Tuesday, March 24, 2009

न कोई मुद्दा है न सिद्धांत

हर बार की तरह फिर यह सवाल उठ रहा है कि आम आदमी की लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली में दिलचस्पी क्यों कम होती जा रही है। वह मतदान करने बूथ तक क्यों नहीं जाता? आंकड़े बताते हैं कि देश के 45 प्रतिशत मतदाता अपनी राय जाहिर करने घर से नहीं निकलते। आखिर इसकी वजह क्या है? क्या वे आलसी हैं? आराम पसंद हैं? उन्हें कतार में घंटों खड़े होना गवारा नहीं है? एेसे बहुत से सवाल हैं, लेकिन क्या कभी सोचा गया कि इस उदासीनता की मूल वजह क्या है? आए दिन किसी न किसी स्तर के चुनाव होना एक कारण हो सकता है लेकिन राजनीतिक दलों, व्यवस्था और अंतत: न्याय व्यवस्था से उठता विश्वास इसका बहुत बड़ा कारण है।
आम आदमी को लगता है कि चुनाव प्रक्रिया मात्र एक ढकोसला है। यह एक छलावा है। उसके वोट की कोई कीमत नहीं है क्योंकि नोट तंत्र वोट पर कहीं अधिक भारी पड़ रहा है। कोई राजनीतिक दल पीछे नहीं है। जो सत्ता में होता है, वह अपने प्रचार के लिए सरकारी धन का जमकर दुरुपयोग करता है। विपक्षी दल भी पीछे नहीं हैं। प्रचार, संचार और यातायात के संसाधनों (विमान और हेलीकाप्टर शामिल) पर जमकर खर्च किया जाता है। पार्टियां काले धन के रूप में प्राप्त कई-कई सौ करोड़ रुपये खर्च कर देती हैं, लेकिन चुनाव आयोग उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। कछ अपवादों को छोड़ दें तो मतदान से पहले लगभग हर प्रत्याशी नोट के बल पर वोट खरीदने के लिए अपनी तिजोरी खोल देता है। काले धन का जैसा खुला प्रदर्शन चुनाव के समय होता है, वैसा कहीं नहीं होता।
राजनीति के अपराधीकरण को लेकर देश में खूब चर्चाएं होती हैं, लेकिन टिकटों की घोषणा होते-होते साफ हो जाता है कि हर पार्टी इस दलदल में गहरे तक धंसी हुई है। वह बाहर निकलना ही नहीं चाहती। आंकड़े यह बताने को काफी है कि हर राजनीतिक दल अपराधी चरित्र के प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारती है। पिछली लोकसभा में 543 में से 128 सांसद एेसे थे, जिन पर कोई न कोई केस चल रहा था। उनमें से कई तो गंभीर अपराधों में लिप्त थे। एेसा लगता है, जैसे राजनीतिक दलों ने अपराधियों के लिए सीटों का कोटा तय कर दिया है। पिछली लोकसभा में जेएमएम के पांच, शिवसेना के 7, एनसीपी के 5, अकाली दल के 4, बसपा के 8, राजद के 11, जदयू के 3, फारवर्ड ब्लाक का 1, जेडीएस का 1, समाजवादी पार्टी के 11, भाकपा के 3, द्रमुक के 4, लोजपा का 1, अन्ना द्रमुक का 1, भाजपा के 29, कांग्रेस के 26, माकपा के 7 और बीजू जनता दल का एक सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि का था। एेसे में क्या आम जनता हताश-निराश नहीं होगी? कुछ प्रदेशों तक सिमट चुकी राष्ट्रीय पार्टियां केन्द्र में सरकार बनाने के लिए क्चया कर रही हैं? जो क्षेत्रीय दल उन्हें फूटी आंखों नहीं सुहाते, उन्हीं से सीटों का तालमेल करने में लगी हैं। हर चुनाव के पहले कछ दल गठबंधनों से बाहर जाते हैं तो कुछ नए दल साथ आ जाते हैं। उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ अपनी ताकत बढ़ाना और सत्ता में भागीदारी हासिल कर सुख संपन्नता प्राप्त करना है।
पूरी दुनिया में भारतीय लोकतंत्र की अच्छाइयों के जमकर गुणगान किए जाते हैं। भारत को इस कारण सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है क्योंकि यहां 70 करोड़ से अधिक मतदाता हैं, जो हर पांच साल में देश के लिए नई सरकार चुनते हैं। यह अलग बात है कि इनमें से औसतन करीब 45 प्रतिशत मतदाता वोट ही नहीं डालने जाते। जो डालते हैं, वे अक्सर जाति और धर्म के आधार पर मताधिकार का उपयोग करते हैं। एक आम आदमी इस दौर में चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकता है? उनके पास दस से पंद्रह करोड़ रुपये नहीं हैं, जिसके बिना आजकल लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा जा सकता। आयोग ने लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए 25 लाख रुपये की सीमा तय कर रखी है, लेकिन वस्तुस्थिति क्या है? यह चुनाव लड़ने वाला हर प्रत्याशी ही नहीं जानता, चुनाव आयोग भी जानता है, लेकिन करता कुछ नहीं। सवाल पूछा जाता है कि राजनीति से इस गंदगी को दूर करने के लिए आखिर साफ-सुथरी के छवि के लोग राजनीति में क्यों नहीं आते? क्या उन्हें लोग चुनेंगे? क्या राजनीतिक दलों के नेता उन्हें चुनाव मैदान में उतारना पसंद करेंगे? वे जीत गए तो क्चया उन्हें जिम्मेदार पदों पर काम करने का अवसर मिलेगा? हकीकत यह है कि ईमानदार, सद्चरित्र और योग्य पढ़े-लिखे राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों को आगे आने ही नहीं दिया जाता।
झूठे वादे करके सरकारें बनती हैं तो वे लोगों के काम नहीं करती। मंत्री-विधायक-सांसद-नौकरशाह थैली का वजन बढ़ाने में जुट जाते हैं। आम आदमी न्याय के लिए कई-कई साल कोर्ट कचहरियों के चक्कर लगाते-लगाते थक जाता है। वह हताश-निराश है। आजादी के इतने सालों बाद भी उसे सूरत बदलती नजर नहीं आ रही। उसे लगता है कि उसके वोट की कोई कीमत नहीं रह गई है। वह खुद तमाशा बनकर रह गया है। चुनाव में जो दल एक-दूसरे के खिलाफ जहर उगलते हुए लड़ते हैं, बहुमत नहीं मिलने पर वे सरकार बनाने और पदों की बंदरबांट करने के लिए गलबहियां करते नजर आने लगते हैं। न कोई मुद्दा रह गया है और न ही सिद्धांत। आम आदमी के संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था से उठते विश्वास की यही वजह है। एेसे बहुत से राजनीतिक चेहरे हैं, जिनके लिए विचारधारा, कार्यक्रम, नीति, सिद्धांत जैसी बातें कोई मायने नहीं रखते। हर चुनाव में वे नई पार्टी के साथ गठबंधन करते नजर आते हैं। दो-दो, तीन-तीन सांसदों वाले छोटे-छोटे दलों के नेता भी केन्द्र सरकार में केबिनेट मंत्री बनकर सत्ता का सुख लूटने में शर्म महसूस नहीं करते। एेसी राजनीतिक बेशर्मी कहीं और देखने को मिलेगी? यही वे वजहें हैं, जिनके कारण आम आदमी का संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली से मोहभंग हो रहा है और यह किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है।
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

