Thursday, May 7, 2009

कुछ ही खानदान सत्ता पर काबिज

राहुल गांधी ने वंशवादी राजनीति को अलोकतांत्रिक बताकर देश में नयी बहस छेड़ दी है। उनका बयान इसलिये भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे खुद वंशवादी राजनीति की देन हैं। मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी के बाद राहुल अपने परिवार की पांचवीं पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो वंशवादी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। वंशवादी राजनीति पर पत्रकार का सवाल काफी टेढ़ा था, जिसका जवाब देते हुए राहुल गांधी यहां तक कह गये कि वंशवाद की इस अलोकतांत्रिक राजनीति और परंपरा को वे बदलने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि राहुल यह साफ नहीं कर पाये कि इस व्यवस्था को वे कैसे बदलेंगे। क्या वे यह कहना चाह रहे हैं कि जिस तरह नेहरू, इंदिरा, राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद स्वीकार कर वंशवादी राजनीति को बढ़ावा दिया, उस तरह का कोई आचरण वे नहीं करेंगे। राहुल अभी अपेक्षाकृत राजनीति के नये खिलाड़ी हैं। जब राजीव गांधी नये-नये राजनीति में कदम रख रहे थे, तब वे भी बहुत साफगोई से पेश आते थे। बहुत अच्छी-अच्छी बातें करते थे। राहुल भी एेसी बातें कर रहे हैं, जो आम आदमी के मन मस्तिष्क में चलती रहती हैं। वे बहुत सी एेसी बातें भी कह जाते हैं, जो खुद उनकी पार्टी के खिलाफ चली जाती हैं। वंशवादी राजनीति हालांकि देश में अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है। वामपंथियों को छोड़कर शायद ही कोई एेसा दल होगा, जिसे वंशवादी राजनीति का रोग नहीं लगा है। कुछ साल पहले तक भारतीय जनता पार्टी भी इससे अछूती थी, लेकिन अब कई बड़े नेताओं के पुत्र और पुत्रियां सांसद और विधायक हैं। हर राज्य में यही आलम है। राहुल ने एेसा बयान दे दिया है कि अब पूरे देश की नजरें उन पर टिकी होंगी कि वंशवादी राजनीति को खत्म करने की दिशा में आखिर वे क्या करेंगे?
जब देश आजाद हुआ, तब आशा की गयी थी कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबको सत्ता में हिस्सेदारी मिलेगी। हर वर्ग और वर्ण का व्यक्ति चुनकर सदनों और अंतत: सरकार का हिस्सा बनेगा। लेकिन क्या इन बासठ सालों में एेसा हो पाया? कड़वी हकीकत यह है कि एक सौ पंद्रह करोड़ की आबादी वाले इस देश पर पचास-साठ परिवार अदल-बदलकर शासन करते चले आ रहे हैं। कभी कभार कहीं कोई मायावती, अच्युतानंदन, बुद्धदेब भट्टाचार्य या नरेन्द्र मोदी सरीखे चेहरे जरूर अपवाद स्वरूप जनता जर्नादन और अपनी मेहनत के बल पर आ जाते हैं, लेकिन दुर्भाग्य की बात यही है कि वे जनता की पहली पसंद बनकर सत्ता के दरवाजे तक पहुंचते हैं, लेकिन उसके बाद वंशवादी राजनीति को आगे बढ़ाने में जुट जाते हैं। इस कारण प्रतिभाशाली और जमीन पर संघर्ष करने वाला कार्यकर्ता उपेक्षित होकर अक्सर पिछड़ जाता है।
कह सकते हैं कि आजादी के बाद देश में यदि किसी ने वंशवादी राजनीति को सबसे अधिक बढ़ावा दिया है तो वह नेहरू-गांधी परिवार ही है। पंडित नेहरू सत्रह साल तक प्रधानमंत्री रहे। इंदिरा गांधी करीब पंद्रह साल तक इस पद पर रहीं। राजीव गांधी पांच साल प्रधानमंत्री रहे। यानि सैंतीस साल तक यह पद इसी परिवार के पास रहा। परिवार के बाहर के कुल तीन कांग्रेसियों को बतौर प्रधानमंत्री दो साल से अधिक समय तक देश की सेवा करने का अवसर मिल पाया और वह भी विशेष परिस्थितियों में। नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री इसलिए प्रधानमंत्री बने, क्योंकि तब तक इंदिरा गांधी परिपक्व नहीं हुई थीं। इसी तरह 1991 में पीवी नरसिंह राव को इसलिए मौका मिला, क्योंकि इंदिरा और राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी राजनीति से नफरत करने लगी थीं। राजीव के विछोह से उबरने में उन्हें सात साल लगे। 2004 में डा. मनमोहन सिंह इसलिए प्रधानमंत्री बनाए गए, क्योंकि राहुल गांधी उतने अनुभवी नहीं थे।
लेकिन यह भी सच है कि वंशवादी राजनीति को बढ़ावा देने का ठीकरा अब केवल नेहरू-गांधी परिवार के सिर पर नहीं फोड़ा जा सकता। विभिन्न राज्यों में भी बहुत से परिवार नेहरू-गांधी परिवार की तर्ज पर आगे बढ़े और देखते ही देखते राजपाट पर काबिज हो गए। ऐसा शायद ही कोई राज्य हो, जहां राजनीतिक खानदानों का वर्चस्व न हो। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल, चौधरी देवीलाल, बंसीलाल, चौधरी रणबीर सिंह व भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, राव वीरेन्द्र सिंह, चौधरी दलबीर सिंह, ओपी जिंदल के परिवार उनके बाद सत्ता का सुख भोग रहे हैं। इसी तरह चौधरी चरण सिंह, अजित सिंह, जयंत सिंह, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव से लेकर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित उनके पुत्र संदीप दीक्षित, पूरा सिंधिया परिवार, शेख अब्दुल्ला-फारुख अब्दुल्ला के बाद अब उमर अब्दुल्ला, बाबू जगजीवन राम के बाद उनकी बेटी मीरा कुमार, राजेश पायलट की पत्नी रमा पायलट और उनके बाद पुत्र सचिन पायलट, यूपी के कांग्रेस अध्यक्ष रहे जितेंद्र प्रसाद के पुत्र जितिन प्रसाद, कैप्टन अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री रहे। उनकी पत्नी परणीत कौर पटियाला से और हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह मंडी से लोकसभा सदस्य रहीं हैं। मंडी से ही सुखराम केंद्र में मंत्री रहे और उनका बेटा अनिल शर्मा हिमाचल में मंत्री रहा है। राजग सरकार में विदेशमंत्री रहे जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र शाह भी पिछले चुनाव में बाडमेर से लोकसभा पहुंचे।
पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के बाद उनके पुत्र सुखबीर बादल और अब बंठिडा से पुत्रवधू राजनीति में कूद पड़ी हैं। पंजाब में ही बेअंत सिंह मुख्यमंत्री थे। अब उनका बेटा तेज प्रकाश और बेटी भी राजनीति में हैं। बिहार की ओर बढ़ें तो रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव बरसों तक मुख्यमंत्री रहे। चारा घोटाले में फंसे तो अपनी पत्नी राबड़ी देवी को राजपाट सौंप दिया। रामविलास पासवान केंद्र में मंत्री हैं और उनका भाई रामचंद्र पासवान भी अब बिहार से लोकसभा सदस्य हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में भी वंशवादी राजनीति का बोलबाला रहा है। शरद पवार की बेटी भी अब राजनीति में कूद रही हैं। कांग्रेस नेता मुरली देवड़ा केंद्र में मंत्री हैं, उनके पुत्र मिलिंद देवड़ा दक्षिणी मुंबई से लोकसभा सदस्य हैं। शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे ने अपने बेटे उद्धव ठाकरे को पार्टी की कमान सौंपी है। उनके भतीजे राज ठाकरे ने अलग पार्टी बना ली। मुफ्ती मोहम्मद सईद केंद्र में गृहमंत्री रहे। बाद में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने। उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती भी राजनीति में हैं। आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव के बाद उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू सत्ता पर काबिज रहे, तो उड़ीसा में बीजू पटनायक के पुत्र नवीन पटनायक मुख्यमंत्री बने। ऐसे और भी कई परिवार हैं, जो कई पीढियों से राजे-महाराजाओं की तरह सत्ता पर काबिज हैं. एेसे ही पचास-साठ परिवार राज-रजवाड़ों के काल की तरह आज सत्ता सुख भोग रहे हैं। इसे कैसा लोकतत्र मानें?

