Monday, March 30, 2009

निशाने पर वरुण नहीं, मुलायम

वरुण गांधी पर रातों-रात राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाना, दरअसल कहीं पर निगाहें-कहीं पर निशाना कहावत को चरितार्थ करने वाली घटना है। वरुण तो मोहरा बन गए हैं। पीलीभीत की सात और आठ मार्च की जनसभाओं में यदि वे उग्र भाषण नहीं देते तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को मुसलमान मतदाताओं को बसपा के पक्ष में एकजुट करने का यह मौका ही नहीं मिलता। उनके निशाने पर वरुण नहीं, समाजवादी पार्टी और उसके मुखिया मुलायम सिंह यादव के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं। भाजपा भी इस प्रकरण से लाभ लेना चाहती थी, लेकिन चौबीस घंटे के भीतर मायावती ने जिस तरह वरुण
गांधी पर रासुका तामील कराकर मामले को तूल दिया, उससे साफ हो गया है कि एेसा करके वे राज्य के 19 प्रतिशत मुसलमानों को खुश करना चाहती हैं।
सर्वविदित है कि देश में सर्वाधिक मुस्लिम मतदाता उत्तर प्रदेश में ही रहते हैं। आजादी के बाद 1989 तक हुए चुनावों में से अधिकांश में मुस्लिम मतदाताओं ने कांग्रेस को ही वोट दिया, लेकिन बाबरी विध्वंस के बाद कांग्रेस से उनका मन खट्टा हुआ। यूपी में वे मुलायम सिंह यादव की पार्टी को ताकत देने लगे तो अन्य राज्यों में उन्होंने दूसरे धर्मनिरपेक्ष दलों को मजबूती देनी शुरू कर दी। जैसे आंध्र प्रदेश में वे तेलुगूदेशम को, तमिलनाड़ु में डीएमके, एडीएमके, पीएमके, केरल और पश्छिम बंगाल में वाममोर्चा को, कर्नाटक में जनतादल एस को, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल एकीकरण को वोट देने लगे तो जहां कोई विकल्प नहीं दिखा, वहां भाजपा को परास्त करने के लिए उसने कांग्रेस को भी वोट दिया। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार धीरे-धीरे सिकुड़ता चला गया और सपा के अलावा बसपा दूसरी बड़ी ताकत बनकर उभरी।
मायावती ने पहले दलितों को अपने साथ एकजुट किया। इसके बाद उन्होंने ब्राह्मण मतदाताओं को अपने साथ जोड़ा और अब मुसलमान मतदाताओं को रिझाकर वही समीकरण बनाने की ओर अग्रसर हैं, जिसके बूते कांग्रेस लंबे समय तक राज्य और
केन्द्र में राज करती रही। गौरतलब बात है कि यूपी में 19 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं जो लोकसभा की 35 और विधानसभा की 115 सीटों को प्रभावित करते हैं।
यह एक विडंबना है कि सभी पार्टियां समय-समय पर मुसलमानों से मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने की मांग तो करती हैं, लेकिन ये दल उतनी तादाद में उन्हें टिकट नहीं देते जितना देना चाहिए। 2004 के पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 417 प्रत्याशी खड़े किए, जिसमें से सिर्फ 33 मुसलमान प्रत्याशी थे। इसमें से सिर्फ 10 जीते। बीएसपी ने 435 उम्मीदवारों में 50मुस्लिम प्रत्याशी उतारे, जिसमें 4 जीते। समाजवादी पार्टी ने 237 प्रत्याशियों में से 38 मुसलमानों को टिकट दिया, जिसमें से 7 जीते। सीपीएम ने 70 में से 10 मुस्लिमों को खड़ा किया जिसमें से 5 जीते। इन आंकड़ों की गहराई में जाने पर यही पता चलता है कि सीपीएम को छोड़कर शेष दलों ने मुस्लिम बहुल इलाकों से ही मुस्लिम प्रत्याशियों को खड़ा किया।
ऐसा सिर्फ 2004 के ही लोकसभा या किसी एक विधानसभा चुनाव में ही नहीं हुआ, हर छोटे-बड़े चुनाव में मुस्लिम वोटरों के मद्देनजर इसी तरह से कैंडिडेट तय किए जाते हैं। बीएसपी सुप्रीमो मायावती की सोशल इंजीनियरिंग के करिश्मे को थोड़ी देर भूल कर अगर यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव नतीजों पर गौर करें तो पाएंगे कि जहां-जहां मायावती के मुस्लिम कैंडिडेट बीजेपी को हराने में सक्षम थे, वहां मुसलमानों ने बीएसपी के पक्ष में वोट डाला। पिछले कुछ महीने से मायावती लगातार कद्दावर मौलवियों को अपने पक्ष में लाने की कोशिश कर रही हैं। लखनऊ में ही मायावती ने कई मुस्लिम सम्मेलन कर डाले हैं। वरुण पर रासुका के पीछे मायावती की मुसलमानों को खुश करने की मानसिकता ही नजर आ रही है। उनके इस दांव से कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के नेताओं की सिट्टी-पिट्टी गुम है।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

