Monday, November 30, 2009

भारत की सुरक्षा चिंताएं कायम


मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले को एक साल हो गया है। इस बीच कोई बड़ी वारदात नहीं हुई, तो क्या यह मान लेना सही होगा कि भारत अब सुरक्षित है? यह सही है कि पहले के मुकाबले गृह मंत्रालय ज्यादा चुस्त-चौकस नजर आ रहा है। केन्द्र और राज्यों के बीच बेहतर तालमेल और सूचनाओं का आदान-प्रदान हो रहा है। सूचनाओं पर त्वरित कार्रवाई भी होती दिख रही है। केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन कर दिया है। अवैध गतिविधि निरोधक अधिनियम को और कड़ा बना दिया गया है। समुद्री किनारों की सुरक्षा चाक चौबंद कर दी गई है, लेकिन क्या इतने भर से यह मान लेना सही होगा कि खतरा टल गया है और अब आतंकवादी वारदातें नहीं होंगी? भारतीय निजाम को न तो इस तरह की खुशफहमी पालनी चाहिए और अच्छी बात यह है कि उसने पाली भी नहीं है। अभी बहुत से मोर्चे हैं, जिन पर काम करने की जरूरत है। हमारे सुरक्षा और खुफिया तंत्र में भारी खामियां हैं, जिन्हें जल्द से जल्द दूर करना होगा। राज्य सरकारों को और संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से काम करना होगा।
सुरक्षा विशेषज्ञों का यह मानना है कि विगत एक साल में यदि आतंकवादी कोई संगीन वारदात नहीं कर पाए हैं, तो इसकी वजह कुछ हद तक सरकारी चौकसी है और बड़ा कारण पाकिस्तान के अंदरूनी हालात हैं। आईएसआई, वहां की सेना के भारत विरोधी मानसिकता के अफसर और सरकार जेहादियों से जूझ रहे हैं। लगभग प्रतिदिन वहां किसी न किसी शहर में बड़ी आतंकवादी वारदात हो रही है, जिनमें बेकसूर लोग मारे जा रहे हैं। सेना, पुलिस, अधिकारी और नेता उन जेहादियों के निशाने पर हैं जो अपने अस्तित्व की जंग लड़ रहे हैं। पहले जम्मू-कश्मीर और भारत उनके एजेंडे में पहले स्थान पर थे, अब वे थोड़ा नीचे खिसक गए हैं। वेद मारवाह ने हाल में एक पत्रिका से कहा कि भारत से खतरा टला नहीं है। वहां जंग जीतने या हारने की सूरत में उनकी बंदूकों की नाल भारत की ओर होंगी। उनका जाल और ढांचा बरकरार है।
सवाल है कि यदि खतरा कम नहीं हुआ है तो क्या हमारी सुरक्षा-खुफिया एजेंसियां और सरकारें पहले के मुकाबले एेसे हालातों का सामना करने के लिए बेहतर तैयारियों के साथ कमर कसकर तैयार हैं? जवाब है-नहीं। यह सही है कि गृह मंत्री के तौर पर पी चिदम्बरम के काम-काज ने माहौल बदला है, लेकिन क्चया हर स्तर पर अधिकारी उतनी ही मुस्तैदी से सुरक्षा को चाक-चौबंद करने में जुटे हैं? यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की सुरक्षा को अब बाहर से नहीं, भीतर से भी गंभीर खतरा उत्पन्न होता दिख रहा है। नक्सली आंदोलन अब असहनीय हिंसा के रास्ते पर बढ़ चुका है। जो लोग अब तक इसे सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समस्या बताकर नक्सलियों से वार्ता शुरू कर उन्हें विकास की मुख्य धारा में वापस लाने की पैरवी करते थे, उनके माथे पर शिकन नजर आने लगी है। 1967 में बहुत छोटे से क्षेत्र से शुरू हुआ नक्सलबाड़ी आंदोलन देखते देखते बीस राज्यों तक विस्तार पा चुका है। जाहिर है, अब नक्सलवादी कानून-व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर सरेआम सत्ता को चुनौती देने लगे हैं।
यह सही है कि सीमा पार के आतंकवाद में कमी आई है। इसकी वजह भारत की ओर से शुरू की गई कूटनीतिक लड़ाई भी है। पाकिस्तान के अंदरूनी हालात भी और उस पर अमेरिका सहित अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का दबाव भी, लेकिन यह हालत हमेशा रहने वाली नहीं है। पाकिस्तानी हकूमत कश्मीर का राग अभी भी पहले की तरह अलाप रही है। वहां के कुछ सिरफिरे मंत्री अब भी आतंकवादियों की करतूत को जेहाद बताकर आग से खेलने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए भारत को वे तमाम सुरक्षा उपाय करने ही होंगे, जिनसे अतंकवादियों की घुसपैठ रुके। घुसपैठ कर भी जाएं तो वारदात नहीं करने पाएं। कर दें तो जल्द से जल्द उन्हें कठोर सजा मिले। इसके लिए कड़े कानून बनाने, सुरक्षा-खुफिया एजेंसियों को चाक चौबंद करने, सरकारों की एप्रोच में बुनियादी अंतर लाने और खासकर सुरक्षा तंत्र को जवाबदेह बनाने की जरूरत है।

