Friday, May 29, 2009

नये भारत के निर्माण की चुनौती


पंद्रह अगस्त 2004 को लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने कहा था कि वे एेसा भारत बनाना चाहते हैं, जिसमें सबको इंसाफ मिले। जहां इंसानियत और भाईचारा हो। एक एेसा भारत, जिसमें सभी लोगों को बराबर समझा जाये। एेसा भारत, जो खुशहाल हो। जिसमें अमन चैन हो। जिसमें हरेक को अपनी सलाहियत के मुताबिक काम मिल सके और वह अपना भविष्य बना सके। एक एेसा भारत जो धर्मनिरपेक्ष हो, जिसमें भेदभाव और नाइंसाफी न हो। एक एेसा भारत, जिसमें विविधता में एकता हो। पंद्रह अगस्त 2008 को उसी लालकिले की प्राचीर से देशवासियों को पांचवीं बार संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने 2004 के उस भाषण और सपने को याद किया। कहा कि एेसा भारत बनाने की हमारी पूरी कोशिश रही है। 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ, पंडित नेहरू ने संसद के केन्द्रीय कक्ष में देश का आह्वान किया था कि हमें गरीबी, अज्ञान, रोग और अवसर की असमानता हटाने के लिए सामूहिक रूप से कार्य करना चाहिए। मनमोहन सिंह ने 2008 के अपने संबोधन में दावा किया कि समान अवसरों के साथ एक समावेशी समाज का कार्य अभी भी चल रहा है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि मेरी सरकार को अपनी उपलब्धियों के आधार पर यह विश्वास है कि हम इस लक्ष्य की पूर्ति के और पास आ गये हैं।
2004 और 2009 के बीच जो पांच वर्ष गुजरे हैं, उनमें बहुत कुछ घटा है। मनमोहन सिंह कह सकते हैं कि वे जितना करना चाहते थे, बाहर से समर्थन दे रहे वामपंथियों ने नहीं करने दिया। इस बार उनके पास यह तर्क नहीं होगा। मतदाताओं ने उनमें और कांग्रेस पार्टी में भरोसा जाहिर किया है, इसलिए उन्हें वह सब करके दिखाना होगा, जो उन्होंने कहा है। अपने सपनों के नये भारत के निर्माण की गंभीर चुनौती उनके सामने है। मतदाताओं ही नहीं, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी मनमोहन सिंह के नेतृत्व में विश्वास व्यक्त किया है। वे चाहतीं तो 40 साल के होने जा रहे राहुल गांधी को इस बार प्रधानमंत्री बनाकर गांधी परिवार की अगली पीढ़ी का राजतिलक करा सकती थीं, लेकिन लगता है कि राहुल और सोनिया गांधी इस प्रचार की हवा निकालने पर आमादा है कि इस परिवार में तो लोग जन्म ही प्रधानमंत्री बनने के लिये लेते हैं। दूसरे, मनमोहन सिंह ने पिछली सरकार के समय नये भारत के निर्माण के लिए जो योजनाएं हाथ में ली थीं, वे उन्हें आगे बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री को पूरा समय देने के पक्ष में दिखाई देते हैं। हालांकि इस बार प्रधानमंत्री की बहुत परवाह नहीं करने वाले कुछ मंत्रियों अर्जुन सिंह, हंसराज भारद्वाज और शिवराज पाटिल को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। हालाँकि एक मामले में सोनिया ने मनमोहन की नहीं मानी.प्रधानमंत्री मोंटेक सिंह आहलूवालिया को वित्तमंत्री बनाना चाहते थे। सोनिया नहीं मानीं। वे इस पद पर जनता के बीच के नेता को लाने की पक्षधर थीं। इसलिए प्रणब मुखर्जी को आम आदमी को राहत देने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। पद संभालते ही वे बजट की तैयारियों में जुट गए हैं।
डा.मनमोहन सिंह को यह समझना होगा कि पूरे देश की उम्मीद भरी निगाहें अब उनकी मंत्री परिषद पर टिकी हैं। वे और सोनिया गांधी यह समझते हैं कि जिस कांग्रेस को 2004 में 145 सीटें मिली थीं, उसकी झोली में 2009 के लोकसभा चुनाव में 206 सीटें कैसे आई हैं। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना ने खासकर ग्रामीण भारत में नयी उम्मीद जगायी है। सेहत, शिक्षा, बिजली, सड़क, आवास और सिंचाई के लिये मनमोहन सरकार ने 25 हजार करोड़ रुपये का जो निवेश किया, वह बहुत से गांवों में दिखायी भी दिया। किसानों का 71 हजार करोड़ का कर्जा माफ किया गया। कृषि के लिये 2 लाख 25 हजार करोड़ के कर्जे बैंकों ने जारी किये। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत भी केन्द्र सरकार ने तीन करोड़ से अधिक जरूरतमंद ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध कराया। इसके अलावा राष्ट्रीय शिक्षा योजना, कौशल विकास मिशन, छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के फैसले ने अपना असर दिखाया। साफ है, इन योजनाओं को और तेज गति से आगे बढ़ाने की चुनौती सरकार के सामने होगी। ग्रामीण रोजगार गारंटी जसी योजना की मांग अब शहरी बेरोजगारों की ओर से भी उठ रही है।
मनमोहन सिंह सरकार के समक्ष चुनौतियां कम नहीं हैं। मुद्रा स्फीति की दर भले ही नीचे आई हो, लेकिन महंगाई सातवें आसमान पर है। तमाम योजनाओं और सरकारी प्रयासों के बावजूद यदि देश के आम आदमी को राहत मिलती नजर नहीं आ रही है, तो कहीं न कहीं उन योजनाओं को लागू करने के तौर-तरीकों में खोट है। नौकरशाही में लालफीताशाही चरम पर है। प्रशासनिक अधिकारी सेवक नहीं, स्वामी की तरह व्यवहार करते हैं, इसलिये प्रसासनिक सुधारों को लागू करना एक चुनौती होगी। मंबई पर हमले जसे खतरों की आशंका खत्म नहीं हुई है। बाहरी और भीतरी आतंकवाद आज एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने है। मनमोहन सिंह सरकार को जहां केन्द्रीय और राज्य के साथ-साथ जिला स्तर तक के खुफिया तंत्र को बेहद चुस्त चौकस बनाना होगा, वहीं अंदरूनी कमजोरियों को भी खत्म कर उन कारणों का समाधान खोजना होगा, जिनके चलते ये हालात उत्पन्न होते रहे हैं।
देश में कुपोषण की समस्या बहुत भारी है। खासकर ग्रामीण और बेहद पिछड़े इलाकों में बच्चों का न तो ठीक से पालन-पोषण होता है और न उनकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था। हर वर्ग को समान अवसरों की बातें तो की जाती हैं परन्तु मंत्रीमंडल में स्थान दिये जाने से लेकर एक चपरासी की नौकरी पाने तक में वंचित वर्ग को अवसर के लिए तिल-तिल कर तरसना पड़ता है। समावेशी समाज की स्थापना की बात नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक करते नजर आते हैं परन्तु वास्तविकता क्या है, यह समझने की जरूरत है। हकीकत यह है कि असमानता दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। जब तक देश से भुखमरी, बेकारी-बेरोजगारी और किसानों की खुदकुशी खत्म नहीं होगी, तब तक कोई प्रधानमंत्री अथवा सरकार यह दावा नहीं कर सकते कि देश तरक्की कर रहा है।
आर्थिक, सामाजिक मोर्चे पर तो मनमोहन सिंह की सरकार को जूझना ही है, वैदेशिक मोर्चे पर भी बहुत पापड़ बेलने होंगे। पड़ोसी देशों की बात करें तो अफगानिस्तान को छोड़कर किसी के बारे में भी विश्वास के साथ नहीं कह सकते कि वह इस समय हमारे भरोसे की कसौटी पर खरा उतरता है। पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल अस्थिरता के दौर से गुजर रहे हैं। पड़ोस में आग लगी हो तो उसकी आंच जरूर प्रभावित करती हैं। भारत की नयी मनमोहन सरकार को एेसे प्रयास करने होंगे कि पड़ोसी देशों में न केवल अमन बहाल हो बल्कि वहां लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई स्थिर सरकारें विकास कार्यो को आगे बढ़ाएं। इसके लिए भारत ने अफगानिस्तान में जिस तरह आगे बढ़कर सहयोग किया है, यदि अवसर मिले तो वसी ही उदारता अन्य देशों में भी दिखानी होगी। इन सब चुनौतियों के बीच जाहिर है, सबकी निगाहें डा. मनमोहन सिंह पर होंगी, जो नये भारत के निर्माण के अपने सपने को मूर्त रूप देना चाहते हैं।