माया ने हीरो बनाया वरुण को


वैसे तो मायावती कब, किससे, क्यों और किस बात पर खफा हो जाएं, कहा नहीं जा सकता और क्या कार्रवाई कर बैठें, कहा नहीं जा सकता लेकिन ऐसे समय जबकि चुनावी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, वे किसी पार्टी के घोषित प्रत्याशी को अप्रत्याशित रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में निरूद्ध करने का फैसला लेंगी, किसी को आशंका तक नहीं थी। वरुण गांधी ने अगर सात और आठ मार्च को पीलीभीत में भड़काने वाला भाषण दिया और चुनाव आयोग के आदेश पर उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया तो मामला यहां खत्म होना चाहिए था। अदालत और कानून को अपना काम करने देना चाहिए था। ऐसा हुआ नहीं। वरुण गांधी ने अग्रिम जमानत ली। मामले को राजनीति से प्रेरित बताकर रद्द कराने की हाईकोर्ट से गुहार लगाई। तर्क नहीं चले तो आखिरकार पीलीभीत कोर्ट में आत्मसमर्पण का फैसला ले लिया। वे सीधे-सीधे जाकर यदि गिरफ्तारी दे देते तो
कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन चुनाव के मौसम में उन्होंने समर्थकों की भीड़ जुटाकर शक्ति-प्रदर्शन की कोशिश की। भीड़ पर किसका बस चलता है। जब पीलीभीत का प्रशासन लोगों को शहर में आने से नहीं रोक पाया तो गलती किसकी है? दूसरे राज्य सरकार का खुफिया तंत्र कहां सोया हुआ था? क्या उसे अंदाजा नहीं था कि वरुण गांधी के समर्पण के समय कितनी भीड़ इकट्ठा होने जा रही है?
मायावती सरकार वरुण पर रासुका लगाकर अपनी खीझ और विफलता ही जाहिर कर रही है। जब वरुण खुली जीप में जुलूस के रूप में शहर में घूम रहे थे, तब ही प्रशासन ने उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया? पहली रात में ही आस-पास के गांवों से ट्रेक्टर-ट्रॉली, टैम्पो, कारों व दूसरे वाहनों से वरुण समर्थक शहर में जुटना शुरू हो गए थे। यदि प्रशासन को इसकी जानकारी थी तो उसने वरुण को पीलीभीत पहुंचने से पहले से ही निरूद्ध क्यों नहीं किया? रासुका लगाने के जो चार कारण शासन-प्रशासन गिना रहा है, उसमें से भड़काऊ भाषण देने, समर्पण के लिए जाते समय रास्ता बदल लेने, कोर्ट व जेल के सामने अपने समर्थकों को संबोधित कर फिर से भड़काने और जब पुलिस उन्हें अपनी अभिरक्षा में लेकर जा रही थी, तब वरुण के समर्थकों द्वारा पुलिस के साथ हाथापायी व मारपीट करने के अलावा पथराव करने, हिंसा फैलाने और लोकजीवन को अस्त-व्यस्त करने के आरोप शामिल हैं। सवाल है कि भीड़ को नियंत्रित करने, किसी नेता के जुलूस को नियंत्रित कर तय रास्ते से ले जाने और अभिरक्षा में भाषण नहीं देने देने की जिम्मेदारी किसकी है? जाहिर है, पुलिस-प्रशासन और शासन अपनी कमजोरी का ठीकरा वरुण गांधी के सिर पर फोड़ रहा है।
मामला दरअसल, जितना सीधा नजर आ रहा है, इतना है नहीं। इससे कहीं आगे का है। उन्होंने भड़काऊ भाषण दिए हैं तो कानून उन्हें माफ नहीं करेगा, लेकिन मायावती को लगता है कि वरुण गांधी पर रासुका लगाकर वे उस समुदाय व वर्ग के लोगों की नजरों में नायिका बन जाएंगी, जिनके खिलाफ कथित रूप से वरुण ने सात और आठ मार्च की जनसभाओं में जहर उगला था। इसका लाभ बसपा को अकेले पीलीभीत लोकसभा क्षेत्र में ही नहीं मिलेगा, पूरे उत्तर प्रदेश में मिलेगा। उनके निशाने पर मुलायम सिंह यादव भी हैं। अगर वरुण को जेल में डालकर वे देश-प्रदेश के मुसलमानों को खुश कर पाती हैं तो चुनाव में उन्हें इसका लाभ मिलेगा और मुलायम सिंह भारी घाटे में होंगे। इस पूरे प्रकरण का सबसे अफसोसजनक पहलू यही है कि मायावती को राजनीतिक लाभ की सम्भावना दिखायी देने लगी है। रासुका की जिन धाराओं के तहत उन्हें निरूद्ध किया गया है, वे हाईकोर्ट में ठहर पाएंगी या नहीं, यह बाद की बात है। कानूनन तीन महीने के भीतर सरकार को रासुका की हाईकोर्ट से पुष्टि करानी होती है। तब तक लोकसभा के चुनाव निपट चुके होंगे। वरुण को जेल में डालकर जो लाभ बसपा नेता मायावती लेना चाहती हैं, वह तब तक ले चुकी होंगी। आरोप सिद्ध नहीं भी हुए तो उनका क्या जाता है? मायावती भ्रम में हैं कि इस प्रकरण से राजनीतिक लाभ अकेले बसपा को मिलेगा। वस्तुस्थिति यह है कि वरुण प्रकरण से राज्य में हिन्दू मतदाताओं का भी नए सिरे से ध्रुवीकरण होगा और इसका लाभ वहां हारी-थकी पड़ी भारतीय जनता पार्टी को सीधे तौर पर मिलेगा।
ओमकार चौधरी omkarchaudhary@gmail.com

