Wednesday, April 1, 2009

संजय दत्त पर फैंसले के सबक


भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था मुख्यत: तीन स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर टिकी है। सभी जानते और मानते हैं कि विधायिका यानि जनता के चुने हुए नुमाइंदे और कार्यपालिका यानि नौकरशाही और व्यवस्थापिका (सरकारें) अपने कर्तव्य पथों से लगभग भटक चुकी हैं। ले-देकर न्यायपालिका है, जिस पर देश आज भी आंख मूंदकर भरोसा करता है। विधायिका की हालत यह है कि वह संसद और विधानमंडलों में अपने द्वारा ही बनाए गए कानूनों को ताक पर रखने में शर्म नहीं करती। न्यायपालिका और निर्वाचन आयोग जैसी संवेधानिक संस्थाओं के निर्देशों को भी राजनैतिक दल ताक पर रखने लगे हैं। देश में जिस तरह का राजनैतिक वातावरण बन गया है, उसमें छोटे-बड़े सभी दल अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए हर हथकंडा अपना रहे हैं। यह बात सही है कि यह गठबंधन सरकारों का युग है. बिना घातक परिणामों के बारे में सोचे संसद व विधानसभाओं में अपनी संख्या बढ़ाने के लिए राजनैतिक दल बाहुबलियों और दागियों को भी टिकट देने की होड़ में शामिल हो चुके हैं। सदनों की हालत क्या होती जा रही है, इसी से पता चल जाता है कि पिछली लोकसभा में 543 में से 128 सांसद एेसे थे, जिन पर कोई न कोई मुकदमा चल रहा था। देश में इस पर गंभीर चर्चा जारी है कि दागी किस्म के लोगों को वोट दिया जाना चाहिए या नहीं, लेकिन लगता है कि पार्टियों पर इसका कोई असर नहीं हो रहा। अगर होता तो वे इस बार गंभीर आपराधिक धाराओं में निरूद्ध व्यक्तियों को उम्मीदवार नहीं बनातीं। यह तो और भी आश्चर्य की बात है कि जिन्हें अदालत दो से अधिक वर्ष की सजा सुना चुकी है, एेसे व्यक्ति को भी प्रत्याशी बनाने की चेष्टा की गई। अब तो देश की जनता को ही तय करना है कि एेसी मानसिकता और सोच वाले दलों को क्या शिक्षा देनी है?
यह मानना होगा कि राजनैतिक दलों ने अपनी सोच और आचरण से देशवासियों को बेहद निराश किया है। राजनैतिक व्यवस्था तंत्र में घुन की तरह लग चुकी भ्रष्टाचार की बीमारी को दूर कर पाएंगे, लोगों को विश्वास नहीं रह गया है। कार्यपालिका के संबंध में सभी अवगत हैं कि वह न केवल पथभ्रष्ट हो चुकी है बल्कि विधायिका-व्यवस्थापिका को भी उसने उसी रास्ते पर डाल दिया है। ले-देकर न्यायपालिका और मीडिया ही एेसे स्तंभ बचे हैं, जो जब-तब आस-उम्मीद बंधाते हैं। प्रेस इसलिए क्योंकि जब भी संवेधानिक संस्थाओं पर राजनैतिक दल अथवा नौकरशाही छुपकर वार करने की कोशिश करते हैं अथवा किसी लाचार को सताया जाता है तो वह उन्हें बेनकाब करने की कोशिश करता है, लेकिन मीडिया के एक बड़े वर्ग में भी अब सत्तर छेद नजर आने लगे हैं। यह वाकई बेहद निराश करने वाले क्षण हैं। एेसे माहौल में न्यायपालिका से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह अकेले ही पूरे तंत्र को दुरूस्त कर देगी? क्या लोकतंत्र के बाकी तंत्रों की कोई जिम्मेदारी नहीं है? देश में कुछ लोग अभी भी व्याधियों और गलत सोच से जंग लड़ने की कोशिश करते दिख रहे हैं। वे धारा के विरूद्ध तैरने की कोशिश कर रहे हैं। ठीक एेसे, जैसे आंधी का मुकाबला कोई दीया कर रहा हो।
राजनीति में अपराधियों को क्यों संरक्षण दिया गया और उन्हें चुनाव लड़वाकर सदनों में भेजने की मानसिकता के पीछे कौन सी ग्रंथी काम करती है, यह देशवासी जान चुके हैं। यह अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि जिस मीडिया से उम्मीद की जाती है कि वह गलत आचरण करने वालों को हतोत्साहित करे और राष्ट्रभक्त, सद्चरित्र व पुरुषार्थ के बल पर अपना स्थान बनाने वालों को प्रोत्साहित करे, लेकिन अक्सर देखने में आता है कि गलत आचरण करने, कानून तोड़ने, गंभीर किस्म के अपराध करने और देश के विरूद्ध विध्वंसक गतिविधियों में लिप्त लोगों को वह हीरो की तरह पेश करता है। उसमें भी अगर फिल्मी ग्लैमर का तड़का लगा हो तो उसके लिए सोने पर सुहागे वाली बात हो जाती है। फिल्म अभिनेता संजय दत्त के मामले में समाजवादी पार्टी और भारतीय मीडिया ने यही तो किया है। क्या मीडिया को इसकी जानकारी नहीं है कि उन्हें 1993 के मुंबई बम धमाकों के लिए जिम्मेदार देश विरोधी ताकतों से अवैध हथियार लेने और घर में रखने के जुर्म में टाडा अदालत 31 जुलाई 2007 को छह साल की सजा सुना चुकी है? चूकि सजा के खिलाफ उन्होंने ऊपरी अदालत में याचिका दायर कर रखी है, इसलिए कानूनी प्रावधानों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें 27 नवम्बर 2007 को जमानत पर रिहा करने के आदेश दिए थे। इन तथ्यों को पूरी तरह नजर अंदाज करके समाजवादी पार्टी ने उनकी ग्लेमर की छवि को भुनाने के लिए लखनऊ सीट से लड़ाने का एेलान किया और टीआरपी के लिए कुछ भी दिखाने वाले इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने उन्हें नायक की तरह हाथों-हाथ ले लिया।
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को संजय दत्त पर जो फैसला दिया है, वह राजनैतिक दलों और मीडिया के साथ-साथ संजय दत्त जैसे महत्वाकांक्षियों के लिए कड़ा सबक है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव लड़ने की इजाजत देने की अपील वाली उनकी याचिका को खारिज करते हुए दो टूक शब्दों में कहा कि उन पर गंभीर किस्म के आरोप हैं। उन्हें चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भले ही उन्होंने पहली बार अपराध किया है लेकिन इससे अपराध की गंभीरता कम नहीं हो जाती। सपा नेताओं को पता नहीं यह भ्रम कैसे हो गया कि इस देश की सर्वोच्च अदालत कानून के खिलाफ जाकर छह साल की सजा पा जा चुके संजय दत्त को चुनाव लड़ने की इजाजत दे देगी? क्या उन्हें इसका इल्म नहीं था कि संगीन अपराधों में लिप्त रहे व्यक्ति को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं मिलती है। केवल नवजोत सिंह सिद्धू अपवाद हैं, जिन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति दी गई लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि संजय दत्त की सिद्घू के मामले से तुलना नहीं की जा सकती। अहम् सवाल यही है कि राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के समय-समय पर आने वाले इस तरह के फैंसलों से सीख और संकेत लेने की कोशिश क्यों नहीं करते. संजय दत्त मामले से क्या पार्टियाँ कुछ सबक लेंगी ? लगता तो नहीं.

