Sunday, July 10, 2011

किसकी लड़ाई लड़ रहे हैं राहुल गाँधी

पिछले महीने 19 तारीख को अपना 41वां जन्मदिन मनाने वाले राहुल गांधी इस वक्त कठिन परीक्षा के दौर से गुजर रहे हैं। वे एेसे मरुस्थल में फसलें लहलाने की मृगतृष्णा पाल बैठे हैं, जहां दूर-दूर तक न पानी है, न खाद और न बीज। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में उन्होंने जमीन की यह जंग एेसे समय शुरू की है, जब आसमान से आग बरस रही है और दिल्ली भी तप रही है। वे गांव, गरीब, किसान और बेरोजगार नौजवानों को यह भरोसा देने की कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस उनके दुख-दर्द को समझती है और उनके साथ है। वे संक्षेप में लोगों को समझाने की कोशिश करते हैं कि मायावती की बसपा सरकार बिल्डरों, भूमाफियाओं और दलालों के साथ मिलकर उनकी उपजाऊ जमीनों को दिन दहाड़े लूटने में लगी है। लेकिन जब लोग महंगाई और भ्रष्टाचार पर सवाल पूछ बेठते हैं तो उनकी बोलती बंद हो जाती है। उनसे जवाब नहीं सूझता। उनकी यह जंग एेसे समय शुरू हुई है, जब केन्द्र की डा. मनमोहन सिंह सरकार गंभीर आरोपों और संगीन सवालों में घिरी हुई है।
जमीन से जुड़ने की कवायद
राहुल गांधी पर विपक्षी दलों के नेता यह कहकर प्रहार करते रहे हैं कि वे उड़नखटोले से उतरने, भाषण देकर वापस दिल्ली उड़ जाने की हवाई राजनीति करते रहे हैं। जनता के दुख तकलीफों से उनका कोई वास्ता नहीं है। राहुल गांधी ने पिछले सप्ताह दिल्ली से सटे भट्टा पारसौल गांव से जो किसान संदेश यात्रा शुरू की, वह पांच दिन तक चली। इस बीच वे दर्जनों गांवों में गए। लोगों से सीधे बात की। इस बीच न दिल्ली लौटे। न सरकारी अतिथि ग्रहों में गए। न पांच सितारा होटलों से खाना मंगाया और न रात्रि विश्राम के समय एयरकंडीशंड रूम की इच्छा जताई। गांव में जैसा मिला, खा लिया। जहां खाट मिली, सो गए। न पंखे की ख्वाईश, न मच्छरदानी की मांग। हाथ के नल की नीचे बैठकर नहाये। किसानों और ग्रामीणों से सीधे संवाद किया। किसी महिला ने आग्रह किया कि उनके घर चलें तो बेझिझक साथ हो लिये। बच्चों को देखा तो गोद में बैठा लिया। उन्होंने कीचड़ भरे रास्ते पार किये। दलितों और बंजारों के घरों में चैन की नींद ली। जाहिर है, गांव-गरीब और आखिरी पांत के लोगों से सीधे बातचीत कर उनकी दिक्कतों को समझने वाले नेता अब देश में गिने-चुने हैं। खुद राहुल गांधी ने भी ये कवायद अभी शुरू की है और वह भी उस उत्तर प्रदेश से, जहां अगले साल चुनाव होने जा रहे हैं। लोगों ने सवाल पूछने शुरू कर दिये हैं कि राहुल गांधी कांग्रेस शासित राज्यों में इस तरह कवायद क्यों नहीं करते हैं? क्या वहां समस्याएं नहीं हैं?
