी कहा है कि यदि एफआईएच में भारत की नुमाइंदगी होती तो भारतीय क्रिकेट बोर्ड की तरह हाकी इंडिया भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक दमदार होता। शिवेंद्र को इसका मलाल है कि वह आस्ट्रेलिया के खिलाफ नहीं खेल सका। वह उसके खिलाफ खेलने की खास तैयारी कर रहा था। आस्ट्रेलियाई काफी तेज-तर्रार हाकी खेलते हैं जिससे फारवर्ड पंक्ति के लिए गोल करने के मौके बनते हैं। शिवेन्द्र को मैच में गोल करने का यकीन था। हाकी प्रशंसकों में तो इससे गहरी निराशा और नाराजगी है ही, हाटी टीम के कप्तान राजपाल सिंह और कोच होजे ब्राजा ने भी इतनी कड़ी सजा को गलत करार दिया. मंगलवार को आस्ट्रेलिया के हाथों भारतीय टीम पांच दो के बड़े अंतर से हार गई. यदि शिवेंद्र मैदान में होता तो शायद टीम की यह हालत नहीं होती.
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Thursday, February 25, 2010

बेशकीमती कोहिनूर है सचिन


प्रधानमंत्री ने कहा, सचिन तेंदुलकर जैसा कोई नहीं है और उन पर देशवासियों को गर्व है। उसके कुछ ही देर बाद राष्ट्रपति का बधाई संदेश भी आ गया। जिस समय न्यूज चैनलों पर सचिन की महानता के गुणगान हो रहे थे, खुद तेंदुलकर उस समय दो सौ रनों की नाबाद मैराथन पारी खेलने के बावजूद मैदान पर उसी उत्साह के साथ फील्डिंग करते नजर आ रहे थे। छोटे कद के इस महान खिलाड़ी ने ग्वालियर में दक्षिण अफ्रीकी टीम के खिलाफ दूसरे वनडे में वह कारनामा कर दिखाया, जिसके सपने हर बड़ा खिलाड़ी देखता है। वनडे में दोहरा शतक लगाने का असाधारण करिश्मा। इसके आस-पास तक तो कई आए, लेकिन अंतत: इसे अंजाम दिया बीस साल से अनवरत क्रिकेट खेल रहे 36 वर्षीय सचिन रमेश तेंदुलकर ने। पाकिस्तान के अनवर सईद, विवियन रिचर्डस, सनथ जयसूर्या और खुद सचिन 186 से 194 तक रनों तक का पहाड़ चढ़ लिए थे, लेकिन पहाड़ को फतेह किया मास्टर ब्लास्टर ने।
देश कई तरह के संकटों से जूझ रहा है। आंतरिक सुरक्षा का सवाल बड़ा है। महंगाई से हर कोई कराह रहा है। इस मुद्दे पर संसद गर्म है। विपक्ष काम-काज रोककर इस पर बहस का दबाव बनाए हुए है। दोपहर में रेल मंत्री ममता बनर्जी ने राहत भरा बजट पेश कर देशवासियों की दुख तकलीफों को थोड़ा कम करने की कोशिश की थी। टीवी चैनलों पर उस समय रेल बजट पर टीका टिप्पणियों का दौर चल ही रहा था कि खबर आई कि सचिन ने ग्वालियर वन डे में 46 वां शतक पूरा कर लिया है। रिमोट पर चैनल बदले जाने लगे। लोगों की नजरें सचिन पर जा टिकीं। उस सचिन पर जिसने पिछले एक साल में कई नए कीर्तिमान स्थापित कर डाले हैं। पिछले एक साल में दस टैस्ट मैचों में उन्होंने छह शतक ठोक डाले हैं। जिनमें से चार तो लगातार चार मैचों के हैं। टैस्ट में 47 शतक और वनडे में 46 शतक वे अपने नाम कर चुके हैं। अब शतकों के शतक से वे मात्र सात शतक दूर हैं। जिस तरह उनका बल्ला बोल रहा है, लगता है अगले साल तक यह करिश्माई खिलाड़ी इस कारनामे को भी अंजाम दे चुका होगा।
पूरा देश उनके कीर्तिमानों पर आह्लादित है। वे कोई नया कारनामा करते हैं तो लोग अपनी दुख तकलीफों को भूल जाते हैं। एेसे ही जैसे कुछ ही पलों के लिए सही, लोग महंगाई को भूल गए। उन्हें लगता है, जैसे ये उपलब्धि सचिन की नहीं, उनकी अपनी है। सचिन हर परिवार के अपने हो गए हैं। सुनील गावस्कर को सचिन अपना प्रेरक मानते रहे हैं। वो गावस्कर कह रहे थे कि मेरा मन कर रहा है की मई सचिन के पांव छू लूँ। नाना पाटेकर कह रहे थे कि मैं मरूंगा तो अपनी आंखें दानकर जाऊंगा ताकि मरने के बाद भी सचिन को खेलते हुए देखता रहूं। गायक अभिजित की टिप्पणी थी कि सचिन व्यक्ति
नहीं, सच में भगवान हैं। खुद भगवान भी आकर बल्लेबाजी करते तो शायद इस तरह न खेल पाते। जितने मुंह, उतनी बातें। सच में इस खिलाड़ी ने भारतीयों का मस्तक पूरी दुनिया में ऊंचा किया है। सचिन भारतीय है, इस पर हर भारतीय ही नहीं, समूचे महाद्वीप को गर्व है। पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेटर रमीज राजा ने कहा कि जब मास्टर ब्लास्टर ने सईद अनवर का 194 रन का रिकार्ड तोड़ा तो पाकिस्तान में दुआ की जा रही थी कि वह दोहरा शतक जरूर बनाएं। और दुआ कुबूल हो गई।
दुआएं सरहद पार ही नहीं की जा रही थीं, स्टेडियम में बैठे उनके संगी-साथी, हजारों की भीड़, टेलीविजन चैनलों से चिपके करोड़ों लोग भी प्रार्थना कर रहे थे कि उनकी मुराद पूरी करा दे। सचिन जिस तरह खेल रहे थे, उसमें लग रहा था कि वह वन डे में दो सौ रन बनाने का कारनामा आज जरूर कर दिखाएंगे। और एेसा हुआ। जिस समय पूरी दुनिया सचिन को बधाई दे रही थी, पता नहीं अपनी क्षुद्र राजनीति के लिए इस जीनियस को भी निशाने पर लेने वाले वे लोग कहां दुबक गए थे, जिन्होंने पिछले दिनों उनके खिलाफ तुच्छ बयानबाजी कर अपनी जगहंसाई कराई थी। शाबास, सचिन लगे रहो। पूरे देश को आप पर गर्व है।
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Tuesday, February 16, 2010