Saturday, May 23, 2009

सहयोगियों की फांस जस की तस

कहते हैं, आगाज अच्छा हो तो अंजाम सुखद रहने की उम्मीद बढ़ जाती है। लगातार दूसरी बार शपथ ग्रहण करके डा. मनमोहन सिंह ने भारतीय राजनीति के इतिहास में अपना एक विशेष स्थान बना लिया है, लेकिन सोलह मई को चुनाव परिणाम मिलने के बाद कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों में जो उल्लास का वातावरण दिखायी दे रहा था, वह शपथ ग्रहण का वक्त आते-आते काफूर हो गया। उनके सहयोगी दलों ने सरकार बनने से पहले ही पदों को लेकर जो मोल-भाव शुरू किये, उसने रंग में भंग डाल दी। यह माना गया था कि पिछली सरकार के दौरान जिन-जिन दलों ने बखेड़े खड़े किये। सरकार के काम काज में रोड़े अटकाये और विभिन्न मुद्दों को लेकर बाधाएं खड़ी की, मतदाताओं ने उन सबको बाहर का रास्ता दिखा दिया। उन दलों को भी समर्थन नहीं दिया, जो सरकार को अस्थिर कर सकते थे। वामपंथियों का हश्र सबके सामने है, जिन्होंने एटमी करार को मुद्दा बनाकर सरकार को गिराने की कोशिश की। मायावती, चंद्रबाबू नायडु और जयललिता जैसे क्षत्रपों को उतनी ताकत नहीं मिली कि वे खेल कर सकें। लालू, पासवान और मुलायम दावे कर रहे थे कि उनके बिना कोई सरकार नहीं बन सकेगी। वे आज तीन में हैं न तेरह में। पिछली लोकसभा में कांग्रेस की 145 सीटें थी, जो बाद में बढ़कर 153 हो गयी थीं। इस बार मतदाताओं ने उसे और ताकत दी। उसके लोकसभा सदस्यों की संख्या बढ़कर 206 तक जा पहुंची है, लेकिन यह संख्या बहुमत से 66 कम है। जाहिर है, बिना गठबंधन सहयोगियों के उसकी सरकार नहीं चल सकती लेकिन कांग्रेस नेताओं के बयानों, शारीरिक भाषा और तौर-तरीकों से एेसे संकेत गये मानों मतदाताओं ने उसे निर्णायक ताकत दे दी है और अब उसे किसी की परवाह नहीं है। बिना शर्त समर्थन देने वाले समाजवादी पार्टी, राजद और दूसरे दलों की यह कहते हुए खिल्ली उड़ायी गयी कि सीबीआई के केसों में फंसे होने के कारण वे समर्थन देने की होड़ लगाये हुए हैं, जबकि कांग्रेस ने उनसे समर्थन मांगा ही नहीं है।
डा. मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को शपथ ग्रहण समारोह से ठीक चौबीस घंटे पहले घटे घटनाक्रम से इसका अंदाजा हो चुका होगा कि भले ही कांग्रेस की ताकत 153 से बढ़कर 206 हो गयी है लेकिन केन्द्र में सरकार का गठन और संचालन उनके लिये बहुत आसान नहीं रहेगा। गठबंधन सरकार आज भी कांग्रेस की उतनी ही बड़ी मजबूरी है, जितनी 2004 में थी। यह ठीक है कि मतदाताओं की समझदारी से कदम-कदम पर मुश्किलें खड़ी करने वाले वाम दलों से इस बार उसे छुटकारा मिल गया है, लेकिन उसे नहीं भूलना चाहिए कि डीएमके, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, नेशनल कांफ्रैंस जैसे दलों के सहयोग की उसे जरूरत है। डीएमके ने 2004 में भी मंत्रालयों और पदों को लेकर ठीक इसी तरह का नाटक किया था, जैसा इस बार किया है। तब उसके मंत्री शपथ लेने के बाद चैन्नई जा बैठे थे और उन्होंने मंत्रालयों का कामकाज तभी संभाला, जब उन्हें मनपसंद विभाग मिल गये। इस बार उन्होंने शपथ ग्रहण करने से पहले ही सब कुछ तय कर लेने का फैसला किया। 2004 में कांग्रेस ने सहयोगी दलों के लिये सरकार में कोई निश्चित कोटा अथवा फार्मूला तय नहीं किया था। चूकि इस बार कांग्रेस की ताकत थोड़ी बढ़ी है, इसलिये उसे लगा कि वह सहयोगी दलों पर अपनी शर्ते थोप सकती है। उसने तीन सांसदों पर एक मंत्री पद का फार्मूला बना दिया। कांग्रेस की लगती यह रही कि उसने इस पर सहयोगी दलों से सहमति लेना भी मुनासिब नहीं समझा।
नतीजतन डीएमके मंत्रालयों, पदों और संख्या को लेकर सौदेबाजी और ब्लैकमेलिंग पर उतर आया। प्रधानमंत्री ने टी आर बालू और ए राजा को मंत्रीमंडल में शामिल करने से इंकार कर दिया। डीएमके रेलवे, स्वास्थ्य, दूरसंचार जैसे मंत्रालयों की जिद पर अड़ा रहा। प्रधानमंत्री के लिये सबसे बड़ी दिक्कत यह रही कि वे किसी भी सूरत में टी आर बालू और ए राजा को मंत्रीमंडल में नहीं लेना चाहते थे, क्योंकि पिछली सरकार में उनका काम-काज बहुत खराब रहा था। उन पर कई तरह के आरोप हैं। करुणानिधि न केवल इन दोनों बल्कि अपनी बेटी, बेटे और भतीजे दयानिधि मारन को भी मंत्री बनाये जाने की मांग पर अड़ रहे। तनाव इस कदर बढ़ा कि करुणानिधि शपथ ग्रहण समारोह का बायकाट कर बालू समेत कई वरिष्ठ नेताओं के साथ वापस चैन्नई लौट गये। नाराजगी के स्वर अन्य दलों की तरफ से भी सुनाई दिये। जम्मू-कश्मीर के नए सहयोगी नेशनल कांफ्रैंस के नेता, और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कांग्रेस नेताओं पर राजनीतिक शिष्टाचार की अनदेखी का आरोप लगाया। उनकी नाराजगी इसे लेकर थी कि मंत्रीमंडल में उनके पिता फारुख अब्दुल्ला को शामिल करने न करने पर कांग्रेस नेतृत्व ने उन लोगों से बात तक नहीं की। ममता बनर्जी ने सार्वजनिक तौर पर हालांकि कुछ नहीं कहा लेकिन कई मसले हैं, जिन पर कांग्रेस के रख से वह भी नाराज बतायी गयी हैं। समाजवादी पार्टी महासचिव अमर सिंह और राष्ट्रीय जनता दल नेता लालू यादव कांग्रेस के रवैये से आहत हैं ही। लालू यादव ने पिछली सरकार की विदाई कैबिनेट बैठक में मनमोहन सिंह से यह कहते शिकायत दर्ज कराई कि कांग्रेस के कुछ नेता चैनलों पर उनके बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी कर रहे हैं। मंत्रालय को लेकर खबरें शरद पवार की नाराजगी की भी आई, लेकिन उन्हें समझा-बुझा लिया गया।
कांग्रेस नेतृत्व को यह समझना होगा कि लोकसभा में अभी भी उसके पास अपने दम पर बहुमत नहीं है। गठबंधन सरकार चलाने के लिये उसे अब भी सहयोगियों के समर्थन की दरकार है। पिछले कुछ दिनों में उसके प्रमुख नेताओं के बयानों और उनकी बाडी लैंग्वेज से एेसा लगा, जैसे उन्हें इस बार किसी की खास परवाह नहीं है और वे हर लिहाज से मजबूत सरकार बनाने जा रहे हैं। करुणानिधि की मांगों को जायज नहीं ठहराया जा सकता और पदों व मंत्रालयों को लेकर वे जैसी जिद कर रहे हैं, वह भी सीधे-सीधे प्रधानमंत्री के विशेषाधिकारों में हस्तक्षेप है। इसके बावजूद उन्हें मनाना और साथ रखना कांग्रेस की मजबूरी है। यही नहीं मुलायम, लालू, देवगौड़ा, मायावती जैसे उन नेताओं का निरादर भी यूपीए सरकार को आगे चलकर महंगा पड़ सकता है, जो बिना मांगे उसे समर्थन की घोषणा कर चुके हैं। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को इसका अंदाजा हो गया होगा कि करुणानिधि के अलग होने की सूरत में यही मुलायम और लालू इस सरकार के जीवन के लिये कितने महत्वपूर्ण हो सकते हैं। न्यूनतम साझा कार्यक्रम नहीं बनाने से लेकर इस बार कांग्रेस ने कई एेसे फैसले लिये हैं, जिनसे संकेत मिलते हैं कि वह गठबंधन सहयोगियों के प्रति जवाबदेह नहीं रहना चाहती। यह रवैया इस सरकार के दीर्घजीवी होने के मार्ग में बाधक भी बन सकता है। वैस भी डा. मनमोहन सिंह की इस बार की राह बहुत आसान नहीं रहने जा रही है। आर्थिक मोर्चे सहित कई मोर्चो पर उन्हें पहले ही दिन से जूझना होगा। लोगों ने उनमें भरोसा दिखाया है तो उन्हें उस पर खरा भी उतरना है।

