Tuesday, December 23, 2008

युद्ध के मुहाने पर भारत-पाक

चाहे-अनचाहे हालात 2001 जैसे पैदा हो गए हैं। तब संसद पर हमले के बाद पाकिस्तान पर निर्णायक दबाव बनाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को सेनाएं सरहद पर तैनात करने का निर्णय लेना पड़ा था। मुंबई पर अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद सीमा पर सेना भेजने के अलावा मनमोहन सिंह सरकार वे सभी कदम उठा चुकी है, जो युद्ध से पहले जरूरी समङो जाते हैं। तीनों सेना हाई अलर्ट पर हैं। समुद्री किनारों की चौकसी बढ़ा दी गई है। नौसेना ने कई उपाय किए हैं, जिनमें जंगी बेड़ों की तैनाती से लेकर हवाई निगरानी तक शामिल है। वायु सेना ने देश के अन्य हिस्सों के साथ-साथ राजधानी दिल्ली को हवाई हमलों से महफूज करने के लिए आस-पास के वायुसेना हवाई अड्डों पर मिग और दूसरे जंगी हवाई जहाजों को हाई अलर्ट पर रहने के निर्देश जारी किए हैं। थल सेना ने किसी भी स्थिति के लिए कमर कस ली है।
विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी साफ कर चुके हैं कि यदि पाकिस्तान आतंकी शिविरों को ध्वस्त कर दोषियों को नहीं सौंपता है तो भारत के सैन्य कार्रवाई समेत तमाम विकल्प खुले हैं। संसद पर हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान से अपने सभी तरह के संबंध विच्छेद कर लिये थे। जो सख्त कदम उस समय उठाए गए थे, उनमें ट्रेन, बस और हवाई सेवा बंद करने के साथ-साथ उच्चायोगों में राजनयिकों की बड़े पैमाने पर कटौती भी शामिल थी। करीब दो साल तक भारत ने किसी भी पाकिस्तानी विमान को अपनी वायुसीमा में उड़ान भरने की इजाजत नहीं दी। तब मजबूर होकर पाकिस्तान को लश्कर पर पाबंदी लगानी पड़ी थी लेकिन यह कदम भी धोखा ही साबित हुआ, क्योंकि लश्कर और जैश ने नाम बदलकर आतंकवादियों के ट्रेनिंग कैंप जारी रखे। नतीजतन संसद पर हमले के बाद भी आतंकी हमले नहीं रुके।
यह तथ्य अब किसी से छिपा नहीं है कि पाकिस्तान अलकायदा, तालिबान, जैश, लश्कर जैसे संगठनों का अड्डा बन चुका है। वहां आतंकवाद की नर्सरी ही नहीं तैयार हो रही, खून की होली खेलने वाला पूरा साजो-सामान भी तैयार किया जा रहा है। षड्यंत्र रचे जा रहे हैं। हाल ही में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने इस्लामाबाद दौरे के समय खरी-खरी सुनाते हुए यहां तक दावा किया कि दुनिया भर में हो रहे आतंकवादी हमलों में से पचहत्तर प्रतिशत के तार किसी न किसी रूप में पाकिस्तान से जुड़े हैं। भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से इसीलिए आईएसआई चीफ को भारत भेजने को कहा था ताकि उन्हें आईना दिखाया जा सके। पकड़े गए आतंकवादी कसाब ने जो खुलासे किए हैं, उनसे साफ होता है कि भारत में तबाही की लगभग हर वारदात के पीछे आईएसआई का हाथ है।
भारत मुंबई हमले के बाद खामोश होकर बैठना नहीं चाहता। वह निर्णायक कार्रवाई चाहता है। इसके लिए वह हर संभव उपाय करने में जुटा है। भारतीय नेतृत्व ने अमेरिकी खुफिया एजेंसी को मुंबई आने और पकड़े गए आतंकवादी से पूछताछ करने की छूट देकर कूटनीतिक समझदारी का परिचय दिया है। इस हमले में जो बाईस विदेशी मारे गए, उनमें से छह अमेरिकी थे। यह आश्चर्य की बात है कि पूरा विश्व मान रहा है कि मुंबई के हमलावर पाकिस्तानी थे। वहां का मीडिया सबूतों और तथ्यों के साथ साबित कर चुका है कि हमलावर किन-किन जगहों से थे, इसके बावजूद यदि राष्ट्रपति जरदारी, प्रधानमंत्री गिलानी और विदेशमंत्री कुरैशी भारत से पुख्ता सबूतों की मांग कर रहे हैं तो साफ है कि वे पाकिस्तान की जमीन से आतंकवाद को उखाड़ फैंकने के कतई मूड़ में नहीं हैं। आश्चर्य की बात तो यही है कि जिसने बेनजीर भुट्टो तक की जान ले ली, आसिफ अली जरदारी सत्ता में आने के बाद अब उन्हीं आतंकवादी संगठनों पर परदा डालने की कौशिश करते नज़र आ रहे हैं। पाकिस्तान के अंदरूनी हालातों से भारत परिचित है लेकिन इस बार वह पाकिस्तानी हकूमत को सस्ते में छोडने के पक्ष में नहीं है। यही कारण है कि जहां तीनों सेनाओं को हाई अलर्ट पर रखा गया है, वहीं संयुक्त राष्ट्र, सुरक्षा परिषद में भी तथ्य रखे जा रहे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देश इस लड़ाई में खुलकर भारत के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं लेकिन अमेरिका का बुश प्रशासन चाहता है कि भारत सैन्य कार्रवाई जैसा कडा कदम न उठाए. हालांकि बीस जनवरी से अमेरिकी सत्ता संभालने वाले बराक ओबामा ने कहा है कि अपनी प्रभुसत्ता अक्षुण्ण रखने के लिए भारत को यह अधिकार है। भारत युद्ध अथवा सैन्य कार्रवाई नहीं चाहता, लेकिन किसी मुल्क को अपने नागरिकों के खून से होली खेलने की इजाजत भी नहीं दे सकता. मुंबई हमले के बाद से भारत के नागरिकों में गहरा रोष देखने को मिल रहा है. सरकार पर गहरा दबाव है. लोगों की जान माल की सुरक्षा के लिए वह इस बार निर्णायक कार्रवाई के मूड में है. वैसे भी लोकसभा चुनाव में अब ज्यादा समय नहीं है. यू पी ऐ सरकार उस से पहले पाकिस्तान के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करके अपने पक्ष में वातावरण बनाना चाहती है.जिस तरह का दबाव सरकार पर है, उसे देखते हुए भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान निर्णायक कार्रवाई का मन बना चुका है। एक सौ बीस देशों में तैनात अपने राजदूतों और उच्चायुक्तों को दिल्ली बुलाकर मौजूदा हालातों के बारे में फीड किया गया है ताकि वे उन देशों के राष्ट्र प्रमुखों को उससे अवगत कराकर उन्हें भारत के पक्ष में कर सकें। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने रक्षा मंत्रालय के वार रूम में बैठक कर साफ संकेत दे दिए हैं कि यदि पाक ने सहयोग नहीं किया तो भारत के सैन्य कार्रवाई समेत समस्त विकल्प खुले हुए हैं। इस बैठक में तीनों सेनाध्यक्षों के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, रक्षा, विदेश और गृह मंत्री भी मौजूद थे। साफ है, पाकिस्तान का यही रुख रहा तो उस पर कड़ी कार्रवाई तय है।