निपटना ही होगा माओवादियों से

मुंबई पर हमले के चौदह महीने बाद तक देश में कोई बड़ा आतंकवादी हमला नहीं हुआ। अब पुणे में एक बेकरी को निशाना बनाया गया तो तमाम तरह की नुक्ताचीनी शुरू हो गई। कुछ आलोचकों ने तो पाकिस्तान के साथ 25 फरवरी को नई दिल्ली में प्रस्तावित बातचीत को रद्द कर देने तक की सलाह दे डाली, जबकि वह भी जानते हैं कि आतंकवाद की आग में इस समय खुद पाकिस्तान भी झुलस रहा है। हालांकि यह भी सच है कि इस आग से खेलने का खेल भी उसी ने शुरू किया था। हाल में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने कहा था कि माओवादी हिंसा देश की एकता-अखंडता और आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा और चुनौती बन गई है। आंतरिक सुरक्षा पर मुख्यमंत्रियों की बैठक के फौरन बाद गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने नक्सली हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित पांच राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ अलग से बैठक आयोजित की लेकिन बिहार और झारखंड के मुख्यमंत्रियों ने उसमें हिस्सा लेना तक मुनासिब नहीं समझा। इससे पता चलता है कि राज्य सरकारें इस गंभीर होती जा रही समस्या के प्रति कितनी संजीदा हैं।
पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में इस समय नक्चसलवादी हिंसा का तांडव मचाए हुए हैं। सोमवार को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में ईस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स के शिविर पर दो दर्जन से अधिक हथियारबंद नक्सलियों ने हमला कर बीस से अधिक जवानों को मार डाला। गृह मंत्नी पी. चिंदबरम ने इसकी निंदा करते हुए कहा कि मिदनापुर जिले में हुआ यह हमला और इस तरह के सभी हमले नक्सलियों की वास्तविक प्रकृति और चरित्न को उजागर करते हैं। चिदंबरम ने कहा कि शिविर से 40 से अधिक हथियारों के लूटे जाने की खबर है। गौरतलब है कि भाकपा-माओवादी के नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी ने इस हमले की जिम्मेदारी लेते हुए धमकी दी है कि जब तक माओवादियों के खिलाफ की जा रही सैन्य कार्रवाई नहीं रुकेगी, तब तक इस तरह के हमले जारी रहेंगे।
नौ फरवरी को पी चिदम्बरम ने नक्सलियों के खिलाफ संयुक्त अभियान के लिए कोलकाता में उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के शीर्ष अधिकारियों के साथ बैठक की थी। इसके ठीक छह दिन के भीतर यह हमला हुआ है। चिदम्बरम ने कोतकाता में कहा था कि यदि नक्सलवादी हिंसा की गतिविधियों को छोड़ने को तैयार हों तो सरकार उनके साथ किसी भी विषय पर वार्ता के लिए तैयार है। चिदंबरम इन अटकलों को खारिज किया था कि नक्सलियों के खिलाफ प्रभावित राज्यों में जारी अभियान में उनकी हत्या कर दी जाएगी। गृहमंत्री ने इस तरह की मीडिया रिपोर्टों पर साफ कहा कि वे हमारे लोग हैं, हमें उनके जीवन की चिंता है। इसका उद्देश्य नक्सल प्रभावित इलाकों में नागरिक प्रशासन को फिर से स्थापित करना है। नक्सलियों के इस ताजा हमले से साफ हो गया है कि वे शासन को न केवल सीधी चुनौती दे रहे हैं बल्कि सुरक्षाकर्मियों के मनोबल को तोड़कर इस अभियान को भोथरा कर देना चाहते हैं। साफ है कि नक्सली हिंसा आतंकवाद से भी बड़ी चुनौती बनती जा रही है और अब समय आ गया है, जब सरकार को इससे निपटने के लिए कई मोरचों पर गंभीर प्रयास करने ही होंगे।

Saturday, February 13, 2010

संयोग या सुनियोजित साजिश ?

