Tuesday, August 26, 2008

वो लड़की

मैंने ट्रिब्यून चौक से दिल्ली की बस पकड़ी। बस में कुछ सीटें खली पड़ी थी। चंडीगढ़ से चलने वाली बसें ट्रिब्यून चौक तक आमतौर पर खाली सी ही आती हैं। यहाँ से वे अक्सर भरकर चलती हैं। आज गर्मी कुछ ज्यादा ही है, इसलिए लोग घर से कम ही निकले। मै मन ही मन बुदबुदाया।

बस स्पीड पकड़ चुकी थी। थोडी सी देर के लिए मै चंडीगढ़ की इस छोटी यात्रा की स्मरतियों मै खो गया। कई पुराने दोस्तों से मुलाकात हुई इस दौरे मै। चंडीगढ़ से एक खास नाता सा बन गया है। ये बेहद खुबसूरत शहर किसी को भी अपनी तरफ़ आकर्षित कर लेता है।

करीब चालीस मिनट बाद बस अम्बाला मे थी। बस अड्डे पर काफी लोग बस कर्ण इंतजार करते दिखे। बस रुकी नही कि यात्री धक्कमपेल करते हुए बस मे दाखिल होने लगे। देखते ही देखते बस फुल हो गई। मे चंडीगढ़ से ही खिड़की के पास बैठा था। गर्मी और बस के भीतर की घुटन से बचने का मुझे ये ही रास्ता सूझा था।

बस यहाँ कुछ ही देर रूकती है। ज्यादातर यात्री सीटों पर बैठ चुके थे। कुछ सीटें तलाश रहे थे। उनमे एक युवती भी थी। ये ही कोई बीस बरस की रही होगी। टॉप जींस मे थी वह। मेरे बराबर वाली एक सीट खाली पड़ी थी। वह उसी पर बैठ गई। बस कुछ ही दूर चली थी, वह मेरे कण मे बुदबुदाई, क्या आप इधर की सीट पर बैठ सकते हैं ?

मैंने सवालिया निगाहों से उसकी तरफ़ देखा। पूछ ही लिया, क्या प्रोब्लम है ? मे ठीक जगह बैठा हूँ। यही ठीक हूँ। इस पर उस लड़की ने ऐसा चेहरा बनाया, जैसे अभी उलटी कर देगी। उसने कहा, मुझे बस मे सफर करते वक्त उल्टियाँ लग जाती हैं। आपको परेशानी न हो, इसीलिए कह रही हूँ। मुझे लगा, ये सही ही कह रही है। मैंने सीट बदल ली। खिड़की के पास बैठे हुए अभी उसे दस मिनट भी नही हुए होंगे, मोबाइल पर उसने खिलखिलाते हुए किसी से बात शुरू कर दी। अब उसकी बातचीत या हव भावः से बिल्कुल नही लग रहा था, उसे उलटी लगने कर्ण कोई अंदेशा था। मुझे समझने मे देर नही लगी की एस लड़की ने मुझे मामू बना दिया है।

मे दिल्ली तक कुढ़ता रहा, वह कभी अपनी बॉय फ्रेंड से, कभी अपनी सहेली से तो कभी किसी क्लास फेलो से खिलखिला कर बातें करती रही जबकि मे अपने भोलेपन पर ख़ुद को धिक्कारता रहा। ताज्जुब की बात ये भी थी की एक पल के लिए भी उस लड़की ने ये सोचना गवारा नही किया की उसके एस तरह के व्यवहार से उसकी पोल पट्टी खुल गई है। शायद इसलिए उसने इसकी परवाह नही की, क्योंकि वो आज की लड़की है। हमारे दौर की नही। मे आज भी उस घटना को स्मरण करता हूँ तो ख़ुद पर हंस देता हूँ।


-ओमकार चौधरी

omkarchaudhary@gmail.com



2 comments:

Anonymous said...

Achchha likha hai papa, badhiya anubhav tha

डॉ. हरिओम पंवार - वीर रस के कवि said...

ji han aise log bhi isi duniya me mojood hain jinhe bas apna svarth hi sadhna hota hai yen ken prkaren.