भट्टा पारसौल ने मौका दिया
सवाल अपनी जगह हैं और पूछने वाले पूछेंगे ही, लेकिन राहुल गांधी इस नए दांव और रूप से विपक्षी दल परेशान हैं। भट्टा पारसौल में पुलिस-पीएसी के अत्याचार के बाद भी वहां पहुंचने वाले वे अकेले नेता थे। बाकी दलों के नेताओं को तो रास्ते में ही गिरफ्तार कर शासन ने वापस दिल्ली पार्सल कर दिया था। राहुल गांधी ने सिर्फ रस्म अदायगी नहीं की। वे दोबारा भट्टा पारसौल पहुंच गए। और इस बार किसी को इसका अंदाजा नहीं था कि वे वहां से पांच दिन की पदयात्रा शुरू करने वाले हैं। उनके इस दांव से बहुजन समाज पार्टी के नेता तमतमाए हुए हैं। गरीबों के घरों में इस तरह उनका रहना मुख्यमंत्री को इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने यह आरोप लगा दिया कि फलां गांव में वे दलित के घर में सोए जरूर लेकिन राहुल गांधी ने उनके यहां बना भोजन नहीं छुआ। कांग्रेस को सफाई देनी पड़ी कि वे गरीब पर बोझ नहीं बनना चाहते थे।
बहरहाल, जिस राहुल गांधी को इलेक्ट्रोनिक मीडिया कांग्रेस का युवराज कहकर हरदम सुर्खियां बनाने और बेचने में लगा रहता है, उसी मीडिया में उनकी इस पद यात्रा को पीपली लाइव बनाने की होड़ लगी रही। एक-एक चैनल के कई-कई संवाददाता और राजनीतिक संपादक गले में गमछा डालकर पसीने पौंछते हुए गांवों से लाइव होकर बताते रहे कि राहुल गांधी दरअसल मिशन 2012 पर हैं और कांग्रेस को फिर से उसके पैरों पर खड़ा करने की जद्दोजहद कर रहे हैं। दिलचस्प बात यह रही कि पांच दिन के इस गांव दर्शन के दौरान कांग्रेस का कोई भी दूसरा नेता राहुल गांधी के साथ हम कदम नहीं दिखा। बताया गया कि राहुल गांधी ने ही बाकी नेताओं को उनकी पदयात्रा से दूर रहने की हिदायत दी थी। जाहिर है, वे कानून व्यवस्था का बहाना बनाकर मायावती सरकार को कार्रवाई करने का कोई मौका नहीं देना चाहते थे। हालांकि यह कहकर उन्हें भयभीत करने की कोशिश की गई कि अलीगढ़ में धारा 144 लागू है और उन्हें गिरफ्तार भी किया जा सकता है परन्तु उन पर इसका कोई असर नहीं हुआ।
पसीना क्यों बहा रहे हैं?
राहुल गांधी जुलाई की तपती दोपहरियों में गांव-गांव, गली-गली और घर-घर पहुंचकर पसीना क्चयों बहा रहे हैं, इसकी बारीकियों को समझने की जरूरत है। केन्द्र की मनमोहन सिंह सरकार के निकम्मेपन, भ्रष्टाचार-घोटालों और महंगाई के दावानल के चलते कांग्रेस की लोकप्रियता अर्श से फर्श पर आ चुकी है। पार्टी विश्वसनीयता के गंभीर संकट से जूझ रही है। जिस तरह केन्द्र सरकार और पार्टी के कुछ नेताओं के इशारे पर दिल्ली प्रशासन ने स्वामी रामदेव और अण्णा हजारे की अगुआई में चल रहे सामाजिक आंदोलनों को बदनाम कर कुचलने के कुचक्र रचे, उससे रही-सही छवि भी धूल में मिल गई। सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह केन्द्रीय मंत्रीमंडल में फेरबदल की कवायद कर लोगों का ध्यान बंटाने के लिये कुछ लोगों को साइड लाइन करने का दृष्टिभ्रम बनाने का उपक्रम कर रहे हैं परन्तु इससे कुछ होना जाना नहीं है।
बिहार में मिला सबक
