Saturday, June 9, 2018

पाला खींचकर लड़ते ये एंकर



ओमकार चौधरी /  मीडिया 
पिछले दिनों कुछ घटनाओं को सोशल मीडिया और कुछ चैनलों ने काफी तूल देने की कोशिश की लेकिन मुख्य धारा के मीडिया में इन कोशिशों को वैसी तवज्जो नहीं मिली, जैसी तूल देने वालों ने उम्मीद की थी। कहीं कोई धरने-प्रदर्शन, ज्ञापन-बाजी अथवा बयानबाजी हुई नहीं। प्रिंट ने तो इन मसलों की तरफ ध्यान तक नहीं दिया। एक घटना स्वामी रामदेव और पुण्य प्रसून वाजपेयी से जुड़ी हुई है। दूसरी रवीश कुमार को जान से मारने की धमकी से जुड़ी है। पुण्य प्रसून लंबे समय से आज तक पर दस्तक पेश करते रहे थे। कई महत्वपूर्ण अवसरों पर भी वह विशेष कार्यक्रम और साक्षात्कार वगैरा लेते थे। दर्शक वर्ग यह भली भांति अवगत है कि वह किस विचारधारा के हैं और उनका परदे पर टोन क्या रहता है। हाथ मसलते हुए परदे पर अवतरित होने वाले पुण्य प्रसून को देश में सब कुछ खराब ही खराब दिखाई देता है। उनके अनुसार, अच्छा कुछ नहीं हो रहा। 
इसी तरह शुरू के वर्षों में शालीनता का लबादा ओढ़कर जमीन पर पत्रकारिता करते रहे रवीश कुमार की वाणी में उत्तरोत्तर किस तरह तल्खी आती गयी और वह पिछले दो साल से किस अंदाज में केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार को चुनौती देते हुए पाला खींचकर लड़ते हुए नजर रहे हैं, यह रूपांतरण भी टेलीविजन समाचार के दर्शकों ने देखा और अनुभव किया है। आजकल ये दोनों ही अपने को पीड़ित बताकर मीडिया जगत की सहानुभूति बटोरने की कोशिश कर रहे हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि इन्हें अपने ऊपर हो रहे जुबानी हमलों की पीड़ा है परंतु पत्रकारिता का आवरण ओढ़कर वामपंथी-कांग्रेसी लुटियन पत्रकार किस तरह निरंतर मोदी सरकार और भाजपा सरकारों के खिलाफ हमले करते रहे हैं, उन्हें इसका रत्ती भर भी अहसास नहीं है। 
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत की पत्रकारिता इस समय कई खेमों में बंटी हुई नजर रही है। दो खेमे तो साफ-साफ दिखाई दे रहे हैं। एक वामपंथियों-कांग्रेसी पत्रकारों का। दूसरा भाजपाई-संघी विचारधारा के पत्रकारों का। इलैक्ट्रोनिक और प्रिंट दोनों जगह यह प्रचुर संख्या में हैं और बाहें चढ़ाकर एक-दूसरे के साथ गुत्थम-गुत्था हैं। सोशल (कथित) मीडिया पर तो और बुरा हाल है। वहां लोग लिहाज, शर्म और शिष्टाचार भूलकर बाकायदा गाली-गलौच पर उतर चुके हैं। जब से पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, लेखकों, साहित्यकारों, फिल्मकारों, खिलाड़ियों और नेताओं से लेकर बाकी सभी क्षेत्रों की हस्तियों ने ट्वीटर का इस्तेमाल शुरू किया है, तब से सारी सरहदें टूट चुकी हैं। आमतौर पर शुरू में यह धारणा रही कि ट्वीटर और फेसबुक सहित सोशल मीडिया पर पत्रकार, लेखक, साहित्यकार और दूसरी हस्तियां अपने निजी विचार रखते हैं परंतु जब वही पत्रकार अपने समाचार-पत्र, पत्रिका अथवा समाचार चैनल पर कुछ लिखते-करते हैं तो निष्पक्ष भाव से और पत्रकारिता के तय मानदंडों के अनुसार पेश आते हैं परंतु हाल के वर्षों में यह अंतर भी खत्म हो गया और अब धड़ल्ले से पत्रकार-लेखक इन माध्यमों में भी पक्षकारिता करते दिखने लगे हैं।
यू-ट्यूब पर वह वीडियो उपलब्ध है, जिसमें पुण्य प्रसून वाजपेयी अपने दो दूसरे एंकर साथियों के साथ स्वामी रामदेव का कथित साक्षात्कार ( थर्ड डिग्री कार्यक्रम ) लेना शुरू करते हैं। योग गुरू स्वामी रामदेव के बारे में उनके शुरुआती बोल ही बेहद अपमानजनक हैं, जहां वे उन्हें टैक्स चोर भी बताते हैं। चार्टर प्लेन और लंबी आलीशान गाड़ी में सवार होकर विलासिता की जीवन जीने का आदी भी निरुपित करते हैं और इस सबमें रामदेव के प्रति आदर का भाव तो छोड़िये, हिकारत और नफरत के भाव प्रस्फुटित होते हैं। पुण्य उन्हें..हैं के बजाय हो..