Sunday, June 21, 2009

लालगढ़ों के मूल को समझना होगा

लालगढ़ सुर्खियों में है। पिछले करीब दस दिन से मीडिया की प्रमुख खबर बना हुआ है। पहले खबर आई कि माओवादियों ने सत्तारूढ़ सीपीएम के पार्टी दफ्तर को आग लगा दी। फिर पता चला कि उन्होंने चार नेताओं की हत्या कर दी। खबर आई कि वहां की पुलिस चौकी वीरान हो गई है। सीपीएम समर्थक इलाका छोड़कर भाग खड़े हुए हैं। माओवादियों की तरफ से एेलान हुआ कि लालगढ़ इलाका अब आजाद है। यानि वहां पूरी तरह माओवादियों का राज स्थापित हो गया है। टीवी चैनलों पर शुरू में जो तस्वीरें दिखाई गई, उनसे यह भ्रम बना कि वहां नक्सलवादी जो चाह रहे हैं, कर रहे हैं। सरकार, प्रशासन-पुलिस, कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। केन्द्र जागा। गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य से बात की। पूछा कि इतनी ढील क्यों दे रखी है? केन्द्रीय बलों की कई और कंपनी वहां भेजी गई। टीवी चैनलों पर जो ताजा फुटेज आ रहे हैं, उनमें माओवादी सीन से गायब हैं और अद्धसैनिक बलों के जवान सड़कों, गांवों में बेखौफ आगे बढ़ते और घरों से लोगों को निकालकर लठियाते हुए दिखाई दे रहे हैं।
लालगढ़ को लेकर जिस तरह का हव्वा खड़ा किया गया, क्या वह ठीक है? क्या लालगढ़ में जो हुआ, वैसा कभी कहीं नहीं हुआ? घाटी के तो कई इलाकों में अलगाववादी इसी तरह की कानून व्यवस्था की समस्याएं खड़ी करते रहते हैं। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड में भी नक्सलवादी जगह जगह बारूदी सुरंगें बिछाकर सुरक्षाकर्मियों और अधिकारियों पर प्राणघातक हमले करते रहते हैं। पश्चिम बंगाल एेसा अकेला राज्य तो नहीं, जहां नक्सलवादियों ने कानून और व्यवस्था को ध्वस्त किया है। देश के पंद्रह राज्यों के डेढ़ सौ से अधिक जिले इस समय माओवादी हिंसा और आंदोलन से पीड़ित हैं। इन राज्यों में फरवरी से मई के बीच तीन महीने के भीतर सुरक्षा बलों के सौ से अधिक जवान और अफसर नक्सली हिंसा में मारे जा चुके हैं। नई दिल्ली में गृहमंत्री चिदम्बरम ने सवाल पूछा कि पश्चिम बंगाल सरकार ने समय रहते लालगढ़ में हिंसारत माओवादियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई क्यों नहीं की? उनके संगठन को प्रतिबंधित क्यों नहीं किया गया? गृहमंत्री से पूछा जाना चाहिए कि क्या बाकी सभी प्रभावित राज्यों में माओवादी संगठन प्रतिबंधित हैं?
लालगढ़ वेस्ट बंगाल के पश्चिमी मिदनापुर जिले का कस्बा है। यह आदिवासी इलाका है और उत्तर से उत्तर पूर्व होते हुए दक्षिण-पूर्व तक गए उस लाल गलियारे का अंग है, जिसके बारे में कहा जाता है कि माओवादी उसे आजाद क्षेत्र बनाने के सपने देख रहे हैं। यह लाल पट्टी नेपाल की सीमा से लेकर बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश होते हुए महाराष्ट्र तक जाती है। सत्तर के दशक में शुरू हुआ माओवादी आंदोलन इस समय अपने सबसे विकट स्वरूप में हमारे सामने है। एक लंबे अरसे से नक्सली नेता गरीबों, किसानों, आदिवासियों, बेरोजगारों को न्याय दिलाने के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे हैं। यह बात सिद्ध हो चुकी है कि उनके तार पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से लेकर नेपाल के माओवादियों तक से जुड़े हैं, जो भारत को अस्थिर होते देखना चाहते हैं। माओवादी हिंसा में अब तक हजारों बहुमूल्य जानें जा चुकी हैं। इनमें बड़ी संख्या सुरक्षाकर्मियों की भी है, जो कभी बारूदी सुरंगों तो कभी माओवादियों के बर्बर हमलों की भेंट चढ़ गए। माओवादी आंदोलन-हिंसा और इस त्रासदी का सबसे निराशाजनक पहलू सरकार का रवैया है।
केन्द्र और प्रभावित राज्य सरकारों ने नक्सली हिंसा से निपटने की हुंकार तो बहुत बार भरी लेकिन किया धरा कुछ खास नहीं। सरकारी रवैये से यह आम धारणा बन गई है कि जब तक सुरक्षाकर्मी और आम आदमी किसी हिंसा की बलि चढ़ते रहते हैं, तब तक सरकारों के कानों पर जूं नहीं रेंगती। जैसे ही किसी बड़े नेता अथवा मुख्यमंत्री पर हमला होता है, सरकार की चेतना लौट आती है। आंध्र प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु पर नक्सली हमला हुआ तो वहां नक्लसवादियों के निपटने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। पिछले साल नवम्बर में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के काफिले को भी पश्चिम मिदनापुर जिले में ही नक्चसलवादियों ने बारूदी सुरंग से उड़ाने की कोशिश की। खासकर इस क्षेत्र के चार जिलों में माओवादियों और सीपीएम के बीच वर्चस्व को लेकर संघर्ष छिड़ा हुआ है। यह अपने आप में आश्चर्य का विषय है कि मुख्यमंत्री पर हमले के बाद भी सरकार ने हिंसा में लिप्त संगठनों के खिलाफ उस तरह की सख्त कार्रवाई नहीं की, जसी जरूरत और अपेक्षित थी। संभवत: यही वजह है कि उनके हौंसले बुलंद होते गए।
जमीनी हकीकत यह है कि राज्य सरकारों के पास न तो नक्सलवादी संगठनों से निपटने की राजनीतिक इच्छाशक्ति है और न ही संसाधन। केन्द्र दावा करता है कि आधुनिक साजो सामान खरीदने के लिए वह प्रभावित राज्यों को हर साल बड़ी रकम देता रहा है, जबकि राज्य पैसे की कमी का रोना रोते रहते हैं। राज्यों की सत्तारूढ़ पार्टियों को यह भय भी सताता रहता है कि सख्ती करने से कहीं उनका वोट बैंक न खिसक जाए।
लालगढ़ की घटना को खतरे की एक और घंटी मानते हुए केन्द्र सरकार को पहल करनी होगी। प्रधानमंत्री पहले भी प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुला चुके हैं। इस समस्या के हर पहलू को समझना होगा। यह केवल कानून और व्यवस्था की ही समस्या नहीं है। इसके सामाजिक और आर्थिक पहलू भी हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह ठीक है कि किसी को भी हिंसा की इजाजत नहीं दी जा सकती और एेसे तत्वों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की ही जानी चाहिए लेकिन सरकार को इस पर भी गहन मंथन करना होगा कि आखिर इस पूरी आदिवासी पट्टी का आजादी के इतने सालों बाद भी वैसा विकास क्चयों नहीं हो सका, जैसा देश के अन्य भू-भागों का हुआ है।

