Wednesday, December 23, 2009

किस्मत खराब है झारखंड की !


झारखंड के नतीजे आ गये हैं। हालात कमोबेश जस के तस हैं। इन नतीजों ने लोगों को थोड़ा हैरान और परेशान किया है। झारखंड से जो संकेत मिले हैं, वे शुभ नहीं हैं। इनसे निराशा का भाव उत्पन्न होता है। सवाल है कि क्या झारखंड की किस्मत में जोड़-तोड़ और मोल-भाव के आधार पर बनने वाली अस्थिर सरकारें ही लिखी हैं? या इस राज्य के राजनीतिक, सामाजिक और जातीय समीकरण ही कुछ एेसे बन गये हैं कि कोई एक दल अपने दम पर बहुमत हासिल करने की दशा में ही नहीं रह गया है? झारखंड नवम्बर 2000 में छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के साथ अस्तित्व में आया था। वहां की सरकारें विकास के पथ पर कदम आगे बढ़ा चुकी हैं, लेकिन इस आदिवासी बाहुल्य राज्य का दुर्भाग्य देखिये कि यहां नौ साल में छह सरकारें बन चुकी हैं और राज्य के लोग पांच मुख्यमंत्री देख चुके हैं। राजनीतिक अस्थिरता ही झारखंड की सबसे बड़ी समस्या नहीं है, राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार अकूत खनिज संपदा वाले इस धनी किन्तु गरीब और बेबस राज्य की जड़ों में मट्ठा डालकर इसे भीतर ही भीतर खोखला कर रहा है। धनी इसलिये, क्योंकि यदि यहां स्थिर सरकारें बनतीं और खनिज संपदा पर देसी-विदेशी थैलीशाह सरकारों से मिलकर डाका नहीं डालते, कायदे की योजनायें बनतीं, उन्हें सुनियोजित ढंग से लागू किया जाता तो झारखंड की गरीबी और लाचारी का अब तक कुछ उपचार तो हो गया होता। एेसा नहीं हुआ। जिन उम्मीदों को लेकर आदिवासियों ने अपने लिये अलग राज्य की मांग के लिये लंबे समय तक संघर्ष किया, वे उम्मीदें कभी की धराशायी हो चुकी हैं। इस खंडित जनादेश ने विकास, सामाजिक न्याय और बेकारी के निराकरण की बाट जोह रहे लोगों को और भी निराश किया है। झारखंड फिर जोड़-तोड़, बेमेल गठबंधन सरकार की ओर बढ़ रहा है।
इस जनादेश ने इस कारण भी लोगों को हैरान और निराश किया है, क्योंकि उन्हें लगता था कि जिन ताकतों ने वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ खिलवाड़ करते हुए भ्रष्टाचार किया है अथवा उन्हें प्रश्रय देने का काम किया है, मतदाता उन्हें सजा देंगे। नतीजों से तो नहीं लगता कि मतदाताओं ने एेसे दलों और नेताओं को कोई सीख दी है। कौन नहीं जानता कि पौने दो साल के अल्प समय में साढ़े चार हजार करोड़ का घोटाला करने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री मधु कौड़ा किसकी कृपा से सत्ता में पहुंचे थे? वे निर्दलीय थे। उनके साथ चार और निर्दलीय विधायक थे। कांग्रेस और लालू यादव के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल ने भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के मकसद से मधु कौड़ा को मुख्यमंत्री पद सौगात में सौंप दिया। मुख्यमंत्री पद पर बैठा व्यक्ति किस हद तक भ्रष्टाचारी हो सकता है, ये मधु कौड़ा के कारनामों ने देश को बताया। वह इस समय जेल की हवा खा रहे हैं। यह इस लोकतंत्र की विसंगतियां हैं या लोगों की मतांधता कि जिस मधु कौड़ा ने लोगों की मेहनत की कमाई को लूटा, उन्हीं लोगों ने उनकी पत्नी गीता कौड़ा को जिताकर विधानसभा भेज दिया है?
इस जनादेश से कुछ अहम सवाल उठे हैं। साढ़े चार हजार करोड़ का भ्रष्टाचार करने वाले को मुख्यमंत्री बनाने का पाप करने वाली पार्टियों को इस चुनाव में मतदाताओं ने किस बात का ईनाम दिया है? कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की सदस्य संख्या इस चुनाव में बढ़ गयी है, हालांकि वे बहुमत के आस-पास भी नहीं हैं और यदि कांग्रेस ने सरकार बनाने की चेष्टा की तो झारखंड मुक्ति मोर्चा के बिना यह संभव नहीं है। जिस शिबू सोरेन को तमाड़ के लोगों ने उप चुनाव में परास्त कर मुख्यमंत्री पद छोड़ने को मजबूर कर दिया था, उन्हें अब इतनी ताकत दे दी है कि उनके बिना कोई सरकार बनाने के बारे में सोच भी नहीं सकता है। यानि सत्ता की चाबी उन गुरू जी के हाथ में है, जो 2005 के विधानसभा चुनाव में नकार दिये गये थे। इसके बावजूद राज्यपाल सिब्ते सजी ने भाजपा गठबंधन के नेता के बजाय उन्हें बुलाकर मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। न उनके पास बहुमत था और न वे साबित कर सके। लिहाजा, उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। उन्हें हत्या जैसे संगीन आपराधिक मुकदमों की वजह से तीन बार केन्द्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। दो बार मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। और जब राजद व कांग्रेस के कहने पर मधु कौड़ा कुर्सी छोड़नी पड़ी तो उसके पीछे कारण यही गुरू जी महाराज थे। अमेरिका के साथ एटमी करार के विरोध में जब वाम मोर्चा ने डा. मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस लिया तो शिबू सोरेन इस शर्त पर सरकार को समर्थन देने पर राजी हुए थे कि झारखंड में उन्हें कौड़ा के स्थान पर मुख्यमंत्री पद सौंपा जाये। राजद और कांग्रेस ने उनकी शर्त मानी, लेकिन तमाड़ से जब उन्होंने उप चुनाव लड़ा तो इस खुली राजनीतिक सौदेबाजी से नाराज लोगों ने उन्हें सबक सिखा दिया। हारने के बाद उन्हें पद छोड़ना पड़ा। ताज्जुब की बात है कि साल भर के भीतर ही लोग शिबू सोरेन की करामात को भूल गये और कांग्रेस के इस पाप को भी कि उसने मधु कौड़ा जैसे भ्रष्टाचारी को मुख्यमंत्री बनवाया था।
लगता है, राज्य में अंतरकलह से घिरी भारतीय जनता पार्टी भी लोगों को यह विश्वास दिला पाने में नाकाम सिद्ध हुई कि वह बेहतर, पारदर्शी निर्णय करने वाली, साफ-सुथरी और स्थिर सरकार दे सकती है। भाजपा ने महंगाई, स्थिरता और भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाया था। गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों को एक रुपया किलो गेहूं, 25 पैसे किलो नमक, तीन महीने में राशन कार्ड देने और किसानों को केवल दो प्रतिशत पर ऋण देने के लोकलुभावन वादे करने वाली भाजपा के सदस्यों की संख्या में यदि इस बार कमी आई है तो उसे सोचना होगा कि एेसा क्यों हुआ? यह भाजपा ही नहीं, उसकी सहयोगी जनता दल यू के लिये भी खतरे की घंटी है, क्योंकि बिहार में विधानसभा चुनाव अब बहुत दूर नहीं रह गये हैं। अर्जुन मुंडा का यह बयान बहुत कुछ कहता है कि भाजपा-जदयू अपनी गलतियों की वजह से हारे हैं। कभी भाजपा के कुशल मुख्यमंत्री रहे बाबू लाल मरांडी ने इस चुनाव में कांग्रेस से हाथ मिलाया। इसका लाभ उन्हें भी मिला और कांग्रेस को भी।
इसमें अब किसी को शक नहीं है कि झारखंड एक बार फिर अस्थिरता की ओर बढ़ता नजर आ रहा है। जिन शिबू सोरेन से इस चुनाव में कांग्रेस ने गठबंधन तक करना मुनासिब नहीं समझा, उनके बिना वह किसी सरकार की कल्पना भी नहीं कर सकती। शिबू सोरेन ने अभी कुछ ही दिन पहले बोकारो में कहा था कि सत्ता की चाबी उनके हाथ में रहने वाली है। उनका यह राजनीतिक आत्मविश्वास सही साबित हुआ। अगले कुछ दिनों में यदि गुरूजी फिर झारखंड की कमान संभालते हुए दिखाई दें तो आश्चर्य नहीं करिएगा। उनकी पार्टी को 81 के सदन में एक चौथाई सीटें भी नसीब नहीं हुई हैं, लेकिन यही हमारे इस लोकतंत्र की सबसे बड़ी खामी है कि चंद सांसदों के बल पर चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बन जाते हैं। चार निर्दलियों के साथ मधु कौड़ा पौने दो साल तक मुख्यमंत्री बने रहकर हजारों करोड़ का घोटाला करने में कामयाब हो जाते हैं। ऐसे में यदि झामुमो नेता सोरेन फिर कांग्रेस और दूसरे दलों की कृपा से मुख्यमंत्री बनते हैं तो कैसा आश्चर्य? इन हालातों के लिये बहुत हद तक खुद झारखंड के लोग ही जिम्मेदार हैं, जो खंडित जनादेशों के फलस्वरूप बन और बिगड़ रही सरकारों और पनप रहे भ्रष्टाचार से कोई सबक लेने को तैयार ही नहीं दिख रहे।
omkarchaudhary@gmail.com