Wednesday, December 17, 2008

डर्टी, डेनजर्स और डिफिकल्ट जॉब

मुंबई हमले के बाद से एक बार फ़िर देश में बढ़ते आतंकवाद पर बहस छिडी है. मैंने सेना में उच्च पदों पर रहे लेफ्टिनेंट जनरल ओ पी कौशिक से इसके विभिन्न पहलुओं पर लम्बी बातचीत की. इसे हाल ही में हरिभूमि में प्रकाशित किया गया. सेना पर किस तरह के दबाव हैं. सेना के जवानों को किस तरह मानवाधिकारों के झूठे केसों का सामना करना पड़ रहा है, इस पर वे खुलकर बोले. उनसे इस मुद्दे पर हुई बातचीत की अन्तिम कड़ी यहाँ दी जा रही है. -ओमकार चौधरी.

लेफ्टिनेंट जनरल ओ पी कौशिक (रिटायर्ड)
मानवाधिकारवादी आतंक से निपटने में एक बड़ी बाधा हैं। मिस्टर जएनके चीफ जस्टिस थे ब्रिटेन के। उनसे यह सवाल पूछा गया था कि आप ऐसी स्थिति में नेशनल सिक्युरिटी और ह्ययुमन राइटस में से किसे प्राथमिकता देंगे? उनका कहना था कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सब मानवाधिकारों की अनदेखी की जा सकती है। इराक में अमेरिकी सैनिक लड़ रहे हैं। उनसे पूछा गया

कि आप किस कानून के तहत मानवाधिकारों का हनन कर रहे हैं? उन्होंने जवाब दिया कि हम युद्ध लड़ रहे हैं। चूंकि यह एक युद्ध क्षेत्र है, इसलिए यहां किसी प्रकार का कोई कानून मान्य नहीं है। इसके ठीक उलट अगर हम कशमीर में लड़ते हैं, तब मानवाधिकार वाले हल्ला करते हुए आ जाते हैं। बड़ा जबरदस्त किस्म का दवाब बनाते हैं।
मैं कश्मीर वैली में जीओसी था। कुपवाड़ा में एक गांव है कुनालपोसपोरा। हमें सूचना मिली कि वहां आंतकवादी आ गए हैं। हमने वहां पर एक कालम भेजा, एक सूबेदार और 29 जवान। कुल तीस सैनिक। सेना ने चारों उग्रवादी पकड़ लिये। एकदम से हमारे कालम के खिलाफ शिकायत हुई कि इन्होंने तो 70 औरतों का बलात्कार कर दिया है। यानि तीस आदमियों ने एक रात में 70 औरतों का बलात्कार कर दिया। बड़ा भारी केस हो गया। केन्द्र सरकार में भी प्रतिक्रिया हुई। एक प्रेस कमेटी बनायी गयी, जिसका अध्यक्ष पी.जी. वर्गीज को बनाया गया। मैं भी उनके साथ गया। हम गांव में गए। वहां एक बुढ़िया औरत मिली। होगी 70 साल की। मैंने उससे पूछा कि अम्मा क्या हो गया? वो कहती है कि रेप हो गया। मैंने पूछा कि रेप क्या होता है? वो बोली कि हमे नहीं मालूम रेप क्या होता है, लेकिन रेप हो गया। मैंने कहा कि मिस्टर वर्गीज सुन रहे हो?
हमने सारा गांव इकट्ठा किया। उस गांव में जवान औरतों की संख्या पच्चीस भी नहीं थी। उन औरतों से जब पूछा कि तुम्हारे साथ कुछ बदमाशी हुई? उन्होंने कहा कि नहीं हुई। कुछ नहीं हुआ लेकिन रिपोर्ट गई कि तीस लोगों ने 70 महिलाओं का बलात्कार कर दिया। अब बताइए, इसका कितना गलत प्रभाव पड़ेगा? मेरी ही रेजीमैंट (राजपुताना राइफल) के एक सूबेदार ने एनकाउंटर में एक आतंकवादी को मार गिराया। उस पर आरोप लगा कि उसने तो गलत आदमी को मार दिया। मानवाधिकार आयोग वालों ने स्टैंड ले लिया। उन्होंने सूबेदार पर कोर्ट केस करा दिया। सूबेदार को बरी होने में पांच साल लगे। कौन रिस्क लेगा ऐसे में? सेना को कोई सपोर्ट करने को तैयार नहीं है।
मैं आपको नागालैंड की बात बताता हूँ। वहां मैं चीफ आफ आर्मी स्टाफ था ईस्टन आर्मी का। हमारी राष्ट्रीय राइफल निकल रही थी। उनके ऊपर आंतकवादियों का फायर आया। सेना ने जवाब में फायर किया। छह-सात उग्रवादी मारे गए। आरोप लगा कि इन्होंने तो सामान्य नागरिकों को मार दिया। प्रेस में आ गया कि आर्मी ने सिविल एरिया में फायरिंग कर दी है। संसद में भी सवाल आ गया। उन दिनों मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष होते थे रंगनाथ मिश्र । इंकवायरी के लिए वे आ गए। मैं भी कोलकाता से कोहिमा पहुंच गया। अगले दिन हम राजभवन से घटनास्थल के लिए रवाना हुए। रास्ते में हमारे ऊपर फायर आ गया। हमारे साथ चल रहे ब्रिगेडियर ने बताया कि उग्रवादियों ने फायर किया है। आप उतरकर हिल के पास प्रोटेक्शन ले लीजिए। हमें इन्हें क्लीयर करने में बीस-पच्चीस मिनट लगेंगे। फिर चलेंगे। पच्चीस मिनट बाद ब्रिगेडियर आए कि साहब क्लीयर हो गया है, अब चल सकते हैं। रंगनाथ मिश्र बोले कि नहीं, वापस चलते हैं। हमने कहा कि डरने की कोई बात नहीं है, सब कुछ ठीक है। मैंने उनसे कहा कि आप दिल्ली से आए हैं। मैं कोलकाता से आया हूं तो आपको चलना चाहिए। फिर मैंने उन्हें बताया कि इससे एक सप्ताह पहले हमले में हमारे 26 जवान मारे गए थे, उसका इन्वेस्टीगेशन करने आप नहीं आए। मिस्टर मिश्र ने कहा कि मिस्टर कौशिक क्या मेरे कार्यकाल में आर्मी के खिलाफ एक भी मामला दर्ज हुआ? मैंने कहा कि मेरा वो मतलब नहीं है, लेकिन आप क्यों आए यहां पर? मैने उनसे कहा कि मैं इसे थ्री डी एनवायरमेंट बोलता हूं। डर्टी, डेनजर्स और डिफिकल्ट। इट इज ए डर्टी जाब। इट इज ए डेनजर्स जाब एंड वरी डिफिकल्ट जाब। मैं क्यों फंसू इस काम में। हम राजभवन पहुंच गए। मेरी और उनकी इस पर बहस हुई। ( समाप्त )