Tuesday, May 19, 2009

दूसरी पारी की तैयारी


सतहत्तर वर्षीय डा. मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री दूसरी पारी के लिये तैयार हैं। 19 मई को संसद के केन्द्रीय कक्ष में उन्हें कांग्रेस के नवनिर्वाचित संसदीय दल का नेता चुन लिया गया। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में यूपीए को 263 सीटें मिली हैं, जो बहुमत से 9 कम हैं। अब तक तीन एेसे दल यूपीए सरकार को समर्थन की घोषणा कर चुके हैं, जो इस चुनाव में उसके साथ मिलकर नहीं लड़े थे। ये हैं 23 सांसदों वाली समाजवादी पार्टी, 20 सांसदों वाली बहुजन समाज पार्टी और तीन सांसदों वाली जनता दल एस। इस तरह देखें तो मनमोहन सिंह के नेतृत्व में गठित होने जा रही यूपीए सरकार को बहुमत साबित करने में कोई दिक्कत नहीं आयेगी। वैसे भी कांग्रेस नेतृत्व कुछ छोटे दलों से बात कर रहा है ताकि उसे एेसे दलों की बैसाखियों का सहारा न लेना पड़े, जो पहले भी उसके लिये मुसीबतें खड़ी करते रहे हैं। सोनिया और मनमोहन सिंह यह कैसे भूल सकते हैं कि एटमी करार के मुद्दे पर वाम मोर्चा द्वारा समर्थन वापस ले लेने पर बसपा नेता मायावती ने यूपीए सरकार को धराशायी करने के लिये किस तरह की जोड़-तोड़ की थी। इसी तरह मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह ने अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हुए एेसे हालात पैदा कर दिये कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और सपा के बीच सीटों का तालमेल सिरे ही नहीं चढ़ पाया। माया और मुलायम सहित किसी को भी इसकी भनक नहीं थी कि इस बार यूपी में कांग्रेस को इतनी सीटें मिल सकती हैं। ये दोनों दल अगर समर्थन का एेलान कर रहे हैं तो इसे इनकी राजनीतिक मजबूरी समझा जा सकता है। दोनों के ही खिलाफ आय से अधिक संपत्ति मामले में सीबीआई जांच चल रही है। इसके अलावा वे खासतौर से अल्पसंख्यक वर्ग के मतदाताओं में यह संदेश देना चाहते हैं कि एेसा वे साम्प्रदायिक ताकतों को कमजोर करने और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को मजबूत करने के लिये कर रहे हैं। बहरहाल, मनमोहन सिंह एेसे पहले नेता बनने जा रहे हैं, जो गांधी-नेहरू परिवार से बाहर के होने के बावजूद लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं। वह भी इस परिवार की पहली पसंद बनकर। 2004 में सोनिया गांधी को यूपीए संसदीय दल का नेता चुन लिया गया था। उन्होंने अपने सिर का ताज मनमोहन सिंह को सौंप दिया। तब कहा गया कि चूकि राहुल गांधी अभी नौसिखिये हैं, इसलिये मनमोहन सिंह को तब तक के लिये यह पद सौंप दिया गया है, जब तक राहुल गांधी इस लायक नहीं हो जाते। सोनिया चाहती तो इस बार राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला कर सकती थी लेकिन उन्होंने एेसा नहीं किया। खुद राहुल गांधी भी प्रधानमंत्री बनने को उतावले नजर नहीं आ रहे। यही यह बात है, जिसे भारतीय मतदाताओं को प्रभावित किया है। 2004 में मनमोहन सिंह ने 22 मई को प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण की थी। अगले कुछ दिनों में वे फिर से देश की बागडोर संभाल लेंगे। लोगों की नजरें उनकी केबिनेट पर लगी हैं। यह लगभग साफ हो गया है कि वे इस बार लालू-पासवान सहित किसी भी दागी को मंत्री नहीं बनायेंगे। माना जा रहा है कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह राहुल गांधी की पसंद के कुछ युवा चेहरों के साथ एक आदर्श मंत्री परिषद का गठन करने जा रहे हैं।

मनमोहन सिंह : एक नजर में -
26 सितंबर 1932, पंजाब का गाह गांव और कोहली सिख परिवार में जन्म(इस समय पाकिस्तान के चकवाल जिले का हिस्सा)। देश विभाजन पर अमृतसर पलायन।
-1958 में गुरुशरण कौर से शादी। तीन बेटियां।
-अर्थशास्त्र की पढ़ाई के लिए पंजाब विवि में स्टडी। कैंब्रिज विवि से एम ए। ऑक्सफोर्ड विवि से 1962 में डी फिल। 64 में पहली किताब लिखी।
-1966 से 67 तक अंकटाड सचिवालय में कार्यरत। 70 में दिल्ली विवि में पढ़ाया। 71 में वाणिज्य मंत्रालय में सलाहकार। 72 में वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार।
वित्त मंत्रालय के सचिव, प्रधानमंत्री के सलाहकार और विवि अनुदान आयोग के अध्यक्ष रहे। 82 से 85 तक रिजर्व बैंक गवर्नर। 85-87 योजना आयोग के उपाध्यक्ष।
-91-96 में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री। आर्थिक संकट का दौर। अर्थव्यवस्था का निर्णायक मोड़। सुधार के तहत पूंजीवादी व्यवस्था का समावेश। लाइसेंस राज खत्म। विदेशी पूंजी निवेश की सारी बाधाएं खत्म। पब्लिक सेक्टर को निजी क्षेत्र के लिए ओपन। आर्थिक विकास दर 3 से 9 फीसदी तक पहुंची।
-95 में राज्यसभा में। 96 में सरकार की हार। फिर 2001 और 07 में उच्च सदन में। -98-04 राज्यसभा में विपक्षी नेता। 99 में लोकसभा चुनाव दक्षिणी दिल्ली से लड़े-हारे।
-2004 में यूपीए की सरकार। सोनिया ने सरल स्वभाव और विद्वान होने की वजह से प्रधानमंत्री चुना। आर्थिक सुधार के पुराने रास्ते पर। पाक से दोस्ती की पहल।
कश्मीर में आतकंवाद में कमी। 06 में चीन से दोस्ती। चार दशक बाद नैथुला दर्रा खुला। चीन से सबसे ज्यादा व्यापारिक रिश्ते। करजई से दोस्ती। विशेष मदद।
-जापान,ईरान, फ्रांस, जर्मनी, से रिश्ते बेहतर। रूस के धुर विरोधी इस्राइल से भी दोस्ती। 07 में चिदंबरम संग सबसे अधिक 9 फीसदी की आर्थिक विकास दर।
-बैंकिंग और वित्त सेक्चटर में सुधार। अमरीका से परमाणु करार पर अविश्वास प्रस्ताव। वाम ने नाता तोड़ा। सपा का साथ। सरकार बची। मंदी की मार। नवंबर में मुंबई पर हमला। पाटिल की विदाई। चिदंबरम होम मिनिस्टर। पाक से रिश्ते खराब।
10 जनपथ के साए में। सबसे कमजोर प्रधानमंत्री का आरोप। असम के वोटर नहीं पर राज्यसभा में। 90 और अब 09 में बाईपास सर्जरी।
-1987 में पद्म विभूषण,दर्जनों विशिष्ट पुरस्कार और सम्मान। कई मानद उपाधियां।