6 comments:

अक्षत विचार said...

वंशवादी राजनीति को बढ़ावा देने के लिये जनता भी बराबर की दोषी है क्योंकि वह पुत्र/पुत्रियों में पैरेन्टस की छवि ढूंढने का प्रयास करती है। इसके अलावा राजनेता के बच्चों को भावावेश में चुन लेती है बिना कोई योग्यता देखे।

Uttama said...

ज़िम्मेदार हम भी कम नहीं इस व्यवस्था में आई कमियों के लिए. ज़रूरत पढ़े-लिखे लोगों के आगे-आने की है.

पी के शर्मा said...

माना कि जिम्‍मेदारी जनता की भी है,
मगर इन व्‍यवस्‍थाओं में सुधार की गुंजाइश किस तरह पैदा की जाए जो ऐसा न हो, बिना योग्‍यता वंशवाद पनपता रहे। एक से एक आला दर्जे के दिमागदार लोग मौजूद हैं। उनकी तरफ कोई देखता तक नहीं है। उन्‍हें मीडिया भी महत्‍व नहीं देता। आखिर इस क्षेत्र में कुछ तो किया ही जाना चाहिए।

Udan Tashtari said...

वंशवाद खत्म होते होते समय लगेगा.

Anonymous said...

bahut sahi likha hai.
vandana

राजेश कश्यप said...

श्रीमान ओमकार चौधरी जी,

सादर नमस्कार।

संयोगवश आपका ब्लोग्स देखने को मिला। बड़ी खुशी हुई। मैं आपकी बेबाक, निर्भीक एवं अनूठी लेखनी को बहुत पसंद करता हूँ। मैं आपसे हरिभूमि ऑफिस में दो बार मिलने का सौभाग्ये हासिल कर चुका हूँ। मुझे हरिभूमि ने ही लेखक व पत्रकार बनाया है। इसके लिए मैं श्रीमान डी एस अनुज, राजबीर सिंह, राज सिंह कादयान, संजीव बूरा, अनिल बंसल, कुलदीप सिंह छिकारा, सतपाल मल्हान, सुदर्शन, देवेंदर बाल्यान, धुप सिंह, आनंद, नरेश सेल्पाड़, सोमनाथ शर्मा, संजीव कुमार, राजेश भद, दक्षेंदर आदि आदि हरिभूमि परिवार के सदस्यों का बड़ा शुक्र गुजार हूँ।

मैं आपका विशेष तौर पर बहुत शुक्रगुजार हूँ क्योंकि आपने मेरे कई लेखों को अपना आर्शीवाद प्रदान करते हुए अपने प्रतिष्ठित समाचार पत्र में समुचित स्थान दिया और यथोचित मार्गदर्शन दिया। आपको साधुवाद।

-राजेश कश्यप
टीटोली (रोहतक )

मोब.9416629889