Monday, June 15, 2009

धोनी नहीं, बीसीसीआई को कोसें

पिछली टी-ट्वेंटी विश्व चैम्पियन टीम इंडिया सुपर-8 मुकाबले के तीन में से दो शुरुआती मैच हारने के बाद मुकाबले से बाहर हो गई है। इस बार वह सेमीफाइनल में भी नहीं पहुंच पायी। जाहिर है, उन करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों के लिए यह बुरी खबर है, जो भारतीय टीम को सिर्फ और सिर्फ जीतते हुए देखना चाहते हैं। जीत का यह चस्का टीम इंडिया के साथ-साथ भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को भी लग चुका है। पिछले दो साल से इस टीम के प्रदर्शन में निरंतरता रही है। उसने आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका, पाकिस्तान, न्यूजीलैंड से लेकर इंग्लैंड जैसी श्रेष्ठ टीमों को परास्त किया है। पिछले टी-ट्वेंटी विश्व कप को जीतकर तो जैसे धोनी की अगुआई वाली यूथ ब्रिगेड ने तहलका ही मचा दिया था। सब जानते हैं कि वनडे की विश्व चैम्पियन आस्ट्रेलिया टीम का मान मर्दन सबसे पहले टीम इंडिया ने ही किया था। विदेशी जमीन पर जिस तरह की जीतें इस टीम ने दर्ज की हैं, उससे लोगों का उस पर भरोसा पुख्ता हुआ। यही वजह है कि भारतीयों की उम्मीदें इस बार भी सातवें आसमान पर थीं। वे धोनी के धुरंधरों के हाथ में इस बार भी टी-ट्वेंटी कप की चमचमाती हुई ट्राफी देखना चाहते थे।
यह नामुमकिन भी नहीं था। जिस तरह का प्रदर्शन यह टीम करती आई है, उससे लग रहा था कि इस टूर्नामैंट में भी ये खिलाड़ी वैसा ही करिश्मा दोहरा सकते हैं। एक-दो फेरबदल करके धोनी को लगभग वही टीम दी गई, जो पिछली बार विश्व कप लेकर मुंबई लौटी थी। जिसका मुंबई में शानदार स्वागत किया गया था। हालांकि यह कहने वालों की कमी नहीं है कि सचिन तेंदुलकर जैसे अनुभवी क्रिकेटर को टी-टवेंटी टीम में भी रखा जाना चाहिए लेकिन लगता है, खुद मास्टर ब्लास्टर ही यह नहीं चाहते कि उनकी वजह से इस टीम के बेटिंग आर्डर में किसी तरह की छेड़छाड़ की जाए। वे भारत के लिए लंबे अरसे से ओपनिंग करते रहे हैं। इस टूर्नामैंट से पहले वीरेन्द्र सहवाग और गौतम गंभीर की जोड़ी अच्छे तालमेल से खेलते हुए अच्छी शुरुआत देती रही है। यह अलग बात है कि कंधे की चोट के कारण सहवाग को लंदन से वापस लौटना पड़ा और धोनी को उनके स्थान पर मुंबई के रोहित शर्मा को खिलाना पड़ा। सहवाग ने चोट छिपाई या बीसीसीआई ने धोनी को विश्वास में नहीं लिया, यह जांच का विषय है क्योंकि इसी प्रकरण के बाद से धोनी काफी उखड़े-उखड़े नजर आए।
टी-टवेंटी के इस विश्व खिताबी मुकाबले में टीम इंडिया के सुपर-8 मुकाबले में ही बाहर हो जाने के बाद जाहिर है, कई तरह के सवाल उठेंगे। वह उठने शुरू भी हो चुके हैं। सवाल उठने भी चाहिए क्योंकि इसी से सुधार की शुरुआत होती है। धोनी पर तरह-तरह के आरोप लगाए जा रहे हैं। उन पर बेवजह बेटिंग आर्डर से छेड़छाड़ करने, आउट आफ फार्म गेंदबाजों को खिलाने, खुद अच्छा प्रदर्शन नहीं करने, इंग्लैंड के साथ होने वाले करो या मरो वाले मैच से पहले प्रेक्टिस नहीं करने जैसे कितने ही आरोप लगाए गए हैं। बीस ओवरों वाले इन मैचों में निर्णय तुरंत लेने होते हैं। उसमें आप इंतजार नहीं कर सकते। इंग्लैंड के खिलाफ जिस मैच में तीन रन से हारने के बाद टीम टूर्नामैंट से बाहर हुई, उसमें रवीन्द्र जड़ेजा जैसे कम अनुभवी बल्लेबाज को जबरदस्त फार्म में चल रहे अनुभवी युवराज सिंह से पहले भेजने पर सवाल उठाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि 35 गेंदों में सिर्फ 25 रन बनाने वाले जड़ेजा ने बहुत धीमा खेला, जबकि उस समय तेज खेलकर टीम पर प्रति ओवर रन रेट का बोझा कम करने की जरूरत थी। धोनी ने भी माना है कि उनका यह फैसला गलत साबित हुआ। उन्होंने उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप प्रदर्शन नहीं करने पर देशवासियों से माफी भी मांगी है।