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

12 comments:

अनुनाद सिंह said...

माननीय न्यायधीशों को लाख-लख साधुवाद जो एक भारतद्रोही आतंकवादी को संसद में जाने से रोक दिया। यह काम जनता निश्चय ही नहीं कर सकती थी।

ओमकार चौधरी said...

मै आपकी इस बात से सहमत नहीं हूँ कि संजय दत्त आंतकवादी हैं. टाडा अदालत ने भी उन्हें मुंबई बम विस्फोटों की साजिश में लिप्त नहीं माना है. उन पर साजिशकर्ताओं से अवैध हथियार लेने के आरोप सिद्ध हुए हैं. इसी दोष कि उन्हें छः साल की सजा सुनाई गई थी. वे सजायाफ्ता हैं, इसलिए उन्हें कोर्ट ने चुनाव लड़ने की आज्ञा नहीं दी.

सलीम अख्तर सिद्दीकी said...

anunad singh jaise logon ko tasveer ka ek hi rukh dikhye deta hai. varun jaise log inke aadrsh hain. baqi sab....

MANVINDER BHIMBER said...

अरे यहाँ तो कुछ और ही शुरू हो गया है.....वैसे यह सही है की मुन्ना गलत रह पर चल दिया था लेकिन वो गलत था....यह साबित होना बाकि है ...मई सलीम भाई की बात से sahmat हूँ

sarita argarey said...