Sunday, March 29, 2009

वोरा को यकीन, फिर मिलेगा जनादेश

सोनिया गांधी के विश्वासपात्र और कांग्रेस के कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा को यकीन है कि देश की जनता यूपीए को फिर से पांच साल सरकार चलाने का जनादेश देगी। मैंने श्री वोरा से तीसरे मोर्चे, उनके गठबंधन सहयोगियों, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह समेत कई मसलों पर बातचीत की। रविवार के हरिभूमि में इसे प्रकाशित किया गया है।
यहां पेश हैं कुछ खास अंश:

कांग्रेस ने कितनी सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है इस चुनाव में?
अभी उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया चल रही है। इसके पूरा होने के बाद ही कुछ कहना संभव होगा।
कौन से मुद्दे हैं, जिन्हें कांग्रेस जनता के बीच ले जाकर पुन: जनादेश मांगेगी?
डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व और सोनिया गांधी के मार्गदर्शन में पांच साल चली यूपीए सरकार ने जनता से किए गए सभी वादों को पूरा किया है। पहली बार 72 हजार करोड़ की ऋण माफी हमारी सरकार ने की। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना शुरू की, जिसमें साढ़े चार करोड़ लोगों को रोजगार मिला। सूचना का अधिकार दिया गया। स्वास्थ्य, सड़क, ग्रामीण विकास, पिछड़े वर्ग के लिए बड़े पैमाने पर काम किए गए। इन सबको लेकर लोगों के बीच जाएंगे।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चा आतंकवाद का सवाल उठा रहा है? यूपीए सरकार के दौरान अनेक शहरों में हमले हुए। मुंबई में हुआ अटैक तो ताजा ही है?
कंधार प्रकरण, अक्षरधाम, लालकिला, संसद और रघुनाथ मंदिर पर हमला किसके समय हुआ? कांग्रेस ने उस समय राजग सरकार को भी आतंकवाद को रोकने के लिए पूरा सहयोग दिया था। आज जो मुद्दा ही नहीं है, उसे ये मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं। मेरा मानना है कि देशवासी एक काम करने वाली मजबूत सरकार चाहते हैं। डा. मनमोहन सिंह ने देश को ऐसी स्थायी सरकार दी है।
क्या यह सही नहीं है कि जिस तरह क्षेत्रीय दलों का जनाधार बढ़ रहा है, वह राष्ट्रीय दलों के लिए खतरे की घंटी है। सरकार बनाने के लिए क्षेत्रीय दलों पर उनकी निर्भरता बढ़ रही है?
मैं इससे सहमत नहीं हूं। ये ठीक है कि किसी दल को किसी चुनाव में उतनी सफलता न मिली हो लेकिन इससे उसके राष्ट्रीय स्वरूप, पहचान और अधिकार को तो नहीं छीना जा सकता? कांग्रेस 123 साल पुराना राजनीतिक दल है। मुझे यकीन है कि राष्ट्रीय दलों का जनाधार घटेगा नहीं, बढ़ेगा। जनमानस जानता है कि देश के सामने जो परिस्थितियां आती हैं, उनका मुकाबला राष्ट्रीय दल ही कर सकते हैं। क्षेत्रीय दल अपने बूते सरकार नहीं बना सकते।
गठबंधन के इस दौर में आपको क्या लगता है कि क्षेत्रीय दलों की मनमानी बढ़ी है?
कांग्रेस ने गठबंधन सहयोगियों के साथ मिलकर बहुत अच्छे समन्वय से पांच साल तक यूपीए सरकार चलायी। कुछ दलों ने दबाव की राजनीति की। वे अलग हो गए, तो भी हम उनके शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने सरकार चलाने में सहयोग दिया।
यूपी और बिहार को लेकर कांग्रेस के गठबंधन के अनुभव कोई अच्छे नहीं रहे?
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन की हरचंद कोशिश की गई, लेकिन समझौता नहीं हो पाया। इस कारण कांग्रेस को अपने उम्मीदवार खड़े करने पड़े। इसके बावजूद सपा नेताओं ने कहा है कि हम कांग्रेस के साथ अच्छे रिश्ते रखना चाहते हैं। धर्मनिरपेक्ष दल नहीं चाहेंगे कि साम्प्रदायिक ताकतों का साया धर्मनिरपेक्षता पर पड़े। सामंजस्य और सद्भाव का वातावरण देश के लिए जरूरी है। पिछले दिनों पीलीभीत में जिस तरह का भाषण दिया गया और माहोल को ख़राब करने की कोशिश की गयी, उसकी भर्त्सना की जानी चाहिए, बी जे पी सद्भाव बिगड़कर वोट हासिल करना चाहती है. गाँधी परिवार ने हमेशा सांप्रदायिक सद्भाव पर बल दिया है.