यह महज संयोग है या सोची समझी साजिश कि पुणे के कोरेगांव इलाके में जर्मन बेकरी में एेसे समय बम विस्फोट हुआ, जब भारत और पाकिस्तान के बीच सचिव स्तर की बातचीत की तारीख तय हुए चौबीस घंटे भी नहीं बीते थे। इस विस्फोट के पीछे पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी संगठनों का हाथ है कि नहीं, फोरेंसिक जांच के बाद जल्द ही इसका खुलासा होने वाला है, लेकिन शक की सुईं एक बार फिर लश्कर ए तैयबा, इंडियन मुजाहिदीन और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की ओर घूमती नजर आ रही है। ये ही वे जमातें हैं, जो नहीं चाहतीं कि भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्ते सुधरें। 26 नवम्बर 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय बातचीत बंद थी। भारत का साफ कहना था कि जब तक पाकिस्तान मुंबई के हमलावरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं करता, तब तक बातचीत नहीं होगी, लेकिन हाल ही में भारत ने सचिव स्तर की बातचीत का प्रस्ताव रखा, जिसे पाक सरकार ने स्वीकार कर लिया। 25 फरवरी को नई दिल्ली में यह बातचीत होनी है, लेकिन पुणे के आतंकी हमले में अगर पाकिस्तान के आतंकी संगठनों और आईएसआई की भूमिका उजागर हुई तो बहुत संभव है, शुरू होने से पहले ही वार्ता फिर टूट जाए।
पुणे में यह पहली आतंकवादी वारदात है। मुंबई और महाराष्ट्र लगातार आतंकवादियों के निशाने पर रहा है। 26 नवम्बर 2008 का आतंकी हमला सबसे सुनियोजित और बड़ा था, जिसमें दस आतंकवादियों ने तीन दिन तक सेना, अर्धसैनिक बलों, एनएसजी कमांडो और मुंबई पुलिस से टक्कर ली। उस वारदात में पौने दो सौ से अधिक लोग मारे गए, जिनमें बीस से अधिक विदेशी थे। जांच में साफ हो गया था कि उस वारदात के तार सीधे पाकिस्तान से जुड़े थे। सभी दस आतंकवादी कराची से समुद्री रास्ते से मुंबई पहुंचे थे, जिनमें से नौ मारे गए और आमिर अजमल कसाब को जीवित पकड़ लिया गया, जिस पर इस समय मुंबई की विशेष अदालत में मुकदमा चल रहा है।
भारत कहता आया है कि पाकिस्तान सरकार ने मुंबई की वारदात के बाद भले ही कहा हो कि वह अपनी जमीन का इस्तेमाल भारत विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा, हकीकत यह है कि वहां आतंकवादियों का नेटवर्क जस का तस काम कर रहा है। मुंबई हमले के मास्टर माइंड हाफिज सईद को वहां खुली छूट है। वह पाक अधिकृत पाकिस्तान जाकर अभी भी भारत विरोधी भड़काऊ भाषण दे रहा है। यह अपने आप में हैरत की बात है कि पाकिस्तान अभी भी वहां सक्रिय भारत विरोधी जमातों और आतंकी संगठनों पर नकेल कसने के बजाय उन्हें हवा दे रहा है। पाक प्रधानमंत्री का बयान आता है कि कश्मीर का मसला फलीस्तीन जैसा ही है और जब तक इसे हल नहीं किया जाएगा, तब तक दक्षिण व दक्षिण पूर्वी एशिया में शांति बहाल नहीं होगी। साफ है कि आतंकवाद की आग में झुलस रहे पाकिस्तान को अब भी अक्ल नहीं आ रही है। पुणे की इस ताजा घटना से साफ हो गया है कि खतरा टला नहीं है, बल्कि और बढ़ गया है। गृहमंत्री पी चिदम्बरम और पीएमओ की सक्रियता के चलते पिछले करीब सवा साल में कोई बड़ी वारदात नहीं हो सकी लेकिन इस तरह के हमलों की आशंका लगातार बनी रही है। इस घटना से साफ हो गया है कि न केवल केन्द्रीय एजेंसियों को बेहद सतर्क रहना होगा, बल्कि राज्यों को भी अपनी सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों को चुस्त चौकस करना होगा। पुणे की घटना के बाद जाहिर है, हालात एक बार फिर बदल गए हैं। यूपीए सरकार को पाकिस्तान के साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने के बारे में पुर्नविचार करना होगा, नहीं तो विपक्षी दल, खासकर भाजपा के तीखे सवालों का सामना उसे संसद के भीतर और बाहर करना होगा। इस घटना के बाद भाजपा की तीखी प्रतिक्रिया सामने आई है। उसने जानना चाहा है कि क्या सरकार रिलैक्स हो गई है। और सरकार स्पष्ट करे कि यह सब आखिर कब तक चलता रहेगा?
इस घटना से एक बात और स्पस्ट हुई है कि मुंबई कि तरह पुणे में भी आतंकवादियों के निशाने पर विदेशी ही थे. जर्मन बेकरी, जहाँ ये विस्फोट किया गया है, पर विदेशी बड़ी संख्या में आते हैं. इसके अलावा करीब ही यहूदियों का निवास है. पुणे में खासकर यूरोपियन देशों के नागरिक बड़ी तादाद में रहते हैं. आतंकवादी चाहते हैं कि विदेशियों में खौफ पैदा कर यह सन्देश भेजा जाए कि भारत उनके लिए सुरक्षित जगह नहीं है. भारत सरकार को इस घटना से सतर्क हो जाना चाहिए. आतंकवादियों का अगला टार्गेट निश्चित रूप से कामनवेल्थ गेम्स होंगे. पाकिस्तान नहीं चाहेगा कि भारत सफलता पूर्वक कामनवेल्थ गेम्स आयोजित कर दुनिया भर में यह सिद्ध करे कि यहाँ सुरक्षा के कोई खतरा नहीं है. इस समय दक्षिण अफ्रीका की टीम भारत दौरे पर है. रविवार से कोलकाता में दूसरा टेस्ट शुरू हो रहा है. दोनों टीमों की सुरक्षा कड़ी कर दी गई है लेकिन भारत सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि आतंकवादी लाहोर जैसी कोई हरकत नहीं करने पाएं जिसके बाद श्रीलंकन टीम को दौरा बीच में ही छोड़कर स्वदेश लौटना पड़ा था. उसके बाद से किसी देश की टीम ने पाकिस्तान जाने की हिम्मत नहीं की है.
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Tuesday, February 9, 2010

