Tuesday, March 30, 2010

लालू मुलायम को विलेन न बनाएं


एक पुरानी कहावत है, सूत न कपास-जुलाहे से लटठ्म लट्ठा। वैसा ही कुछ आजकल भारतीय राजनीति में दिखाई दे रहा है। महिलाओं के लिए लोकसभा और विधान सभाओं में तैंतीस प्रतिशत सीटें आरक्षित करने संबंधी विधेयक भले ही राज्यसभा में पारित हो गया है, लेकिन अभी उसके लागू होने में बहुत से पेंच हैं। मुलायम सिंह यादव ने उद्योगपतियों, नौकरशाहों और धनाढ््य परिवारों की महिलाओं के चुनकर आने की आशंका जताई, यहां तक तो किसी को आपत्ति नहीं हो सकती, लेकिन इसके आगे उन्होंने जो कुछ कहा-वह आपत्तिजनक है। एेसी महिलाओं को देखकर लड़के सीटी बजाएंगे, यह कहना किसी को शोभा नहीं देता, लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं है। मुलायम ने जिन शब्दों का प्रयोग किया, उन्हें शालीन नहीं कहा जा सकता लेकिन उन सहित एक बड़ा वर्ग चुनकर आने वाली महिलाओं की राजनीतिक मसलों पर समझ को लेकर जो चिंता जाहिर कर रहा है, उसे आप सिरे से खारिज नहीं कर सकते। संसद और विधानसभाओं में हालांकि इस समय भी जिस तरह के लोग आ रहे हैं, उनके बारे में आप दावा नहीं कर सकते कि उन सबको राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों और समस्याओं की समझ होगी ही। तो भी महिला आरक्षण विधेयक ने भारतीय संसदीय प्रणाली में होने जा रहे आमूल परिवर्तनों पर एक बहस तो छेड़ ही दी है।
तय मानिए कि लोकसभा में इस विधेयक को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि मुलायम, लालू, शरद यादव ही नहीं, मायावती भी इसका विरोध कर रही हैं। अब तो कांग्रेस और भाजपा के सांसदों ने भी खुलेआम इसकी मुखालफत शुरू कर दी है। इन दलों के अधिकांश पुरुष सांसद और पदाधिकारी यह कहने में संकोच नहीं कर रहे हैं कि उन्हें अपने ही डैथ वारंट पर हस्ताक्षर करने को विवश होना पड़ रहा है। पंचायतों में पिछड़े और दलित वर्ग की महिलाओं को आरक्षण दिया गया है, लेकिन सवाल यह है कि जहां देश के भाग्य का निर्णय होता है, कानून बनते हैं, उन सदनों में उन्हें प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था आखिर कांग्रेस, भाजपा और वामदल क्यों नहीं करना चाहते हैं? लालू, मुलायम, शरद और माया जैसे क्षत्रप इसका इस कदर विरोध क्यों कर रहे हैं? भारतीय राजनीति की इन उलटबांसियों को गहराई से समझने की जरूरत है। जिस कांग्रेस ने पिछले साठ साल में कभी महिलाओं को आरक्षण देने के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई, उसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी इसे अब अपनी प्रतिष्ठा का सवाल क्यों बना रही हैं? कांग्रेस और भाजपा के प्रभावशाली नेताओं और मजबूत सांसदों व विधायकों तक में असुरक्षा का भाव पैदा क्यों होने लगा है?
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सोनिया गांधी राहुल गांधी को नेता के तौर पर प्रतिष्ठापित करने की दिशा में अग्रसर हैं। पार्टी के भीतर से उन्हें कोई चुनौती नहीं है लेकिन जहां तक देश को संभालने का सवाल है, उसके लिए किसी भी राजनेता के पास एक दृष्टि की आवश्यकता होती है। राहुल गांधी कोई तपे-तपाए राजनीतिज्ञ नहीं हैं। पार्टी को भी कारपोरेट मैनेजिंग स्किल के तौर-तरीकों से चलाना चाहते हैं। उन तौर-तरीकों में पार्टी के तपे-तपाए राजनीतिज्ञ, संसदविद् और कद्दावर नेता राहुल गांधी के साथ सहज अनुभव नहीं करते हैं। कांग्रेस पार्टी ही नहीं, भाजपा में भी राज्यवार एेसे नेताओं की कमी नहीं है, जो हाईकमान को भले ही फूटी आंखों नहीं सुहाते हैं, लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में उनका अपना जनाधार और प्रभाव है। हाईकमान को भी पता है कि वे ही उन क्षेत्रों से सीटें निकाल सकते हैं। महिला आरक्षण कानून लागू होने की सूरत में एेसे नेताओं की सीटें जब भी आरक्षित होंगी, उन्हें हाईकमान के रहमोकरम पर रहना पड़ेगा। एेसे में पार्टी नेतृत्व आसानी से उन्हें एेसी जगह से टिकट थमाकर साइड लाइन लगाने में सफल हो जाएगा, जहां से उसके जीतने की संभावना नगण्य होगी।