धोनी बेहतरीन खिलाड़ी और एक सुलङो हुए कप्तान हैं। उनके नेतृत्व में भारतीय टीम ने विदेशी धरती पर जाकर वह कारनामा कर दिखाया है, जो बरसों से कोई टीम या कप्तान नहीं कर सका। वह आगे बढ़कर खुद कमान संभालते रहे हैं। उनकी और उनके निर्णयों की आलोचना करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि धोनी की यह यूथ ब्रिगेड ही पिछली बार टी-टवेंटी विश्व कप जीतकर लायी थी। इसी टीम ने देश को विश्व चैम्पियन होने का गौरव दिलाया था। एेसा नहीं है कि सेमीफाइनल से पहले ही किसी टूर्नामैंट से बाहर हो जाने से दुख नहीं होता, लेकिन यह कोई पहली एेसी टीम नहीं है, जो इस तरह विदा हुई हो। आस्ट्रेलिया जैसी विश्व चैम्पियन तो इस बार लीग मुकाबलों में ही बाहर हो गई। यह समय दरअसल, कप्तान और टीम की हौसला अफजाई का है न कि जाने-अनजाने उनकी आलोचना करके उनका मनोबल गिराने का।
प्रशंसकों के लिए यह जानना जरूरी है कि जिस तरह कोई भी सफलता स्थायी नहीं होती, उसी तरह असफलता भी चिरकाल के लिए नहीं होती है। धोनी के जज्बे को सलाम किया जाना चाहिए, जिन्होंने टूर्नामैंट से बाहर होने के बाद जहां एक तरफ देशवासियों से माफी मांगी वहीं यह भरोसा भी जताया कि अगली बार भारतीय टीम टी-टवेंटी विश्व कप जीतकर दिखाएगी। बजाय इसके कि खिलाड़ियों की आलोचना करें और कप्तान के फैसलों में मीन-मेख निकालें, हमें उन कारणों की तह में जाना चाहिए, जिनके चलते इस बार टीम इंडिया सेमीफाइनल तक भी नहीं पहुंच सकी। सचिन तेंदुलकर हों या सौरव गांगुली, गावस्कर हों या अनिल कुंबले-हरेक को यह विश्वास था कि टीम इस बार भी फाइनल खेलेगी। सचिन ने तो यहां तक कहा कि यह टीम किसी भी टीम को हराने में सक्षम है। फिर एेसा क्या हुआ कि वह मुकाबले से इस तरह बाहर हो गई?
इसका जवाब धोनी नहीं, बीसीसीआई से पूछा जाना चाहिए। धोनी पर केवल यह आरोप लगाया जा सकता है कि उन्होंने अच्छी कप्तानी नहीं की लेकिन इन हालातों की असल जनक बीसीसीआई ही है जिसने खिलाड़ियों को नोट बनाने वाली मशीन में तब्दील करके रख दिया है। क्या किसी ने इस पर ध्यान दिया है कि इन खिलाड़ियों को कितना क्रिकेट खेलना पड़ रहा है? पिछले दो साल में उन्हें आराम के लिए पर्याप्त समय तक नहीं मिल पाया है। एक से दूसरे टूर्नामैंट के बीच थोड़ा बहुत समय होता भी है तो उसमें उन्हें अपने विज्ञापन अनुबंधों के तहत शूटिंग वगैरा के लिए समय निकालना पड़ता है। टी-ट्वेंटी विश्व कप से ठीक पहले आईपीएल का चालीस दिन से भी लंबा टूर्नामैंट दक्षिण अफ्रीका में होकर निपटा है। वहां से खिलाड़ी लौटे तो उन्हें लंदन की फ्लाइट पकड़नी पड़ी। बीसीसीआई की समझ में अब यह बात भी आ जानी चाहिए कि विश्व कप जैसे टूर्नामैंट से पहले यदि टीम इंडिया के खिलाड़ी अलग-अलग टीमों का हिस्सा बनकर एक-दूसरे के खिलाफ जी-जान लगाकर खेलेंगे तो फिर इतनी जल्दी एक टीम के रूप में उनका खेलना आसान नहीं होगा। जैसी एकजुटता पिछले विश्व कप में दिखी थी, वैसी इस बार सिरे से गायब थी। बैटिंग, बालिंग और फील्डिंग में खिलाड़ियों पर थकान साफ साफ नजर आ रही थी। इसलिए कोसना है तो धोनी को नहीं, बीसीसीआई को कोसें।