Monday, May 18, 2009

ये जनादेश स्थिर सरकार के लिए


मतगणना से एक दिन पहले तक भी माकपा महासचिव प्रकाश करात एेलान कर रहे थे कि कांग्रेस को किसी भी कीमत पर समर्थन नहीं दिया जायेगा। गैर-कांग्रेस, गैर भाजपा सरकार के गठन के लिये उन्होंने 18 मई को तीसरे मोर्चे के नेताओं की दिल्ली में बैठक बुलाई थी। मतगणना से ठीक पहले खबर आयी कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अपने दूत सतीश मिश्रा को करात के पास भेजा है। रणनीति यह बनी कि यदि भाजपा एक सौ पचास से आगे बढ़ी तो वाम मोर्चा मायावती को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर घोषित कर देगा। उधर, तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक प्रमुख जयललिता तीसरे मोर्चे के बाकी नेताओं से एक निश्चित दूरी बनाये हुए थी ताकि नतीजे आने के बाद राजग, यूपीए और तीसरे मोर्चे से जमकर सौदेबाजी कर सके । एच डी देवगौड़ा ने नतीजे आने से दो दिन पहले अंधेरे में चुपके से अपने पुत्र कुमार स्वामी को 10 जनपथ भेजा ताकि सोनिया गांधी के मन को पढ़ सकें। भाजपा ने चंद्रबाबू नायडु, जयललिता, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी को पटाने के लिये अपने दूतों के जरिये संपर्क साधा। नरेन्द्र मोदी के चेन्नई जाकर जयललिता से बात करने की खबर आई। हैदराबाद से खबर आई कि टीआरएस नेता के चंद्रशेखर राव ने मतगणना शुरू होने से पहले ही अपनी पार्टी के लोकसभा और विधानसभा प्रत्याशियों को पार्टी दफ्तर में बंद कर बाहर से ताला लगा दिया है ताकि खरीद फरोख्त की संभावना को खत्म किया जा सके। चुनाव की घोषणा होते ही कांग्रेस का दामन झिटककर पासवान के साथ मिलकर लड़ने का एेलान करने वाले लालू यादव ने प्रचार के दौरान दंभपूर्ण घोषणा की कि चुनाव के बाद हम लोग तय करेंगे कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा। मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह कहते घूम रहे थे कि समाजवादी पार्टी के बिना केन्द्र में कोई सरकार नहीं बन सकेगी। मराठा क्षत्रप शरद पवार चुनाव तो यूपीए के साथ लड़ रहे थे लेकिन चुनाव सभाओं में दिखाई दे रहे थे कांग्रेस के विरोधियों के साथ। उन्हें भी लग रहा था कि तीसरे मोर्चे और बाकी दलों के सहयोग से वे प्रधानमंत्री बन सकते हैं। राम विलास पासवान के वे चित्र अब तक पाठकों को ध्यान होंगे, जो उन्होंने जस्टिस पार्टी के उदित राज और रामदास अठावले के संग खड़े होकर खिंचवाये थे और दावा किया था कि मायावती अगर प्रधानमंत्री बन सकती हैं तो वे क्चयों नहीं? मतदाताओं ने इन सबके मंसूबों पर पानी फेर दिया। इनमें से अधिकांश इस समय अपने जख्मों को सहला रहे हैं।
इन सबके दंभपूर्ण बयानों और गतिविधियों से एेसे संकेत मिल रहे थे मानो, कांग्रेस इस चुनाव में निपटने ही जा रही है। इनमें से कुछ को अगर बनने वाली सरकार को अपनी शर्तो पर ही समर्थन देने की गलतफहमी थी तो उसकी वजह समझने की जरूरत है। इनमें से अधिकांश अतीतजीवी हैं। मौजूदा हालात क्या हैं और देश का आम जनमानस क्या सोच रहा है, इसका इन्हें जरा भी भान नहीं है? होता तो इस तरह के भ्रम नहीं पालते। उन्होंने यह भ्रम क्यों पाला कि वे खुद भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं या किसी को बना सकते हैं? इसकी वजह है। इन्हें भरोसा था कि जनता उन्हें फिर ताकत देगी। 2004 के लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चा को साठ से अधिक सीटें मिली थीं। मुलायम सिंह यादव की पार्टी को 39 सीटें हासिल हुई थीं। मायावती को उम्मीद थी कि उन्हें पचास सीटों पर कामयाबी मिलेगी और इसके बाद वे तय करेंगी कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा। 2004 में बिहार में कुल 24 सीटें हासिल कर मनमोहन सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लालू यादव को इस बार भी उम्मीद थी कि बनने वाली सरकार की तकदीर वे ही लिखेंगे। इसी तरह दक्षिण की नेत्री जयललिता को उम्मीद थी कि द्रमुक और कांग्रेस का सफाया हो जायेगा और वे तीस से अधिक सीटें जीतकर दिल्ली में बनने वाली सरकार का स्वरूप तय करेंगी। दिल्ली की राजनीति करने के लिये उन्होंने बसंत कुंज इलाके में अपने लिये एक बंगला भी तैयार करवा लिया था। चंद्रबाबू नायडु से लेकर देवगौड़ा तक सौदेबाजी लिये रणनीति बनाने में जुटे थे। इनकी यह गलतफहमी बढ़ाने में मीडिया ने भी भूमिका निभायी।
आपको वे क्षण याद होंगे, जब जुलाई 2008 में अमेरिका से एटमी करार को नाक का सवाल बनाते हुए प्रकाश करात और उनकी टोली ने मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। समाजवादी पार्टी ने आगे आकर यूपीए सरकार को समर्थन देने का एेलान किया। मनमोहन सिंह सदन में बहुमत साबित नहीं कर पायें, इसके लिये वाम मोर्चा, मायावती और उनके सहयोगियों ने दिन-रात एक कर दिया। पूरी ताकत झोंक दी लेकिन सरकार नहीं गिरी। इस पूरे प्रकरण से मतदाताओं में यह संकेत गया कि एेसे में जबकि अमेरिका सहित विश्व के तमाम देश मिल-जुलकर वैश्विक मंदी से निपटने के लिये एकजुट हो रहे हैं, हमारे देश में कुछ राजनीतिक दल मनमोहन सिंह की सरकार को जान-बूझकर अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं। मनमोहन सिंह की छवि सीधे-सो और ईमानदार नेता की है। वे राजनीतिक लंद-फंदों और उठापटक से अलग रहकर चुपचाप अपना काम करने में विश्वास रखते हैं। लोगों को लगा कि वामपंथी बेवजह उन्हें समय-असमय अपमानित करते रहे हैं। मतदाताओं को भाजपा नेताओं की ओर से मनमोहन सिंह पर किये गये हमले भी नागवार गुजरे। उन्हें अब तक का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री बताना और 10 जनपथ का गुलाम कहना लोगों को अच्छा नहीं लगा।
प्रकाश करात, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती, चंद्रबाबू नायडु, देवगौड़ा और भाजपा नेताओं के पास राजनीति का लंबा अनुभव है। उन्हें अब तक यह बात समझ में आनी चाहिये थी कि देश के आम मतदाता एक तो नकारात्मकता को नापसंद करता है। दूसरे, जोड़-तोड़ को वह अच्छा नहीं मानता। राजनीति में बड़बोलेपन और अहंकारपूर्ण व्यवहार को भी लोग पसंद नहीं करते। अवसरवादियों, मौकापरस्तों, सौदेबाजों और येन केन प्रकारेण सत्ता पर कब्जा करने वालों को भी पसंद नहीं किया जाता। जनादेश आ गया है। कांग्रेस को न तो वामपंथियों के समर्थन के जरूरत है। न लालू-पासवान की। जो प्रधानमंत्री बनने अथवा बनवाने के ख्वाब देख रहे थे, उन्हें मतदाताओं की तरफ से इतने गहरे जख्म मिले हैं कि उन्हें भरने में ही काफी वक्त लग जायेगा। वामपंथियों, लालू-पासवान, मायावती, जयललिता, चंद्रबाबू और देवगौड़ा जैसों को मतदाताओं ने बिना कुछ कहे जबरदस्त सबक सिखा दिया। उन्होंने देश में एक स्थिर सरकार के लिये जनादेश दिया है, जो इन जैसों के रहमोकरम की मोहताज न हो। लालू ने अपनी गलती मान ली है। वामपंथी भी आत्मचिंतन कर रहे हैं। बाकी नेताओं को भी मतदाताओं की ओर से दी गयी इस सीख को समझना चाहिए। सीख यही है कि देश हित को दांव पर लगाकर पदों और सत्ता के लिये बेशर्म जोड़-तोड़, सौदेबाजी बर्दाश्त नहीं की जा सकती। सीख कांग्रेस के लिये भी है। मतदाताओं ने उस पर भरोसा किया है। उसे मतदाताओं के भरोसे और अपेक्षाओं पर खरा उतरना पड़ेगा।