क्या आप मानते हैं कि तीसरा मोर्चा क्या यूपीए और राजग के लिए चुनौती बन सकता है?
पहले तो मैं यही जानना चाहता हूं कि पहला और दूसरा मोर्चा कहां है? फिर ये तीसरा मोर्चा आया कहां से है? इसमें जो दल शामिल हैं, वे कितने एकजुट हैं? उनमें से कितने प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं, यह समझ पाना मुश्किल है। हमें इस मोर्चे से कोई भय नहीं है। उनमें एका नहीं है। मायावती के भोज में जयललिता नहीं आई। न उनका कोई प्रतिनिधि आया। इसी से इसके भविष्य की कल्पना की जा सकती है।
क्या कांग्रेस फिर से सरकार बनाने को लेकर आश्वस्त है?
कांग्रेस फिर से सरकार बनाने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त है। इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है कि देश की जनता फिर से कांग्रेसनीत यूपीए गठबंधन को स्थायी सरकार बनाने के लिए जनादेश देगी।
युवा नेतृत्व को आगे लाने की बात भी बड़े जोर-शोर से उठायी जा रही है?
राहुल जी के कांग्रेस महासचिव बनने के बाद युवाओं में जिस तरह उत्साह का संचार हुआ है, उससे देखकर लगता है कि युवा वर्ग पूरी तरह राष्ट्र के नव निर्माण में अपना योगदान देने को तत्पर है। राहुल गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व का युवाओं पर प्रभाव पड़ा है। वे स्पष्ट वक्ता हैं। बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहते हैं, लोग उन्हें सुनना पसंद करते हैं। इस लोकसभा चुनाव में उनके व्यक्तित्व का प्रभाव देखने को जरूर मिलेगा।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com
omkar.chaudhary@yahoo.co.in