मनविन्दर जी और सलीम साहब फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध में इस कदर ग़ाफ़िल हैं कि सही-ग़लत का फ़र्क करना भी भूल गये हैं । किसी एक फ़िल्म में किसी दूसरे के लिखे डायलॉग की बेहतरीन अदायगी से ये कैसे तय हो जाता है कि वह शख्स निजी ज़िन्दगी में भी वैसा ही है । एके ५६ की बरामदगी भी कोई मामूली बात नहीं है ।अंडर वर्ल्ड से ताल्लुकात रखने वाला ,आये दिन कानून को ताक पर रखकर मनमानी करने वाले व्यक्ति का संसद में भला क्या काम ? सज़ायाफ़्ता होने के बावजूद मान्यता से शादी के मामले में गोवा का निवासी होने का फ़र्ज़ी प्रमाणपत्र हासिल करना क्या बयान करता है । मीडिया ने अपने फ़ायदे के लिए स्लॉट बेचकर संजय दत्त के पक्ष में माहौल बना दिया ,तो भावुक जनता सारे संगीन जुर्मों को एक पल में भुला बैठी ? मान्यता को आज से तीन-चार साल पहले कितने लोग जानते थे । उसका इतिहास क्या है ,कौन है ,कैसी है कोई नहीं जानता । संजय दत्त की दूसरी या फ़िर तीसरी (??) बीवी होने के अलावा उसकी क्या काबिलियत है ? क्या इस आधार पर एक अरब देश से आई महिला का संसद में प्रवेश जायज़ है । वाह जनाब ,वाह । आप जैसे महानुभाव इस देश की लुटिया डुबो कर ही मानेंगे ।

dharmendra said...

supreme court ka decision swagat yogya hai. lekin sanjay dutt ka mamla hi iska hal nahi balki ish disa me aur kam karne ki jarurat hai. aur ha sir aapka media really me apne saarey laxman rekha cross kar raha hai. in logo ki puri marzi chale to ye kuch bhi dikha sakte hai. aapne is subject par media ki bhumika ki baat kahi hai. lekin mai all round baat karna chahta hun. mera sawal yeh hai ki agar entertainment channel news nahi dikha sakte to ye news channel kaise entertainment kar sakte hai.

Sonia Sharma said...

aapki baat se main poori tarah se sahmat hoo. waise bhi aaj k time mein ticket use hi milta hai jo kisi na kisi kaam mein involve hai. is baat se kisi ko koi fark nahi padta ki woh insaan us layak hai bhi ki nahi. aaj ke time mein filmstar do cheezon mein involve jarur milenge. paha rajniti n doosra dange fasad, hathiyar ya phir animals marne mein

सलीम अख्तर सिद्दीकी said...

saretha ji,
ye kyon bhool rahin hain ki narender modi ne us ek mahila ko mantri bana diya jis par 106 begunah logon ko marne ka aarop hai. ye log pargya singh jaise mahilon ki parokar hain. manyata ki sirf itni ghlti hai ki wo sanjy ki patni hai. jis vichar dhara ke anunad singh aur sareetha ji hain, us vichar dhara ke logon ko sirf muslman hi is desh ke dushman dikhye dete hain.

इरशाद अली said...

सरीथा जी आपको पता भी नही चला कि आप सर्किणता की नदी कि कितनी कुशल तैराक हो चली हैं। भले-बुरे का फर्क भी आप नही कर पा रहे हो। सिर्फ हिन्दू-मुसलमान के चश्मे से ही चीजांे को जांच रही है। जो गलत है, वो गलत है चाहे किसी भी सम्प्रदाय से जुड़ा हो। लेकिन आप सही-गलत की पैरोकारी से परे एकतरफा पक्ष ही देख पा रही। आप ही बताए कि देश की लुटिया कौन डुबो रहा है। वे ही लोग जो अपनी जबान से आसानी से किसी को कुछ भी कह देते है जो हकिकत के पास से भी नही गुजरतें। आपसे और भाई अनुनाद सिंह से तो ये उम्मीद ना थी। कि आप ही फैसले सूना दो। हम तो आपके साथ खड़े है हर बुराई के विरोध में। कम से कम हम ब्लागरों को तो इस सर्किण मानसिकता से परे होना चाहिये था।

sarita argarey said...