बिहार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का हश्र सबने देखा है। बताते हैं कि वहां अकेले चुनाव लड़ने का फैसला राहुल गांधी का ही था। उसी तरह की जिद उनकी उत्तर प्रदेश को लेकर दिखाई दे रही है। लगता यही है कि वे राज्य की जमीनी हकीकत से पूरी तरह परिचित नहीं हैं और यदि हैं भी तो उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे पार्टी नेताओं को अपने ही अंदाज में यह सीख देने के लिए मैदान में उतर पड़े हैं कि जनता की लड़ाई लखनऊ या दिल्ली में बैठकर नहीं लड़ी जा सकती। उनके बीच पहुंचकर लड़नी होगी। तभी उनका विश्वास अर्जित किया जा सकता है। दरअसल, राहुल गांधी विधानसभा चुनाव से पहले निष्प्राण पार्टी के कार्यकर्ताओं में प्राण फूंकने की कोशिश कर रहे हैं। वे जानते हैं कि 22 साल से राज्य की सत्ता से बाहर रही कांग्रेस के मूल वोट बैंक को भाजपा, बसपा और सपा टुकड़ों-टुकड़ों में हड़प चुकी हैं। ग्रास रूट लेवल पर खत्म हो चुकी कांग्रेस को तभी फिर से उसके पैरोंपर खड़ा किया जा सकता है, जब राहुल गांधी की तरह लोगों के बीच जाकर उनका भरोसा जीता जाए।
सोनिया-राहुल की वेदना
सोनिया गांधी और राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश ही लोकसभा में भेजता है, लेकिन इन दोनों की सबसे बड़ी वेदना यही है कि कांग्रेस 1991 से 1996 तक केन्द्र में सत्तारूढ़ रही और अब 2004 से सत्ता में है परन्तु 1989 के बाद से उत्तर प्रदेश में उसकी वापसी संभव नहीं हो सकी है। कभी वह सपा की पिच्छलग्गू बनी तो कभी बसपा। एेसे फैसलों ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। ये दोनों पार्टियां कांग्रेस का मूल वोट निगल गई। अब राहुल गांधी की निगाह पार्टी के परंपरागत दलित, मुसलिम और सवर्ण वोटों पर है। वे किसानों की समस्याओं को स्वर देकर उनके बीच भी पैठ बनाने की कोशिश में है। मुख्यमंत्री मायावती राहुल गांधी की इस कवायद के खतरे को भांप रही हैं। यही वजह है कि उन्हें राहुल गांधी का दलित-मुसलिम-किसान प्रेम पच नहीं पा रहा है।
जमीनी हकीकत क्या है?
सवाल है कि क्या राहुल गांधी की यह जंग इतनी आसान है, जितनी वे और कांग्रेसी समझ रहे हैं। यदि उत्तर प्रदेश की जमीनी हकीकत को समझ लें तो इस सवाल का जवाब तलाशने में आसानी होगी। राज्य विधानसभा की 403 सीटों में से बहुजन समाज पार्टी के पास इस समय 226 सीटें हैं। नब्बे के दशक से अब तक इससे पहले किसी एक दल को अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं हुआ। सब सरकारें गठजोड़ करके बनीं। मायावती बहुमत की अपनी सरकार के चार साल पूरे कर चुकी हैं। दूसरे नम्बर पर समाजवादी पार्टी है, जिसके पास 87 सीटें हैं। 2002 से सत्ता से बाहर भाजपा लगातार इस दौड़ से दूर होती जा रही है और पिछले तुनाव में वह 48 सीटों पर ठहर गई थी। कांग्रेस के राज्य विधानसभा में केवल बीस विधायक हैं। इसी से अंदाजा हो जाता है कि पार्टी की हालत वहां कैसी है? रालोद के पास केवल दस एमएलए हैं, जिसके साथ कांग्रेस गठबंधन के बारे में सोच रही है।