Tuesday, December 16, 2008

दिखानी होगी कठोर इच्छाशक्ति

मुंबई पर हमले के बाद से एक बार फ़िर इस पर चर्चा तेज हो गई है कि सरकार आतंकवाद रोकने में नाकाम क्यों साबित हो रही है. भारतीय सेना में महत्वपूर्ण पदों पर रहे लेफ्टिनेंट जनरल ओ पी कौशिक से हाल में मैंने आतंकवाद के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की. उनकी मानें तो न देश के राजनेता इस पर गंभीर हैं, न न्याय व्यवस्था, न नौकर शाही और न ही पुलिस. उन्होंने जो कुछ कहा, उसे यहाँ लेखों के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ. - ओमकार चौधरी

लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) ओ पी कौशिक
देश पर अब तक जितने भी आतंकवादी हमले हुए, वे बहुत नियोजित और दुखद रहे हैं। हर राज्य की राजधानी को वे निशाना बना रहे हैं। संसद पर हमला हो चुका है। मुंबई पर कई हमले हो चुके हैं। हर हमले में पचास से ज्यादा मृत्यु हो जाती हैं। लगता है, आतंकवादियों के दिल में में कोई डर नहीं है। उनको ये भरोसा हो गया है कि भारत में कोई भी घटना कर दो, सजा नहीं मिलेगी। सजा मिलेगी भी तो पंद्रह-बीस साल बाद। राजनीतिक दबाव आ जाएगा, हम छूट जाएंगे। आतंकी के दिल

में अगर ये डर बैठ जाए कि वह मारा जाएगा तो वारदात नहीं करेगा। आतंकियों में भी फर्क है। उत्तर पूर्व का आतंकी मरने में गर्व समझता है। वह नजदीक आकर वार करता है। कश्मीर और पाकिस्तान के आतंकी मरने से डरते हैं। दूर से आक्रमण करने की कोशिश करते हैं। दुर्भाग्य से हमारे देश की नीतियां ऐसी हैं कि आतंकियों के मन में कोई डर नहीं रह गया है। जब तक उग्रवादी के मन में यह डर नहीं बैठेगा कि वह मारा जा सकता है, तब तक घटनाएं होती रहेंगी।
जितने भी बड़े लोकतांत्रिक देश हैं, सबने कड़े कानून बना लिये हैं। कोई भी आतंकी उन देशों में वारदात करेगा तो उसे सख्त सजा मिलेगी। अमेरिका में आतंकी के लिए मृत्युदंड का प्रावधान है। कनाडा, जर्मनी, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया में भी मृत्युदंड की व्यवस्था है। इन्हीं की देखादेखी भारत में पोटा कानून बनाया गया था। उसमें अमेरिकन कानून का करीब अस्सी प्रतिशत ज्यों का त्यों लिया गया था। जब पोटा बना, तब मुङो भी गृह मंत्रालय बुलाया गया था। मैंने भी सलाह दी। उस कानून में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था लेकिन किसी कारण से वर्तमान सरकार ने उसे रद्द कर दिया। परेशानी यह है कि उसके बदले कोई नया कानून बनाया ही नहीं गया।
इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि हमारे देश में आतंकवादी वारदातें क्यों हो रही हैं और रुक क्यों नहीं रही हैं? पहली बात, सरकार के स्तर पर ढील है। कोई भी नीति तय नहीं है कि सरकार सुरक्षा बल से क्या चाहती है? स्पष्ट निर्देश नहीं देंगे तो कैसे काम चलेगा। या तो सरकार निर्देश दे कि आप आतंकवाद को जड़ से उखाड़ो। सेना अपने ढंग से काम करेगी। या आप कहिए कि इस तरह की कार्रवाई करो कि नए उग्रवादी पैदा नहीं होने पाएं। उसके लिए अलग तरह से कार्रवाई की जाएगी। सरकार यदि कहे कि सरहद पार करके कोई उग्रवादी इस तरफ नहीं आने पाए, तो सेना का काम करने का ढंग अलग तरह से होगा। सरकार कोई नीति बनाने को तैयार ही नहीं। कोई निर्देश देने को तैयार नहीं है।

क्या करे सरकार ?
सरकार की ओर से पहल की जानी चाहिए। सारी राजनीतिक पार्टियां मिलकर एक नीति निर्धारित करें और उस समय सत्ता में जो भी सरकार हो, उस नीति का पालन करे। बताएं कि ये हमारी काउंटर टेरेरिस्ट पॉलिसी है। जैसे अमेरिका और इग्लैंड में हो रहा है। इंग्लैंड में चाहे लेबर पार्टी सत्ता में हो या कंजरेटिव पार्टी, उन्होंने इससे संबंधित नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया। अमेरिका में भी ड्मोक्रेट्स हों अथवा रिपब्लिकन वे आतंक के खिलाफ तय नीति में बदलाव नहीं करते। दूसरी बात, अगर देश में पोटा लागू नहीं किया जाता तो उसी के बराबर का एक सख्त कानून बनना चाहिए, जिसमें उग्रवाद के खिलाफ मृत्युदंड का प्रावधान जसी सजाएं रखी जाएं। ऐसा होने पर उनमें डर फैलेगा। तीसरी बात, आतंकवाद में मदद करने वाले स्थानीय लोगों की पहचान करके उन्हें सख्त सजा दी जानी चाहिए। यह तय मानिए कि स्थानीय मदद होती ही है। ऐसा नहीं हो सकता कि कोई कराची से चले। सीधे होटल पहुंचे। आक्रमण कर दे। स्टेशन पर जाए। लोगों पर हमला कर दे। बिना स्थानीय मदद के यह संभव ही नहीं है।