Wednesday, June 10, 2009

रिश्तेदार थे, उनका यही कसूर था

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अपनी सर्विस रिवाल्वर से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर गोलियां दागने वाला सब इंस्पेक्टर बेअंत सिंह अपरेशन ब्लू स्टार के पहले तक उनका बहुत बड़ा भक्त था। उसके बड़े भाई यदि इंदिरा गांधी की नीतियों की अलोचना करते तो वह भड़क जाता था। इसका खुलासा खुद बेअंत की बेटी अमृतकौर और बेटे जसविन्दर ने किया था, जब पांच साल पहले मैं उनसे पंजाब के मोहाली शहर में मिला। बेअंत का दिमाग उस समय घूमा, जब उसके मामा केहर सिंह ने उसे और सतवंत सिंह को आपरेशन ब्लू स्टार के बाद अकाल तख्त और हरिमंदिर साहिब के दर्शनों के लिए खासतौर से अमृतसर भेजा। बेअंत और सतवंत प्रधानमंत्री निवास पर सुरक्षा ड्यूटी में तैनात थे। इंदिरा गांधी को जब उन्होंने 31 अक्तूबर 1984 को गोलियों से छलनी कर लहूलुहान किया, तो अन्य सुरक्षाकर्मियों ने बेअंत और सतवंत सिंह पर फायर खोल दी। इन दोनों को अस्पताल भेजा गया। बेअंत ने दम तोड़ दिया जबकि सतवंत को पांच साल बाद केहर सिंह के साथ फांसी दे दी गयी।
दिल दहला देने वाले इस हादसे के आरोपियों में से एक बेअंत अन्य सुरक्षाकर्मियों की गोलियों का शिकार हो गया जबकि प्रधानमंत्री की हत्या करने और उसकी साजिश रचने वाले सतवंत और केहर सिंह को मुकदमें के बाद 1989 में तिहाड़ में फांसी दे दी गयी। जिन्होंने इतनी बड़ी साजिश रची और उसे दुस्साहसिक तरीके से अंजाम दिया, उन्हें उनके किये की सजा मिल गयी। इस दिल दहला देने वाली घटना के बीस साल बाद 2004 में मैंने बेअंत सिंह, केहर सिंह और सतवंत सिंह के परिजनों से मुलाकात कर यह जानने की कोशिश की कि क्या घटना के दो दशक बाद उन्हें देश की प्रधानमंत्री की इस तरह हत्या कर दिये जाने पर अफसोस है? मुङो यह जानकर झटका लगा कि उन्हें प्रधानमंत्री की हत्या का रत्ती भर भी प्रायश्चित नहीं था। केहर सिंह की विधवा जसबीर कौर ने कहा कि इंदिरा गांधी नहीं मारी जानी चाहिए थीं, लेकिन अकाल तख्त को भी तहस-नहस नहीं किया जाना चाहिए था। बेअंत सिंह के उस समय सौ वर्षीय पिता सुच्चा सिंह ने आसमान की तरफ हाथ उठाते हुए जवाब दिया कि उस सच्चे बादशाह के घर को ढहाने वाले के साथ एेसा हुआ तो उन्हें कोई अफसोस नहीं है। जब मैं सुच्चा सिंह से चंडीगढ़ के पास स्थित गांव मलोया में मिला तो यह देखकर चौंका कि उनके घर में बीस साल बाद भी जरनैल सिंह भिंडरावाले की बड़ी सी तस्वीर लगी थी।
जगदीश टाइटलर हों या सज्जन कुमार। एचकेएल भगत हों अथवा अन्य नेता, भले ही बाद में सब सफाई देते नजर आए कि उन्होंने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के सिख विरोधी दंगों में कोई भूमिका नहीं निभाई, लेकिन तथ्य बताते हैं कि जिनका कोई कसूर नहीं था, उन्हें भी इंदिरा गांधी के मारे जाने के बाद नेताओं, प्रशासन और समाज के बड़े तबके ने खून के आंसू रुलाए थे। सिख विरोधी दंगों में तीन हजार लोगों का मारा जाना कोई छोटी-मोटी बात नहीं थी। हजारों सिख विधवाएं आज भी इंसाफ की बाट जोह रही हैं। अकालियों समेत अन्य राजनीतिक दलों ने सिख विरोधी दंगों का अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक ने में तो खूब इस्तेमाल किया, लेकिन पीड़ित परिवारों को शीघ्र न्याय मिले, इसके लिए उन्होंने कुछ नहीं किया। नतीजतन दंगों के इतने साल बाद भी बहुत से सिख परिवार इंसाफ के लिए ठोकरे खाते फिर रहे हैं। बहुत से परिवार एेसे हैं, जो दंगों से पहले बहुत साधन संपन्न थे, लेकिन दंगाइयों ने उनका सब कुछ छीन लिया। वे सड़कों पर आ गए।
पुलिस की जांच में यह साफ हो गया था कि इंदिरा गांधी की हत्या की साजिश रचने वाला केहर सिंह था और साजिश को अंजाम देने वाले बेअंत और सतवंत थे। दिल्ली पुलिस के एक अन्य गिरफ्तार सब इंस्पेक्टर बलबीर सिंह को हालांकि निचली अदालत और हाईकोर्ट ने केहर और सतवंत के साथ फांसी की सजा सुनाई थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बेकसूर मानते हुए रिहा कर दिया, लेकिन कैट की सिफारिश के बावजूद सरकार ने बलबीर सिंह को वापस नौकरी पर बहाल नहीं किया। सरकार कैट के आदेश के खिलाफ कोर्ट चली गयी। मामला लंबा खिंचा तो बलबीर सिंह ने दिल्ली के एक गुरूद्वारे में सुरक्षा अधिकारी की नौकरी कर ली, लेकिन करीब चार साल तक वह जेल में रहे और इस बीच उनके परिवार को दुनिया भर की जलालतों का सामना करना पड़ा।
बेअंत सिंह ने घायल होने के बाद दम तोड़ दिया लेकिन बाद में उनके परिवार पर भी बहुत बुरी बीती। उनकी पत्नी विमल खालसा लेडी हार्डिग हास्पीटल में नर्स थी। उन्हें पुलिस ने पूछताछ के लिए वहीं से उठा लिया। तीनों बच्चे अमृतकौर, जसविंदर और सर्वजीत स्कूल गए हुए थे। घर आए तो सारा सामान बिखरा पड़ा था। पुलिस ने घर की सघन तलाशी थी। विमल को कई दिन बाद छोड़ा गया। वह छोटे-छोटे बच्चों को लेकर चंडीगढ़ गई तो कोई उन्हें किराए पर मकान देने को तैयार नहीं हुआ। कई महीने उन्हें मोहाली के जंगल में स्थित एक ट्यूबवल के कमरे में बिताने पड़े। कोई स्कूल इंदिरा गांधी के हत्यारोपी बेअंत सिंह के बच्चों को एडमिशन देने को तैयार नहीं हुआ। बाद में उन्होंने खरड़ के एक मिशनरी स्कूल में दाखिला लिया। हालात एेसे बने कि तीनों भाई-बहनों को बाद में प्राइवेट बी काम और बीए करना पड़ा। हालांकि 1989 में विमल खालसा ने फिल्लौर से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता लेकिन दो साल बाद ही रहस्यमय हालात में घर में उनकी मौत हो गई।
केहर सिंह का बड़ा बेटा राजिन्दर सिंह विधि एवं न्याय मंत्रालय में स्टेनोग्राफर था। पिता गिरफ्तार हुए तो बेटे का फर्ज निभाते हुए उन्होंने पैरवी की। सरकार इतनी खफा हुई कि उसका मुंबई तबादला कर दिया गया। उसने छुट्टी ले ली तो केस बनाकर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में एक साल के लिए भीतर कर दिया। सरकारी नौकरी गई तो क्वार्टर भी छिन गया। बाद में उन्हें भी अपने परिवार के साथ दिल्ली के एक गुरूद्वारे के छोटे से कमरे में शरण लेनी पड़ी। जाने-माने वकील रामजेठमलानी को उन पर दया आई तो उन्होंने राजिन्दर सिंह को अपने यहां मुंशी रख लिया। ये घटनाएं बताती हैं कि जिन्होंने इंदिरा गांधी की हत्या की, उनके परिवारजनों को भी समाज, प्रशासन और सरकार ने तरह-तरह से प्रताड़ित किया जबकि उन्हें षड़यंत्र की भनक तक नहीं थी। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि किसी देश की प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश जघन्य अपराध की श्रेणी में आता है, लेकिन जिन्होंने अपराध किया, उन्हें कानून ने सजा दे दी थी। उनके परिवारों का क्या कसूर था, जिन्हें इस कदर प्रताड़ित किया गया। इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। न समाज के, न प्रशासन के और न ही सरकार के।

