Monday, March 30, 2009

निशाने पर वरुण नहीं, मुलायम

वरुण गांधी पर रातों-रात राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाना, दरअसल कहीं पर निगाहें-कहीं पर निशाना कहावत को चरितार्थ करने वाली घटना है। वरुण तो मोहरा बन गए हैं। पीलीभीत की सात और आठ मार्च की जनसभाओं में यदि वे उग्र भाषण नहीं देते तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को मुसलमान मतदाताओं को बसपा के पक्ष में एकजुट करने का यह मौका ही नहीं मिलता। उनके निशाने पर वरुण नहीं, समाजवादी पार्टी और उसके मुखिया मुलायम सिंह यादव के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं। भाजपा भी इस प्रकरण से लाभ लेना चाहती थी, लेकिन चौबीस घंटे के भीतर मायावती ने जिस तरह वरुण
गांधी पर रासुका तामील कराकर मामले को तूल दिया, उससे साफ हो गया है कि एेसा करके वे राज्य के 19 प्रतिशत मुसलमानों को खुश करना चाहती हैं।
सर्वविदित है कि देश में सर्वाधिक मुस्लिम मतदाता उत्तर प्रदेश में ही रहते हैं। आजादी के बाद 1989 तक हुए चुनावों में से अधिकांश में मुस्लिम मतदाताओं ने कांग्रेस को ही वोट दिया, लेकिन बाबरी विध्वंस के बाद कांग्रेस से उनका मन खट्टा हुआ। यूपी में वे मुलायम सिंह यादव की पार्टी को ताकत देने लगे तो अन्य राज्यों में उन्होंने दूसरे धर्मनिरपेक्ष दलों को मजबूती देनी शुरू कर दी। जैसे आंध्र प्रदेश में वे तेलुगूदेशम को, तमिलनाड़ु में डीएमके, एडीएमके, पीएमके, केरल और पश्छिम बंगाल में वाममोर्चा को, कर्नाटक में जनतादल एस को, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल एकीकरण को वोट देने लगे तो जहां कोई विकल्प नहीं दिखा, वहां भाजपा को परास्त करने के लिए उसने कांग्रेस को भी वोट दिया। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार धीरे-धीरे सिकुड़ता चला गया और सपा के अलावा बसपा दूसरी बड़ी ताकत बनकर उभरी।
मायावती ने पहले दलितों को अपने साथ एकजुट किया। इसके बाद उन्होंने ब्राह्मण मतदाताओं को अपने साथ जोड़ा और अब मुसलमान मतदाताओं को रिझाकर वही समीकरण बनाने की ओर अग्रसर हैं, जिसके बूते कांग्रेस लंबे समय तक राज्य और
केन्द्र में राज करती रही। गौरतलब बात है कि यूपी में 19 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं जो लोकसभा की 35 और विधानसभा की 115 सीटों को प्रभावित करते हैं।
यह एक विडंबना है कि सभी पार्टियां समय-समय पर मुसलमानों से मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने की मांग तो करती हैं, लेकिन ये दल उतनी तादाद में उन्हें टिकट नहीं देते जितना देना चाहिए। 2004 के पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 417 प्रत्याशी खड़े किए, जिसमें से सिर्फ 33 मुसलमान प्रत्याशी थे। इसमें से सिर्फ 10 जीते। बीएसपी ने 435 उम्मीदवारों में 50मुस्लिम प्रत्याशी उतारे, जिसमें 4 जीते। समाजवादी पार्टी ने 237 प्रत्याशियों में से 38 मुसलमानों को टिकट दिया, जिसमें से 7 जीते। सीपीएम ने 70 में से 10 मुस्लिमों को खड़ा किया जिसमें से 5 जीते। इन आंकड़ों की गहराई में जाने पर यही पता चलता है कि सीपीएम को छोड़कर शेष दलों ने मुस्लिम बहुल इलाकों से ही मुस्लिम प्रत्याशियों को खड़ा किया।
ऐसा सिर्फ 2004 के ही लोकसभा या किसी एक विधानसभा चुनाव में ही नहीं हुआ, हर छोटे-बड़े चुनाव में मुस्लिम वोटरों के मद्देनजर इसी तरह से कैंडिडेट तय किए जाते हैं। बीएसपी सुप्रीमो मायावती की सोशल इंजीनियरिंग के करिश्मे को थोड़ी देर भूल कर अगर यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव नतीजों पर गौर करें तो पाएंगे कि जहां-जहां मायावती के मुस्लिम कैंडिडेट बीजेपी को हराने में सक्षम थे, वहां मुसलमानों ने बीएसपी के पक्ष में वोट डाला। पिछले कुछ महीने से मायावती लगातार कद्दावर मौलवियों को अपने पक्ष में लाने की कोशिश कर रही हैं। लखनऊ में ही मायावती ने कई मुस्लिम सम्मेलन कर डाले हैं। वरुण पर रासुका के पीछे मायावती की मुसलमानों को खुश करने की मानसिकता ही नजर आ रही है। उनके इस दांव से कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के नेताओं की सिट्टी-पिट्टी गुम है।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

3 comments:

parul said...

yha kuch bhi ho par raj karne ki neeti hein

सलीम अख्तर सिद्दीकी said...

bahut achha vishlashnan hai. bahut dinon baad aapki achhi post padhi hai.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

ham to samajh hi rahen hain....lekin kar kya sakte hain bhaayi....!!