Sunday, May 17, 2009

बूढी कांग्रेस की नई उम्मीद


ज्यादा वक्त नहीं बीता है। संसद के पिछले सत्र की बात है। राहुल गांधी मुख्य द्वार से बाहर निकले। इलेक्ट्रोनिक मीडिया के तीन पत्रकार उनके पीछे लपके। राहुल अपनी गाड़ी में बैठने ही वाले थे, जब एक पत्रकार ने पीछे से आवाज लगाई। सर.सर.एक मिनट.आपसे एक कमेंट लेना है। राहुल रुके। पीछे देखा। माथे पर शिकन उभरी। नाराजगी के स्वर में उस पत्रकार से पूछा कि आपकी उम्र क्या है? पत्रकार थोड़ा सकपकाया। सोचा, कहीं कछ गलती तो नहीं हो गयी है। सिर को झटकते हुए जवाब दिया कि 46 वर्ष। राहुल के होठों पर हल्की सी मुस्कान थी। करीब पहुंचे। उस पत्रकार से कहा कि आप मुझसे उम्र में बड़े हैं। आप मुङो सर कैसे कह सकते हैं। मुङो अच्छा लगता, यदि आप मुङो राहुल कहकर बुलाते। वे तीनों मीडियाकर्मी हक्के-बक्के रह गये।
यह किस्सा यहां बताने के पीछे महज इतना ही मकसद है कि जिसे मीडिया का एक वर्ग युवराज कहकर उन्हें महिमामंडित करने की कोशिश करता है, वे तीनों पत्रकार उसी का हिस्सा थे। राहुल ने जिस अंदाज में यह बात कही, उससे उन्हें झटका लगा क्योंकि मीडिया से अपेक्षाकृत थोड़ी दूरी बनाए रखने वाले गांधी नेहरू परिवार के सदस्यों को लेकर तमाम तरह के किस्से कहानियां गढ़ते रहने वाले पत्रकारों को यह उम्मीद नहीं थी कि वह स्वभाव से इतने सरल हो सकते हैं। अगर यह कहा जाए कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने इस लोकसभा चुनाव में अपने सीधे-सच्चे-सरल स्वभाव से देश भर के मतदाताओं को मोहित किया है, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
39 वर्षीय राहुल गांधी लगभग उसी आयु वर्ग में पहुंच चुके हैं, जिसमें उनके पिता राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनकर देश की बागडोर संभाली थी। उन्होंने बहुत विपरीत परिस्थितियों में शपथ ग्रहण की थी। इंदिरा गांधी की प्रधानमंत्री निवास में ही उनके सुरक्षाकर्मियों ने गोलियों से भूनकर हत्या कर डाली थी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं और राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद संभालने को तैयार किया। सब अवगत हैं कि वे उस समय देश की बागडोर संभालने को पूरी तरह तैयार नहीं थे लेकिन उस हादसे ने उन्हें एेसा करने को विवश कर दिया।
राहुल गांधी 2004 में सक्रिय राजनीति में आए। अमेठी से चुनाव लड़े और जीते। पार्टी में चापलूसी की पुरानी परंपरा है। चारण स्वभाव के नेताओं की कमी नहीं है। उन्होंने सोनिया गांधी पर दबाव बनाना शुरू किया। दो साल पहले सोनिया ने राहुल को आखिरकार महासचिव बनाया। इसके बाद मांग शुरू हो गयी कि उन्हें मंत्री बनाया जाए। अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह जैसों ने दो कदम आगे बढ़ते हुए शिगूफा उछाला कि राहुल में प्रधानमंत्री बनने के सभी गुण और योग्यता मौजूद है। कांग्रेस का एक वर्ग मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद सौंपे जाने को पचा नहीं पा रहे थे। उन्हें लगा कि राहुल का गुणगान करेंगे तो सोनिया गांधी को अच्छा लगेगा। उनकी सोच गलत निकली। 10, जनपथ से उन्हें डांट पड़ी।
लोकसभा चुनाव का एेलान हुआ तो चारण प्रवृत्ति के नेता फिर सक्रिय हुए। धीरे से फिर यह मांग और अफवाह शुरू की गयी कि इस बार राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे। कांग्रेस उन्हें प्रोजेक्ट करेगी। घोषणा पत्र जारी करते समय सोनिया गांधी ने इस मुहिम की हवा निकाल दी। उन्होंने साफ कर दिया कि बहुमत मिलने पर मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री पद संभालेंगे। इसके कुछ समय बाद खुद राहुल गांधी और प्रियंका ने भी मनमोहन सिंह की प्रशंसा करते हुए कहा कि वहीं प्रधानमंत्री होंगे।
राहुल गांधी ने पहली बार देश भर में सघन प्रचार किया। वे रीडर नहीं, लीडर की तरह भाषण देते हुए नजर आए। कुछ अवसरों पर वे पार्टी की घोषित नीति से भटके भी लेकिन एक पल को भी नहीं लगा कि वे जो कुछ कह रहे हैं, उसमें किसी तरह की कुटिलता है। देश भर में डेढ़ सौ से अधिक जनसभाएं कीं। वे इक्कीस राज्यों में गए। दिल्ली में संवाददाता सम्मेलन किया तो अपने विरोधियों की भी प्रशंसा कर गये। जिनकी तारीफ की, उनमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, आंध्र के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु और जयललिता भी शामिल थे। शोर मचा कि उन्हें राजनीतिक समझ नहीं है। तमिलनाडु में एम करुणानिधि, बंगाल में ममता बनर्जी और आंध्र में राजशेखर रेड्डी के गाल फुलाने की खबरें आईं लेकिन जब उन्हें पता चला कि राहुल गांधी या 10, जनपथ की नीयत में खोट नहीं है तो वह नाराजगी खत्म भी हो गयी। राहुल ने सहयोगियों की नाराजगी को संजीदगी से लिया और फिर कोई एेसी बात नहीं कही, जिससे अनावश्यक गलतफहमी पनपे।
चुनाव प्रचार के दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस को 125 साल की बुढ़िया बताते हुए मतदाताओं से पूछा कि क्या ये बुढ़िया कांग्रेस देश का भला कर सकती है? अमेठी में अपने भैया का चुनाव प्रचार कर रही प्रियंका गांधी से जब इस पर प्रतिक्रिया पूछी गयी तो उन्होंने मुस्कुराते हुए पत्रकारों से पूछा कि क्या मैं बूढ़ी नजर आती हूं? आमतौर पर पत्रकारों से दूर रहने वाले गांधी-नेहरू खानदान के इन दोनों नौजवान भाई-बहन ने इस बार देश के समक्ष मौजूद समस्याओं पर खुलकर अपने विचार जाहिर किये। भाजपा नेताओं के हमलों के मुस्कराते हुए जवाब दिये। राहुल गांधी ने तमाम दबावों के बावजूद जिस तरह प्रधानमंत्री पद से दूर रहने का एेलान किया, उससे भारतीय मतदाताओं में एक बार फिर इस परिवार के प्रति यह धारणा मजबूत हुई कि वह पदों का भूखा नहीं है। 125 साल की बूढ़ी कांग्रेस को मिले इस जनादेश का एक पुख्ता कारण यह भी रहा।

