Tuesday, August 11, 2009

स्वाइन फ्लू का हौव्वा ठीक नहीं


क्या स्वाइन फ्लू वास्तव में इतनी खतरनाक बीमारी है, जितनी मीडिया के द्वारा बताने की कोशिशें की जा रही हैं? क्या अन्य पश्चिमी देशों की तरह यह भारत में भी महामारी का रूप धारण कर चुकी है? क्या सरकार इसे रोकने में नाकाम साबित हो गई है और इतने लोग इसकी चपेट में आ गए हैं कि जिससे लोग अपने को असुरक्षित महसूस करने लग गए हैं। यदि मीडिया की कवरेज को देखें तो कुछ एेसे ही संकेत मिलते हैं, लेकिन जिस तरह का वातावरण बनाया जा रहा है, क्या हालात वैसे ही हैं? यह जानने के लिए तथ्यों पर गौर करना आवश्यक है। अमेरिका के मेक्सिको से शुरू हुई यह बीमारी अब तक दुनिया के 167 देशों तक फैल चुकी है। खुद अमेरिका की बात करें तो वहां अब तक साढ़े छह हजार लोग स्वाइन फ्लू की चपेट में आए हैं, जिनमें से 436 की मृत्यु हुई है। अर्जेटीना में 7 लाख 60 हजार लोग इसकी चपेट में आए हैं और 337 लोगों की मौत हुई है। आस्ट्रेलिया में करीब 25 हजार लोग स्वाइन फ्लू से ग्रस्त पाए गए हैं, जिनमें से 85 की मृत्यु हुई है। ब्रिटेन में एक लाख दस हजार लोग इससे प्रभावित हुए हैं और छत्तीस की मौत हुई है। भारत में अब तक केवल 860 लोग स्वाइन फ्लू से ग्रस्त पाए गए हैं। जिन्हें स्वाइन फ्लू होने का संदेह था, एेसे छत्तीस सौ लोगों की जांच-पड़ताल की गई है। स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद की मानें तो भारत सरकार ने समय रहते हवाई अड्डों और सी-पोर्ट्स पर ही विदेशों से आने वालों के स्वास्थ्य के परीक्षण का महत्वपूर्ण फैसला लिया। अब तक 47 लाख लोगों की स्क्रीनिंग हवाई अड्डों और सी-पोर्ट्स पर की गई है। जिन पर भी संदेह हुआ, उन्हें तुरंत नजदीकी अस्पतालों में भर्ती करके चिकित्सा मुहैया कराई गई। नतीजतन, खतरा टल गया, लेकिन बाहर से आने वाले बहुत से लोगों ने यह बात छिपाई कि उन्हें स्वाइन फ्लू है। इसी का नतीजा है कि देश के कुछ बड़े महानगरों में स्वाइन फ्लू फैला लेकिन बाकी देशों के मुकाबले यह बहुत कम है और यहां मृत्यु दर भी बहुत कम है। अब तक छह मौतें हुई हैं। देश में हर साल 4 लाख लोग एड्स से मर जाते हैं। करीब तीन लाख लोग टीबी के शिकार होते हैं। डेढ़ हजार हर साल मलेरिया से मर जाते हैं और 78 हजार महिलाएं प्रसवकाल में दम तोड़ देती हैं। सवाल है कि स्वाइन फ्लू से ज्यादा मौतें हो रही हैं या अन्य बीमारियों से। मीडिया में बाकी बीमारियों के इन भयावह आंकड़ों को क्यों नहीं दिखाता? जिस तरह स्वाइन फ्लू की कवरेज की जा रही है, उससे लोग जागरूक और सजग होने के बजाय घबरा रहे हैं। स्कूल-कालेजों में छुट्टी की जा रही हैं। किसी को हल्की खांसी-जुकाम जैसी बीमारी भी हो रही है तो वे स्वाइन फ्लू की आशंका में अस्पतालों की ओर दौड़ रहे हैं। पूरे देश में भय का वातावरण बना दिया गया है। प्रधानमंत्री से लेकर स्वास्थ्य मंत्री तक इस पर ब्यौरे ले रहे हैं। यह अच्छी बात है कि एहतियात बरती जाए, लेकिन किसी भी बीमारी को सनसनीखेज तरीके से प्रसारित कर टीआरपी बढ़ाने की कोशिश करना क्या किसी भी दृष्टि से उचित है?