मीडिया अपनी जिम्मेदारी समङो
मीडिया को बहुत सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। आंतकवादी चाहता है कि उसका नाम फैले। उसका प्रचार हो। मीडिया इस खतरे को समझ नहीं रहा है। कमी सरकारी एजेंसियों की भी है। मीडिया से सही बात शेयर ही नहीं की जाती। आतंकवादी जो कहानी देते हैं, मीडिया में चल जाती है। इसलिए आतंकवाद को रोकने में मीडिया की भूमिका भी तय करनी होगी, जिसे हम मीडिया पोलिसी के रूप में भी मान सकते हैं। इसी के अभाव में मीडिया में खबरों को गलत ढंग से दिखाया जाता है।
कई लोग ऐसे हैं जो कभी कहीं जाते ही नहीं और वहां की खबरों को बढ़ा-चढ़ा पेश करते रहते हैं। इसमें सरकार की ओर से मीडिया के साथ सूचना का ठीक प्रकार से आदान-प्रदान करना जरूरी होगा।
दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक सेमिनार हुआ जिसका विषय था टेरेरिज्म, ह्युमन राइटस एण्ड नेशनल सिक्योरिटी। यहां पर एक अंग्रेजी अखबार के चीफ एडिटर सेमिनार शुरू होने से पहले कुछ लोगों के साथ बैठे बढ़-चढ़कर बातें कर रहे थे कि वहां के लोग हमारे देशवासियों जसे नहीं हैं। कह रहे थे कि कशमीर पर हमारा कोई हक नहीं है। हमें उसे छोड़ देना चाहिए। वहां पर हमारे कोई कानून नहीं माने जाते। मैं दूर से ही उनकी बात सुन रहा था। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उनसे पूछा कि आप पिछले 15 सालों में कभी कशमीर गए हैं? उन्होंने कहा कि नहीं, मैं कभी नहीं गया। उन्होंने मुझसे पूछा कि आप कौन है? ये बताने से पहले कि मैं कौन हूं, मैंने उनसे कहा कि आप एक जिम्मेदार व्यक्ति हैं और आपको ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए। आप पंद्रह साल से वहां गए ही नहीं और एक एक्सपर्ट की तरह बात कर रहे हैं। फिर मैंने उन्हें बताया कि मेरा नाम लेफिटनेंट जनरल कौशिक है। मैं कशमीर का जीओसी रह चुका हूं। मैंने 18 साल उग्रवादियों को झेला है। आईजी आपरेशन रह चुका हूं। ब्लैक कैट कमांडो का मैं फाउंडर आईजी आफिसर रहा हूं। मैं ईस्टन आर्मी के सातों राज्यों का चीफ रहा हूं। मैंने कहा कि जिम्मेदार पद पर रहते हुए आप बिल्कुल गलत तरीके से बात कर रहे हैं। मेरा मानना है कि मीडिया को भी इस मामले में अपना दायित्व निभाने की जरूरत है।
जब भी इस तरह के हमले होते हैं, उस समय टेलीविजन पर लाइव टेलीकास्ट नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से सारी प्लानिंग की जानकारी उग्रवादियों को मिल जाती है। आंतकवादी को टेरराइज करने की जरूरत है। ये तभी संभव है, जब वह पूरी तरह अंधकार में हो कि मेरा क्या होगा? यहां तो उल्टा हो रहा है। उसे हर मिनट की जानकारी मिल रही है कि अब कमांडो उतर गया। अब उस फ्लोर पर पहुंच गया है। जाहिर है, ऐसे में वह सतर्क हो जाएगा और नुकसान उसे होने के बजाय सेना या सुरक्षाबल के जवानों को होगा।
यही समस्या ब्रिटिश आर्मी के साथ हुई थी, जब ब्रिटिश आर्मी ने अर्जेटीना पर अटैक किया था। अर्जेटीना ब्रिटेन से 22 सौ मील दूर था। फोकलैंड आइलैंड पर अर्जेटीना ने कब्जा कर लिया था। मैं उन दिनों हाईकमिश्नरी में असिस्टैंट मिलेट्री एडवाइजर था लंदन में। लाइव टेलीकास्ट आ रहा था कि अभी हमारे पैराटूपर यहां पहुंच गए हैं। यहां कमांडो उतर गए हैं। यहां गन उतर गई हैं। वे सब खबरें अर्जेटीना को मिल रही थी। उनके पास कोई भी इंटेलीजंस एजेंसी नहीं थी। सेटेलाइट उनके पास नहीं थे। उन्हें सारी सूचनाएं ब्रिटिश मीडिया से मिल रही थीं। एक दम सरकार ने मीडिया को ब्लैक आउट कर दिया। इससे अर्जेटीना को सूचनाएं मिलनी बंद हो गई। सेना को पता ही नहीं चल रहा था कि हो क्या रहा है। दस दिन के भीतर अर्जेटीना की सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। मुम्बई में हुए हमलों में जो मीडिया प्रोजेक्चशन हुआ है, वो सुरक्षा के लिहाज से बिलकुल गलत है।
इसलिए देश के मौजूदा हालात को देखते हुए जरूरी है की मीडिया पॉलिसी बने.

Saturday, December 13, 2008

क्या ऐसे ही रुकेगा आतंकवाद ?

मुंबई पर हमले के बाद से एक बार फ़िर इस पर चर्चा तेज हो गई है कि सरकार आतंकवाद रोकने में नाकाम क्यों साबित हो रही है. भारतीय सेना में महत्वपूर्ण पदों पर रहे लेफ्टिनेंट जनरल ओ पी कौशिक से हाल में मैंने आतंकवाद के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की. उनकी मानें तो न देश के राजनेता इस पर गंभीर हैं, न न्याय व्यवस्था, न नौकर शाही और न ही पुलिस. उन्होंने जो कुछ कहा, उसे यहाँ लेखों के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ. - ओमकार चौधरी


लेफ्टि. जन. ओ. पी. कौशिक (रि.)
वर्ष 1954 में चीन की मदद से मलाया-पेन्नसुला में आंतकवाद शुरू हुआ। ब्रिटिश सरकार ने जनरल टेंपलर को मलाया का सिविल और मिल्रिटी प्रमुख बनाकर भेजा और सीधे शब्दों में कहा कि यू विल फिनिश टेरेरिजम फ्राम मलाया-पेन्नसुला एट आल कास्ट। जनरल टेंपलर ने मलाया से आंतकवाद को बिल्कुल खत्म कर दिया और आज वो एक विकसित और प्रगतिशील देश है। हमारे यहां सेना को कोई डायरेक्शन ही नहीं है।

