Thursday, April 16, 2009

कैसे कहें उन्हें मजबूत प्रधानमंत्री

विगत दो सप्ताह से देश अखिल भारतीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के बीच तीखे आरोप-प्रत्यारोपों को देख-सुनकर हैरान और परेशान है। हैरान इसलिए क्योंकि जिनके कंधों पर देश को चलाने की जिम्मेदारी है, उनसे एेसी बहस में पड़ने की उम्मीद उन्हें नहीं थी, जिससे राष्ट्र का कोई भला नहीं होने जा रहा। परेशानी की वजह यह है कि देश के समक्ष उपस्थित मूल मुद्दे पूरी तरह बिसरा दिए गए हैं। महंगाई, आतंकवाद, बेरोजगारी, मंदी, किसानों की आत्महत्या, भ्रष्टाचार और विदेशी बैंकों में जमा काले धन पर कोई चर्चा करने को तैयार नहीं है। एेसा लगता है कि शीर्ष नेतृत्व के लिए ये बहस के मुद्दे ही नहीं हैं। तेजी से बढ़ती असमानता, अमीर-गरीब के बीच बढ़ रही खाई, गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों की बढ़ती तादाद, लाचारी, न्याय मिलने में होने वाली देरी, अराजक होती पुलिस और पथभ्रष्ट होती कार्यपालिका पर कोई चिंतित नजर नहीं आता। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में रहे मामलों में बीस-पच्चीस साल में भी फैसला नहीं आता, लेकिन इसे देश के खेवनहार कोई मुद्दा मानने को तैयार नहीं हैं। अमेरिका से हुए एटमी करार पर सत्तापक्ष संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और वाम मोर्चा के बीच इस कदर ठन गई थी कि समर्थन वापसी के बाद प्रकाश करात और उनकी टोली किसी भी सूरत में मनमोहन सरकार को गिरा देने पर आमादा थी। इसके लिए उन्होंने ताज कोरिडोर से लेकर आय से अधिक संपत्ति के मामले में सीबीआई जांच का सामना कर रही बसपा नेत्री मायावती तक से हाथ मिलाने में कोई गुरेज नहीं किया, लेकिन कमाल की बात है कि उस पर न वाम मोर्चा अब कुछ कह रहा है और न कांग्रेस नेता। आतंकवाद निसंदेह देश ही नहीं, समूची दुनिया के सामने बड़ी चुनौती है, लेकिन अपने यहां इस मुद्दे पर जिस तरह की राजनीति हो रही है, वह शर्मनाक है।
इन दोनों राष्ट्रीय (?) दलों ने कुछ ही दिन पहले घोषणा-पत्र जारी किए हैं। समाज के हर वर्ग के वोट हासिल करने की मंशा से उनमें तमाम लोकलुभावनी घोषणाएं की गई हैं। आश्चर्य की बात है कि दोनों दलों का शीर्ष नेतृत्व घोषणा-पत्रों पर कुछ नहीं बोल रहा है। पहले वरुण गांधी, फिर लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी, उनके बाद नरेन्द्र मोदी से लेकर बी के हरिप्रसाद के जहर बुझे बयान मीडिया की सुर्खियां बनते रहे। देश के समक्ष जो बुनियादी मसले हैं, उन पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही। चर्चा का केन्द्र बिन्दू यह बन गया है कि डा. मनमोहन सिंह कमजोर हैं या लाल कृष्ण आडवाणी। पिछले दो सप्ताह से शीर्ष नेतृत्व के बीच शब्दों की जो जंग छिड़ी है, उससे देश का आम मतदाता हैरान और परेशान ही नहीं, निराश भी हुआ है। पिछले पांच साल में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की छवि देश-विदेश में शांत, सौम्य, मृदु व मितभाषी नेता की बनी है। एेसा माना गया कि वे चुप रहकर अपने काम में लगे रहने वाले नेता हैं। इस खासियत के चलते एक बड़े वर्ग में उनका खास सम्मान रहा है, लेकिन जब से उन्होंने चु्प्पी तोड़कर प्रतिपक्ष के नेता आडवाणी पर आक्रमण किया है, उनके बारे में लोगों की धारणा बदली है। सत्तारूढ़ दलों के सामने कभी न कभी एेसे दुर्गम क्षण आते हैं, जब उन्हें देशवासियों के व्यापक हित में फैसले करने पड़ते हैं। 1999 में कंधार विमान अपहरण के समय तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी को भी सैंकड़ों देशी-विदेशी यात्रियों की प्राण-रक्षा के लिए एक कटु और अप्रिय फैसला लेना पड़ा था। दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास पर उन यात्रियों के रिश्तेदार प्रदर्शन कर रहे थे, जिन्हें बंधक बना लिया गया था। कंधार में छह-सात दिन तक चले उस प्रहसन का अंत तभी हुआ, जब सरकार ने यात्रियों को मुक्त कराने के लिए तीन आतंकवादियों को छोड़ दिया।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और राहुल गांधी ने रणनीतिक तौर पर आक्रामक होते हुए विमान अपहरण कांड पर तत्कालीन राजग सरकार और खासकर पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आडवाणी को निशाने पर लिया है। कांग्रेस नेताओं को लगता है कि बचाव का सबसे आसान तरीका यही है कि आक्रमण किया जाए। तीन दिन पहले मुंबई में प्रेस कांफ्रैंस के दौरान जब प्रधानमंत्री से सवाल पूछा गया कि कंधार विमान अपहरण के समय यदि उन्हें फैसला लेना होता तो वे क्या करते, तो मनमोहन सिंह ने एेसा जवाब दिया, जो सुनने में तो अच्छा लगता है लेकिन उस पर अमल करना उतना ही मुश्किल होता है, जितना तब की अटल सरकार के लिए था। उन्होंने कहा कि हमारी सरकार