13 comments:

Manvinder said...

swine flue dk hwaa is samya failta hi ja raha jo Pune se shuru hua hai....Pune se chal kar ab ye saare bhaarat mai fail chuka hai....panic to isi traha se failta hai ......
isme Media ka role bhi dekhne layak hai

Unknown said...

समस्या तो है भले ही इतनी गम्भीर न हो, लेकिन जगह-जगह सड़कों पर थूकते-मूतते-हगते गंदे भारतीयों में इसके फ़ैलने का खतरा भी बहुत बड़ा है। क्योंकि सच्चाई यही है कि भारत के लोग भले ही अरबों रुपये साबुन-शैम्पू उद्योग को दे रहे हैं लेकिन रहते तो गंदे ही है, विश्वास न हो तो सार्वजनिक अस्पताल, प्लेटफ़ॉर्म, शौचालय-मूत्रालय कहीं भी झाँक कर देख लीजिये…

Anonymous said...

सहमत।

sarita argarey said...

बड़ा लम्बा गणित है । हाल ही में एक अखबार में छपा था कि भारत में सालाना बीस हज़ार करोड़ रुपए महज़ हाथ धोने में ही खर्च हो रहे हैं । साबुन कंपनियों का ये आँकड़ा तब है जब सवा सौकरोड़ की आबादी वाले देश में केवल सात फ़ीसदी लोग ही साबुन का इस्तेमाल कर रहे हैं । टीवी पर एक विज्ञापन आता है ,जो सलाह देता है कि बीमारियों से बचना है , तो दिन में कम से कम पाँच मर्तबा साबुन से हाथ धोएँ । गणित समझने में ज़रा भी वक्त नहीं लगेगा । वैसे सुरेशजी को जानकर हैरानी होगी की ज़्यादा सफ़ाई पसंदगी भी बवाले जान होती है । जापानियों और अंग्रेज़ों को नज़ला- ज़ुकाम जैसे छोटे मोटे इन्फ़ेक्शन भी झट दबोच लेते हैं । भारतीयों की तगड़ी प्रतिरोधक क्षमता का राज़ इसी स्लम कल्चर और नगर निगमों के निकम्मेपन में छिपा है ।

विजय वडनेरे said...

आपकी बात से सहमत भी हूँ और असहमत भी।

आपने जो आँकडे बताये हैं (दूसरी बिमारियों के) वो साल भर के हैं, जबकि स्वाईन फ़्लू अभी अभी शुरु हुआ है (मैं यह बिल्कुल कहना नहीं चाहता कि सालभर के बाद देखते हैं इससे कितने मरे). मगर जो दूसरी बिमारियाँ हैं उसमें और इसमें फ़र्क है। यह संक्रमण वाली बिमारी है और बिना छुए भी फ़ैल रही है।

रही बात मीडिया की, उसकी क्या कहें, तो वो तो है ही बड़बोला।

Anonymous said...

आपके अज्ञान पर खेद है, क्या आपको पता है कि 1918 में इसी H1N1 वायरस के एक म्युटेशन की वजह से विश्व के 3 करोड़ लोग काल को प्राप्त हुये थे जो उस समय विश्व कि कुल आबादी का 6‍ प्रतिशत था?

आज और 1918 में बहुत फर्क है, आज किसी पेन्डेमिक के फैलने कि गति बहुत तीव्र है क्योंकि लोग आज बहुत जल्द एक से दूसरे स्थान पहुंचते हैं.

आप चिंता नहीं करते तो अच्छा है, लेकिन किसी की सावधानी का मजाक न बनायें. सरकार जो भी कदम किसी पेन्डेमिक रोकने को उठाये तो ज्यादा नहीं है.

आजकल नसीम निकोलस तलेब की किताब ब्लैक स्वान पढ़ रहा हूं जिसमें एक बात बहुत काम की लिखी है

इतिहास उन लोगों को तो याद रखता है जिन्होंने मुसीबत के दौरान हौसला दिखाया, लेकिन उन्हें भूल जाता है जिनके हौसले से मुसीबत ही टल गई.

मतलब अगर यह बीमारी पेन्डेमिक बन जाये तो वो डॉक्टर हीरो होंगे जो जान पर खेल कर इलाज करेंगे, लेकिन अगर यह quarantine और जल्द कदमों के कारण पेन्डेमिक बनने से बच जाये तो लोग बाद में इसके खतरे को कम कर के आंकेंगे और इसको रोकने वाले लोगों का मजाक ही बनेगा

इसलिये सुरक्षा के लिये उठाये गये कदमों की आलोचना से पहले बात को समझिये फिर बोलिये.

