Sunday, June 21, 2009

लालगढ़ों के मूल को समझना होगा

लालगढ़ सुर्खियों में है। पिछले करीब दस दिन से मीडिया की प्रमुख खबर बना हुआ है। पहले खबर आई कि माओवादियों ने सत्तारूढ़ सीपीएम के पार्टी दफ्तर को आग लगा दी। फिर पता चला कि उन्होंने चार नेताओं की हत्या कर दी। खबर आई कि वहां की पुलिस चौकी वीरान हो गई है। सीपीएम समर्थक इलाका छोड़कर भाग खड़े हुए हैं। माओवादियों की तरफ से एेलान हुआ कि लालगढ़ इलाका अब आजाद है। यानि वहां पूरी तरह माओवादियों का राज स्थापित हो गया है। टीवी चैनलों पर शुरू में जो तस्वीरें दिखाई गई, उनसे यह भ्रम बना कि वहां नक्सलवादी जो चाह रहे हैं, कर रहे हैं। सरकार, प्रशासन-पुलिस, कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। केन्द्र जागा। गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य से बात की। पूछा कि इतनी ढील क्यों दे रखी है? केन्द्रीय बलों की कई और कंपनी वहां भेजी गई। टीवी चैनलों पर जो ताजा फुटेज आ रहे हैं, उनमें माओवादी सीन से गायब हैं और अद्धसैनिक बलों के जवान सड़कों, गांवों में बेखौफ आगे बढ़ते और घरों से लोगों को निकालकर लठियाते हुए दिखाई दे रहे हैं।
लालगढ़ को लेकर जिस तरह का हव्वा खड़ा किया गया, क्या वह ठीक है? क्या लालगढ़ में जो हुआ, वैसा कभी कहीं नहीं हुआ? घाटी के तो कई इलाकों में अलगाववादी इसी तरह की कानून व्यवस्था की समस्याएं खड़ी करते रहते हैं। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड में भी नक्सलवादी जगह जगह बारूदी सुरंगें बिछाकर सुरक्षाकर्मियों और अधिकारियों पर प्राणघातक हमले करते रहते हैं। पश्चिम बंगाल एेसा अकेला राज्य तो नहीं, जहां नक्सलवादियों ने कानून और व्यवस्था को ध्वस्त किया है। देश के पंद्रह राज्यों के डेढ़ सौ से अधिक जिले इस समय माओवादी हिंसा और आंदोलन से पीड़ित हैं। इन राज्यों में फरवरी से मई के बीच तीन महीने के भीतर सुरक्षा बलों के सौ से अधिक जवान और अफसर नक्सली हिंसा में मारे जा चुके हैं। नई दिल्ली में गृहमंत्री चिदम्बरम ने सवाल पूछा कि पश्चिम बंगाल सरकार ने समय रहते लालगढ़ में हिंसारत माओवादियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई क्यों नहीं की? उनके संगठन को प्रतिबंधित क्यों नहीं किया गया? गृहमंत्री से पूछा जाना चाहिए कि क्या बाकी सभी प्रभावित राज्यों में माओवादी संगठन प्रतिबंधित हैं?
लालगढ़ वेस्ट बंगाल के पश्चिमी मिदनापुर जिले का कस्बा है। यह आदिवासी इलाका है और उत्तर से उत्तर पूर्व होते हुए दक्षिण-पूर्व तक गए उस लाल गलियारे का अंग है, जिसके बारे में कहा जाता है कि माओवादी उसे आजाद क्षेत्र बनाने के सपने देख रहे हैं। यह लाल पट्टी नेपाल की सीमा से लेकर बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश होते हुए महाराष्ट्र तक जाती है। सत्तर के दशक में शुरू हुआ माओवादी आंदोलन इस समय अपने सबसे विकट स्वरूप में हमारे सामने है। एक लंबे अरसे से नक्सली नेता गरीबों, किसानों, आदिवासियों, बेरोजगारों