Tuesday, March 24, 2009

न कोई मुद्दा है न सिद्धांत

हर बार की तरह फिर यह सवाल उठ रहा है कि आम आदमी की लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली में दिलचस्पी क्यों कम होती जा रही है। वह मतदान करने बूथ तक क्यों नहीं जाता? आंकड़े बताते हैं कि देश के 45 प्रतिशत मतदाता अपनी राय जाहिर करने घर से नहीं निकलते। आखिर इसकी वजह क्या है? क्या वे आलसी हैं? आराम पसंद हैं? उन्हें कतार में घंटों खड़े होना गवारा नहीं है? एेसे बहुत से सवाल हैं, लेकिन क्या कभी सोचा गया कि इस उदासीनता की मूल वजह क्या है? आए दिन किसी न किसी स्तर के चुनाव होना एक कारण हो सकता है लेकिन राजनीतिक दलों, व्यवस्था और अंतत: न्याय व्यवस्था से उठता विश्वास इसका बहुत बड़ा कारण है।
आम आदमी को लगता है कि चुनाव प्रक्रिया मात्र एक ढकोसला है। यह एक छलावा है। उसके वोट की कोई कीमत नहीं है क्योंकि नोट तंत्र वोट पर कहीं अधिक भारी पड़ रहा है। कोई राजनीतिक दल पीछे नहीं है। जो सत्ता में होता है, वह अपने प्रचार के लिए सरकारी धन का जमकर दुरुपयोग करता है। विपक्षी दल भी पीछे नहीं हैं। प्रचार, संचार और यातायात के संसाधनों (विमान और हेलीकाप्टर शामिल) पर जमकर खर्च किया जाता है। पार्टियां काले धन के रूप में प्राप्त कई-कई सौ करोड़ रुपये खर्च कर देती हैं, लेकिन चुनाव आयोग उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। कछ अपवादों को छोड़ दें तो मतदान से पहले लगभग हर प्रत्याशी नोट के बल पर वोट खरीदने के लिए अपनी तिजोरी खोल देता है। काले धन का जैसा खुला प्रदर्शन चुनाव के समय होता है, वैसा कहीं नहीं होता।
राजनीति के अपराधीकरण को लेकर देश में खूब चर्चाएं होती हैं, लेकिन टिकटों की घोषणा होते-होते साफ हो जाता है कि हर पार्टी इस दलदल में गहरे तक धंसी हुई है। वह बाहर निकलना ही नहीं चाहती। आंकड़े यह बताने को काफी है कि हर राजनीतिक दल अपराधी चरित्र के प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारती है। पिछली लोकसभा में 543 में से 128 सांसद एेसे थे, जिन पर कोई न कोई केस चल रहा था। उनमें से कई तो गंभीर अपराधों में लिप्त थे। एेसा लगता है, जैसे राजनीतिक दलों ने अपराधियों के लिए सीटों का कोटा तय कर दिया है। पिछली लोकसभा में जेएमएम के पांच, शिवसेना के 7, एनसीपी के 5, अकाली दल के 4, बसपा के 8, राजद के 11, जदयू के 3, फारवर्ड ब्लाक का 1, जेडीएस का 1, समाजवादी पार्टी के 11, भाकपा के 3, द्रमुक के 4, लोजपा का 1, अन्ना द्रमुक का 1, भाजपा के 29, कांग्रेस के 26, माकपा के 7 और बीजू जनता दल का एक सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि का था। एेसे में क्या आम जनता हताश-निराश नहीं होगी? कुछ प्रदेशों तक सिमट चुकी राष्ट्रीय पार्टियां केन्द्र में सरकार बनाने के लिए क्चया कर रही हैं? जो क्षेत्रीय दल उन्हें फूटी आंखों नहीं सुहाते, उन्हीं से सीटों का तालमेल करने में लगी हैं। हर चुनाव के पहले कछ दल गठबंधनों से बाहर जाते हैं तो कुछ नए दल साथ आ जाते हैं। उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ अपनी ताकत बढ़ाना और सत्ता में भागीदारी हासिल कर सुख संपन्नता प्राप्त करना है।
पूरी दुनिया में भारतीय लोकतंत्र की अच्छाइयों के जमकर गुणगान किए जाते हैं। भारत को इस कारण सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है क्योंकि यहां 70 करोड़ से अधिक मतदाता हैं, जो हर पांच साल में देश के लिए नई सरकार चुनते हैं। यह अलग बात है कि इनमें से औसतन करीब 45 प्रतिशत मतदाता वोट ही नहीं डालने जाते। जो डालते हैं, वे अक्सर जाति और धर्म के आधार पर मताधिकार का उपयोग करते हैं। एक आम आदमी इस दौर में चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकता है? उनके पास दस से पंद्रह करोड़ रुपये नहीं हैं, जिसके बिना आजकल लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा जा सकता। आयोग ने लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए 25 लाख रुपये की सीमा तय कर रखी है, लेकिन वस्तुस्थिति क्या है? यह चुनाव लड़ने वाला हर प्रत्याशी ही नहीं जानता, चुनाव आयोग भी जानता है, लेकिन करता कुछ नहीं। सवाल पूछा जाता है कि राजनीति से इस गंदगी को दूर करने के लिए आखिर साफ-सुथरी के छवि के लोग राजनीति में क्यों नहीं आते? क्या उन्हें लोग चुनेंगे? क्या राजनीतिक दलों के नेता उन्हें चुनाव मैदान में उतारना पसंद करेंगे? वे जीत गए तो क्चया उन्हें जिम्मेदार पदों पर काम करने का अवसर मिलेगा? हकीकत यह है कि ईमानदार, सद्चरित्र और योग्य पढ़े-लिखे राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों को आगे आने ही नहीं दिया जाता।
झूठे वादे करके सरकारें बनती हैं तो वे लोगों के काम नहीं करती। मंत्री-विधायक-सांसद-नौकरशाह थैली का वजन बढ़ाने में जुट जाते हैं। आम आदमी न्याय के लिए कई-कई साल कोर्ट कचहरियों के चक्कर लगाते-लगाते थक जाता है। वह हताश-निराश है। आजादी के इतने सालों बाद भी उसे सूरत बदलती नजर नहीं आ रही। उसे लगता है कि उसके वोट की कोई कीमत नहीं रह गई है। वह खुद तमाशा बनकर रह गया है। चुनाव में जो दल एक-दूसरे के खिलाफ जहर उगलते हुए लड़ते हैं, बहुमत नहीं मिलने पर वे सरकार बनाने और पदों की बंदरबांट करने के लिए गलबहियां करते नजर आने लगते हैं। न कोई मुद्दा रह गया है और न ही सिद्धांत। आम आदमी के संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था से उठते विश्वास की यही वजह है। एेसे बहुत से राजनीतिक चेहरे हैं, जिनके लिए विचारधारा, कार्यक्रम, नीति, सिद्धांत जैसी बातें कोई मायने नहीं रखते। हर चुनाव में वे नई पार्टी के साथ गठबंधन करते नजर आते हैं। दो-दो, तीन-तीन सांसदों वाले छोटे-छोटे दलों के नेता भी केन्द्र सरकार में केबिनेट मंत्री बनकर सत्ता का सुख लूटने में शर्म महसूस नहीं करते। एेसी राजनीतिक बेशर्मी कहीं और देखने को मिलेगी? यही वे वजहें हैं, जिनके कारण आम आदमी का संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली से मोहभंग हो रहा है और यह किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Thursday, March 12, 2009