इन उत्सवों को संभालिए


रुचिका गेहरोत्रा कांड के आरोपी पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौर पर सोमवार को अदालत के बाहर चाकू से प्रहार करने वाले 28 वर्षीय युवक उत्सव शर्मा के संबंध में कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की फाइन आर्ट्स फैकल्टी में बीएफए का वह गोल्ड मेडलिस्ट रहा है। उसकी शार्ट फिल्म चाय ब्रेक को प्रतिष्ठित अवार्ड के लिए चुना गया है। वह मेधावी छात्र है और इस समय भले ही डिप्रेशन से ग्रस्त है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि वह अहमदाबाद के प्रतिष्ठित संस्थान नेशनल स्कूल आफ डिजायनिंग का छात्र है। अब तक की पूछताछ से पता चला है कि पिछले महीने वह पंचकूला पहुंचा और वहां की जाट धर्मशाला में रहकर एसपीएस राठौर के बारे में जानकारियां जुटा रहा था। धर्मशाला के केयरटेकर से उसने अपनी मंशा भी बताई थी कि वह रुचिका-राठौर प्रकरण पर फिल्म के लिए एक स्टोरी तैयार करना चाहता है। जिस धर्मशाला में वह रात बिताता था, वह न तो कोर्ट परिसर से दूर है और न राठौर के निवास स्थान से।

उत्सव की कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं है। उल्टे वह बहुत प्रतिभाशाली छात्र रहा है। उसके पिता और माता बनारस के प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रोफेसर और चिकित्सक हैं। उन दोनों को भी उत्सव के कृत्य पर आश्चर्य है और उनका साफ कहना है कि किसी को भी कानून हाथ में लेने का हक नहीं है, लेकिन वे यह भी बताते हैं कि उस्तव की दिमागी हालत ठीक नहीं है। उसका पिछले चार महीने से अहमदाबाद में डिप्रेशन का उपचार चल रहा है, जिसके कागज लेकर वे दोनों बनारस से पंचकूला पहुंच रहे हैं। उत्सव ने छोटे चाकू से राठौर पर तीन वार करने की कोशिश की। गनीमत रही कि राठौर के चेहरे पर हल्की सी चोट आई। वे बच गए। चोट ज्यादा घातक भी हो सकती थी।
राठौर ने अपनी तरफ से हमलावर युवक के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं कराने का निर्णय लिया है। हो सकता है, कि यह गांधीगीरी दिखाकर वे उन करोड़ों भारतीयों की सहानुभूति हासिल करने की चेष्टा कर रहे हों, जो रुचिका गेहरोत्रा मामले में उनके कारनामों से बेहद नाराज हैं। कौन नहीं जानता कि राठौर ने रुचिका को विदेश जाने से रोका। उसका योन शोषण किया। उसके परिजन उनके खिलाफ शिकायत नहीं करें, इसके लिए उसके भाई को झूठे कार चोरी के मामलों में बंद कराकर बुरी तरह टार्चर किया। फीस जमा नहीं करा पाने पर रुचिका को स्कूल से बर्खास्त करा दिया। इस सबसे वह बालिका इस कदर टूटी कि अंतत: रुचिका ने आत्महत्या कर ली।
मीडिया के प्रेशर और लोगों के सड़कों पर उतर पड़ने के बाद रुचिका के परिजनों की हिम्मत बंधी है। केंद्र और हरियाणा सरकार भी जागी हैं. इतने साल बाद उन्हें भी लग रहा है कि रुचिका के परिवार के साथ ज्यादती हुई है. गृह मंत्री ने तो रुचिका के पिता को बुलाकर बात भी की है. मीडिया, लोगों और सरकारों की सक्रियता के बाद ऊंची अदालतों ने भी सकारात्मक रुख दिखाते हुए राठौर के खिलाफ नए सिरे से मामले दर्ज कर दोबारा जांच के निर्देश दिए हैं। इसके बावजूद जिस तरह राठौर को हरियाणा की पुलिस बचाने की चेष्टा करती रही है और राठौर के चेहरे पर गहरी होती मुस्कान देखी गई है, उससे उत्सव क्चया, हजारों-लाखों लोगों के मन में आक्रोश पैदा होता है।
हालांकि किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता और किसी को भी कानून हाथ में लेने का अधिकार नहीं है.उत्सव ने जो किया, उसका समर्थन उसके माता पिता तक ने नहीं किया. लेकिन यह भी सच है कि इस प्रकरण ने आम आदमी के मन में राठोर जैसे पुलिस अधिकारियों के प्रति असम्मान और नफरत पैदा कर दी है. उन्हें लगता है कि पद का दुरपयोग कर अधिकारी कितने निचले स्तर हरकतों पर उतर सकते हैं..यह प्रकरण बताता है.सत्ता-व्यवस्था में बैठे लोगों को सोचना होगा कि उत्सव जसे प्रतिभाशाली नौजवान यदि अपने करियर को दांव पर लगाकर इस तरह आपा खो रहे हैं तो इसकी वजह क्या है। समय रहते उन कारणों को दूर करना होगा, नहीं तो एेसे बहुत से उत्सव कानून को हाथ में लेते नजर आएंगे। इस घटना से यह भी पता चलता है कि हमारा युवा वर्ग इस तरह के मामलों में कितना संजीदा होता जा रहा है.
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Monday, February 1, 2010