ने जिस दृढ़ता का परिचय मुंबई में दिया, वैसा ही तब भी दिखाते। पुलिस, सेना और कमांडो कार्रवाई के बावजूद मुंबई के ताज, आबेराय होटल और छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन पर कुल 183 लोगों की जान चली गई। तो क्या कांग्रेस सरकार विमान यत्रियों की हत्या हो जाने देती? यह बात हालांकि भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कही है, लेकिन इसका जवाब कांग्रेस के पास नहीं है। विमान यात्रियों की एेवज में तीन आतंकवादियों को छोड़ने के मुद्दे पर अटल सरकार को निशाने पर लेने वाले कांग्रेस नेतृत्व से उन्होंने पूछा है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार में गृहमंत्री रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भी अपनी बेटी रुबैया सईद की एेवज में 1990 में कई आतंकवादी जेल से छोड़ दिए थे। उनके साथ कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर में साझा सरकार क्यों बनाई? जवाब न आना था, न आया।
पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी ने चुनाव की घोषणा होने पर ही डा.मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री नहीं कहा है। वे शुरू से यह बात कहते आ रहे हैं। पांच साल में मनमोहन सिंह ने कभी इस पर नाराजगी जाहिर नहीं की। कभी पलटकर वार नहीं किया, फिर अब कौन सी परिस्थितियां बदल गईं, जो उन्होंने कड़ा रुख अपनाते हुए उल्टे आडवाणी को आईना दिखाने की ठान ली। जिस तरह के सवाल मनमोहन सिंह इन दिनों कर रहे हैं, उससे एेसा लगता है कि आडवाणी ने उनकी किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया है। वह कुछ और नहीं, उन्हें कमजोर प्रधानमंत्री कहना ही है। मनमोहन सिंह जानते हैं कि वे कमजोर हैं और इसकी वजह वह हालात हैं, जिनके चलते उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी सोनिया गांधी की कृपा से हासिल हुई। वे जनाधार वाले नेता नहीं हैं। एक बार दिल्ली से लोकसभा का चुनाव लड़ने की हिम्मत दिखायी, लेकिन भाजपा के विजय कुमार मल्होत्रा के हाथों पराजित हो गए।
आडवाणी ने कुछ दिन पहले उनकी इस दुखती रग पर भी यह कहते हुए हाथ रख दिया कि प्रधानमंत्री उसी को बनना चाहिए, जिसे जनता चुनकर लोकसभा में भेजे। इससे मनमोहन इतने असहज हुए कि घोषणा-पत्र जारी करने के लिए बुलाए गए संवाददाता सम्मेलन में एचडी देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल का उदाहरण दे बैठे कि जब वे प्रधानमंत्री बने तो राज्यसभा के ही सदस्य थे। उन्होंने दो कदम आगे बढ़ते हुए यह भी कहा कि संविधान में एेसा कुछ नहीं कहा गया है कि राज्यसभा का सदस्य प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। मनमोहन सिंह अगर कमजोर नहीं दिखना चाहते हैं तो उन्हें लोकसभा चुनाव लड़कर आडवाणी और अपने आलोचकों को जवाब देना चाहिए था। एेसा करने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाए।
मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, लाल कृष्ण आडवाणी, नरेन्द्र मोदी और लालू प्रसाद यादव से लेकर वरुण गांधी तक को यह समझना होगा कि भारतीय जनमानस एक सीमा तक ही आक्रामक राजनीति को पसंद करता है। खासकर जो लोग जिम्मेदार पदों पर हैं, उनकी तल्ख टिप्पणियां, जिद और पलटवार देश का आम आदमी पसंद नहीं करता। मनमोहन सिंह कमजोर हैं, इसके पक्ष में कई दलीलें उदाहरणों के साथ दी जा सकती हैं। क्या यह सही नहीं है कि सरकार के तमाम अहम फैसले प्रधानमंत्री के सरकारी आवास 7, रेसकोर्स रोड़ के बजाय सोनिया गांधी के निवास 10, जनपथ से होते हैं? केन्द्र में कौन मंत्री होगा, इसका फैसला मनमोहन नहीं, सोनिया करती रही हैं। क्चया 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए जिम्मेदार माने जाने वाले जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार के टिकट मनमोहन सिंह की सहमति से दिए गए थे? प्रधानमंत्री रहते हुए भी वे कांग्रेस के स्टार प्रचारक क्यों नहीं हैं? बिहार और यूपी जसे राज्य में कांग्रेस को पुर्नजीवित करने के लिए क्यों नहीं जा रहे हैं? एेसे ही कई और सवाल हैं, जो मनमोहन सिंह की दुखती रग है। भाजपा ये सवाल उठाती है तो उन्हें अपमानजनक लगता है। एेसा नहीं लगता कि मनमोहन सिंह ने यह हालत खुद ही बनाई है? निश्चित ही वे एक काबिल अर्थशास्त्री, ईमानदार व्यक्ति और परिश्रमी हैं, लेकिन यह भी सच है कि वे जनाधार वाले नेता नहीं हैं. अपने दम पर महत्वपूर्ण फैंसले नहीं लेते हैं. वे हरदम सोनिया गांधी के ताबेदार नजर आते हैं। यदि वे कम से कम लोकसभा चुनाव ही लड़ने का निर्णय कर लेते तो विपक्ष के तीखे हमलों से कुछ हद तक बच सकते थे। पता नहीं, किस भय से ग्रस्त होकर उन्होंने चुनाव नहीं लड़ने का निर्णय लिया। फिर कैसे उन्हें मजबूत प्रधानमंत्री कहा जाए?

