Sunday, August 8, 2010

गोली नहीं, बोली से ही निकलेगा हल

घाटी की ताजा हिंसा में ग्यारह जून से अब तक करीब पचास लोगों की मौत हो चुकी है। हजारों की भीड़ कर्फ्यू तोड़कर शासन-प्रशासन के खिलाफ उग्र नारेबाजी कर रही है। सुरक्षाबल और राज्य सरकार जितने बेबस इस समय दिखाई दे रहे हैं, इससे पहले कभी नहीं दिखे। राज्य ही नहीं,केन्द्र सरकार भी हतप्रभ है। अलगाववाद की इस ताजा लहर को पाकिस्तान निश्चय ही हवा दे रहा है, लेकिन विचारणीय बात यह है कि घाटी के बिगड़े हालातों के लिए भारत कब तक पाकिस्तान को कोसता रहेगा?

क्या इस पर मंथन नहीं होना चाहिए कि केन्द्र और राज्य सरकार से कहां-कहां गंभीर चूकें होती रही हैं? उन भूलों को सुधारने की दिशा में जितने ईमानदार प्रयास होने चाहिए थे, क्या किए गए? सबसे अहम सवाल तो यही है कि आखिर कश्मीर को लेकर सरकार की नीति क्या है? हर नेता वहां की समस्या और उत्पन्न हालातों का आकलन अलग-अलग तरह से करके बयानबाजी कर रहा है। इससे हालात बिगड़ेंगे या सुधरेंगे? यह आश्चर्य की बात है कि मौजूदा हालातों को बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अमन बहाली के लिए राजनैतिक पैकेज की जरूरत बता रहे हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने संसद में घाटी को सुलगाने के पीछे पाकिस्तान की बदली हुई रणनीति को जिम्मेदार बताया है। कदम-कदम पर उमर अब्दुल्ला सरकार की नाक में दम करने वाली पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती इस हिंसा पर चुप्पी साधे बैठी हैं तो अलगाववादी नेता पुराना राग अलापने में लगे हैं कि भारतीय सेना को घाटी से बाहर किया जाए। पाकिस्तान भी यही चाहता है ताकि वहां आसानी से मनमर्जी कर सके।
कौन नहीं जानता कि पाकिस्तान कश्मीर को हड़पना चाहता है। इसके लिए वह जहां घाटी के अलगाववादियों को हर तरह की मदद देता है, वहीं कभी हिजबुल, कभी जैश, कभी जेकेएलएफ तो कभी पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी संगठनों को भारत
प्रशासित कश्मीर भेजकर अस्थिरता के हालात पैदा करता रहा है। अक्तूबर 1947 में हरिसिंह ने कश्मीर का भारत में विलय किया था। सच तो यह है कि पाकिस्तान ने कभी कश्मीर को भारत के अविभाज्य अंग के रूप में स्वीकार नहीं किया।
घाटी में हालात तब बिगड़ने शुरू हुए, जब शेख अब्दुल्ला नहीं रहे और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, खासकर 1989 से केन्द्र में अस्थिरता का दौर शुरू हुआ। शेख अब्दुल्ला को घाटी के लोग जितना सम्मान देते थे, उतना फारुख अब्दुल्ला या किसी दूसरे नेता को कभी नहीं मिला। नेशनल कांफ्रैंस पर केन्द्र की कठपुतली होने और चुनाव में धांधली करने के आरोप जरूर लगते रहे। यह हकीकत है कि जम्मू-कश्मीर में 1987 के चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली हुई। कहा तो यहां तक जाता है कि सैय्यद सलाउद्दीन चुनाव जीत गए थे, लेकिन धांधली से उनके स्थान पर नेशनल कांफ्रैंस के प्रत्याशी को विजयी घोषित कर दिया गया। इसके खिलाफ जनाक्रोश भड़का। बहुत से कश्मीरी युवक पाकिस्तान चले गए, जो पाक अधिकृत कश्मीर, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत और पंजाब सूबे में चलाए जा रहे प्रशिक्षण शिविरों में आतंकवाद का प्रशिक्षण लेकर लौटे। उन्होंने सबसे पहले कश्मीरी पंडितों और भारत का समर्थन करने वाले लोगों को निशाना बनाकर घाटी छोड़ने को विवश कर दिया।