एक और शानदार उपलब्धि


जाने-माने संगीतकार ए आर रहमान ने डैनी बायल की आस्कर विजेता फिल्म स्लमडाग मिलिनियर के लिए बेस्ट कम्पाइलेशन साउंडट्रैक और बेस्ट मोशन पिक्चर सांग श्रेणियों में दो ग्रैमी अवार्ड जीतकर विश्व मंच पर एक बार फिर भारतीयों का मस्तक ऊंचा कर दिया है। पिछले साल रहमान ने आस्कर में धूम मचाई थी। उन्हें ब्रिटिश भारतीय फिल्म स्लम डाग मिलिनियर में संगीत के लिए दो आस्कर अवार्ड से नवाजा गया था। ग्रैमी अवार्ड प्राप्त करने के बाद रहमान ने इसे अद्भुत अनुभव बताते हुए भगवान का शुक्रिया अदा किया। साउंडट्रैक श्रेणी में रहमान ने फिल्म कार्डिलेक रिकाड्स के लिए स्टीव जोर्डन, इनग्लोरियस बास्टर्ड के लिए क्वेनटीन टोरांटिनो और ट्विलाइट एवं ट्र ब्लड के निर्माताओं को पछाड़कर ग्रैमी जीता है। सर्वश्रेष्ठ गीत की श्रेणी में रहमान के जय हो ने आस्कर के लिए चयनित फिल्म द रेसलर में रेसलर गीत लिखने वाले ब्रूस स्प्रिंगस्टीन को हराया। लास एंजिलिस में आयोजित 52 वें ग्रैमी पुरस्कारों के भव्य समारोह में जहां रहमान को दो-दो पुरस्कार मिले, वहीं दो अन्य भारतीय उस्तादों को निराशा हाथ लगी। उस्ताद अमजद अली खान और उस्ताद जाकिर हुसैन को कामयाबी नहीं मिल सकी। अमजद अली खान को उनकी एल्बम एनसियंट साउंड्स के लिए नामित किया गया था जबकि तबला वादक जाकिर हुसैन को सर्वोत्तम क्लासिकल क्रासओवर एल्बम की श्रेणी में द मेलोड़ी आफ रिदम के लिए नामांकन मिला था। पिछली बार हुसैन को उनकी एल्बम ग्लोबल ड्रम प्रोजेक्ट के लिए ग्रैमी अवार्ड से नवाजा गया था। जहां तक रहमान का सवाल है, जय हो के लिए उन्हें पहले ही गोल्डन ग्लोब ट्राफी और दो अकादमी अवार्ड मिल चुके हैं। वे पहले भारतीय हैं, जिन्हें आस्कर पुरस्कार मिला। रहमान ने ग्रैमी अवार्ड जीतने के बाद भले ही ईश्वर का आभार व्यक्त किया हो, लेकिन उनके परिवार, मित्रों और संगीत के जानकारों को इससे कोई ताज्जुब नहीं हुआ है। सभी का मानना है कि रहमान इस पुरस्कार के योग्य हैं। जय हो को अपनी आवाज देने वाले सुखविंदर सिंह की प्रतिक्रिया सही है कि रहमान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान मिलनी ही थी। उन्होंने यह भी कहा कि रोजा से यहां तक का रहमान का सफर बहुत ही खास रहा है। आस्कर अवार्ड जीतने वाले साउंड आर्टिस्ट रसूल पोकुट्टी ने इसे विलक्षण जीत बताते हुए कहा कि रहमान की जीत दिखाती है कि भारत सृजनात्मकता के क्षेत्र में भी एक ताकत के रूप में उभर रहा है। 44 वर्षीय रहमान को मद्रास का मोत्जार्ट कहा जाता है। वह बेहद विनम्र हैं। बहुत कम लोगों को मालूम है कि रहमान का जन्म का नाम ए एस दिलीप कुमार था, जिसे बदलकर वे अल्लाह रक्खा रहमान यानि ए आर रहमान बने। सुरों के बादशाह रहमान ने हिंदी के अलावा कई अन्य भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में भी संगीत दिया है। रहमान को संगीत अपने पिता आर के शेखर से विरासत में मिला, जो मलयाली फिल्मों में संगीत देते थे। हालांकि नौ साल की अल्पायु में ही रहमान के सिर से पिता का साया उठ गया। विलक्षण प्रतिभा के धनी रहमान के गानों की दो सौ करोड़ से भी अधिक रिकार्डिग अब तक बिक चुकी हैं। विश्व के टाप टेन म्युजिक कंपोजर्स में वे शुमार किए जाते हैं। रहमान ग्यारह बार फिल्म फेयर, सहित अनेक पुरस्कार जीत चुके हैं। 2000 में उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा गया था। निश्चय ही उनकी महान उपलब्धियों पर भारतीयों को उन पर गर्व है।
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क्या मुंबई उनकी जागीर है ?