Tuesday, June 9, 2009

आज भी हरे हैं चौरासी के घाव


वह पांच और छह जून 1984 की रात थी। मेजर जनरल के एस बराड़ की कमांड में सेना ने स्वर्ण मंदिर में छिपे जनरैल सिंह भिंडरावाले और सैंकड़ों अन्य आतंकवादियों के खिलाफ आपरेशन ब्लू स्टार शुरू किया। छह जून की सुबह आपरेशन पूरा कर लिया गया। बारह घंटे की कार्रवाई में सेना के सौ जवान शहीद हो गये जबकि तीन सौ से ज्यादा आतंकवादी और नागरिक मारे गये। मरने वालों में जरनैल सिंह भिंडरावाला भी था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का सिखों के सबसे पवित्र धर्मस्थल में सैनिक कार्रवाई करने का निर्णय असाधारण था। उन्हें अहसास था कि इसका अंजाम क्या हो सकता है। काफी सोच-विचारकर सैन्य कार्रवाई का जिम्मा सिख मेजर जनरल के एस बराड़ को सौंपा गया, जो उस समय पंजाब नहीं, उत्तर प्रदेश के मेरठ में 90 इनफैंट्री डिवीजन को कमांड कर रहे थे। उन्हें अचानक चंडीगढ़ बुलाया गया और हालात की गंभीरता समझाते हुए तुरंत अमृतसर पहुंचने को कहा गया। बराड़ ने उन हालातों का जिक्र अपनी पुस्तक आपरेशन ब्लू स्टार-द ट्र स्टोरी में किया है, जिनके चलते स्वर्ण मंदिर-अकाल तख्त और हरिमंदिर साहिब में छिपे आतंकवादियों का खात्मा करने के लिए भारत सरकार को अचानक सैनिक कार्रवाई का अफसोसनाक निर्णय लेना पड़ा।
उनका कहना है कि यदि आपरेशन नहीं किया जाता तो दो-चार दिन बाद ही खालिस्तान का एेलान होने वाला था। पाकिस्तान ने पंजाब में वैसे ही हालात पैदा कर दिए थे, जैसे 1971 में बांग्लादेश के निर्माण के समय बन गए थे। वैसे भी, आठवें दशक के अकालियों के आनंदपुर साहिब के प्रस्तावों को देखें तो पता चलता है कि अलगाववादी और चरमपंथी पंजाब की अकाली राजनीति को किस हद तक प्रभावित कर रहे थे। यह बहस का विषय हो सकता है कि भिंडरावाले को किसने पैदा किया। स्वर्ण मंदिर में आतंकवादियों को किसने घुसपैठ होने दी और सैन्य कार्रवाई के अलावा क्या उस समय कोई और विकल्प नहीं रह गया था? सैन्य कार्रवाई में चूकि भारी गोलाबारी हुई और जब देखा गया कि आतंकवादियों की तैयारी कुछ ज्यादा ही है तो टैंकों को भी स्वर्ण मंदिर परिसर में भेजने का फैसला लिया गया, इसलिए हरिमंदिर साहिब, अकाल तख्त और स्वर्ण मंदिर को भारी क्षति पहुंची। नतीजतन देश-विदेश में बसे सिखों की भावनाएं बुरी तरह आहत हुईं। कट्टरपंथियों ने इसे ज्यादा ही तूल दिया। नतीजतन छह महीने के भीतर देश को अपनी लोकप्रिय प्रधानमंत्री से हाथ धोना पड़ा।
निसंदेह इंदिरा गांधी भारत की सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री थीं। हालांकि एेसे लोगों की कमी नहीं है, जो उन्हें लोकतंत्र की सबसे बड़ी दुश्मन की संज्ञा देते हैं क्योंकि 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट से अपने खिलाफ निर्णय आने पर उन्होंने देश पर इमरजंसी थोप दी थी। सिखों में भी एक वर्ग एेसा था, जो धर्मस्थल में आतंकवादियों द्वारा आड़ लेने और वहां से खून-खराबे के षड़यंत्रों को संचालित करने को गलत मानता था, लेकिन किसी को भी इसका अहसास नहीं था कि बात खालिस्तान की घोषणा की तैयारियों तक पहुंच जाएगी। जाहिर है, इंदिरा गांधी के सामने सैनिक कार्रवाई के सिवाय कोई और चारा नहीं रह गया था। आपरेशन ब्लू स्टार के कमांडर बराड़ को निर्देश दिए गए थे कि खून खराबा कम से कम हो और जो निर्दोष लोग भीतर फंसे हुए हैं, उन्हें बाहर निकलने का पूरा मौका दिया जाए। आतंकवादियों तक खबर पहुंच चुकी थी कि सेना मोर्चा संभाल चुकी है, लिहाजा उन्होंने श्रधालुओं को बाहर नहीं निकलने दिया। उन्हें ढाल बनाकर सेना पर फायरिंग खोल दी।