Friday, November 27, 2009

अमेरिका और चीन लें जिम्मेदारी

त्निनिदाद में राष्ट्रमंडल देशों के नेताओं का सम्मेलन एेसे समय हो रहा है, जब अगले महीने होने जा रहे कोपनहेगन सम्मेलन की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा है। कोपहेगन में जलवायु परिवर्तन पर गंभीर मंत्रणा होने और कुछ अहम फैसले लिये जाने की संभावना है। हालाँकि जानकार इस तरह के दावों को संदेह की द्रष्टि से देख रहे हैं

त्रिनिदाद सम्मेलन का ध्यान भी पूरी तरह जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित रहने की संभावना है। इस सम्मेलन का महत्व इस कारण भी बढ़ गया है क्योंकि यह 53 देशों वाले राष्ट्रमंडल संगठन की स्थापना की 60वीं वर्षगांठ पर हो रहा है। प्रधानमंत्नी मनमोहन सिंह अपने अमेरिका दौरे के बाद त्निनिदाद में पोर्ट आफ़ स्पेन पहुँच चुके हैं। माना जा रहा है कि कोपनहेगेन में जलवायु परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय चर्चा से पहले ये जलवायु परिवर्तन संबंधित मुद्दों पर सहमति बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास है। इसमें राष्ट्रमंडल से बाहर के देशों के अहम नेताओं को भी आमंत्नित किया गया है। इनमें संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून, फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी और डेनमार्क के प्रधानमंत्नी लार्स लेक रास्मुसिन शामिल हैं।
ब्रिटेन के प्रधानमंत्नी गार्डन ब्राउन ने उम्मीद जाहिर की है कि यह कोपनहेगेन सम्मेलन की दिशा में महत्वपूर्ण कदम होगा। हालांकि पयर्वेक्षकों का साफ कहना है कि इस सम्मेलन में भी ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन के लिए जि़म्मेदार देशों और छोटे विकासशील देशों के बीच की खाई और मतभेदों को पाटना मुश्किल होगा। कोपनहेगेन सम्मेलन से भी हालांकि बहुत ज्यादा उम्मीदें लोग नहीं लगा रहे हैं क्योंकि संयुक्त राष्ट्र के एक अधिकारी का कहना है कि कोपेनहेगन में ऐसी कोई संधि नहीं होने जा रही है जो कानूनी रुप से बाध्यकारी हो। हालांकि जलवायु परिवर्तन पर एक राजनीतिक सहमति बन सकती है जो अगले कुछ महीनों में क़ानूनी संधि के लिए रास्ता बनाए। विकासशील देश और पर्यावरण कार्यकर्ता इस देरी से नाराज हैं और कह रहे हैं कि इससे धनी देशों की छवि पर नाकारात्मक असर पड़ रहा है। कोपनहेगन सम्मेलन का महत्व इस कारण बढ़ गया है क्चयोंकि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इसमें शामिल होने का एलान किया है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि चीनी राष्ट्रपति वहां पहुंचेंगे या नहीं। ये ही दोनों देश ग्रीनहाऊस गैसों का सर्वाधिक उत्सर्जन करते हैं। अमेरिका ने घोषणा की है कि वो कई चरणों में ग्रीनहाउस गैसों से होने वाला उत्सर्जन कम करेगा और इसकी शुरुआत 2020 तक 17 फ़ीसदी की कटौती से की जाएगी। यह पहला मौका है जब अमेरिका ने कोई लक्ष्य निर्धारित किया है।