यह अब तक की सबसे अच्छी टीम

सौरव गांगुली महेन्द्र सिंह धोनी की अगुआई वाली इस टीम को अब तक की सर्वश्रेष्ठ टीम मानने को तैयार नहीं हैं। यह सही है कि इस टीम में सुनील गावस्कर, कपिलदेव, नवाब पटौदी, अजहरूद्दीन और गुंडप्पा विश्वनाथ जैसे खिलाड़ी नहीं हैं, जो अपने-अपने समय के सर्वकालिक महान क्रिकेटर रहे हैं लेकिन दुनिया के सबसे बेहतरीन खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर, सबसे विस्फोटक बल्लेबाज वीरेन्द्र सहवाग, महेन्द्र सिंह धोनी, युवराज सिंह जैसे बल्लेबाज इस टीम का अहम हिस्सा हैं, जिन्होंने अपने बेहतरीन प्रदर्शन और अनुकरणीय सोच, रवैये व व्यवहार से टीम को दुनिया की चोटी की तीन टीमों में ला खड़ा किया है। गावस्कर निसंदेह पहले एेसे भारतीय बल्लेबाज रहे, जिन्होंने रनों का सबसे बड़ा पहाड़ खड़ा किया और डान ब्रेडमैन को पछाड़ते हुए सर्वाधिक टैस्ट शतक लगाने का गौरव हासिल किया। विश्वनाथ और अजहरूद्दीन जैसा कलाई का जादूगर कोई दूसरा नहीं हुआ। महान आल राउंडर कपिलदेव की गिनती भारत के सबसे सफल कप्तानों में तो नहीं होती लेकिन 1983 में उनके नेतृत्व वाली टीम ने जो करिश्मा कर दिखाया, उससे पहले या बाद में और कोई टीम नहीं कर सकी। इसलिए भारतीय क्रिकेट में कपिलदेव का विशेष स्थान है। जिस तरह का जुझारूपन और जीतने की ललक उनमें दिखाई देती थी, वैसी ही ललक, धुन और जिद मौजूदा कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी में नजर आती है। उनमें गजब की नेतृत्व क्षमता है। मैदान में जूझते रहने और आसानी से हार नहीं मानने का जज्बा है। इस टीम की विशेषता यही है कि वह किसी एक खिलाड़ी पर निर्भर नहीं है। एक दौर था, जब गावस्कर के जल्द आउट होते ही टीम बिखर जाती थी। उनके बाद सचिन तेंदुलकर के शुरुआती दस साला दौर में भी एेसा हुआ। अब कह सकते हैं कि यह टीम सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़ और सौरव गांगुली के बिना भी जीतना जान गई है। सौरव गांगुली इस टीम की कामयाबी को नहीं पचा पा रहे हैं तो यह उनकी दिमागी समस्या है। हकीकत यह है कि यही वह टीम है, जो देश के लिए एक बार फिर विश्वकप लाने का हौंसला और काबिलियत रखती है।

जब टीम न्यूजीलैंड के लिए रवाना हो रही थी, सौरव गांगुली ने यह चुनौती भी दी थी कि पिछले एक साल से भारतीय उपमहाद्वीप में यह टीम जिस तरह का प्रदर्शन करती रही है, वैसा ही प्रदर्शन न्यूजीलैंड में करके दिखाए। जानकारों ने टीम को यह कहते हुए काफी डराया कि ब्रायन लारा और सचिन तेंदुलकर जैसे बल्लेबाज वहां अब तक शतक नहीं नहीं लगा पाए हैं। लारा तो खैर संन्यास ले चुके हैं लेकिन तेंदुलकर ने क्राइस्टचर्च में 163 रनों की जो पारी खेली है, वह जवाब देने के लिए काफी है। शुरू के दो ट्वेंटी-ट्वेंटी मैचों में धोनी के धुरंधर जिस तरह पराजित हुए, उससे लगा कि सौरव गांगुली गलत नहीं कह रहे थे, लेकिन वनडे सीरीज में इस टीम ने जिस अंदाज में वापसी करते हुए अब तक हुए सभी मैचों में मेजबान टीम न्यूजीलैंड को सफाया किया है, उससे सौरव जैसे खिसियाए हुए खिलाड़ी ही नहीं, क्रिकेट खेलने वाले सभी देश हतप्रभ हैं। कड़ाके की ठंड, बार-बार आने वाली बारिश और तेज हवाओं के बीच सचिन तेंदुलकर, महेन्द्र सिंह धोनी, वीरेन्द्र सहवाग, गौतम गंभीर और युवराज सिंह ने जिस बेखौफ अंदाज में धमाकेदार पारियां खेलते हुए न्यूजीलैंड टीम के आक्रमण को रौंदा है, उसकी धमक कंगारुओं के देश से लेकर दक्षिण अफ्रीका, इंगलैंड और वेस्ट इंडीज तक जा पहुंची है। अब सौरव जैसे जले-भुने खिलाड़ी और आलोचक यह चुनौती देने की हिमाकत नहीं कर पाएंगे कि धोनी ब्रिगेड उछाल वाली तेज पिचों पर जीतकर दिखाएं। टीम इंडिया ने वह कारनामा कर दिखाया है, जो आज तक कोई भारतीय टीम न्यूजीलैंड में नहीं कर सकी। वनडे सीरीज जीतने का कारनामा। पांच वनडे मैचों की सीरीज में अब तक चार मैच हुए हैं। एक बारिश की भेंट चढ़ गया, नहीं तो उसमें भी भारत का ही पलड़ा भारी था। बाकी तीन मैचों में टीम इंडिया ने न्यूजीलैंड को संभलने का मौका तक नहीं दिया। अब सबकी नजर पांचवें एकदिनी मुकाबले पर टिक गई हैं।