किसी भी सेना के लिए इससे बुरा कुछ नहीं होता कि उसे अपने ही देश के नागरिकों पर गोली चलानी पड़े। अमृतसर में उसे यही करना पड़ा। मेजर जनरल कुलदीप सिंह बराड़ ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अगर देश के नागरिक दुश्मन देश के हाथों में खेलने लगें और कानून-व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती बन जाएं तो एेसी कार्रवाई करना मजबूरी हो जाती है। स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवाई के बाद क्या हुआ, यह अब पूरी दुनिया को पता है। सिखों के सबसे पवित्र स्थल अकाल तख्त के क्षतिग्रस्त होने की सूचना जैसे-जैसे देश भर में फैली, वैसे-वैसे सेना की कई बटालियनों में सिख सैनिकों ने बगावत कर दी। जिन रेजीमैंट्स में बगावत हुई, उनमें रांची, मुंबई, रामगढ़ और रामपुर भी शामिल थी। करीब छह हजार सैनिक हथियारों सहित अमृतसर के लिए भाग खड़े हुए। उन्हें नियंत्रित करने के लिए भी सैन्य कार्रवाई करनी पड़ी। बहुत से सैनिक मारे गये। सैंकड़ों को गिरफ्तार कर लिया गया। कोर्ट मार्शल में उन्हें सजा हुई। बाद में उनमें से बहुतों को फिर से सेना में देश की सेवा का अवसर भी मिला।
भारतीय सेना के सिख सैनिक विद्रोहियों को तो काबू में कर लिया गया लेकिन खुफिया तंत्र उस षड़यंत्र को सूंघने और समझने में पूरी तरह नाकाम रहा, जो उसकी नाक के ठीक नीचे दिल्ली में ही रचा जा रहा था। स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई के बाद भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सुरक्षा गारद से सिख सुरक्षाकर्मियों को नहीं हटाना भारी भूल साबित हुई। सेना में सिखों के विद्रोह से प्रधानमंत्री के सुरक्षा तंत्र और अधिकारियों के कान खड़े होने चाहिए थे, लेकिन वे सोते रहे और आपरेशन ब्लू स्टार के करीब साढ़े छह महीने के भीतर उन्हीं के सिख सुरक्षाकर्मियों ने प्रधानमंत्री को उनके सरकारी निवास में ही गोलियों से छलनी कर दिया। इंदिरा गांधी पर गोलियां बरसाने वाले सब इंस्पेक्टर बेअंत सिंह चंडीगढ़ के पास स्थित मलोया गांव का मूल निवासी था, जबकि सतवंत सिंह गुरदासपुर का रहने वाला था। बेअंत को अन्य सुरक्षाकर्मियों ने मौके पर ही मार डाला जबकि सतवंत को गंभीर अवस्था में अस्पताल भेजा गया। उसे बचा लिया गया। बेअंत सिंह की पत्नी विमल खालसा और सतवंत से हुई पूछताछ के बाद पूरे षड़यंत्र का खुलासा हुआ। पूर्ति एवं निपटान निदेशालय में कार्यरत केहर सिंह को गिरफ्तार किया गया, जो बेअंत सिंह का मामा था। उसी ने बेअंत और सतवंत को अमृत चखाने के बाद प्रधानमंत्री की हत्या के लिए तैयार किया था। दिल्ली पुलिस के सब इंस्पेक्टर बलबीर सिंह को भी गिरफ्तार किया गया। उसकी ड्यूटी भी उन दिनों प्रधानमंत्री निवास पर ही थी। निचली अदालत और हाईकोर्ट ने इन तीनों को फांसी की सजा सुनाई लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बलबीर सिंह को बेकसूर मानते हुए बाइज्जत बरी किया। केहर सिंह और सतवंत सिंह को 1989 में तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गयी।
आपरेशन ब्लू स्टार के बाद सिखों के दिलों में कांग्रेस और केन्द्र की सरकार के खिलाफ जो दरार बढ़ी, वह इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली, कानपुर और देश के अन्य हिस्सों में सिखों के खिलाफ भड़के भीषण दंगों के बाद और भी गहरी हो गयी। करीब तीन हजार बेकसूर सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया। कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं पर यह आरोप लगे कि सिखों के गले में जलते टायर डालने वाली हिंसक और बेकाबू भीड़ का वे नेतृत्व कर रहे थे। आपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या और तीन हजार सिखों के कत्लेआम को पच्चीस साल पूरे हो रहे हैं। पच्चीस साल बहुत बड़ा काल होता है, लेकिन आज भी उन परिवारों के जख्म हरे हैं, जिनके परिजनों को बेवजह मार डाला गया था। कुछ मुट्ठी भर सिरफिरों की सनक की सजा पूरी कौम को कैसे दी जा सकती है?