कश्मीर में उग्रवाद शुरू हुआ था, नौ दिसम्बर 1989 में, जब रूबैया सईद पकड़ी गई थी। मुफ्ती सईद की बेटी। मैं उन दिनों आईजी आपरेशन था ब्लैक कैट कमांडो का। जैसे ही रूबैया के अपहरण की सूचना मिली, वैसे ही हम हवाई जहाज से श्रीनगर पहुंच गए। दो घंटे के भीतर पता लगा लिया कि उन्होंने रूबैया को कहां रखा है। उस स्थान को घेरकर मैं तुरंत फ्लाइट से दिल्ली आया। यहां हमारी क्रोइसिस मैनेजमेंट कमेटी की मीटिंग थी। मैंने सबको ब्रीफ किया। उनमें टीएन सेशन भी थे जो कि उन दिनों कैबिनेट सेकेट्री होते थे। उन्होंने होम मिनिस्टर मुफ्ती मोहम्मद सईद को बुला लिया। उन्होंने पूछा कि जनरल कौशिक कौन है? मैंने कहा, मैं हूँ। उन्होंने कहा कि जनरल कौशिक आप एकदम बाहर जाइए और अपने कमांडोज को उस बंगले से हटने का निर्देश दे दें। मैंने उनसे कहा कि एक मिनट मेरी बात तो सुन लीजिए। कहने लगे कि नहीं.नहीं.आप तुरंत जाइए ओर रेडियो पर मैसेज दें कि कमांडो वहां से हट जाएं। मैंने उनसे कहा कि मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि रूबैया को कुछ नहीं होगा। मैं तो आपसे निर्देश चाहता हूं। पांच मिनट में हम रूबैया को उनसे छुड़वा लेंगे। कहने लगे कि नहीं.नहीं.मैं आपसे ज्यादा बात नहीं करूंगा। आप कमांडो को वहां से हटा लीजिए। हम बाहर गए। कमांडो को हटने के लिए कह दिया। आतंकवादियों ने रूबैया को छोड़ दिया। बदले में छह आतंकवादियों को छुड़वा लिया। वो छह लोग ही आज छह आंतकवादी संगठनों के मुखिया बन गए हैं।
19 साल हो गए उस घटना को। हजारों उग्रवादी सुरक्षाबलों ने पकड़ रखे हैं। जेलें भरी हुई हैं। एक भी उग्रवादी के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज नहीं है। आखिर क्यों? मिल्रिटी वालों के खिलाफ झूठी शिकायतें हो रही हैं। 453 केस कोर्ट में रजिस्टर्ड हैं मानवाधिकार उल्लंघन के। ऐसे में क्या करेगी मिलेट्री? लगभग 1300 लोगों को सजा दी जा चुकी है। इससे क्या संदेश जाएगा। आज कशमीर में इतनी खराब हालत है कि यदि कोई आंतकवादी मिलिट्री वेन पर हमला करता है और उसके जवाब में कार्रवाही होती है। उसकी एके 47 रायफल बरामद करते हैं तो उस स्थिति में भी कोर्ट में केस होता है कि आर्मी ने किसी निर्दोष इंसान को मार दिया। आर्मी का अधिकारी कहता है कि मुङो गोली लगी है। मैंने एके 47 पकड़ी है। मैंने आंतकवादी को मारा है। वो कहते हैं कि गवाह पेश करो। अफसर कहता है कि मैं गवाह कहां से पेश करूं? अब जंगल में जो उग्रवादी को मार रहा है, वह गवाह कहां से आएगा ? इतना ही नहीं, आंतकवादी को बचाने के लिए गांव के ही दस लोग आगे आ जाते हैं। वो कहते हैं कि इसे तो हम जानते हैं। हमारे गांव का था। ये तो उग्रवादी नहीं था। कोर्ट केस का आर्मी पर इतना भारी दबाव है कि वह सोचता है कि उग्रवादी जा रहा है। इसे मारूं कि नहीं? कहीं कोर्ट केस न हो जाए। जाने ही दूं इसे। न तो कोर्ट एक्शन ले रही। न राजनेता एक्शन ले रहे। न नौकरशाह एक्शन ले रहे। सब मूकदर्शक बने हुए हैं।

बढ़ता राजनीतिक दबाव
आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि सेना और सुरक्षाबलों पर दबाव किस कदर बढ़ रहा है। एस.सी. जमीर नागालैंड के मुख्यमंत्री थे, जो अब महाराष्ट्र के गवर्नर हैं। हमने एक स्थान पर छापा मारा। हमारे चार सैनिक मारे गए। हमने उस कार्रवाई में भूमिगत तत्वों का एक बहुत महत्वपूर्ण आतंकवादी पकड़ लिया। उसे दीमापुर सेक्टर जेल में रख लिया। एस सी जमीर ने अपने पुलिस डीजी चमनलाल को कहा कि इसे छोड़ दो। चमनलाल बहुत अच्छा पुलिस अफसर था। वह इस समय मानवाधिकार आयोग के सदस्य हैं। उन्होंने मुङो फोन किया कि जनरल साहब मुङो आदेश मिले हैं कि इस आतंकवादी को छोड़ दो। मुङो आदेश मानने पडेंगे क्योंकि मैं इनका डीजी हूं। आप कुछ कर सकते हो तो कर लो। मैंने एकदम से एस सी जमीर को टेलीफोन किया कि इसे पकड़ने में हमारे चार आदमियों की जानें गई हैं। आपने छोड़ने के आदेश दे दिए हैं। कहने लगे कि जनरल साहब क्या फर्क पड़ता है। मेरे ऊपर एक और उग्रवादी का प्रेशर है। मैंने कहा कि इसे छोड़ दिया तो सेना के मनोबल पर बुरा असर पड़ेगा। बोले कि नहीं.नहीं छोड़ देते हैं। वे मेरी बात ही नहीं माने। मैंने उनसे कहा कि अच्छा 24 घंटे तक उसे मत छोड़िए। मेरा मकसद ये था कि दीमापुर सेक्टर जेल को हम घेर लेंगे। जैसे ही वह छोड़ा जाएगा, फिर पकड़ लेंगे और पुलिस को नहीं सौंपेंगे। या इस बीच केन्द्र सरकार से दबाव डलवा देंगे। उन्होंने मुझसे कहा कि ठीक है, 24 घंटे नहीं छोडूंगा। जैसे ही मैंने फोन रखा, उन्होंने उसी समय डीजी को फोन किया कि आप तुरंत उसे छोड़ दो। तो मैं ये जानना चाहता हूं कि क्या ये अकेले सेना की समस्या है? क्या राजनेताओं की समस्या नहीं है? उसे छोड़ दिया गया। सेना ने बहुत कड़ा स्टेप लिया। मैंने उनसे कह दिया कि मैं नागालैंड से पूरी तरह सेना वापस कर रहा हूं। मैंने सेना को बैरकों में वापस जाने को कह दिया। एस सी जमीर ने प्रधानमंत्री से बात की कि सेना ने आपरेशन बंद कर दिए हैं। आर्मी चीफ ने मुझसे पूछा कि ये क्या हुआ? मैंने उन्हें वस्तुस्थिति बताई। वे बोले कि ये तो तुमने मुङो बताया नहीं? मैंने उन्हें विस्तार से पूरी बात बता दी। वे खुद आश्चर्यचकित रह गए।