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

6 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बिलकुल सही बात. मनमोहन सिंघ की छवि वैसे भी एक नौकरशाह प्रधानमंत्री की बनी है. जिसकी कुल जिम्मेदारी केवल सोनिया गन्धी के प्रति है. यह कमजोर नहीं तो और कय है?

Anonymous said...

main aapke vicharoon se pooree tarha sahmat hoon.

Lekin Blogging ker ke to ish samashya ka samadhan nahee kiya ja sakta... aap to media wale hai... aap he bataiye... koi new paper/channel Congress ka to koi BJP ka support kerta hai... Desh Hit main kon baat ker raha hai aajkal...

Bhai Saab, Kuch bhi ker lo, jabtak hum aur app jaise log, aur bhi bahoot se log Bheer (Mob) ke saath chalte rahenge... tab tak kuch nahee hone wala....

In sabhi ko sudharna hai to ek vyapak andolan ki jaroorat hai.... Desh bachao Andolan....

Nahee to Bahut Bure din aane wale hai... soch ker ke aatma ro deti hai...

Aaj agar koi bhi aadmee Hindi ke bhale ki baat kerta hai to wo Communal ho jata hai, ushpe NSA lag jata hai... wahi saaare congresse Mushlims/Chiristans ko badhawa dete hai to koi kuch nahi bolta... Kon kahta hai ke ye log minority main hai... inki population dekho aap ... peechle 20 saale main kaha se kaha pahooch gaye ye...

Ek din aisa aayega ki hum aur aap minority main honge aur ye log humlogon se Tax wasulenge yaha rahne ke liye....

aab agar nahee jaage to hamesha ke liye so jaaoge....

Desh ki naiya bahoot jor se dagmaga rahee hai.. aab nahi chete to sab khatam....

ओमकार चौधरी said...

बेनाम जी महाराज,
आप कहाँ बहक गए ? मेरे लेख में हिन्दू या मुसलमान का तो जिक्र ही नहीं है. न मैंने साम्प्रदायिकता के विषय में कुछ लिखा है. बात काबिलियत या नाकाबिलियत पर हो रही बयानबाजी की है, जिसमे देश के मूल मुद्दे अनदेखे हो रहे हैं. महरबानी करके चीजों को गलत दिशा में न ले जाइये. आपकी भी ये जिम्मेदारी है कि समाज और देश में सौहार्द बना रहे. इस तरह कि बातें नहीं होनी चाहिए.

dharmendra said...

excellent. sir haward, cambridge me padhen wale ko har chig aasani se mil jati hai. kaha jata hai ki paise se hi paisa kamaya jata hai. agar manmohan ji ne lakho dollar khrch kar padhai ki hai to desh ka pm banna aasan hai unke liye. aise advani ji ko bhi kamjor pm ke topic par baat nahi karni chahiye thi. desh me sabse bada mudda equality or prosperity ka hai. agar desh ke do diggaj ish tarah ki bahas me padte hai to desh ki chavi bhi kharab hoti hai. hume vishwa samuday ke samne ek powerful country ke rup me pesh karne ki jarurat hai. ha pichle door se pm ki kursi pad baithna dukhad hai.

हरि said...

आप कहें या न कहें; क्‍या फर्क पड़ता है। जिस तरह आडवाणी ने कुतर्क किए वैसे ही मनमोहन ने और उसी क्रम में आप और हम कर रहे हैं।

ओमकार चौधरी said...

जोशी जी, इस लेख के जिन कुतर्कों की तरफ आपने टिप्पणी में इशारा किया है, उन पर विस्तार से रौशनी डालेंगे तो मुझे अच्छा लगेगा. कौन से कुतर्क हैं, कृपया बताएँ