Friday, May 15, 2009

तीसरे मोर्चे की सरकार क्यों नहीं

भारत और विश्व के समक्ष इस समय जिस तरह की समस्याएं हैं, उसमें तीसरे मोर्चे की सरकार क्या उन चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होगी? 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह व चंद्रशेखर और 1996 में एचडी देवगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल की सरकारों को आर्थिक मोर्चे पर विफल माना गया। कहा जाता है कि 1990-91 में वीपी सिंह और चंद्रशेखर सरकार के समय देश में भुगतान संतुलन का संकट खड़ा हो गया था। आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ कहते हैं कि उसके बीज राजीव गांधी सरकार के समय ही पड़ चुके थे, जब 1989 में केन्द्र और राज्य सरकारों का वित्तीय घाटा जीडीपी का दस प्रतिशत तक पहुंच गया था। दूसरे यह भी याद रखना होगा कि तीसरे मोर्चे की सरकारें अपनी अंदरूनी लड़ाईयों की वजह से कम और भाजपा व कांग्रेस की बेवफाई की शिकार अधिक हुई। मोरारजी देसाई की सरकार गिरने के बाद चौधरी चरण सिंह ने इंदिरा गांधी पर भरोसा किया। वे सदन का मुंह भी नहीं देख सके। कांग्रेस ने बिना ठोस कारण के समर्थन वापसी का एेलान कर दिया। 1989में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनी, जिसे भाजपा और वामपंथियों ने समर्थन दिया। मंदिर-मंडल का विवाद छिड़ा। भाजपा ने हाथ खींच लिया। सरकार गिर गयी। चंद्रशेखर ने चरण सिंह प्रकरण से सीख नहीं ली। राजीव गांधी पर भरोसा कर बैठे। सरकार बनी लेकिन बहुत मामूली वजह को तूल देकर कांग्रेस ने सरकार गिरा दी। 1996 में राष्ट्रपति डा.शंकर दयाल शर्मा ने सबसे बड़े दल भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का न्योता दिया। उन्होंने शपथ ली। तेरह दिन में सरकार गिर गयी। वे बहुमत साबित नहीं कर पाये। वामपंथियों और कांग्रेस के समर्थन से तीसरे मोर्चे के नेता के रूप में देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने, लेकिन ज्यादा समय तक नहीं चल सके। गुजराल के नेतृत्व में सरकार बनी लेकिन कांग्रेसाध्यक्ष सीताराम केसरी की सनक के चलते वह भी अल्पजीवी साबित हुई। जैन कमीशन की रिपोर्ट का बहाना बनाकर उन्होंने समर्थन वापस ले लिया। आज कांग्रेस केन्द्र में उसी द्रमुक के साथ बैठी है, जिसे तब उसने गुजराल सरकार से बाहर करने की शर्त रख दी थी।
1989 में गठबंधन सरकारों का जो दौर शुरू हुआ, वह जारी है। इसके अभी खत्म होने की आसार भी नहीं हैं। राष्ट्रीय दलों का आधार तेजी से खिसका है। क्षेत्रीय दलों ने उस पर कब्जा किया है। कांग्रेस का कभी एक छत्र राज था। अब कई राज्यों से लगभग सफाया हो गया है। उत्तर प्रदेश और बिहार में उसका नाम लेवा-पानी देवा नहीं बचा। पश्चिम बंगाल और तमिलनाड़ु जैसे बड़े राज्यों में वह सिमट गयी है। यानि दो सौ सीटें एेसी हैं, जहां कांग्रेस का आधार सिमट गया है। देश के सात-आठ राज्य एेसे हैं, जहां उसका सीधा मुकाबला भाजपा से होता है। बाकी राज्यों में क्षेत्रीय दल उसके मुकाबिल हैं। 543 लोकसभा सीटों में से यदि कांग्रेस के पास डेढ़ सौ सीटें ही हैं तो इससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि करीब दो तिहाई से ज्यादा मतदाता उसे वोट नहीं देते हैं। कमोबेश यही हाल भारतीय जनता पार्टी का है। मंदिर आंदोलन से अपना जनाधार बढ़ाने वाली भाजपा 1999 में 182 सीटों तक पहुंच गयी थी लेकिन 2004 के चुनाव में वह 138 पर अटककर रह गयी। इस बार भाजपा नीत राजग का नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी के बजाय लाल कृष्ण आडवाणी कर रहे हैं। भाजपा और उसके सहयोगियों को लगता है कि सरकार उनकी बन जायेगी। उनकी मानें तो भाजपा की सीटें बढ़ेंगी और उसके सहयोगियों की भी। सर्वेक्षणों, ओपिनियन और एग्जिट पोल्स पर भरोसा करें तो राजग दो सौ की संख्या पार नहीं कर रहा। भाजपा का दावा है कि राजग 220सीटें ला रहा है। उधर कांग्रेस भी इसी तरह का दावा कर रही है कि यूपीए को 205 सीटें मिलने जा रही हैं।
इन दावों की असलियत कल खुलने जा रही है। देश ही नहीं, पूरी दुनिया की नजरें सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनावी नतीजों पर टिकी हैं। यूपीए (कांग्रेस) और राजग (भाजपा) की कम से कम इसके लिये तो तारीफ करनी होगी कि ये दोनों अपने दम पर बहुमत हासिल कर लेने का दावा नहीं कर रही हैं। उन्हें इस जमीनी सच्चाई का पता है कि नतीजे आने के बाद सरकार बनाने के लिये उन्हें तीसरे और चौथे मोर्चे की पार्किंग में खड़े दलों से मदद की जरूरत पड़ेगी ही। मीडिया में तमाम तरह की अटकलें शुरू हो चुकी हैं कि तीसरे और चौथे मोर्चे के दल सौदेबाजी के बाद किस गठबंधन को समर्थन दे सकते हैं। इन मोर्चो के टूटने का अंदेशा इसलिये बढ़ गया है क्चयोंकि तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के सर्वेसर्वा के चंद्रशेखर राव नतीजे आने से पहले ही राजग के साथ चले गये जबकि बेंगलुरू में तीसरे मोर्चे की रैली कराने वाले एचडी देवगौड़ा के सुपुत्र कुमार स्वामी मीडिया के कैमरों से मुंह छुपाते हुए अंधेरे में सोनिया गांधी के दरबार में हाजिरी देने जा पहुंचे। तीसरे चौथे मोर्चे में एेसे कई दल हैं, जो पहले राजग का हिस्सा रहे हैं। कई एेसे हैं, जो साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर धर्मनिरपेक्षता का ढिंढोरा पीटते हुए कांग्रेस के साथ जाने का एेलान कर देंगे।
इस समय दरअसल, सबकी नजरें माकपा महासचिव प्रकाश करात पर टिकी हुई हैं। वे इस तरह की भाव भंगिमा बनाये हुए हैं, जसे यूपीए को समर्थन नहीं देंगे। वे गैर कांग्रेस-गैर भाजपा सरकार का शिगूफा छोड़ते रहे हैं। तीसरे मोर्चे की सरकार गठित करने के प्रति वे आश्वस्त दिखते रहे हैं। सबकी नजरें इस पर टिकी हैं कि सबसे बड़े दल के रूप में कौन उभरता है। कांग्रेस या भाजपा? देखना यह भी है कि कांग्रेस अगर सबसे बड़े दल के तौर पर सामने आयी तो भी क्या प्रकाश करात और उनकी वामपंथी टोली तीसरे मोर्चे की सरकार गठित करने की जिद पकड़े रहेगी? कांग्रेस पहले ही एेलान कर चुकी है कि वह तीसरे मोर्चे की सरकार को समर्थन नहीं देगी। दोनों की खींचातानी लंबी खिंची तो एेसे में राजग की संभावनाएं बन सकती हैं। तीसरे मोर्चे की सरकार इसलिये बनती नजर नहीं आ रही क्चयोंकि वहां मायावती, जयललिता, प्रकाश करात, चंद्रबाबू नायडु से लेकर एचडी देवेगौड़ा तक प्रधानमंत्री बनने की कतार में हैं। उनमें से अधिकांश नेताओं के अहम आपस में टकराते हैं। इससे भी बड़ा सवाल तो नम्बरों का है। तीसरे मोर्चे के नेता 272 का आंकड़ा कहां से लायेंगे? कोई भी सर्वेक्षण उन्हें सौ से ऊपर सीटें देने को तैयार नहीं है। यह भी गौर करने वाली बात है कि वामपंथियों के वर्चस्व वाली सरकार को रोकने के लिये अमेरिका भी सक्रिय हो चुका है। एेसा पहली बार हुआ है कि अमेरिका भारत में एेसी सरकार नहीं बनने देना चाहता, जो आते ही एटमी डील को रद्द कर दे और विदेश नीति को बदलकर उल्टी गंगा बहाने की कोशिशों में जुट जाये। अमेरिकी राजनयिक की चंद्रबाबू नायडु और पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण से मुलाकातों को इसी संदर्भ में देखा जा रहा है। प्रकाश करात ने तीसरे मोर्चे के नेताओं को मतगणना के दो दिन बाद नई दिल्ली बुलाया है। के चंद्रशेखर राव पहले ही राजग का दामन थाम चुके हैं। देखना यही है कि तब तक बाकी आठ दलों के नेता एकजुट रहते हैं या नहीं।