कभी-कभी लगता है कि हमारे देश में अराजकता फैलाने वाले कुछ बाहुबलि किस्म के क्षत्रपों के लिए जैसे कानून है ही नहीं। बाल ठाकरे और राज ठाकरे ने मुंबई में जिस तरह का अराजक माहौल पैदा कर दिया है, उसे देखकर आश्चर्य होता है। इससे भी बढ़कर ताज्जुब इस बात का होता है कि वहां की सरकार पंगु बनी हुई है। बाल ठाकरे कभी मुकेश अंबानी को धमकाते हैं, कभी सचिन तेंदुलकर को तो कभी शाहरुख खान को। मुकेश अंबानी देश के कारपोरेट जगत का ऐसा चेहरा हैं, जिनकी दुनिया भर में ख्याति है। सचिन तेंदुलकर को केवल भारत के उनके प्रशंसक ही नहीं, विश्व भर के उनके चाहने वाले क्रिकेट का भगवान मानते हैं। पिछले बीस साल से वे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेल रहे हैं और उन्होंने जहां तमाम तरह के रिकार्ड कायम किए हैं, वहीं भारतीय क्रिकेट को बुलंदियों पर पहुंचाकर उसे सम्मान दिलाया है। शाहरुख एेसे चमकते सितारे हैं, जिन्हें संसार भर में मान-सम्मान मिला है। अलग-अलग कारणों से बाल ठाकरे ने इन तीन हस्तियों को धमकाने की चेष्टा की है। बाल ठाकरे मुंबई के मठाधीश बने हुए हैं। यह जानकर आश्चर्य होता है कि पिछले तीन विधानसभा चुनाव में मुंबई और महाराष्ट्र के लोगों ने उन्हें सबक सिखाया है, फिर भी उनकी और उनके भतीजे राज ठाकरे की समझ में यह बात नहीं आ रही है कि लोग चरमपंथी विचारधारा और माफिया डान की धमकाने वाली शैली को पसंद नहीं करते हैं। राज ठाकरे और बाल ठाकरे को यह भ्रम हो गया है कि मुंबई और मराठावाद के वे जितने बड़े पैरोकार बनकर उबरेंगे और मुंबईकर के नाम पर लोगों को हड़काएंगे, आम मुंबईवासी शायद उन्हें उतना ही पसंद करेंगे। सही बात तो यह है कि इस तरह नफरत फैलाकर, क्षेत्र, भाषा और धर्म के नाम पर लोगों को बांटकर वे लोगों की नजरों में अपना कद घटा रहे हैं। मुंबई में रहने वाले नामचीन लोगों को शांति से अपना काम करना है। यह सोचकर वे कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। इसे ठाकरे परिवार लोगों की बुजदिली मानकर और दबाने की कोशिश करता है। शाहरुख खान हों या सचिन तेंदुलकर, उन्होंने एेसी कोई बात नहीं कही जो देश विरोधी हो। क्या संविधान में हरेक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है? शाहरुख और सचिन भी उतने ही मुंबईकर हैं, जितना ठाकरे का परिवार। किसी को भी किसी को धमकाने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। शाहरुख ने केवल इतना कहा था कि पाकिस्तान के खिलाड़ियों को भी आईपीएल में खिलाया जाना चाहिए। बोली के समय उनके साथ जिस तरह का व्यवहार हुआ, उससे किसी को भी दुख पहुंच सकता है। लगभग यही बात गृह मंत्री पी चिदम्बरम ने भी कही है। बाल ठाकरे ने उनके खिलाफ जबान क्यों नहीं खोली? अब ठाकरे सिनेमाघरों के मालिकों को धमकाने पर उतर आए हैं। उन्होंने पत्र लिखकर मुंबई के सिनेमाघर मालिको से कहा है कि वे शाहरुख की फिल्में नहीं लगाएं। योगगुरू बाबा रामदेव ने तो साफ कहा है कि मुंबई सबकी है और वहां किसी की दादागीरी नहीं चलनी चाहिए। लखनऊ में रामदेव ने सही ही कहा कि वे लोग घोर असंवैधानिक काम कर रहे हैं। उन पर कार्रवाई होनी चाहिए। इसके लिए जरूरत पड़े तो राज्यों को विशेष कानून बनाना चाहिए। रामदेव ने कहा कि जाति-धर्म और क्षेत्न के नाम पर देश को बांटने की कोशिश की जा रही है। ये देश के लिए खतरनाक है। अच्छी बात है की संघ ने हिंदी भाषी उत्तर भारतियों की रक्षा का प्रण लिया है लेकिन यह सवाल तो उनसे भी पूछा ही जाएगा कि इतने लम्बे समय तक संगठन चुप्पी क्यों साधे रहा. क्या किसी को भी इस तरह किसी को सरेआम धमकाने की इजाजत दी जानी चाहिए. महाराष्ट्र में सर्कार ओउर पुलिस प्रशासन नाम की कोई व्यवस्था काम कर रही की नहीं ?