Friday, June 5, 2009

मैडम स्पीकर छह दशक बाद


मीरा कुमार लोकसभा की पहली महिला स्पीकर बन गयी हैं। वे दलित वर्ग से हैं, इसलिए भी इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए खास दिन बताया जा रहा है। एक दलित महिला को लोकसभा अध्यक्ष बनाने के कांग्रेस के फैसले को सराहा जा रहा है। निसंदेह मीरा कुमार पढ़ी-लिखी, सुयोग्य, समर्थ नेता हैं। एक राजनयिक से राजनेता और अब लोकतंत्र के सर्वोच्च प्रतीक की सर्वेसर्वा बनने तक का उनका सफर संघर्षपूर्ण और रोचक रहा है, लेकिन उन्हें सत्तापक्ष की ओर से एक दलित नेता के तौर पर प्रचारित करने की कोशिश बताती है कि उनके जरिए पार्टी अतीत में अपने छिटक गए दलित जनाधार को फिर से पाने की चेष्टा कर रही है। पक्ष-विपक्ष के नेताओं ने संसद में हालांकि मीरा कुमार के चुने जाते ही उनकी स्तुति में मंगल गीत गाए, जैसी कि एक परंपरा बन गयी है, लेकिन इस अवसर पर कुछ सवाल पूछ लिए जाएं तो गलत नहीं होगा।
कांग्रेस और यूपीए का इसी तरह का मंगलगान पिछले साल भी हुआ था, जब प्रतिभा देवी सिंह पाटिल को पहली महिला राष्ट्रपति के रूप में चुना गया था। सवाल दरअसल इसी से जुड़ा हुआ है। कांग्रेस को आजादी के साठ-बासठ साल बाद ही इसकी याद क्यों आई कि राष्ट्रपति पद पर किसी महिला को भी होना चाहिए या लोकसभा की स्पीकर कोई महिला भी बनाई जानी चाहिए? राष्ट्रपति पद पर तो खैर दलित वर्ग से पहले भी नेता बैठे हैं लेकिन प्रधानमंत्री पद पर अभी तक भी कोई दलित क्यों नहीं बैठ सका? क्या कभी किसी दलित अथवा मुस्लिम वर्ग के नेता को प्रधानमंत्री बनने भी दिया जाएगा? यह एेसा कटु सत्य है, जिसका जवाब देश की कोई राजनीतिक पार्टी नहीं देना चाहेगी। मीरा कुमार निसंदेह योग्य सांसद, मंत्री और नेत्री हैं, लेकिन उन्हें लोकसभा की पहली दलित स्पीकर के तौर पर प्रचारित कर दलित मतदाताओं को साधने की कोशिश करना क्या उचित है? आखिर अब तक कांग्रेस को यह सुध क्यों नहीं आई कि किसी दलित वर्ग की महिला को भी स्पीकर होना चाहिए था। पार्टी को अब ये टोने-टोटके इसलिए करने पड़ रहे हैं, क्योंकि उसे लग रहा है कि एेसा करने से उसका खिसका दलित जनाधार वापस लौट सकता है।
बहुत लंबे समय तक अल्पसंख्यक, ब्राह्मण और दलित कांग्रेस पार्टी के एकजुट वोटर रहे। इसी कारण कांग्रेस का केन्द्र और अधिकांश राज्यों में एक छत्र राज रहा। कुछ घटनाएं घटीं, जिनके चलते 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद सिख, 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद मुसलिम और लगभग इसी काल में शनै: शनै: दलित मतदाता उससे छिटक गया। मंदिर-मंडल प्रकरण के बाद जैसे-जैसे भाजपा उभरी, वैसे वैसे ब्राह्मणों का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस से कटकर उसके साथ जुड़ गया। ब्राह्मणों के भाजपा से जुड़ने की एक वजह अटल बिहारी वाजपेयी भी रहे। कांग्रेस कमजोर हुई तो भाजपा के साथ-साथ विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूती से उभरे। छोटे दलों के सहयोग से केन्द्र में गठबंधन सरकारों के युग का सूत्रपात हुआ। शुरू में इनका प्रयोग सफल नहीं रहा लेकिन बाद में अटल जी ने लगभग पूरे समय तक सरकार चलाई। काफी लंबे समय तक कांग्रेस एकला चलो का राग अलापती रही, लेकिन शिमला के चिंतन शिविर में उसे भी गठबंधन की राह को अपनाना पड़ा। 2004 में उसे अपेक्षाकृत एक मजबूर सरकार का नेतृत्व करना पड़ा। एक एेसी सरकार, जो वामपंथियों के रहमोकरम पर टिकी थी। इस बार भी डा.मनमोहन सिंह एक गठबंधन सरकार का ही नेतृत्व कर रहे हैं परन्तु उसके मुकाबले यह सरकार कहीं ज्यादा टिकाऊ और आत्मविश्वास से भरी नजर आ रही है। कांग्रेस का जनाधार बढ़ा है। हिमाचल प्रदेश, बिहार और कर्नाटक को छोड़कर उसे राज्य से बढ़त मिली है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जोरदार वापसी ने पार्टी के नीति नियंताओं का विश्वास बढ़ाया है। वहां मायावती, मुलायम और भाजपा का कमजोर होना और कांग्रेस का अपेक्षाकृत मजबूत होना इसका द्योतक है कि जो वोटर उससे छिटक गया था, वह वापस लौट रहा है। कांग्रेस ने इस चुनाव में बसपा के दलित, भाजपा के ब्राह्मण और सपा के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगा दी है।
चौंसठ वर्षीया मीरा कुमार एेसे समय लोकसभा की पहली दलित महिला स्पीकर बनी हैं, जब कांग्रेस हिन्दी भाषी राज्यों में अपने खोए दलित जनाधार की वापसी के लिए पुरजोर कोशिश कर रही है। मीरा कुमार एेसी नेता हैं, जो तीन राज्यों उत्तर प्रदेश के बिजनौर, दिल्ली के करौल बाग और बिहार के सासाराम क्षेत्र का लोकसभा में प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। वे मायावती की तरह लोकप्रिय भले न रही हों परन्तु दलितों के एक बड़े वर्ग में उन्हें जो सम्मान हासिल है, वह मायावती और राम विलास पासवान को भी कभी नहीं मिला। वे पूर्व उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम की बेटी हैं, इसलिए भी उन्हें दलित समाज में खास सम्मान हासिल है। मीरा कुमार की लोकसभा के सर्वोच्च आसन पर एेसे समय ताजपोशी हुई है, जब उत्तर प्रदेश में मायावती का प्रभामंडल उतार पर है और बिहार के हाजीपुर से राम विलास पासवान हारे हैं। कांग्रेस दरअसल, एक साथ कई मनोरथ साधना चाहती है। देश की इस सबसे बड़ी पार्टी की मुखिया सोनिया गांधी खुद महिला हैं। पिछले साल जब शिवराज पाटिल के नाम पर सहमति नहीं बनी तो उन्होंने खुद पहल करते हुए राष्ट्रपति पद पर पहली महिला प्रतिभा पाटिल को बैठाकर सीधे-सीधे संदेश देने की कोशिश की कि पार्टी आधी आबादी को वास्तव में सम्मान देने के पक्ष में है। अब मीरा कुमार को पहली महिला स्पीकर बनाकर उन्होंने इसकी एक तरह से फिर पुष्टि कर दी। चूकि वह दलित भी हैं, इसलिए राजनीतिक रूप से यह सोने पर सुहागा वाली बात हो गयी है। इस वर्ग का फिर से विश्वास हासिल करने के लिए कांग्रेस ने मीरा कुमार के अलावा दलित वर्ग के पांच अन्य नेताओं सुशील कुमार शिंदे, मुकुल वासनिक (महाराष्ट्र), कांतिलाल भूरिया (मध्य प्रदेश), कुमारी सैलजा (हरियाणा) और कृष्णा तीरथ (दिल्ली) को खासतौर से मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री पदों से नवाजा है। यही नहीं, उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी सौंपी गयी हैं।
2004 के मुकाबले इस चुनाव में कांग्रेस की ताकत निसंदेह बढ़ी है। इस बार पार्टी को मुस्लिम, ब्राह्मणों और दलितों के वोट भी काफी संख्या में मिले हैं। यही वजह है कि पार्टी 145 से बढ़कर 206 तक पहुंच गयी है। वोट बैंक बढ़ने की वजह केवल जातीय समीकरण नहीं होते। इसके बावजूद इसकी सत्यता से इंकार भी नहीं किया जा सकता। दलितों को पार्टी के साथ फिर से जोड़ने की कवायद राहुल गांधी ने शुरू की थी। कह सकते हैं कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह उसे आगे बढ़ा रहे हैं। कांग्रेस की इस कुल कवायद का मतलब साफ है। वह अपने पुराने जनाधार को वापस जोड़कर इस गठबंधन राजनीति से बाहर निकलने की कोशिश कर रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इसमें उसे कितनी सफलता मिलती है।