अदालतों से इंसाफ नहीं
एक और उदाहरण देना चाहूंगा। एक एम्बुश में हमारे 26 आदमी मर गए थे। हमारे काफी हथियार भी ले गए थे वो। ये वाकिया मणिपुर में हुआ था, इम्फाल में। सीतापुर से वापस आ रहे थे। हमें बताया गया कि मिलिटेंट जो हथियार ले गए हैं, उनमें से तेरह हथियार एक केबिनेट मिनिस्टर के घर में रखे हैं। हमने रात को छापा मारा और सभी हथियार बरामद कर लिये। गोवाहाटी हाईकोर्ट का एक बैंच है इम्फाल में। हाईकोर्ट में केस हो गया। सैन्य अधिकारियों से कहा गया कि तुमने कानून-व्यवस्था अपने हाथ में ले रखी है.मिनिस्टर के घर पर तुम छापा मारते हो? सैन्य अफसर ने कहा कि देखिए, ये डिस्टर्ब एरिया है और डिस्टर्ब एरिया में हमें अधिकार है कि जहां हमें शक है, वहां सर्च कर सकते हैं। अगर कहीं हथियार-गोला बारूद है, उसे नष्ट कर सकते हैं और शक होने पर बिना वारंट के किसी को गिरफ्तार कर सकते हैं। यह सब हमने आर्म फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट के तहत किया है। इस एक्ट में यह विशेषाधिकार भी है कि अगर आर्मी ने कोई गलती कर दी है तो उसके खिलाफ तब तक कोई केस दर्ज नहीं हो सकता, जब तक केन्द्र सरकार इजाजत नहीं दे दे। यह सब बताने के बावजूद जज कहता है कि नहीं, हथियार वापस करो। हमारे अफसर ने कहा कि ये हमारी प्रोपर्टी है, कैसे वापस करें? जज ने धमकाया कि हथियार वापस करो, नहीं तो आपको जेल भेजूंगा। अफसर ने कहा कि ये आटोमैटिक हथियार हैं। इन्हें कोई सिविलियन नहीं रख सकता। जज ने कहा कि मैं कुछ सुनने को ही तैयार नहीं हूं। हमारे अफसर ने कहा कि ठीक है, मैं अपने आफिसर से परमीशन ले लेता हूं। आप कल तक के लिए सुनवाई स्थगित कर दीजिए। मामला मेरे सामने आया। मैंने कह दिया कि हथियार वापस नहीं किए जाएंगे। अगले दिन मेजर ने कोर्ट में जज को साफ कह दिया कि मुङो हथियार नहीं सौंपने के निर्देश हुए हैं और यह भी कि जो भी राष्ट्र विरोधी हैं, उन्हें बख्शेंगे नहीं। जज ने कहा कि आप मुङो धमकी दे रहे हैं? मेजर ने कहा कि हम देश-द्रोहियों को नहीं छोडेंगे। जज साहब वहां से उठे और रातों-रात गोवाहाटी पहुंच गए कि आर्मी तो मुङो भी मारेगी।

हरेक जिम्मेदारी समङो
अहम सवाल यही है कि क्या न्याय प्रणाली सेना के साथ है? जम्मू-कश्मीर में कोर्ट आर्मी के लोगों के खिलाफ केस दर्ज करने के आदेश दिए जा रही है। क्या ये आर्मी को डराने की कोशिश नहीं है? कुपवाड़ा जिले की घटना है। मिस्टर जरगर वहां डीसी थे। हमारे हाथ एक दस्तावेज लगा, जिससे पता चला कि डीसी 120 आंतकवादियों को तन्ख्वाह दे रहा है। मैं जीओसी था। हमने जरगर को बुलाया। पूछा कि ये क्या बात है भई? उसने स्वीकार किया कि हां, देता हूं। हमें तो यहां रहना है। आखिर यह सब क्या हो रहा है? किसी जिले में उग्रवाद क्यों और कैसे फैलता है, इससे साफ है। तो साफ हो गया कि नौकरशाही भी सेना के साथ नहीं है। राजनेता केवल हल्ला-गुल्ला करते हैं। सेना के अधिकारी का ये ध्येय होता है कि जिस इलाके की जिम्मेदारी उसे सौंपी गई है, वह उससे आतंकवादियों को उखाड़ फैंके। इसी कारण आप सुनते हैं कि मेजर मर गया, कैप्टन मर गया, लेफ्टिनेंट कर्नल मर गया। वे अपनी कुर्बानी दे रहे हैं ताकि उस क्षेत्र में शांति बनी रहे। दूसरी तरफ जिला प्रशासन उग्रवादियों की मदद कर रहे हैं। वे क्यों नहीं ये शपथ लेते कि भले ही जान चली जाए लेकिन वे अपने जिले में उग्रवाद को नहीं पनपने देंगे। राजनेताओं को कोई मतलब नहीं। न्याय व्यवस्था को कोई मतलब नहीं। नौकरशाही को कोई मतलब नहीं। पुलिस का हाल भी देख रहे हैं। उग्रवाद की समस्या का हल कैसे निकल सकता है? हर इकाई की जिम्मेदारी है कि वह हर हाल में ईमानदारी से काम करे। हर एक की जवाबदेही तय होनी चाहिए। अगर सब इकाई अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाती हैं तो उग्रवाद नहीं रुक सकता। ( जारी है.. )

Monday, December 8, 2008

विकास और विनम्रता की जीत


लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले हुए सत्ता के इस सेमीफाइनल में कह सकते हैं कि विकास और विनम्रता की जीत हुई है। आतंकवाद और महंगाई जसे मसले उतने प्रभावशाली नहीं रहे, जिसकी उम्मीद विश्लेषक कर रहे थे। भाजपा ने आंतरिक सुरक्षा
और महंगाई को इस चुनाव में मुख्य मुद्दा बनाया था। चुनाव के ठीक बीच में मुंबई पर अब तक का सबसे बड़ा आतंकवादी हमला हुआ, जिसमें एक सौ अस्सी से अधिक जानें चली गईं। टेलीविजन चैनलों पर साठ घंटे का मुंबई से सीधा प्रसारण हआ। केन्द्र और महाराष्ट्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारों को सुरक्षा के सवाल पर कटघरे में खड़ा किया गया। हमले के

अगले दिन दिल्ली में वोट पड़े। मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी इसके बाद ही मतदान हुआ। राजनीतिक विश्लेषकों और भाजपा
के कुछ नेताओं को लगता था कि आतंकवाद इन राज्यों में बड़ा गुल खिला सकता है। मध्य प्रदेश में कह सकते हैं कि भाजपा को फायदा हुआ होगा लेकिन अगर यह सही है तो वही बात दिल्ली और राजस्थान पर लागू क्यों नहीं हुई? राजस्थान की राजधानी जयपुर और अजमेर शरीफ में भी आतंकवादी हमला हो चुका है। इसी तरह दिल्ली में भी विधानसभा चुनाव से कुछ ही समय पहले सीरियल धमाके हुए थे। विश्लेषकों को लगा कि मुंबई पर हुआ हमला इन तीन राज्यों में कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है परन्तु एेसा नहीं हुआ। इन परिणामों को देखकर कह सकते हैं कि मतदाताओं ने न कांग्रेस को इतराने का