6 comments:

Anonymous said...

तर्कपूर्ण विश्‍लेषण। खरी बात। आम आदमी की उदासीनता ही घातक है।

MANVINDER BHIMBER said...

ओमकार जी .....
आंकडे जो बता रहें है ...स्तिथि उस से कही जियादा खराब है ....भले ही हम ये कहें की वोटर वोट देने मे दिलचस्पी नहीं ले रहा है ....लेकिन अब ये वक्त की मांग है की वोट देना जरुरी हो ....अगर ये तय हो की .वोट देने वाले को कुछ ख़ास सुविधाएँ मिले .....तो देखिय गा की उसी दिन वोट का प्रतिशत विकसित हो जाएगा .....बात ये होनी चाहिए की वोट हर हाल मे जरुरी हो.....इसके लिए आने वाली दिकते भी दूर होना शरू हो जाएंगी

निर्मल गुप्त said...

ओमका भाई,
एकदम खरी बात कह दी .आपसे ऐसे ही लेखों की उम्मीद है.
निर्मल

parul said...

aam janta hi jagruk nahi h

dharmendra said...

sir
aapki lekh ki sabse badi sacchai yeh hai ki honest people can not fight for parliament or legeslative assembly. i am also belong to a political background family. my grandfather have all ready fight for legislative assembly from lohia,s socialist party. but now this days he is silent. in my area all know him as a honest man. aaj bhi jab patna jate hain wheat bech kar jante hain. lekin sabse khusi ki baat hain ki ab hamlog ko samay de pate hain. unki bhi iccha hoti hai ki election lade, lekin crorepati to hain nahi ki chunav mey itna kharch karen. itna sub kuch baten ka reason tha ki maine ishe kaphi najdik se mahsus kiya hai.

sagarmeeruthi.blogspot.com said...

मेरे राय में सर आम आदमी से भारत का निमार्ण होता है और वह उदासीन हो गया है। इस आम जन को न डेमोक्रेसी से मतलब न अन्‍य राजनीति से इसे पहले राटी चाहिये बाकि बातें बाद में।