सलीम साहब और इरशाद मियाँ आप तो अब तक इस देश में पैदा होकर भी इस देश के नहीं हो पाये । कमेंट में कहीं भी मुसलमान शब्द का ज़िक्र नहीं है । ना ही उसमें छिपी ऎसी कोई भावना है । आप जब तक नज़रिये को व्यापक नहीं बनायेंगे दिक्कतें होंगी चीज़ों को समझने में । अमरसिंह जैसे सत्ता के दलाल के बरगलाने में मत आइये । मैं फ़िर कहती हूँ मुद्दों पर बात करिये ।कमज़ोर और रोतलू बच्चे की तरह घूम फ़िर कर हर मसले को हिन्दू-मुस्लिम चश्मे से देखना बंद कीजिये । प्रज्ञा ठाकुर और माया कोड्नानी का जहाँ तक सवाल है अगर वो अपराधी हैं तो निश्चित ही सज़ा के हकदार हैं । लेकिन बाटला हाउस मामले और सरकार पर दबाव बनाने के लिये उलेमा एक्सप्रेस ले जाने को क्या जायज़ ठहराया जा सकता है ।

इरशाद अली said...

सरीथा जी क्या देशभक्ति के सर्टीफिकेट आप बाटंती हैं। और जो किसी का खून बहाए वो ना हिन्दू है ना मुसलमान बल्कि वो इसानों की जात से परे कुछ और है। हां ये मुझे जरूर लगा कि आपका पाला अभी सर्किण मानसिकता वालों से ही पढ़ा है इसलिये आप सबको एक खाने में रख रही हैं। एक बात आपकी जानकारी के लिये बता देना चाहता हूं कि अभी हिन्दी ब्लागरों की संख्या बहुत कम हैं। जो लोग हिन्दी में ब्लाग चला रहे है वो सब जिम्मेदार और पढ़े लिखे है। तंग नजरिये वालो तक अभी हिन्दी ब्लाॅगिंग दूर है। जब दो चार लाख हिन्दी ब्लाॅग हो जाएगें गन्दगी तो तब बढ़ेगी। और आपने हमें कह दिया कि हम इस देश में होकर भी इस देष के ना हो पाए। कितना आसान है आपके लिये ये कहना। आपमें वरूण में या किसी और में फिर क्या फर्क रह जाएगा। ये कहकर वरूण को तो कुर्सी मिल जाएगी। लेकिन आप क्या सिद्ध करना चाह रही है मैं नही जानता। आपने मनविदंर जी को भी चकाचैंध में गाफिल बता दिया। काश आप जान सके कि उनका कितना काम है महिला सशक्तीकरण के लिये। वो किस तरह से अपनी जिम्मेदारीयो को निभा रही है।
कभी मेरठ आए। मेरी गली में। ये जत्तीवाड़ा चैक कहलाती हैं चारो तरफ हिन्दू ही हिन्दू रहते है। एक अकेला हमारा घर है मुस्लिम। लेकिन अगर कोई बता दे कि वहां कौन हिन्दू है और कौन मुस्लिम तो हम भी जाने। दिवाली जैसे उनके यहां होती है वैसे हमारे यहां भी तैयारीयां होती है। अगर हम ईद मना रहे है तो पूरी गली उसमे शरीक है। और सरीथा जी सलीम अख्तर जिनकी बारे मेें आप कह रही है उन्होने अभी यहां के स्थानीय अखबारों के लिये जो मुस्लिम नेताओ के लिये लिख दिया उसकी कोई हिम्मत भी नही दिखा सकता है। आप वो आर्टिकल पढ़े। यहां के सारे घटीया मुस्लिम नेता, कौम को गुमराह करने वाले आज उनके पीछे पड़े हुए है। वो उनकी तलाश में है। और दूसरी तरफ आप ऐसी बाते कहती हैं। आपका लेखन तो बहुत सषक्त और जिम्मेदारी वाला है। फिर भला आप ऐसी बातें कैसे कह सकती हैं। यहां हम विचारों का साझा कर रहे है ना कि किसी जज की तरह से अपने फैसले दूसरो पर थोप दे।

dharmendra said...

aap sabhi ke bich healthy vaad-vivad ho hum yahi apeksha karte hain. aise apne samaj me katuta to badhti hi ja rahi hai. hum jitne civilized hone ka dava karte ja rahe utne hi mansik rup se sakrin hote jate rahe hain. aam aadmi isme uljha hua hai. cast kae nam par to kahi religion ke nam par. lekin jisko is disha me kam karne ka adhikar hai we sabhi isi adhar par mauj kat rahe hain.
lohia ke samay me delhi me ek baar riot chidi hui thi. lohia ke saath ek muslim youvak bhi unke saath delhi aane ko jid karne laga. phir dono saath aaye. effected area me aane ke baad kuch hinduo ne muslim youvak ko gher liya. lohia ji bar-bar apni gadi se khade hote aur bhid ko bolte ise koi kuch nahi karega. mob phir aage bdhti lohia phir us youvak samne khade hote.
kya hamare desh aise leader hai jo aisa kar sake. kya hum aap aisa kar sakte hai. agar nahi kar sakte to phir upri dhikhawa karne se koi benefit nahi hai.