राहुल गांधी की आगे की राजनीतिक यात्रा में संसद में आने वाली तैंतीस प्रतिशत महिलाएं बाधक नहीं होंगी, सोनिया और कांग्रेस के प्रबंधकों को एेसा लगता है। राहुल गांधी की लीडरशिप को किस तरह के नेताओं से परोक्ष या प्रत्यक्ष चुनौती मिल सकती है? लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, शरद पवार, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, मायावती और इसी तरह के वे नेता, जिनका अपना जनाधार रहा है और जो जमीन से संघर्ष करते हुए जमीनी अनुभवों के साथ यहां तक पहुंचे हैं। बहुमत नहीं मिलने की सूरत में चाहे गठबंधन सरकार गठित करने की राजनीतिक मजबूरी हो अथवा देश की प्रमुख समस्याओं पर अहम निर्णय लेने का सवाल, इस तरह के क्षत्रपों और नेताओं की वह अनदेखी नहीं कर पाएंगे। अब सवाल है कि इस तरह के कद्दावर नेताओं को कमजोर कैसे किया जा सकता है? महिला आरक्षण बिल में पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था नहीं करने के पीछे सोची-समझी रणनीति है। कांग्रेस ही नहीं, भाजपा और वामपंथी दल भी इन वर्गो की राजनीति करने वाले नेताओं को या तो पूरी तरह कमजोर कर देना चाहते हैं या भारतीय राजनीति में उनकी भूमिका ही खत्म कर देना चाहते हैं। कद्दावर नेताओं को घेरने और उन्हें सदनों से बाहर करने का इंतजाम इस बिल से स्वत: ही हो जाने वाला है।
कारपोरेट जगत के लिए इन कद्दावर क्षत्रप नेताओं को साधना इतना असान नहीं होता है। वे बार्गेनिंग की स्थिति में हैं, लेकिन यदि ये राजनीतिक रूप से कमजोर होते हैं और दूसरे दलों के टिकट पर फिल्म जगत, उद्योगपतियों के परिवारों से या नौकरशाहों की रिश्तेदार महिलाएं यदि उनकी सीटों और क्षेत्रों से जीतकर आती हैं तो कारपोरेट जगत हो या दूसरे घराने, उनके लिए उन्हें मैनेज करना उतना मुश्किल नहीं होगा। महिलाएं स्वभावत: राजनीतिक मामलों में उतनी दिलचस्पी नहीं लेती हैं। सबसे बड़ी दिक्कत यह भी होने वाली है कि पैसे वाले घरों की महिलाएं ही संसद और विधानसभाओं में भारी तादाद में पहुंचेंगी। गरीब, वंचित, पिछड़े, दलित व अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाएं नहीं क्योंकि साजिशन न तो उनके लिए कोटे में कोटे की व्यवस्था की गई है और न उनके पास उतने संसाधन होंगे कि वे धनाढ््य परिवारों की महिलाओं का मुकाबला कर सकें। नौकरशाहों, उद्योग घरानों और फिल्म क्षेत्र से आने वाली महिला सांसदों को कारपोरेट घराने और प्रमुख राजनीतिक दल ज्यादा सहज तरीके से मैनेज कर पाएंगे। वे संसद में भी और सरकार का हिस्सा बनने के बाद भी उनके हितों की पैरवी कर सकेंगी। इसलिए मुलायम सिंह, शरद यादव और लालू यादव के शब्दों पर जाने के बजाय यदि उनकी पीड़ा और चिंता को समझने की कोशिश करेंगे तो समझ में आएगा कि वे पूरी तरह गलत नहीं हैं। इस बिल के जरिए खासकर क्षेत्रीय दलों के कद्दावर नेताओं की राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका शनै: शनै: समाप्त करने का बंदोबस्त किया जा रहा है।
omkarchaudhary@gmail.com

3 comments:

डॉ. हरिओम पंवार - वीर रस के कवि said...

bahut sahi kaha apne logo ke virodh ko आप सिरे से खारिज नहीं कर सकते.

Anonymous said...

sahi kaha aapne

World View of Prabhat Roy said...

Mulayam and lallu both are no way followers of Dr. Lohia. They have taken an opportunist stand on the queston of women reservaton. omkar rightly commented on politics of Rahul Gandhi.