Wednesday, November 25, 2009

क्या हमने 26/11 से कुछ सीखा


पिछले साल बुधवार 26/11 की उस स्याह और खौफनाक रात को कैसे भुलाया जा सकता है। मुंबई पर हुए आतंकी हमले को भारतीय कभी नहीं भुला सकेंगे। समुद्री रास्ते से कराची से मुंबई पहुंचे दस आतंकवादियों अजमल आमिर कसाब, इस्माइल खान, हफीज अरशद, जावेद, नजीर, शोएब, नासिर, बाबर रहमान, अब्दुल रहमान और फराहदुल्ला ने छत्रपति शिवाजी टर्मिनल (सीएसटी), लियोपोल्ड कैफे, नरीमन हाउस, होटल ट्राइडेंट आबेराय और होटल ताज में जो नरसंहार किया, उसके जख्म अभी तक भी हरे हैं। जांच-पड़ताल और जीवित पकड़े गए अजमल कसाब से हुई पूछताछ से यह साबित हो चुका है कि भारत को दहला देने वाले इस सुनियोजित षड़यंत्र के तार सीधे पाकिस्तान से जुड़े थे। वहीं से मोबाइल फोनों पर आतंकवादियों के आका उन्हें संचालित कर रहे थे। आतंकियों की क्रूरता का अंदाजा इसी से लग जाता है कि 60 घंटे तक चली वारदात में 173 लोगों को अपने बहुमूल्य जीवन से हाथ धोना पड़ा। इनमें पुलिस अफसर, कमांडो, होटल कर्मचारी, उनके परिजन और अन्य नागरिकों के अलावा कई विदेशी मेहमान शामिल थे। यह सही है कि इस घटना ने भारतीय सुरक्षा व खुफिया एजेंसियों को कई सीख दी है। सरकार ने इस तरह की वारदातों की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए कई कदम भी उठाए हैं, लेकिन इस घटना के एक साल पूरा होने के बाद यह सवाल जरूर उठ रहा है कि इतनी खौफनाक वारदात के बाद भी क्या हालात बदले हैं। क्या हम लोगों ने कुछ सीखा है। क्या आम भारतीय पहले के मुकाबले अपने को ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। क्या मुंबई जैसे हमलों का खतरा टल गया है। क्या सरकार और सुरक्षा एजेंसियों के तौर-तरीकों में अंतर आया है?
यह सही है कि 26 नवम्बर 2008 के बाद मुंबई जैसी बड़ी आतंकवादी वारदात देश में नहीं हुई है और इस बीच सुरक्षा व खुफिया एजेंसियों ने आतंकवादियों को पहले ही दबोचकर कई षड़यंत्रों को विफल करने में सफलता प्राप्त की है, लेकिन न तो सीमा पार से घुसपैठ में कमी आई है और न ही छिटपुट वारदातें बंद हो रही हैं। यह सही है कि केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल और सूचनाओं का आदान-प्रदान बढ़ा है। केन्द्रीय खुफिया तंत्र की सूचनाओं पर अब राज्य उतनी लापरवाही भी नहीं दिखा रहे हैं, जैसी पहले दिखाते थे। इस बीच केन्द्र ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन किया गया है। देश के समुद्री किनारों की सुरक्षा चाक-चौबंद करने के लिए सैंकड़ों चौकियां बनाई जा रही हैं। समुद्री मार्गो की निगरानी के लिए हवाई बेड़े को लगाया गया है, लेकिन जहां तक आम आदमी और उसकी सुरक्षा का सवाल है, वह अभी भी भगवान भरोसे ही है। मीडिया के जरिए सरकार भले ही यह दिखावा करे कि वह पूरी तरह सजग और चाक-चौबंद है परन्तु वस्तुस्थिति यही है कि मुंबई जैसे
हमलों के बाद सरकार में बैठे लोगों की सुरक्षा का ताम-झाम जरूर बढ़ जाता है-आम आदमी की हालत जस की तस रहती है। त्योहारों, विशेष अवसरों को छोड़ दें तो न सुरक्षा एजेंसियां रूटीन में रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, होटलों, धर्मशालाओं आदि की चैकिंग करती हैं और न ही उन्हें इस सबकी चिंता है।