इस टीम पर भरोसा किया जा सकता है कि यह वो कारनामा दोहरा सकती है, जो 1983 में कपिलदेव की टीम ने कर दिखाया था। विश्वकप लाने का। यह सही है कि सौरव गांगुली को अब तक का सबसे सफल कप्तान माना जाता है और उनके नेतृत्व वाली टीम 2003 के विश्वकप के बहुत करीब तक पहुंचने में सफल रही थी। फाइनल मुकाबले तक, लेकिन उसमें क्या हुआ? आस्ट्रेलिया ने लगभग एकतरफा जीत हासिल की। अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता है। लोगों को अच्छे से याद है कि शुरुआती झटकों के बाद पूरी टीम किस कदर दबाव में आकर बिखर जाती थी। खुद सौरव, राहुल द्रविड और तेंदुलकर तक दबाव में आकर खेलने लगते थे। तेंदुलकर पर तो अब तक यह आरोप लगते रहे हैं कि जब भी टीम संकट में होती थी, उनका बल्ला नहीं चलता था। क्या मौजूदा टीम पर इस तरह का आरोप चस्पा किया जा सकता है? बिल्कुल नहीं। इसकी विशेषता ही यह है कि यह किसी एक या दो खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर निर्भर नहीं है। फंसे और लगभग हारे हुए मैच को किस तरह जीत में बदला जाता है, किसी को इस पर शोध करना हो तो उसे धोनी-ब्रिगेड के फंसे हुए मैचों को देखना चाहिए। पठान भाइयों की उस पारी को कौन भुला सकता है, जो उन्होंने श्रीलंका में पहले ट्वेंटी-ट्वेंटी मैच में उस समय खेली, जब पंद्रहवें ओवर में 115 रन पर भारत के साथ विकेट गिर चुके थे और केवल चार ओवर में इरफान और यूसुफ पठान ने 59 रनों की तूफानी पारी खेलकर भारत को जीत दिला दी। यही इस बदली हुई टीम की सबसे बड़ी विशेषता है। यह हार नहीं मानती। और अगर सचिन तेंदुलकर इसे अब तक का सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाजी क्रम मानते हैं तो यकीन करना ही होगा कि यही अब तक की सर्वश्रेष्ठ टीम है। इसी पर आप और हम विश्वकप जीतने का भरोसा कर सकते हैं।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