Monday, June 1, 2009

नौजवानों ने बदली सदन की रंगत


लोकसभा का नजारा इस बार बहुत बदला-बदला नजर आ रहा है। 2004 में जब 14वीं लोकसभा का पहला सत्र शुरू हुआ था, अटल बिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर जैसे दिग्गज सदन की अग्रिम पंक्ति में विराजमान थे। सत्तापक्ष की तरफ तो अग्रिम पंक्ति का नजारा कमोबेश वैसा ही दिखा। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के बराबर में सदन के नेता प्रणब मुखर्जी विराजमान थे। फिर सोनिया गांधी, उनके बाद शरद पवार और पी चिदम्बरम बैठे थे। पिछले सदन में इस स्थान पर शिवराज पाटील हुआ करते थे। विपक्षी बैंचों पर बहुत कुछ बदल गया है। जसवंत सिंह, मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह और सुषमा स्वराज विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी के साथ अग्रिम पंक्ति में विराजमान थे। ये सब पिछली लोकसभा के सदस्य नहीं थे। लालू यादव और मुलायम सिंह यादव निसंदेह अग्रिम पंक्ति में बैठे, लेकिन सत्तापक्ष और विपक्ष के ठीक बीचोंबीच वाली सीटों पर। यह सदन पिछले की तुलना में अधिक जवान है, लिहाजा बड़ी संख्या में नौजवानों की उपस्थिति ने लोकसभा की रंगत ही बदल दी है।
इस बार चालीस वर्ष के कम उम्र के सांसदों की संख्या अस्सी के करीब है। पिछले सदन में यह संख्या चालीस के आसपास थी। इस बार सर्वाधिक 59 महिला सांसद चुनकर लोकसभा पहुंची हैं। पिछले सदन में इनकी संख्या 49 थी। अध्यक्ष के आसन पर भी एक पढ़ी-लिखी योग्य महिला मीरा कुमार विराजमान होने जा रही हैं। सदन में महिलाओं की बढ़ी संख्या साफ नजर आ रही थी। सुषमा स्वराज ने तो शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले और पीए संगमा की बेटी अगाथा संगमा को गले लगाकर शाबाशी भी दी। हालांकि यह एक कटु सत्य भी है कि नौजवानों की जो नयी खेप लोकसभा पहुंची है, उनमें बड़ी संख्या एेसे सांसद है, जिनके बड़े पहले से ही बड़े पदों पर विराजमान रहे हैं। यानि वे खानदान की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। भिवानी से चुनकर पहुंची बंसीलाल की पोती श्रुति चौधरी आगे से सातवीं पंक्ति में बैठीं तो राहुल गांधी उनसे भी पीछे वाली पंक्ति में विदेश मंत्री एसएम कृष्णा के साथ बैठे कुछ विचार-विनिमय करते देखे गये। मथुरा से जीतकर आये जयंत चौधरी अपने पिता अजित सिंह के साथ छठीं पंक्ति में बैठे थे। कई नौजवान राज्यमंत्री बनाये गये हैं परन्तु इसके बावजूद उन्होंने आगे की पंक्ति में बैठने के बजाय पीछे ही बैठना पसंद किया। एेसे मंत्रियों में अगाथा संगमा, आरपीएन सिंह, जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया शामिल थे।
कुछ और नौजवान चेहरे पिछली पंक्तियों में ही बैठे दिखे। इनमें शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित, बठिंडा से चुनकर आईं प्रकाश सिंह बादल की पुत्र वधू हरसिमरत कौर, शशि थरूर, मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव, भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान अजहरूद्दीन, राजस्थान से चुनकर आईं ज्योति मिर्धा और महाराष्ट्र से चुनकर आईं सुप्रिया सुले शामिल थीं। हरसिमरत कौर तो सिर पर पल्लू रखे बैठी रहीं। आजम खां के पुरजोर विरोध के बावजूद रामपुर से जीती सपा सांसद और अभिनेत्री जयाप्रदा कुछ देर से पहुंची, लेकिन जल्दी लौट गयीं।
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सदन की कार्रवाई शुरू होने से दस मिनट पहले ही सदन में पहुंच गये थे। विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी उनसे पांच मिनट बाद पहुंचे जबकि सोनिया गांधी 11 बजे के करीब ही सदन में दाखिल हुईं। भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह, डा. मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज ने सत्तापक्ष की बैंचों पर जाकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को जीत पर बधाई दी। कुछ देर से पहुंचे श्री आडवाणी ने भी इन दोनों नेताओं को बधाई दी। प्रणब मुखर्जी श्री आडवाणी से काफी गर्मजोशी से मिले जबकि प्रधानमंत्री ने केवल औपचारिकता निभाते हुए नमस्कार करते हुए हाथ जोड़ दिये। आडवाणी उनके पास ज्यादा वक्त तक रुके भी नहीं।
सदन में कुछ दिलचस्प नजारे देखने को मिले। पिछली बार लालूप्रसाद यादव रेलमंत्री की हैसियत से सत्तापक्ष की अग्रिम पंक्ति में विराजमान रहते थे। इस बार कांग्रेस ने उन्हें भाव नहीं दिये। वे और मुलायम सिंह यादव साथ-साथ बैठे नजर आए। कांग्रेस छोड़कर हरियाणा जनहित कांग्रेस बनाने वाले भजनलाल को सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच वाली दीर्घा में दूसरी पंक्ति में सीट आवंटित की गयी है। वे एक मार्शल के सहारे सदन में पहुंचे। अभिवादन के लिये सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की ओर देखा, लेकिन उन्होंने उनकी तरफ नजरें ही नहीं उठायीं। लालू यादव अभिवादन के लिये प्रधानमंत्री, सोनिया और प्रणब के पास पहुंचे। मनमोहन सिंह और सोनिया ने हाथ जोड़ दिये, तो वे प्रणब के कान में थोड़ी देर तक फुसफुसाते रहे। सोनिया मनमोहन को बधाई देने वालों में मुलायम भी थे।
संभवत: तीन जून को लोकसभा की अध्यक्ष चुनी जाने वाली मीरा कुमार दूसरी पंक्ति में केन्द्रीय मंत्री मुरली देवड़ा के साथ विराजमान थीं। कपिल सिब्बल सहित कई मंत्री और सांसद अभी से उन्हें बधाई देते दिखाई दिये। हरे रंग की साड़ी में प्रियंका गांधी अपने पति राबर्ट वढेरा के साथ खासतौर से दर्शक दीर्घा में मौजूद थीं। जैसे ही सोनिया गांधी ने सदन की सदस्यता की शपथ ली, उसके कुछ ही देर बाद वे वहां से चली गयीं। नए सांसद पीछे की सीटों पर बैठें, यह तो समझा जा सकता है लेकिन पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा, नवजोत सिंह सिद्धू, अजित सिंह जैसे चेहरे भी छठीं सातवीं पंक्ति में बैठे नजर आये, जबकि इतने सीनियर सांसदों के लिये अग्रिम पंक्तियों में सीटें आवंटित की जाती हैं।