खुद प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी चिदम्बरम हाल में कह चुके हैं कि सीमा पार बैठे षड़यंत्रकारी फिर मुंबई जैसे हमलों की साजिशों को अंजाम देने की फिराक में हैं। प्रधानमंत्री ने वाशिंगटन में भी कहा है कि पाकिस्तान मुंबई हमलों की जांच में सहयोग नहीं कर रहा और उससे तब तक बातचीत संभव नहीं है, जब तक वह हाफिज सईद और इस वारदात से जुड़े दूसरे तमाम चेहरों को गिरफ्तार कर सजा नहीं दे देता। इन बयानों से साफ है कि तमाम कोशिशों के बावजूद भारतीय निजाम पाकिस्तान पर निर्णायक दबाव बना पाने में नाकाम रहा है। यहां तक कि विश्व भर से आतंकवाद का सफाया करने का दम भरने वाले अमेरिका पर भी भारत सरकार यह दबाव बनाने में विफल रही है कि वह अपने प्रभाव का उपयोग कर पाकिस्तान पर निर्णायक दबाव बनाए।
जहां तक आतंकवादी वारदातों से निपटने के लिए किए जा रहे इंतजामों का सवाल है, वे भी अपर्याप्त हैं। केन्द्र ने मुंबई, कोलकाता, चैन्नई और हैदराबाद में एनएसजी के नए हब बनाने का एेलान किया है, जिनमें से प्रत्येक में 240 कमांडों रहेंगे। इस तरह की व्यवस्था असम, कश्मीर और दूसरे पूर्वात्तर राज्यों में नहीं की जा रही है, जबकि वहां आतंकवादी वारदातें होती ही रहती हैं। एनएसजी और दूसरे सुरक्षा बलों को उस तरह के हथियार, बुलेट प्रूफ जकेट और हैलीकाप्टर आदि उपलब्ध नहीं कराए जा सके हैं, जैसे अमेरिका और कुछ अन्य पश्चिमी देशों की सुरक्षा एजेंसियों के पास हैं। यह सर्वविदित है कि दिल्ली के मानेसर से मुंबई पहुंचने में एनएसजी को पूरी रात ही लग गई थी। उन्हें समय से विमान भी उपलब्ध नहीं कराया जा सका था। हमारी सुरक्षा व्यवस्था अभेद्य, चुस्त-चौकस और तैयारी में होती तो अव्वल तो दस हथियारबंद आतंकवादी समुद्री रास्ते से देश में प्रवेश ही नहीं कर पाते और पांच जगहों पर तबाही की इबारत लिखने की मंशा से घुस भी गए थे तो साठ घंटे तक एके 47 और हैंड ग्रेनेडों से मौत और तबाही का वह खेल नहीं खेल पाते।
यह तथ्य किसी से छिपे नहीं हैं कि हमारे यहां सुरक्षा बेड़े की हालत कितना खस्ता है। भारतीय पुलिस सेवा में साढ़े पांच सौ से अधिक अधिकारियों की कमी है। राज्य पुलिस सुधारों को लागू करने के लिए तैयार नहीं हैं। पुलिस के आधुनिकीकरण की मुहिम जिस तेजी से आगे बढ़नी चाहिए थी, नहीं बढ़ पा रही है। बदले हुए हालातों में जिस तरह के प्रशिक्षण की जरूरत है, वैसा सुरक्षा बलों को नहीं दिया जा रहा। यही हालत न्याय व्यवस्था की है। राज्य सरकारें मुकदमों के भारी ढेर को कम करने की दिशा में गंभीर दिखाई नहीं देती। जितनी अदालतों, जजों, बुनियादी ढांचे की जरूरत है, उनके आधे से काम चलाने की कोशिशें हो रही हैं। इस वजह से आतंकवादियों और गंभीर वारदातों के अपराधियों तक को जल्द समय रहते सजा नहीं मिल पाती है. न्याय के लिए पीड़ितों को कई कई साल तक भटकना पड़ता है.
यह सही है कि पी चिदम्बरम ने गृह मंत्रालय को सक्रिय कर दिया है। अब खुफिया अधिकारियों की प्रतिदिन बैठक होती है और राज्यों को जो सूचनाएं उपलब्ध कराई जाती हैं, उनके रिमाइंडर भी भेजे जाने लगे हैं, लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। यह सोचकर इतराने से काम नहीं चलेगा कि मुस्तैदी के कारण आतंकवादी मुंबई के बाद वैसा हमला करने में नाकाम रहे हैं। राज्यों पर इसके लिए दबाव बनाना होगा कि वे अपने सुरक्षा और खुफिया तंत्र को सुदृढ़ और जवाबदेह बनाएं। खाली पदों को भरें। पुलिस तंत्र को सक्षम बनाएं। उन्हें अत्याधुनिक शस्त्रों से लैस करें। मुंबई हमले के समय विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों के बीच समन्वय का जो अभाव दिखाई दिया था, उसके कारणों को समझते हुए उसे ठीक करें और छोटी से छोटी सूचना पर त्वरित कार्रवाई करने की कार्य संस्कृति विकसित करें।