Thursday, May 7, 2009

कुछ ही खानदान सत्ता पर काबिज

राहुल गांधी ने वंशवादी राजनीति को अलोकतांत्रिक बताकर देश में नयी बहस छेड़ दी है। उनका बयान इसलिये भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे खुद वंशवादी राजनीति की देन हैं। मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी के बाद राहुल अपने परिवार की पांचवीं पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो वंशवादी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। वंशवादी राजनीति पर पत्रकार का सवाल काफी टेढ़ा था, जिसका जवाब देते हुए राहुल गांधी यहां तक कह गये कि वंशवाद की इस अलोकतांत्रिक राजनीति और परंपरा को वे बदलने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि राहुल यह साफ नहीं कर पाये कि इस व्यवस्था को वे कैसे बदलेंगे। क्या वे यह कहना चाह रहे हैं कि जिस तरह नेहरू, इंदिरा, राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद स्वीकार कर वंशवादी राजनीति को बढ़ावा दिया, उस तरह का कोई आचरण वे नहीं करेंगे। राहुल अभी अपेक्षाकृत राजनीति के नये खिलाड़ी हैं। जब राजीव गांधी नये-नये राजनीति में कदम रख रहे थे, तब वे भी बहुत साफगोई से पेश आते थे। बहुत अच्छी-अच्छी बातें करते थे। राहुल भी एेसी बातें कर रहे हैं, जो आम आदमी के मन मस्तिष्क में चलती रहती हैं। वे बहुत सी एेसी बातें भी कह जाते हैं, जो खुद उनकी पार्टी के खिलाफ चली जाती हैं। वंशवादी राजनीति हालांकि देश में अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है। वामपंथियों को छोड़कर शायद ही कोई एेसा दल होगा, जिसे वंशवादी राजनीति का रोग नहीं लगा है। कुछ साल पहले तक भारतीय जनता पार्टी भी इससे अछूती थी, लेकिन अब कई बड़े नेताओं के पुत्र और पुत्रियां सांसद और विधायक हैं। हर राज्य में यही आलम है। राहुल ने एेसा बयान दे दिया है कि अब पूरे देश की नजरें उन पर टिकी होंगी कि वंशवादी राजनीति को खत्म करने की दिशा में आखिर वे क्या करेंगे?
जब देश आजाद हुआ, तब आशा की गयी थी कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबको सत्ता में हिस्सेदारी मिलेगी। हर वर्ग और वर्ण का व्यक्ति चुनकर सदनों और अंतत: सरकार का हिस्सा बनेगा। लेकिन क्या इन बासठ सालों में एेसा हो पाया? कड़वी हकीकत यह है कि एक सौ पंद्रह करोड़ की आबादी वाले इस देश पर पचास-साठ परिवार अदल-बदलकर शासन करते चले आ रहे हैं। कभी कभार कहीं कोई मायावती, अच्युतानंदन, बुद्धदेब भट्टाचार्य या नरेन्द्र मोदी सरीखे चेहरे जरूर अपवाद स्वरूप जनता जर्नादन और अपनी मेहनत के बल पर आ जाते हैं, लेकिन दुर्भाग्य की बात यही है कि वे जनता की पहली पसंद बनकर सत्ता के दरवाजे तक पहुंचते हैं, लेकिन उसके बाद वंशवादी राजनीति को आगे बढ़ाने में जुट जाते हैं। इस कारण प्रतिभाशाली और जमीन पर संघर्ष करने वाला कार्यकर्ता उपेक्षित होकर अक्सर पिछड़ जाता है।
कह सकते हैं कि आजादी के बाद देश में यदि किसी ने वंशवादी राजनीति को सबसे अधिक बढ़ावा दिया है तो वह नेहरू-गांधी परिवार ही है। पंडित नेहरू सत्रह साल तक प्रधानमंत्री रहे। इंदिरा गांधी करीब पंद्रह साल तक इस पद पर रहीं। राजीव गांधी पांच साल प्रधानमंत्री रहे। यानि सैंतीस साल तक यह पद इसी परिवार के पास रहा। परिवार के बाहर के कुल तीन कांग्रेसियों को बतौर प्रधानमंत्री दो साल से अधिक समय तक देश की सेवा करने का अवसर मिल पाया और वह भी विशेष परिस्थितियों में। नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री इसलिए प्रधानमंत्री बने, क्योंकि तब तक इंदिरा गांधी परिपक्व नहीं हुई थीं। इसी तरह 1991 में पीवी नरसिंह राव को इसलिए मौका मिला, क्योंकि इंदिरा और राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी राजनीति से नफरत करने लगी थीं। राजीव के विछोह से उबरने में उन्हें सात साल लगे। 2004 में डा. मनमोहन सिंह इसलिए प्रधानमंत्री बनाए गए, क्योंकि राहुल गांधी उतने अनुभवी नहीं थे।
लेकिन यह भी सच है कि वंशवादी राजनीति को बढ़ावा देने का ठीकरा अब केवल नेहरू-गांधी परिवार के सिर पर नहीं फोड़ा जा सकता। विभिन्न राज्यों में भी बहुत से परिवार नेहरू-गांधी परिवार की तर्ज पर आगे बढ़े और देखते ही देखते राजपाट पर काबिज हो गए। ऐसा शायद ही कोई राज्य हो, जहां राजनीतिक खानदानों का वर्चस्व न हो। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल, चौधरी देवीलाल, बंसीलाल, चौधरी रणबीर सिंह व भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, राव वीरेन्द्र सिंह, चौधरी दलबीर सिंह, ओपी जिंदल के परिवार उनके बाद सत्ता का सुख भोग रहे हैं। इसी तरह चौधरी चरण सिंह, अजित सिंह, जयंत सिंह, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव से लेकर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित उनके पुत्र संदीप दीक्षित, पूरा सिंधिया परिवार, शेख अब्दुल्ला-फारुख अब्दुल्ला के बाद अब उमर अब्दुल्ला, बाबू जगजीवन राम के बाद उनकी बेटी मीरा कुमार, राजेश पायलट की पत्नी रमा पायलट और उनके बाद पुत्र सचिन पायलट, यूपी के कांग्रेस अध्यक्ष रहे जितेंद्र प्रसाद के पुत्र जितिन प्रसाद, कैप्टन अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री रहे। उनकी पत्नी परणीत कौर पटियाला से और हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह मंडी से लोकसभा सदस्य रहीं हैं। मंडी से ही सुखराम केंद्र में मंत्री रहे और उनका बेटा अनिल शर्मा हिमाचल में मंत्री रहा है। राजग सरकार में विदेशमंत्री रहे जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र शाह भी पिछले चुनाव में बाडमेर से लोकसभा पहुंचे।
पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के बाद उनके पुत्र सुखबीर बादल और अब बंठिडा से पुत्रवधू राजनीति में कूद पड़ी हैं। पंजाब में ही बेअंत सिंह मुख्यमंत्री थे। अब उनका बेटा तेज प्रकाश और बेटी भी राजनीति में हैं। बिहार की ओर बढ़ें तो रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव बरसों तक मुख्यमंत्री रहे। चारा घोटाले में फंसे तो अपनी पत्नी राबड़ी देवी को राजपाट सौंप दिया। रामविलास पासवान केंद्र में मंत्री हैं और उनका भाई रामचंद्र पासवान भी अब बिहार से लोकसभा सदस्य हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में भी वंशवादी राजनीति का बोलबाला रहा है। शरद पवार की बेटी भी अब राजनीति में कूद रही हैं। कांग्रेस नेता मुरली देवड़ा केंद्र में मंत्री हैं, उनके पुत्र मिलिंद देवड़ा दक्षिणी मुंबई से लोकसभा सदस्य हैं। शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे ने अपने बेटे उद्धव ठाकरे को पार्टी की कमान सौंपी है। उनके भतीजे राज ठाकरे ने अलग पार्टी बना ली। मुफ्ती मोहम्मद सईद केंद्र में गृहमंत्री रहे। बाद में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने। उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती भी राजनीति में हैं। आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव के बाद उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू सत्ता पर काबिज रहे, तो उड़ीसा में बीजू पटनायक के पुत्र नवीन पटनायक मुख्यमंत्री बने। ऐसे और भी कई परिवार हैं, जो कई पीढियों से राजे-महाराजाओं की तरह सत्ता पर काबिज हैं. एेसे ही पचास-साठ परिवार राज-रजवाड़ों के काल की तरह आज सत्ता सुख भोग रहे हैं। इसे कैसा लोकतत्र मानें?