कई घटनाएं एक साथ घटीं। सोवियत संघ का विघटन हुआ। ब्रिटेन और अमेरिका की कुटिल चालों के चलते पाकिस्तान को अत्याधुनिक हथियार मिले, जो उसने पहले पंजाब और बाद में कश्मीर में खून-खराबा करने वाले आतंकवादियों को दिए। कश्मीर में एक बार अस्थिरता का दौर शुरू हुआ तो भ्रष्टाचार, अकुशल प्रशासन और हालात से गलत तरीके से निपटने के तौर-तरीकों ने समस्या को और भी उलझा दिया। केन्द्र द्वारा वहां किए गए नित नए प्रयोगों ने हालात और जटिल कर दिए। वास्तविकता तो यह है कि भारत सरकार गफलत में रही और हालातों को उसने हाथों से फिसलने दिया। जमीनी हालात को समझकर आगे बढ़ने के बजाय केवल शक्ति के प्रयोग से समस्या का समाधान निकालने की कोशिशें की जाती रहीं। अलगाववादी हमेशा से ही भीड़ के सहारे हिंसा कराकर सुरक्षाबलों पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप चस्पा करके शासन-प्रशासन को रक्षात्मक मुद्रा में लाने का नापाक खेल खेलते रहे हैं।
1996 से 2000 के बीच का एक दौर ऐसा आया था, जब अलगाववादी अलग-थलग पड़ते दिखने लगे थे। उसके अलावा बीच में विधान सभा चुनावों के बाद कम से कम दो मौके और आए जब संवाद के जरिए मसले को हल करने की दिशा में तेजी से बढ़ा जा सकता था, लेकिन वे गंवा दिए गए। वास्तविकता तो यह है कि आम कश्मीरी अब भी अमन और विकास चाहता है। एक बड़ा तबका भारत के साथ जुड़े रहने के पक्ष में है लेकिन पाकिस्तान की कुटिल चालों, आतंकवादी हिंसा, अलगाववादियों की पाक परस्त राजनीति, राज्य के अकुशल नेतृत्व और केन्द्र की ढुलमुल व दिशाहीन नीति ने हालातों को बेहद पेचीदा कर दिया है। कभी धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर नर्क बन चुका है। आम कश्मीरियों को हिंसा, क्रकूरता, नफरत और आक्रमण का शिकार होना पड़ा है। धार्मिक सहिष्णुता को आघात लगा है और कश्मीरी पंडितों व सिखों के पलायन के चलते राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बट्टा लगा है। सह अस्तित्व की भावना भी खत्म हुई है। क्या यह सच नहीं है कि भारत सरकार पाकिस्तान के इस दुष्प्रचार की हवा निकालने में विफल साबित हुई है कि घाटी में इस्लाम खतरे में है? सही तो यह है कि कश्मीर में इस्लाम कभी खतरे में नहीं रहा बल्कि वह और फूला फला। वहां के आम आदमी भी यह स्वीकार करते हैं।
न्याय, समानता, बोलने की आजादी, सहिष्णुता, जीवन और आस्था का अधिकार मानवता के आधारभूत सिद्धांत हैं। अफसोस की बात है कि जेहाद के नाम पर आतंकवादी संगठनों ने इन्हें नष्ट करने के लिए निरंतर प्रयास किए हैं और इस मोर्चे पर हमारी सरकारें कुछ नहीं कर पाईं। घाटी में हालात कैसे सामान्य हो सकते हैं, इसे लेकर कश्मीर और भारत-पाक समस्या की समझ रखने वालों की राय अलग-अलग है। अब तक भारत सरकार, पाकिस्तान और आतंकवादी जमातों की समझ में यह बात आ जानी चाहिए थी कि किसी भी समस्या का समाधान गोली से नहीं हो सकता। हल अगर निकलना है तो बातचीत से ही निकलेगा। संसद में गृहमंत्री ने सही ही कहा है कि अमन बहाली के लिए सरकार को कश्मीरियों का दिल जीतना होगा। लेकिन केवल बयान देने से बात नहीं बनेगी। इस दिशा में तेजी से प्रयास भी करने होंगे।
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