मौका दिया है और न भाजपा को गर्व से सीना फुलाने और खुशफहमी पालने का अवसर दिया है। सही बात तो यह है कि दोनों पार्टियों को जागरूक मतदाताओं ने वोट के साथ-साथ नसीहत भी दी है कि राष्ट्रीय मसलों पर वे मिल-जुलकर काम करें। इन परिणामों से यह साफ हो गया है कि अब भावनात्मक मुद्दे आसानी से नहीं भुनाए जा सकेंगे। एंटी इन्कंबैंसी फैक्चटर भी कहीं दिखाई नहीं दिया। रमन सिंह, शिवराज सिंह चौहान और शीला दीक्षित ने अपने अपने राज्यों में बहुत विनम्र रहकर विकास कार्य कराए। वे किसी तरह के विवादों में भी नहीं फंसे। उनकी सरकारों पर किसी तरह के भ्रष्टाचार का आरोप भी नहीं लगा। इन तीनों की छवि बेदाग रही। नतीजन जनता ने उन्हें अगले पांच साल के लिए फिर जनादेश दिया है।
लोकसभा के आम चुनाव पांच महीने बाद अप्रैल में प्रस्तावित हैं। यूपीए के पास अधिक समय नहीं है। छह राज्यों जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में हुए चुनावों को इसी कारण सत्ता का सेमीफाइनल कहा जा रहा था। इनमें भी चार हिंदी भाषी राज्यों पर राजनीतिक विश्लेषकों और प्रमुख दलों की निगाहें टिकी थीं। दिल्ली में दस साल से कांग्रेस की सरकार है। पिछला चुनाव भी पार्टी ने शीला दीक्षित के नेतृत्व में लड़ा और जीता था। खुद कांग्रेस के आला नेताओं को भी इसका भरोसा नहीं था कि यहां उनकी लगातार तीसरी बार सरकार बन ही जाएगी। भाजपा ने विजय कुमार मल्होत्रा जसे वरिष्ठ नेता को उनके सामने मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया परन्तु विकास मल्होत्रा, महंगाई और आतंकवाद पर भारी पड़ा। यही बात छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के संबंध में कही जा सकती है। कांग्रेस उम्मीद पाले बैठे थी कि राजस्थान के साथ-साथ इन दोनों राज्यों में उसे पांच साल के भाजपा शासनकाल में लोगों की स्वाभाविक नाराजगी का लाभ मिलेगा। एेसा नहीं हुआ। इसकी वजह यह भी रही कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस किसी एक सर्वमान्य नेता को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करने में नाकाम रही और छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी को भले ही विधानसभा का चुनाव लड़वाकर संकेत दिए हों परन्तु डा. रमन सिंह की भले मानुष की छवि उन पर भारी पड़ी। शीला दीक्षित की तरह रमन सिंह और शिवराज सिंह चौहान ने भी अपना ध्यान पूरी तरह राज्य के विकास पर केन्द्रित किया। डम्फर प्रकरण के अलावा मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री के खिलाफ और कोई एेसा मुद्दा कांग्रेस के हाथ नहीं लगा, जिसे लेकर वह मतदाताओं के बीच जा सके। यह सही है कि पहले उमा भारती और बाद में बाबू लाल गौर की कार्यशैली ने भाजपा को वहां मुश्किल में डाला परन्तु शिवराज सिंह चौहान के कमान संभाल लेने के बाद किसी तरह के विवाद नहीं उभर सके। उमा भारती ने मध्य प्रदेश में भाजपा को हरवाने के लिए पूरी ताकत लगाई परन्तु विफल रही। इससे यह भी साफ हो गया कि लोग नकारात्मक प्रचार को पसंद नहीं करते हैं। दिल्ली में यही गलती भाजपा ने की। विजय कुमार मल्होत्रा ने शीला सरकार पर घोटाले करने के आरोप लगाए परन्तु इसे साबित करने के लिए कोई सबूत पेश करने में नाकाम रहे। भाजपा यहां मतदाताओं को यह विश्वास दिलाने में भी विफल रही कि वह बेहतर सरकार दे सकती है।
कह सकते हैं कि यह परिणाम न कांग्रेस के पक्ष में हैं और न ही भाजपा के। भाजपा अगर छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में अपनी सरकारें बचाने में कामयाब रही तो कांग्रेस ने शीला दीक्षित के नेतृत्व में दिल्ली के सिंहासन पर तीसरी बार कब्जा करके एक बड़ी मनोवज्ञानिक जीत दर्ज करने में सफलता हासिल की है। कांग्रेस राजस्थान में भी सत्ता में लौट रही है लेकिन इसके लिए उसे बैसाखियों का सहारा लेना पड़ेगा। वह मिजोरम में दस साल बाद वापसी कर रही है। भाजपा के लिए सबसे अधिक पीड़ा की बात दिल्ली में सरकार नहीं बना पाना है। इसकी वजह उसकी रणनीतिक गलतियां भी रही हैं। सत्ता के इस सेमीफाइनल के मोटे तौर पर संकेत ग्रहण किए जाएं तो कह सकते हैं कि मतदाताओं ने विकास और विनम्रता में विश्वास व्यक्चत किया है। निसंदेह महंगाई और आतंकवाद देश के सम्मुख बड़े मुद्दे हैं और हो सकता है कि लोकसभा चुनाव में आतंकवाद और आंतरिक सुरक्षा एक अहम मुद्दा बनकर उभरे परन्तु जहां तक राज्य विधानसभा के चुनाव का सवाल है, उसमें साफ हो गया है कि मतदाताओं ने साफ-सुथरी छवि, ईमानदार, शांति और विनम्रता से विकास के काम करने वाले नेतृत्व को पसंद किया है। इसे अगर स्पष्ट संकेत मानें तो राजनेताओं को सतर्क हो जाना चाहिए। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की छवि एक विनम्र नेता की नहीं बन सकी। भले ही वे वहां की महिलाओं में लोकप्रिय रही हों परन्तु आम मतदाताओं में उनकी महारानी वाली छवि ने पार्टी को नुकसान ही पहुंचाया।