को न्याय दिलाने के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे हैं। यह बात सिद्ध हो चुकी है कि उनके तार पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से लेकर नेपाल के माओवादियों तक से जुड़े हैं, जो भारत को अस्थिर होते देखना चाहते हैं। माओवादी हिंसा में अब तक हजारों बहुमूल्य जानें जा चुकी हैं। इनमें बड़ी संख्या सुरक्षाकर्मियों की भी है, जो कभी बारूदी सुरंगों तो कभी माओवादियों के बर्बर हमलों की भेंट चढ़ गए। माओवादी आंदोलन-हिंसा और इस त्रासदी का सबसे निराशाजनक पहलू सरकार का रवैया है।
केन्द्र और प्रभावित राज्य सरकारों ने नक्सली हिंसा से निपटने की हुंकार तो बहुत बार भरी लेकिन किया धरा कुछ खास नहीं। सरकारी रवैये से यह आम धारणा बन गई है कि जब तक सुरक्षाकर्मी और आम आदमी किसी हिंसा की बलि चढ़ते रहते हैं, तब तक सरकारों के कानों पर जूं नहीं रेंगती। जैसे ही किसी बड़े नेता अथवा मुख्यमंत्री पर हमला होता है, सरकार की चेतना लौट आती है। आंध्र प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु पर नक्सली हमला हुआ तो वहां नक्लसवादियों के निपटने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। पिछले साल नवम्बर में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के काफिले को भी पश्चिम मिदनापुर जिले में ही नक्चसलवादियों ने बारूदी सुरंग से उड़ाने की कोशिश की। खासकर इस क्षेत्र के चार जिलों में माओवादियों और सीपीएम के बीच वर्चस्व को लेकर संघर्ष छिड़ा हुआ है। यह अपने आप में आश्चर्य का विषय है कि मुख्यमंत्री पर हमले के बाद भी सरकार ने हिंसा में लिप्त संगठनों के खिलाफ उस तरह की सख्त कार्रवाई नहीं की, जसी जरूरत और अपेक्षित थी। संभवत: यही वजह है कि उनके हौंसले बुलंद होते गए।
जमीनी हकीकत यह है कि राज्य सरकारों के पास न तो नक्सलवादी संगठनों से निपटने की राजनीतिक इच्छाशक्ति है और न ही संसाधन। केन्द्र दावा करता है कि आधुनिक साजो सामान खरीदने के लिए वह प्रभावित राज्यों को हर साल बड़ी रकम देता रहा है, जबकि राज्य पैसे की कमी का रोना रोते रहते हैं। राज्यों की सत्तारूढ़ पार्टियों को यह भय भी सताता रहता है कि सख्ती करने से कहीं उनका वोट बैंक न खिसक जाए।
लालगढ़ की घटना को खतरे की एक और घंटी मानते हुए केन्द्र सरकार को पहल करनी होगी। प्रधानमंत्री पहले भी प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुला चुके हैं। इस समस्या के हर पहलू को समझना होगा। यह केवल कानून और व्यवस्था की ही समस्या नहीं है। इसके सामाजिक और आर्थिक पहलू भी हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह ठीक है कि किसी को भी हिंसा की इजाजत नहीं दी जा सकती और एेसे तत्वों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की ही जानी चाहिए लेकिन सरकार को इस पर भी गहन मंथन करना होगा कि आखिर इस पूरी आदिवासी पट्टी का आजादी के इतने सालों बाद भी वैसा विकास क्चयों नहीं हो सका, जैसा देश के अन्य भू-भागों का हुआ है।