लंबे समय तक यूपी की सत्ता पर काबिज रहने वाली और केन्द्र सरकार के गठन में भी वहां से निर्णायक ताकत अर्जित कर सरकार गठित करने वाली कांग्रेस क्या फिर से अपनी राजनीतिक जमीन हासिल कर सकती है? राजनीति में असंभव कुछ भी नहीं होता। शायद यही सोचकर राहुल गांधी कांग्रेस के लिए बंजर हो चुकी भूमि में फूल महकाने के ख्वाब देख रहे हैं, लेकिन भट्टा पारसौल से लखनऊ का सफर इतना आसान नहीं है। इसका अहसास राहुल गांधी को भी है। यही कारण है कि उन्होंने कांटों भरे रास्ते पर चलने का फैसला लिया है। देखने वाली बात यही है कि पसीना बहाने, लोगों के बीच जाकर उनका भरोसा जीतने की जो कोशिश वे कर रहे हैं, उसे बाकी कांग्रेसी आगे बढ़ाते हैं या नहीं। कांग्रेस को इस जमीनी वास्तविकता का भी अहसास है कि बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी डेढ़ साल पहले ही अपने तीन चौथाई प्रत्याशी तय कर चुकी हैं। दोनों राष्ट्रीय पार्टियां कांग्रेस और भाजपा अभी तक ऊपरी हवा बनाने में ही जुटी हैं। कांग्रेस विधायक दल के नेता प्रमोद तिवारी राहुल गांधी की पदयात्रा से कुछ ज्यादा ही उत्साहित नजर आ रहे हैं। बिहार के हश्र का जिक्र छेड़ने पर वे कहते हैं कि यूपी की तुलना बिहार से मत करिए। इस बार हम राज्य में अपनी सरकार बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
टूट सकता है भ्रम
यह सवाल पूछा जाने लगा है कि राहुल गांधी किसकी लड़ाई लड़ रहे हैं? किसानों की, गरीबों की, बेरोजगारों की, दलितों की, कांग्रेस की या अपनी? भट्टा पारसौल में पुलिस के अत्याचार ने उन्हें एक अवसर दिया है, जिसे अब वे छोड़ना नहीं चाहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसानों की राजनीति करने वाले मुलायम सिंह यादव और अजित सिंह जैसे परंपरागत किसान नेताओं पर राहुल गांधी ने बढ़त हासिल कर ली है। भाजपा, बसपा और सपा नेता भले ही राहुल गांधी की पदयात्रा को नौटंकी कहकर इसके महत्व को कम आंकने की भूल करें, वास्तविकता यही है कि कांग्रेस महासचिव को जिस तरह का मीडिया कवरेज मिला है, उससे कांग्रेस को फायदा मिलता दिख रहा है। हालांकि राजनतिक विश्लेषक राहुल की इस यात्रा को दूसरे नजरिये से भी देख रहे हैं। उनका कहना है कि उत्तर प्रदेश में उनका सब कुछ दांव पर लगा हुआ है। 2012 के विधानसभा चुनाव राहुल गांधी का राजनीतिक भविष्य तय करने वाले सिद्ध होंगे। उनके करिश्माई नेतृत्व का जो प्रचार मीडिया के जरिए कांग्रेसी करते हैं, उसकी परख अगले साल होने जा रही है। 2012 के चुनाव राहुल गांधी के बारे में बने भ्रम को खत्म भी कर सकते हैं। और इसी की संभावना अधिक है। (लेखक हरिभूमि के स्थानीय संपादक हैं)

Wednesday, July 6, 2011

यू पी में जमीन तलाशती कांग्रेस



राहुल गाँधी पद यात्रा पर हैं. किसानों के बीच जा रहे हैं. उनकी जमीनें लूटे जाने के आरोप माया सरकार पर लगा रहे हैं. विरोधी दलों ने उलटे राहुल और कांग्रेस पर ही निशाना साध दिया है. वो पूछ रहे हैं की कांग्रेस को तभी किसानों की याद क्यों आती जब किसी राज्य में चुनाव होने होते हैं. उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव हैं, कही राहुल गाँधी अपनी पार्टी की खोई हुई जमीन तो तलाश नहीं कर रहे हैं?
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