Saturday, December 6, 2008

अब क्या करे भारत सरकार

सरकार के खिलाफ ऐसा जनाक्रोश कभी नहीं देखा गया। मुंबई पर हमले ने देशवासियों के सब्र के बांध को तोड़ दिया है। सरकार से नाराजगी की वजह सूचनाएं मिल जाने के बावजूद वारदात हो जाना है। लोगों को लगता है कि मंत्री और नेता अपनी सुरक्षा तो चाक-चौबंद कर लेते हैं परन्तु आम आदमी को दरिंदों के लिए निरीह प्राणी की तरह मरने के लिए छोड़ देते हैं। लोग पूछ रहे हैं कि इस आक्रोश की परिणति क्या होगी? क्चया इन विधानसभा चुनाव के परिणामों में भी लोगों का गुस्सा दिखाई देगा? या लोग लोकसभा चुनाव में हिसाब-किताब चुकता करेंगे? अपना मानना है कि तब तक केन्द्र सरकार कुछ घोषणाएं करके लोगों की नाराजगी कम करने की कोशिश करेगी। तेल और ब्याज की दरों में कमी से ये प्रयास शुरू हो चुके हैं। लोग जानने को उत्सुक हैं कि क्चया पाकिस्तान में स्थित आतंकवादी ठिकानों और प्रशिक्षण केन्द्रों पर भारत हमला कर सकता है? रक्षा और विदेश मामलों के जानकारों की मानें तो भारत इस मामले को काफी दूर तक ले जाने की तैयारी में है। अमेरिकी हस्तक्षेप के चलते भारत तब तक पाकिस्तान पर हमला नहीं कर सकता, जब तक अमेरिकी सेनाएं पाकिस्तान में मौजूद हैं। हां, हमला हो या नहीं, इस बार भारत के कड़े रुख से पाकिस्तानी निजाम को पसीना जरूर आ जाएगा। यूपीए के रणनीतिकारों को लगता है कि भारत-पाक के बीच युद्ध के हालात बनने से देश की नाराज जनता मनमोहन सरकार के साथ खड़ी नजर आने लगेगी। लोकसभा चुनाव में अब ज्यादा समय नहीं है। उससे पहले राहत भरी घोषणाओं और पाकिस्तान के साथ कुछ गरमागरमी के वातावरण से सरकार अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश करेगी।

इस राजनीतिक जोड़-घटाव से सरकार चुनाव से पहले भले ही थोड़ी बहुत क्षति-पूर्ति कर ले परन्तु इस बात की क्या गारंटी है कि इस बीच कोई और आतंकवादी वारदात नहीं होगी। मुंबई जैसे हालात भले ही न बनें परन्तु अब छोटी-मोटी वारदातों को भी लोग सहन करने के मूड़ में नजर नहीं आ रहे। मुंबई हमले के समय सरकार ने देखा कि किस तरह इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने लाइव प्रसारण कर उसकी मुश्किलों को और बढ़ाने का काम किया। साठ घंटे तक पूरी दुनिया ने आतंकवादी हमले का सीधा प्रसारण देखा। इससे सरकारी एजेंसियों की पोल तो खुली ही, आतंकियों का दहशत पैदा करने और अपनी करतूत को दुनिया भर में पहुंचाने का मकसद भी पूरा हुआ। वे जो करना चाहते थे, वह भारतीय मीडिया ने पूरा कर दिया। जाने-अनजाने में इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने एक और काम किया। उन्होंने पाकिस्तान और आतंकी संगठनों के बजाय भारतीय नेतृत्व और व्यवस्था को ही खलनायक बना दिया। नतीजतन, लोग पाकिस्तान और आतंकवादियों को कम, भारतीय नेतृत्व को ज्यादा गाली दे रहे हैं। इससे सरकार ही नहीं, सभी दलों के नेता जबरदस्त दबाव में हैं। जन विश्वास हासिल करने के लिए वे सरकार पर कड़ी और निर्णायक कार्रवाई करने का दबाव बना रहे हैं।

सवाल यह है कि सरकार अब क्या करे? लोगों का गुस्सा कैसे शांत हो किया जा सकता है? किस तरह आतंकवादी वारदातों पर अंकुश लगाया जा सकता है? पाकिस्तान पर मुश्कें कसने के लिए किस तरह के कूटनीतिक प्रयासों की जरूरत है। गहरी नींद में सोई पड़ी सरकारी मशीनरी को झिंझोड़कर कैसे जगाया जा सकता है? बेखौफ हो रहे आतंकवादियों के मन में दहशत कैसे पैदा की जा सकती है? इनसे भी अहम सवाल यह है कि व्यवस्था के प्रति लोगों के मन में अविश्वास की जो भावना तेजी से पनपी है, उसे कैसे कम किया जाए? मीडिया को एेसे राष्ट्रीय संकट में किस तरह की भूमिका निभानी चाहिए, यह अह्म प्रश्न भी सरकार के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती है।

शिवराज पाटिल, विलास राव देशमुख, आर आर पाटिल जैसे कुछ लोगों के इस्तीफा दे देने से जन विश्वास नहीं लौट आएगा। सरकार को हर स्तर पर जवाबदेही तय करनी होगी। पुलिस, प्रशासन, जांच, खुफिया एजेंसियों, नेवी, आर्मी, वायुसेना, राज्य और केन्द्र सरकार की मशीनरी को जिम्मेदार बनाना होगा। पुलिस व्यवस्था में व्यापक सुधार करने की जरूरत है। ढीले खुफिया तंत्र को जिला स्तर से लेकर केन्द्रीय स्तर तक चुस्त-चौकस बनाना होगा। सभी सुरक्षा एजेंसियों में संवाद और समन्वय बढ़ाना होगा। संकट के बाद एक-दूसरे पर दोषारोपण की नीति को त्यागना होगा। राज्यों और केन्द्र सरकार के बीच भी बेहतर तालमेल स्थापित करना होगा। आतंकवादियों और देशद्रोहियों को सख्त सजा के लिए कड़े कानून बनाने होंगे। अदालतों और जजों की संख्या बढ़ानी होगी ताकि सभी तरह के मामलों का त्वरित निपटारा हो सके। इससे लोगों का कानून और न्याय व्यवस्था के साथ साथ सरकार पर भी विश्वास बहाल हो सकेगा। आतंकवाद सहित राष्ट्रीय हित से जुड़े मसलों पर राजनीतिक दलों में आम सहमति बनानी होगी। सरहदों को अभेद्य बनाना होगा ताकि कोई भी देश विरोधी शक्चित तोड़फोड़ के लिए आतंकवादी व हथियार नहीं भेज सके। मीडिया को जिम्मेदार और जवाबदेह बनाने की भी सख्त जरूरत है। इसके लिए मीडिया नीति बनाई जानी चाहिए। आम आदमी का सरकार के प्रति विश्वास तभी बहाल होगा, जब उसे लगेगा कि वह उसकी और देश की सुरक्षा के प्रति चिंतित और संकल्पबद्ध है।