Sunday, January 31, 2010

दांव पर मनमोहन सिंह की साख


सतहत्तर वर्षीय डा. मनमोहन सिंह ने जब 22 मई 2009 को दूसरी बार देश की बागडोर संभाली तो देश के हर वर्ग को उनसे ढेरों उम्मीदें थीं। 2004 में जब वे पहली बार प्रधानमंत्री बने, तब उनके बारे में मिली-जुली सी धारणा थी। यह भाव भी था कि सोनिया गांधी की कृपा से ही वे इस महत्वपूर्ण पद तक पहुंचे हैं, लेकिन 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस नीत यूपीए गठबंधन को दोबारा जनादेश मिला तो इसकी एक वजह मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लोगों का विश्वास भी था। उनकी दूसरी पारी के एक साल पूरा होने में अभी चार महीने हैं, लेकिन आम आदमी में गहरी निराशा देखी जा रही है। दुनिया भर में उनकी ख्याति कुशल अर्थशास्त्री की है। चोटी के देश और उनके राष्ट्राध्यक्ष वैश्विक मंदी के दौर में मनमोहन सिंह के सूझ-बूझ भरे फैसलों की प्रशंसा कर चुके हैं। खुद उनकी सरकार के प्रचार प्रबंधक मंदी के बावजूद साढ़े छह से सात प्रतिशत की विकास दर को बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश कर रहे हैं, लेकिन घरेलू मोर्चे पर महंगाई को नहीं रोक पाने पर वे बगलें झांकते हुए नजर आ रहे हैं। बल्कि कहना चाहिए कि इसके लिए एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.
आम आदमी की बात करके वोट हासिल करने वाली कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी रिकार्डतोड़ महंगाई पर लंबी रहस्यमय चुप्पी साधे हुए हैं। बीते सप्ताह तीन उल्लेखनीय घटनाएं घटीं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सोनिया गांधी पर यह कहते हुए शब्दबाणों का हमला बोला कि अब उन्हें उनसे महंगाई कम करने की अपील इटेलियन भाषा में करनी पड़ेगी, क्योंकि अन्य भाषा वे समझ नहीं रही हैं। कभी सोनिया और राहुल का स्तुतिगान करने वाले लालू प्रसाद यादव बिहार की सड़कों पर उतर पड़े। उन्होंने महंगाई के विरोध में राज्य बंद कराया और उनके करीब बारह हजार समर्थकों ने गिरफ्तारी दी। लालू के निशाने पर केन्द्र के साथ नीतीश सरकार भी है। तीसरी घटना केन्द्रीय खाद्य एवं कृषि मंत्री शरद पवार का पुणे में दिया गया बयान है। उन्होंने कहा कि महंगाई के लिए वे अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। मूल्य निर्धारण का फैसला केबिनेट करती है और उसके मुखिया प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह हैं।
अगले महीने संसद का बजट सत्र शुरू होने वाला है। इसमें रेल और आम बजट आएगा, लेकिन बजट में किसी की दिलचस्पी होगी, लगता नहीं। बजट से महंगाई घटेगी और लोगों को राहत मिलेगी, यह उम्मीद भी नहीं है। उम्मीद विपक्षी दलों से भी नहीं है। महंगाई को लेकर वे दो-चार दिन हल्ला करेंगे। संसद ठप करेंगे। कार्रवाई नहीं चलने देंगे। संसद परिसर में स्थित गांधी जी की प्रतिमा के सामने पोस्टर-बैनर लेकर बैठेंगे-फोटो खिंचवाएंगे और इस तरह अपने कत्र्तव्य की पूर्ति कर लेंगे। यह सब महंगाई से त्रस्त लोगों की भावनाओं को कैश करने की मंश से होगा। सांसदों को महंगाई से कोई खास फर्क पड़ता है या उन्हें आम लोगों की चिंता है, एेसा उनके व्यवहार से नहीं लगता। वसे भी जनता ने एेसे प्रतिनिधि संसद नहीं भेजे हैं, जो उनके दुख-दर्द को समझते हों। आजाद भारत की यह एेसी संसद है, जिसमें सर्वाधिक तीन सौ से भी अधिक करोड़पति सांसद पहुंचे हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि सब्जी-दाल, दूध, तेल, आटा और रसोई की दूसरी जरूरी चीजों के दाम कितने बढ़े हैं और उन्होंने आम आदमी का जीवन किस कदर बेहद कठिन बना दिया है। धूमिल ने लिखा है, एक आदमी रोटी खाता है। एक आदमी रोटी बेलता है। एक तीसरा आदमी भी है, जो ना रोटी खाता है और न बेलता है। वह सिर्फ रोटी से खेलता है। यह तीसरा आदमी कौन है? मेरे देश की संसद मौन है।
डा. मनमोहन सिंह से लोगों को इसलिए भी उम्मीद थी क्योंकि वे समावेशी विकास की बात करते रहे हैं। लोग जानते हैं कि उन्होंने गुरबत से सात रेसकोर्स तक का सफर लंबे संघर्षो और कठिन परिश्रम से तय किया है। उनकी सादगी और ईमानदारी पर किसी को शक नहीं है, लेकिन वे काबिल और संवेदनशील प्रधानमंत्री हैं, यह अभी उन्हें सिद्ध करना है। 1990-91 में पीवी नरसिंह राव सरकार ने देश में आर्थिक उदारीकरण के दौर की शुरुआत की थी। उनकी सरकार में वित्त मंत्री का दायित्व यही मनमोहन सिंह संभाल रहे थे। दुर्भाग्य की बात यही है कि आर्थिक उदारीकरण की नीतियों का लाभ धन्नासेठों की तिजोरियों को और ठसाठस भरने में भले ही सफल रहा, लेकिन देश के आम आदमी तक उसका लाभ बीस साल बाद भी नहीं पहुंच पाया है। मनमोहन सिंह महंगाई को तुरंत काबू में करने के ठोस उपाय नहीं करते हैं तो लोगों का उनसे मोहभंग और तेज होगा। तब कांग्रेस को भी संभलने का मौका नहीं मिलेगा।
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Sunday, January 17, 2010