Sunday, May 3, 2009

तीसरा मोर्चा ही बनेगा किंग मेकर

तीन चौथाई लोकसभा सीटों के लिये मतदान हो चुका है। सात और तेरह मई को शेष 231 सीटों के लिए मतदान होने के साथ ही सबकी निगाहें नतीजों पर टिक जाएंगी। मोटे तौर पर सबको अहसास है कि इस बार के परिणाम 2004 के मुकाबले कहीं अधिक भ्रामक होंगे। न किसी एक पार्टी को बहुमत मिलने वाला है और न गठबंधन को। इन हालातों में यह भी तय नहीं है कि चुनाव पूर्व जो गठबंधन बने हैं, वे परिणाम आने के बाद ज्यों के त्यों रहेंगे। सत्ता के इस खेल में नैतिकता की बात करना बेमानी सा हो गया है। सत्ता और कुर्सी के लिए अधिकांश राजनीतिक दलों के लिए नीतियां, कार्यक्रम और सिद्धांतों के कोई मायने नहीं रह गये हैं। इसकी प्रबल सभावना है कि परिणाम आने के बाद सत्ता की मंडी लगेगी। उसमें जमकर खरीदारी होगी। हैसियत के हिसाब से बोलियां लगेंगी। देश सौदेबाजी होते देखेगा। एक बार फिर मदताता खुद को ठगे जाने का अहसास करेगा। एेसे दल आपस में गलबहियां डालते नजर आयेंगे, जो प्रचार और मतदान के समय एक-दूसरे को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा तीसरे-चौथे मोर्चे को सबसे ज्यादा गरिया रहे हैं, लेकिन तय मानिये, यही दोनों मोर्चे इस बार किंग मेकर की महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहे हैं। जिस तरह के नतीजों की आस है, उसमें तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की संभावना सबसे कम है, लेकिन इसमें शामिल दल ही अंतत: तय करेंगे कि सरकार भाजपा के नेतृत्व में बननी है या कांग्रेस की अगुआई में।
परिणामों के स्वरूप, कांग्रेस-भाजपा गठबंधनों और तीसरे मोर्चे को मिलने वाली सीटों को लेकर तमाम तरह की अटकलें मीडिया में शुरू हो चुकी हैं। पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम, राजनीतिक हालातों, गठबंधन सहयोगियों की संख्या और देश की आबोहवा को देखने से लगता है कि कांग्रेस 2004 के मुकाबले घाटे में रहने वाली है। पिछले एक-डेढ़ साल में उसके आठ सहयोगी उससे अलग हुए हैं। सबसे पहले आंध्र प्रदेश में तेलंगाना राज्य की मांग करने वाली तेलंगाना राष्ट्रीय समिति अलग हुई। उसके बाद एमडीएमके ने किनारा किया। पिछले साल जुलाई में वाम मोर्चा ने अमेरिका के साथ एटमी करार करने के मुद्दे पर मनमोहन सरकार से समर्थन वापस लिया। जम्मू-कश्मीर के उसके सहयोगी पीडीपी ने गुलाम नबी आजाद सरकार से समर्थन वापस लेकर कांग्रेस से नाता तोड़ा। लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद जो तीन दल छिटके, वे हैं लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल, रामविलास पासवान की लोक जन शक्ति पार्टी और अंबुमणि रामदौस के नेतृत्व वाला पीएमके। मनमोहन सरकार के लिये संजीवनी बूंटी लेकर आये समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव भी उत्तर प्रदेश में सीटों का तालमेल नहीं होने पर कांग्रेस से अलग हो गये।
2004 में यूपीए को जिन राज्यों आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और बिहार से निर्णायक ताकत मिली थी, वहां उसकी सीटें घटने जा रही हैं। राजस्थान, पंजाब, उड़ीसा, केरल जैसे राज्यों से वह जितनी उम्मीद लगाये बैठी है, उतनी सीटें उसे नहीं मिलने जा रही हैं। 2004 में उसकी अपनी सीटों की संख्या 145 थीं। सहयोगियों, सपा-बसपा-रालोद और वाम मोर्चा के समर्थन से वह केन्द्र में सरकार बनाने में सफल रही थी। इस बार वाम दल बुरी तरह नाराज हैं। यह नाराजगी पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से कांग्रेस के गठबंधन से और बढ़ी। प्रकाश करात खेमा कतई नहीं चाहता कि परिणाम आने के बाद किसी भी सूरत में कांग्रेस को सरकार के गठन में सहयोग दिया जाये। इसलिये कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ेंगी।
भारतीय जनता पार्टी के लिये भी राह कतई आसान नहीं है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में उसके लिये भीषण सूखा पड़ा हुआ है। यानि इन 224 सीटों में से उसे कुछ खास नहीं मिलने जा रहा है। कांग्रेस के पास यदि सहयोगियों का टोटा है तो भाजपा भी इस मामले में फकीरी हालत में है। असम गण परिषद, इंडियन नेशनल लोकदल, राष्ट्रीय लोकदल, अकाली दल, शिवसेना और जनता दल यू जसे कुछ ही छोटे-बड़े दल अब उसके साथ हैं। पिछले चुनाव में भाजपा 138 की संख्या पर अटक गयी थी। यदि उसे केन्द्र में सरकार बनानी है तो इसमें कम से कम बीस-पच्चीस सीटों का इजाफा करना होगा। उत्तर प्रदेश में उसकी हालत पतली है और 2004 के मुकाबले इस बार राजस्थान में घाटा उठाना पड़ सकता है। ये सीटें कहां से बढ़ेंगी, कहना मुश्किल है। इसलिये तय मानिये कि केन्द्र की सत्ता में वापसी का सफर भाजपा के लिये भी आसान नहीं है।
तीसरे मोर्चे ने हालांकि अभी कोई शक्ल अख्तियार नहीं की है, लेकिन मोटे तौर पर मान सकते हैं कि उसमें प्रकाश करात की वाम ब्रिगेड, मायावती, जयललिता, चंद्रबाबू नायडु, चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक, कुलदीप विश्नोई और एचडी देवेगौड़ा जैसे क्षत्रप शामिल हैं। 2004 के मुकाबले वामपंथियों की ताकत घटने जा रही है। तिकोने मुकाबले में फंसे चंद्रबाबू नायडु को भी कम ही सीटें मिलेंगी। यही हाल चंद्रशेखर राव का रहने वाला है। नवीन पटनायक भाजपा से अलग होने के बाद फायदे में रहेंगे या घाटे में, कहा नहीं जा सकता। देवगौड़ा एक-दो लोकसभा सीटें ले आएं तो बहुत हैं। ले देकर जयललिता, वाम मोर्चा, चंद्रबाबू और मायावती पर तीसरे मोर्चे के नेताओं की निगाहें टिकी होंगी। मोर्चे की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि इसमें महत्वाकांक्षी और अहंकारी नेताओं का जमावड़ा है, जो मौकापरस्ती में बेजोड़ रहे हैं। वे बनाने के बजाय खेल बिगाड़ने में महारत रखते हैं। तीसरे मोर्चे ने बहुत ताकत लगाई तो भी उसकी सीटों की संख्या सौ से भी कम रहने के आसार हैं।
इसलिए सरकार किसी की बनती नजर नहीं आ रही, लेकिन सरकार तो बननी है। कैसे बनेगी? यह चुनाव परिणाम तय करेंगे। भाजपा की सीटें बढ़ीं और कांग्रेस ने तीसरे मोर्चे को बाहर से समर्थन देकर उनकी सरकार नहीं बनवायी तो लाल कृष्ण आडवाणी का प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हो सकता है। हालांकि यह कयास लगाना अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन यदि भाजपा के पुराने सहयोगी तीसरे मोर्चे से टूटकर उसके साथ आने का फैसला करते हैं तो राजग की सत्ता में वापसी हो सकती है। यह अभी दूर की कौड़ी है। मायावती, जयललिता, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडु और चंद्रशेखर राव जैसे क्षत्रप तय करेंगे कि केन्द्र में किसकी सरकार बनेगी। ये पहले भी राजग के साथ रह चुके हैं। हां, भाजपा का रास्ता रोकने के लिये यदि वाम मोर्चा ने फिर कांग्रेस को समर्थन दिया तो एेसे में मुलायम, लालू, पासवान, जयललिता जैसे नेता उस तरफ का रुख कर सकते हैं, लेकिन तय मानिये, तीसरा मोर्चा सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है।