Arvind Mishra said...

@३ नहीं १० करोड़ लोग मरे थे !

वजूद said...

जहां तक मेरा अध्ययन है यह आंकडा नौ करोड़ पैंतीस लाख आठ सौ लोगों का है. और उस वक्त ये बीमारी उन लोगों में फ़ैली थी जो सूअर का सेवन करते थे. जबकि इस बार ये बीमारी संक्रमण के चलते फ़ैली है. पहले फ़ैली बीमारी में मेनेन्जाइतिस के लक्षण देखने को मिले थे. इसलिए इन दोंनो की तुलना करना ठीक नहीं है.

ab inconvenienti said...

स्वाइन फ्लू और स्पेनिश फ्लू में कई अंतर हैं, इन्हें एक ही नहीं माना जा सकता. इन महामारीयों की दहशत में मेडिकल कंपनियों के और कोर्पोरेशंस के कितने गहरे हित छिपे हुए हैं यह एक बार सोचने की कोशिश करें तो कहानी कुछ कुछ खुद ही साफ़ हो जायेगी.

वैसे एक समय हैपेताइतस सी का भी हौआ फैलाया गया था, वैक्सीनेशन के नाम पर खरबों पीटे गए, मीडिया की मदद से जमकर दहशत फैलाई जा रही थी. अब कहाँ है लाइलाज हैपेताइतस सी के मरीज? या इससे मरने वालों के नाम?

सीधा खेल है की : पहले दहशत पैदा करो,

कुछ सामान लक्षण वाले मामूली रोगों के मरीजों को जबरजस्ती इस बीमारी का मरीज बताओ,

इनमे से कई मौतों का कारण इस बीमारी को बता दो

फिर इस दहशत से वैक्सीनेशन और दवाओं के नाम पर मुनाफा कमाओ,

पूरी मलाई निकालने के बाद चुप्पी साध लो क्योंकि जनता की याददाश्त काफी कम होती है.

और कुछ सालों बाद फिर इसी खेल को शुरू कर दो.


और मेडिकल के क्षेत्र में स्वार्थ इतना हावी हो चुका है की फायदे की खातिर कुछ वाइरल या निमोनिया जैसी मामूली समस्याओं के मरीजों को स्वाइन फ्लू का मरीज बता कर और जबरजस्ती मारकर दहशत का कारोबार खड़ा किया जा रहा है.

Anonymous said...

jab itna bda havva hai to hakikat chhoti hi milegi, hamne to BABA RAMDEV ji ki baat maan li- yog karo nirog raho. lekin sarkar ki sajagta hairan karne wali hai, videshi bimari hai ji

डॉ. हरिओम पंवार - वीर रस के कवि said...

jab itna bda havva hai to hakikat chhoti hi milegi, hamne to BABA RAMDEV ji ki baat maan li- yog karo nirog raho. lekin sarkar ki sajagta hairan karne wali hai, videshi bimari hai ji

Asha Joglekar said...

sjagta to achchi hee hai. aur Airport par janch bhee sahee hai bahar se hee to aarahee hai beemaree.

Khushdeep Sehgal said...

ओमकार भाईसाहब, ब्लॉग की दुनिया में टहलते-टहलते आपसे मुलाक़ात हुई, मेरठ के सारे दिन पिक्चर की तरह सामने आ गए, बेहद अच्छा लगा. आज़ादी के दिन से अपना ब्लॉग शुरू किया है- देशनामा. swine फ्लू या HINI वाकई देश के लिए बड़ा खतरा है.चीन ने HINI फ्लू के मामले में दिखा दिया है कि इस तरह के खतरे से कैसे निपटा जाता है. वहां बाहर से आने वाली किसी भी उडान में कोई भी संदिग्ध दिखा उसे फ़ौरन आइसोलेशन में ले जाया गया, न्यू ओरलेंस के मेयर और उनकी पत्नी तक को नहीं बख्शा गया. कोई राजनयिक पहुँच नहीं. खाने की थाली बस आइसोलेशन रूम के बाहर रख दी जाती थी. नतीजा यह कि HINI के तीन हज़ार केस के बावजूद चीन में एक भी मौत नहीं हुई. कोई बात समाज की भलाई के लिए हो तो तूफ़ान नहीं खडा किया जाना चाहिए. यह बात मीडिया भी.समझे