3 comments:

Anonymous said...

लालगढ़ की समस्या को कोई नहीं समझ पाया
संजीव पांडेय
लालगढ़ में माओवािदयों के िखलाफ हो रही कारॆवाई के जड़मूल में कोई नहीं जाना चाहता। लालगढ़ तब सुिखॆयों में आया जब बुद्वदेव भट्चायॆ और रामिवलास पासवान पर बारूदी सुरंग से हमला के कोिशश हुई। दोनों नेता इस इलाके में िजंदल सटील के एक पलांट का िशलान्यास कर लौट रहे थे। इस हमले में दोनों नेता बालबाल बच गए थे। ये हमला तब हुआ था जब िसंगूर मंे टाटा प्रोजेक्ट और नंदीग्राम के पास हलिदया परोजेक्ट को लेकर तृणमूल कांगरेस संघषॆ कर रही थी। लोकसभा चुनावों से ठीक पहले इन दोनों नेताओं पर हमला हुआ था। दरअसल लालगढ़ में भी दोनों नेताओं के उपर हमले के पीछे एक औध्योिगक प्रोजेक्ट है िजसे िजंदल स्टील वाले लगा रहे है। ये यहां पर लगभग पांच हजार हेक्टेयर जमीन कौिड़यों के भाव में खरीद रहे है। ये जमीन जंगलों का है,िजसपर वरषोॆ से आिदवािशयों का कबजा है। इससे पहले भी संथाल आिदवािसयों का आंदोलन आजादी के पहले और आजादी के बाद जल जमीन और जंगल के िलए इस इलाक ेमें होता रहा है। आिदवासी इस इलाके में जंगल का इलाका कौिड़यों के भाव में आिदवािसयों को िदए जाने के िखलाफ है। साथ ही िजनका जमीन िलया जा रहा है उन्हें पूरी कीमत नहीं दी जा रही है। ठीक उसी तरह से यहां पर भी हो रहा है जो नंदीगराम और िसंगूर में हो रहा है। इसका फायदा माओवािदयों ने उठाया। यहां के स्थानीय आिदवािसयों को समरथन देने के बहाने वो घूसे। अगर सरकार की नीितयां ठीक रहती तो आिदवासी माओवािदयों के समथॆन में नहीं आते। आज यहां पर माओवादी आिदवािसयों के रहनुमा बन गए। गौरतलब है िक नंदीगराम में भी तृणमूल कांगरेस के कारयकरता माओवािदयों के सपोटॆ से आंदोलन चला रहे थे।
िदलचसप बात है िक अभी तक लालगढ़ मसले पर ममता बनजीॆ चुप है। वो केंदर की सरकार में शािमल है। यहां पर भी मसला जमीन अिधगरहण का है। हजारों हेकटेयर जमीन कौिड़यों के भाव ेमं िलया जा रहा है। सथानीय तौर पर ममता बनजीॆ के कायॆकताॆ माओवािदोयं के साथ हो चुके है और कांगरेस के कायॆकताॆ भी माओवािदयों के साथ है। एेसे में अब केंद्र सरकार अपनी उन नीितयों को बदले जो आिदवासी लोगों को माओवािदयों के शरण में जाने को मजबूर कर रही है। िदलचसप बात है िक देश के उन इलाकों में िपछले समय में माओवािदयों ने अपनी मजबूती बनायी है जहां पर आिदवासी काफी है। ये इलाका जंगली है। िसफॆ पुिलस से समस्या का िनपटारा नहीं हो सकता है। कम से कम समसया की जड़ में जाए सरकार। आिदवािसयों के जमीन और जंगल को बचाए। नहीं तो आने वाले िदनों ेमं िसथित और िवकट होगी। जो उद्योग आज सथािपत हो रहे है वहां पर लैंडमाइन लगाकर उड़ान े की कोिशश माओवादी करेंगे। इसिलए आिदवासी समाज के िवचार,सम्मान की रछा कर कोई िवकास हो तो जयादा अचछा रहेगा।

Gyan Darpan said...

लगता है यहाँ सभी दल राजनीती कर रहे ! देश की एकता अखंडता की किसी भी दल को कोई परवाह नहीं ! यह सब वर्चस्व की लडाई है | सबका मकसद सिर्फ सत्ता हथियाने के अलावा कुछ नहीं |

डॉ. हरिओम पंवार - वीर रस के कवि said...

sahi kaha aapne sarkar gambhir nahi hai na aadivasi kshetron ke vikas ke liye aur na hi vote bank se aage sochne ke liye.