3 comments:

Ankur's Arena said...

आज देश के समक्ष यही सबसे विकट समस्या है कि जनता ये तय नहीं कर पाती कि वो इन सभी ख़राब दलों में से चुने तो किसे चुने..? क्योंकि यह भी स्पष्ट हो चूका है कि आज कोई भी राजनितिक दल, जो सत्ता को प्रभावित करने की स्थिति में है, पाक-साफ़ हो.. सबके दमन में भ्रष्टाचार, वादाखिलाफी और झूठ के दाग लगे ही हैं.. ऐसे में झारखण्ड कि स्थिति और भी विकट है.. वहां शिक्षित जनता का अभाव है और आदिवासी जनसमूह को गुमराह करने वाले 'गुरुओं' कि संख्या अधिक.. जनता की चयन शक्ति पर अफ़सोस से अधिक उनकी किस्मत पर तरस आता है.. ये बात और है कि ऐसे हालात कमोबेश देश के हर राज्य के हैं.. खुदा ख़ैर करे!

dharmendra said...

sir aakhir log chune to kisko chune. kaun saaf suthre hain. sabhi n kisi n kisi tarah amir jharkhand ki garib janta ko luta hai. koda ki biwi ko agar kewal apne liye ji rahe aaj ke log jitate hain to kaun si bari baat ho gayi. koda n apne area me kai hazar bikes de diya. to bhala jise bike mili hogi wah use vote n de to kisko de.

डॉ. हरिओम पंवार - वीर रस के कवि said...

koi bhi sarkar logon ki garibi ka upchar agar nahi kar pai to bhole bhale log kis par yakeen karen? unhe jo karib lagta hai use hi vote dete hain. yakeenan kisi karishmai aur karmath vaykti ka abhav hai jo janta-janardan bhi digbharmit hai.