अशुभ साबित हुआ छियानवे


उन्नीस सौ छियानवे में कई अहम घटनाएं हुईं। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी, जो मात्र तेरह दिन चल सकी। कहने को 1977 और 1989 में भी गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ, लेकिन उन सरकारों के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर कांग्रेस की कोख से ही जन्मे थे। अटल जी कभी कांग्रेस में नहीं रहे, इसलिए उनके नेतृत्व में 96 में बनी सरकार को ही सही मायने में पहली गैर कांग्रेसी सरकार कहना चाहिए। वे बहुमत सिद्ध नहीं कर सके, लिहाजा सरकार गिर गई। तीसरे मोर्चे को सरकार बनाने का मौका मिला। प्रधानमंत्री के रूप में उस वक्त 82 वर्ष की आयु वाले वयोवृद्ध साम्यवादी नेता ज्योति बसु के नाम पर सर्व सहमति बनी। ज्यादातर नेताओं का मत है कि ज्योति बसु प्रधानमंत्री बने होते तो शायद आज राजनीतिक हालात कुछ और होते। माकपा पोलित ब्यूरो ने उस प्रस्ताव का अनुमोदन नहीं किया। नतीजतन ज्योति बाबू प्रधानमंत्री नहीं बन सके। बाद में उन्होंने इसे एेतिहासिक भूल बताते हुए कहा कि पोलित ब्यूरो का निर्णय सही नहीं था, लेकिन वे पार्टी के अनुशासित सिपाही थे। उस समय सिर झुकाकर पोलित ब्यूरो के निर्णय को मान लिया। इसे आप दुर्योग नहीं तो क्या कहेंगे कि छियानवे का अंक न ज्योति बाबू को तब रास आया था और न अब। उनका निधन भी छियानवे वर्ष की आयु में हुआ। 1996 ने हरदनहल्ली डोड्डेगोड़ा देवेगौड़ा के रूप में देश को एक ऐसा सुस्त और मजबूर प्रधानमंत्री दिया, जो अपने काम-काज के लिए कम और सोते रहने के लिए ज्यादा जाना गया।
ज्योति बसु अपनी पूरी उम्र जीकर गए हैं। वे भाग्यशाली कहे जाएंगे। एेसे राजनेता विरले ही मिलेंगे, जिन्होंने लगभग सौ साल का इतना गरिमापूर्ण जीवन जिया हो। हमेशा विवादों के परे रहने वाले ज्योति बाबू का निधन एेसे समय हुआ है, जब माकपा को उनके नेतृत्व और मार्गदर्शन की सबसे ज्यादा जरूरत थी। माकपा ही नहीं, पूरा वामपंथ दर्शन हिचकोले खाता हुआ नजर आ रहा है। सत्तर के दशक में ज्योति बसु की अगुआई में वामपंथियों ने पश्चिम बंगाल से दक्षिण पंथ का बिस्तर गोल कर दिया था। वे सत्ता में आए तो साढ़े तीन दशक तक लोगों ने उन्हें सिर-माथे पर बैठाए रखा। लगातार तेईस साल तक मुख्यमंत्री रहने का अनोखा कीर्तिमान ज्योति बाबू के नाम है। उनके नेतृत्व में वामपंथियों के गढ़ में जो एेतिहासिक एवं क्रांतिकारी फैसले हुए, उन्हीं के परिणामस्वरूप कांग्रेस को वहां पुर्नजीवन का अवसर नहीं मिला। खेतिहर मजदूरों, किसानों, गरीबों के हित में ज्योति बसु सरकार ने महत्वपूर्ण निर्णय लिए। यह कहना गलत नहीं होगा कि अनुशासित वामपंथी होते हुए भी उन्होंने विदेशी निवेश को पश्चिम बंगाल में आमंत्रित किया और रोजगार के नए अवसर उपलब्ध कराने में अहम भूमिका निभाई। हाल के लोकसभा चुनाव में माकपा-भाकपा की दुर्दशा पर वे बेहद व्यथित थे। उन्होंने सार्वजनिक रूप से वामपंथियों की मौजूदा नीतियों और कुछ निर्णयों पर खुला प्रहार किया था। नंदी ग्राम और सिंगूर में किसानों पर जिस तरह कई बार गोली चलवाई गई और लाठीचार्ज हुए, ज्योति बाबू उसके भी खिलाफ थे। उद्योगपतियों के लिए जिस जोर जबरदस्ती से किसानों की उर्वरा भूमि का अधिग्रहण हुआ और उनके विरोध को कुचलने की कोशिशें की गईं, उसके चलते लोगों में वामपंथियों के प्रति लोगों में गुस्सा पनपा। नतीजतन उन्हें चुनाव में इसकी कीमत अदा करनी पड़ी।
ममता बनर्जी ने उन किसानों और गरीबों को वाम मोर्चा सरकार के खिलाफ लामबंद करने में सफलता प्राप्त कर ली, जो पिछले साढ़े तीन दशक से उनकी ताकत बने हुए थे। प्रकाश करात के नेतृत्व में पोलित ब्यूरो ने पिछले कुछ अरसे में कुछ एेसे निर्णय लिए हैं, जिनके नतीजे आत्मघाती साबित हुए हैं। अमेरिका से असैन्य एटमी करार के मुद्दे पर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-1 से समर्थन वापसी का निर्णय भी उनके लिए अत्मघाती सिद्ध हुआ। पहली सरकार पर वामपंथियों का नियंत्रण था, लेकिन यूपीए ने जब ममता बनर्जी के साथ चुनाव लड़ने का निर्णय लिया तो वामपंथियों की चूलें हिल गईं। अब आलम यह है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में लाल ब्रिगेड़ में हड़कंप की स्थिति है। वहां विधानसभा चुनाव में अब ज्यादा समय नहीं है। लोकसभा चुनाव के नतीजे और वहां के राजनीतिक हालात यह बताने को काफी हैं कि वामपंथियों का किला ढह रहा है। इसकी रोकथाम करने की कुव्वत यदि किसी में थी, वह ज्योति बाबू ही थे, लेकिन उम्र और हालातों ने उनका साथ नहीं दिया। 96 के अंक ने उन्हें एक बार फिर झटका दिया। एेसा झटका, जिसने वामपंथ ही नहीं नहीं, देश से भी एक बेहतरीन नेता छीन लिया। एेसे नेता सदियों में एक-आध ही तैयार होते हैं। ज्योति बसु के बाद वामपंथियों को अहसास होगा कि उन्होंने एक नेता नहीं, सिर की छत ही खो दी है। प. बंगाल की वामपंथी सरकार यदि उनके दिखाए मार्ग पर बढ़ती तो उसे ये दिन नहीं देखने पड़ते।
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