Wednesday, September 17, 2008

तेरे मेरे बीच की दीवार


कई दिन की बारिश में
दरकी हैं कई दीवारें
गिर गए कुछ कच्चे घर
रपटे हैं कई राहगीर

मिट्टी की सौंधी खुशबू ने
महकाया है तन मन
निकल आए हैं मेढक
नए नए गीत लेकर

एक मुद्दत बाद मिले हैं वे
हिल-मिलकर खिले हैं वे
बिछुडे हुओं के दिन फ़िर गए
बिछुडे हुए फ़िर मिल गए

बरसीं हैं मेरी भी आँखें
एक नहीं कई कई बार
फ़िर क्यों नहीं गिरती
तेरे मेरे बीच की दीवार

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

4 comments:

manvinder bhimber said...

omkaar ji aapki kavita mai man ke kai shades hai.....
maosam.....mandak ki tarr tarr....
do dilon ke beech ki deewaar ....
jaari rakhain

Anonymous said...

ओए लजाद्दर साब। बोत अच्चा लगा आप को देख के थोड़ा स्लिमायमान होग्गे। हरीश और सास्वत जी ने मिलाया था आपसे चंडीगड़ में। उस बखत आप एड्डि
टर ठहरे।

Sanjeet Tripathi said...

सवाल ये पुराना है
पर प्रासंगिकता सार्वकालिक है
लाख टके का सवाल है
जिसका जवाब ही नही मिलता कहीं-कभी।

Anonymous said...

भाई दीवार बनती बहुत मुश्किल से है और आप हैं क‍ि गिराने की बात कर रहे हैं। वैसे भी आप जिस दीवार की बात कर रहें हैं वह बहुत मुश्किल से बनती है।