Tuesday, March 3, 2009

मजबूर नहीं, मजबूत सरकार चाहिए

सबसे बड़े फैसले के लिए चुनावी बिगुल बज उठा है। मतदाताओं को एक बार फिर तय करना है, दिल्ली में किसकी सरकार हो। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए गठबंधन ने केन्द्रीय सत्ता में पांच साल पूरे कर लिए हैं, लेकिन अपना कार्यकाल पूरा कर लेना ही किसी सरकार की उपलब्धि नहीं हो सकती। सत्ता का असली भाग्यविधाता भारत का आम मतदाता है, जिसे लुभाने के लिए सभी राजनीतिक दल चुनाव आते ही शाष्टांग आसन करते नजर आने लगते हैं। इसी मतदाता को तय करना है कि मनमोहन सरकार को दोबारा जनादेश देना है या नहीं। चुनाव की घोषणा तक भी गठबंधनों के साथ और सहयोगियों को जोड़ने की कवायद जारी है। हर तरह के समीकरण बिठाने की जोड़-तोड़ जारी है। कुछ दिनों में लंबे-चौड़े वादों वाले घोषणा-पत्र जारी होंगे, जिनमें सतरंगी सपने दिखाए जाएंगे। अब तक मतदाता भी कुछ-कुछ जान चुका है कि चुनाव के समय दिखाए जाने वाले सपने सच नहीं होते हैं। देश के इस भाग्यविधाता को इस बार बहुत सोच-विचारकर अपने मताधिकार का प्रयोग करना होगा। यह सही है कि 1989 में गठबंधन सरकारों का जो दौर शुरू हुआ था, वह इस समय का कटु सत्य बन चुका है। न कांग्रेस अपने बूते सरकार बनाने की सोच सकती है और न भारतीय जनता पार्टी। यही कारण है कि दोनों मतदाताओं के सामने अपनी कमीज ज्यादा सफेद होने का दावा करती नजर आएंगी। चुनाव आयोग लाख दावा कर ले, सब जानते हैं कि राजनीतिक दल और उनके धनी-मानी प्रत्याशी आजकल किस तरह वोटों का जुगाड़ करते हैं। किस तरह मतदान के पूर्व पैसे, दारू और दूसरे साजो-सामान बांटे जाते हैं। इस सबके बावजूद मतदाता हर बार मन बनाता है और मन में ही अहम फैसला करता है कि उसे परिवर्तन करना है अथवा उसी को दोबारा मौका देना है, जिसे उसने पांच साल में जांचा-परखा है। मतदाताओं के लिए फैसले की घड़ी आ गई है।
14वीं लोकसभा कैसी रही, सब जानते हैं। आजादी से अब तक इतनी कम बैठकें किसी लोकसभा की नहीं हुई। इतना हंगामा-शोर शराबा कभी नहीं हुआ। कुल कार्यवाही का 24 प्रतिशत समय हो-हल्ले में बरबाद हो गया। लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने भी बाद में माना कि सरकारी पक्ष विपक्षी सदस्यों को समझाने-बुझाने और मनाने में विफल रहा। इससे पहले इतने दागी सांसद (एक सौ बीस से अधिक) कभी चुनकर नहीं पहुंचे। शायद यही वजह रही कि रोज हंगामे हुए और गंभीर मसलों पर कभी सार्थक बहस और पहल नहीं हुई। यह दुर्भाग्य रहा कि अटल बिहारी वाजपेयी और चन्द्रशेखर जैसे प्रखर वक्ता अस्वस्थता के कारण सदन में ही नहीं आ सके। बाद में चन्द्रशेखर को देश ने खो दिया। देश के चिंतकों-विचारकों के लिए संसद की गरिमा और मर्यादा का क्षरण गहरी चिंता का विषय है। दुर्भाग्य की बात यह है कि लोग राजनीति के इस अद्योपतन पर लंबी-चौड़ी बहसें तो करते हैं परन्तु जब अच्छे चरित्र और योग्य सांसदों के चुनने का अवसर आता है तो वे मतदान तक करने नहीं जाते। आज देश के समक्ष सबसे अहम सवाल यही है कि हम कैसे सांसद चुनना चाहते हैं। कैसी सरकार बनना चाहते हैं। जिसमें अपराधियों का आधिपत्य हो या जिसमें साफ-सुथरी छवि के लोग हों ?
अफसोस की बात है कि पिछले करीब बीस वर्षो से देश पर मजबूर सरकारें शासन कर रही हैं। 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार केवल ग्यारह महीने चली। चन्द्रशेखर की सरकार और भी कम समय तक शासन कर सकी। पी वी नरसिंह राव की सरकार बेशक पांच साल चली लेकिन वह भी अल्पमत सरकार थी और उसे बचाए रखने के लिए झारखंड मुक्चित मोर्चा के सांसदों के अलावा कुछ और दलों के सांसदों की खरीद-फरोख्त की गई थी। देवगौड़ा और गुजराल की सरकारों को भी देश याद नहीं करना चाहता। दो बार अटल बिहारी वाजपेयी को भी अस्थिरता का सामना करना पड़ा। बहुमत नहीं मिल पाने के कारण उनके नेतृत्व में बनी पहली सरकार मात्र तेरह दिन में गिर गई। दूसरी सरकार को तेरह महीने में गिरा दिया गया। तीसरी बार जो सरकार बनी, वही अपना कार्यकाल पूरा कर सकी। लेकिन यह कहा जा सकता है कि वाजपेयी ही असल में पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे। उनसे पहले प्रधानमंत्री बने मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर, एच डी देवगौड़ा और इन्द्र कुमार गुजराल कांग्रेस के सदस्य रह चुके थे।
इस बार भी किसी एक पार्टी को बहुमत मिलने के चमत्कार की उम्मीद देशवासियों को नहीं है। जब राष्ट्रीय स्तर पर देखते हैं तो कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ही एेसे दो विकल्प नजर आते हैं, जिनका स्वरूप आप अखिल भारतीय कह सकते हैं। कर्नाटक में सरकार बनने से पहले तक भाजपा यह दावा करने की स्थिति में नहीं थी। इस समय हालत यह है कि कांग्रेस और भाजपा की राज्य सरकारें संख्या में लगभग बराबर हैं। गठबंधन सहयोगियों की बात करें तो उनकी संख्या भी लगभग बराबर है। एेसे राज्य, जहां उनका जनाधार लगभग नहीं के बराबर है, उनकी संख्या भी बराबर है। उत्तर प्रदेश और तमिलनाड़ु जैसे बड़े राज्य दोनों के लिए चिंता का कारण बने हुए हैं। बिहार में जहां भाजपा के पास जनता दल मजबूत सहयोगी के रूप में मौजूद है तो पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को ममता बनर्जी का साथ मिल गया है। हिन्दी भाषी राज्यों में कांग्रेस और भाजपा में सीधी टक्चकर तय है। यहां बराबरी का मुकाबला देखने को मिलेगा। यू पी में मायावती और आंध्र प्रदेश में चन्द्रबाबू नायडू इनके लिए सिरदर्द बनकर उभरने वाले हैं। चुनाव के बाद ये दो एेसी ताकतें होंगी, जो तय करेंगी कि केन्द्र में किसकी सरकार बने ? जाहिर है, मायावती जमकर सौदेबाजी करने की हालत में होगी।
इस चुनाव में भी क्षेत्रीय दल महत्वपूर्ण भूमिका में होंगे। शरद पवार, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव जैसे नेता चुनाव के बाद कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं। इनके साथ सीटों के तालमेल में ही कांग्रेस को पसीना आया हुआ है। वश्विक मंदी के इस दौर में देश को एक मजबूर नहीं, मजबूत सरकार की दरकार है। आने वाले वर्षो में देश के समक्ष कई तरह की समस्याएं आने वाली हैं। उनमें अंतरराष्ट्रीय, क्षेत्रीय और पड़ोसी देशों के साथ द्विपक्षीय मसले भी होंगे। आर्थिक मोर्चे पर यदि संभलकर काम करते हुए सही नीतियां नहीं बनाई गई तो देश के समक्ष भारी संकट खड़ा हो सकता है। आतंकवाद और आंतरिक सुरक्षा जैसे संवेदनशील मुद्दे पर और गंभीरता से काम किए जाने की जरूरत है। ये काम कोई मजबूर सरकार नहीं कर सकती। इसलिए मतदाताओं की जिम्मेदारी इस बार कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। उन्हें सोच-समझकर जनादेश देना होगा।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com