शब्द से संबोधित करते हैं। जैसे कि स्वामी रामदेव कोई साधारण गली-कूचे का कामदार हों और उन्हें किसी भी तरह दुत्कार कर सवाल पूछे जा सकते हों। उनके बेहद आपत्तिजनक और भद्दे बेबुनियाद आरोप पर रामदेव का भड़कना पूरी तरह जायज था। और यदि पुण्य प्रसून गलत नहीं होते तो अरुण पुरी आज तक से उनकी विदाई नहीं करते। आखिर राजदीप सरदेसाई वहां बने ही हुए हैं। इसके बावजूद कि वह भी भाजपा, संघ और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र की सरकार पर हमला बोलने का कोई मौका नहीं चूकते हैं। चाहे टीवी का परदा हो या किसी पत्र-पत्रिका में कालम। परंतु इन दोनों में अंतर है। राजदीप पुण्य प्रसून की तरह अभद्रता पर नहीं उतरते हैं। उन्हें अपनी सीमाएं पता हैं। 
पुण्य प्रसून वाजपेयी के कई वीडियो यू-ट्यूब पर हैं, जिनसे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह किस हद तक नरेन्द्र मोदी, भाजपा, अमित शाह और संघ के प्रति नफरत का भाव रखते हैं। उनका वामपंथ, कांग्रेस और अरविंद केजरीवाल के प्रति लगाव भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। केजरीवाल के एक इंटरव्यू के बाद वह किस तरह उनके सलाहकार बन जाते हैं, इसका भी वीडियो सोशल साइट्स पर मौजूद है। आज तक पर जब भी विशेष अवसरों पर कांक्लेव वगैरा होते रहे,  पुण्य प्रसून अमित शाह से लेकर रवि शंकर प्रसाद तक के इंटरव्यू लेते हुए दिखाई दिये। उन साक्षात्कारों को यूट्यूब पर देखा जा सकता है। किस तरह के प्रश्न वह डिजाइन करते रहे हैं, यह देखकर हैरत होती है। समाज को बांटने वाले, साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने वाले सवाल वह पूछते रहे हैं। घुमा फिराकर राहुल गांधी, केजरीवाल और वामपंथियों के द्वारा उठाए गये मुद्दों को ही अलग अंदाज में पूछकर केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करते देखे गये। कई बार तो शाह और रविशंकर उनकी मानसिकता और सोच पर यह कहकर प्रहार करते दिखे कि वाजपेयी जी कुछ अच्छा हुआ है या नहीं, जरा इस पर भी गौर फरमा लीजिए। इनके रात्रि में दस बजे प्रसारित होने वाले लगभग सभी कार्यक्रम इसी तरह से डिजाइन किये गये होते थे, जिनसे लगे कि देश में सब बुरा ही बुरा हो रहा है। देश जैसे, बहुत बुरे दौर से गुजर रहा है। 
लगभग यही हाल रवीश कुमार का है। पुण्य प्रसून की तरह यह भी खास एजेंडे के तहत अपने कार्यक्रमों की विषय वस्तु ( कंटैंट ) तैयार करते हैं। कमियां कहां नहीं होती हैं। आप कहीं भी चले जायें। अच्छे से अच्छा काम कर रहे किसी भी विभाग में जायेंगे तो भी दस कमियां ढूंढ सकते हैं। यही हाल इनका है। इन दोनों के साथ-साथ कई दूसरे एंकर ने जैसे यह तय कर लिया है कि उन्हें पाला खींचकर लड़ना ही है। इन लोगों ने अपना दर्शक वर्ग भी ढूंढ लिया है। इन्हें लगता है कि यही वह लोग हैं, जो सरकार की ऐसी-तैसी करने वाली सामग्री और प्रस्तुतिकरण पर तालियां बजाते हैं। बस, किसी तरह इन्हें थामकर रखो। रवीश कुमार ने पिछले दिनों अपना प्राइम टाइम इसी पर कर डाला कि उन्हें अलग-अलग लोगों की तरफ से धमकियां दी जा रही हैं। उनके साथ गाली गलौच की जा रही है। फोन पर भी। ट्वीटर पर भी और दूसरे माध्यमों के जरिये भी। 
रवीश कुमार को धमकी मिलने की खबर कोई और एंकर बताता या पढ़ता तो ज्यादा बेहतर होता परंतु बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद और इसी तरह के संगठनों पर अपना गुस्सा निकालने के बाद रवीश कुमार प्राइम टाइम के इस कार्यक्रम में फिर अपने उसी एजेंडे पर जाते हैं, जिसके लिए उनकी इधर लगातार आलोचना हो रही है। वह प्रधानमंत्री मोदी को लपेटे में लेते हुए उन पर सवालों की बौछार कर देते हैं, मानो धमकी देने वाले प्रधानमंत्री से इजाजत लेकर यह कर्म कर रहे हों। इससे रवीश कुमार की मंशा साफ होती है। एजेंडा साफ होता है। और यही वजह है कि उनको धमकी दिये जाने के बाद वही मुट्ठी भर लोग उनके साथ खड़े दिखाई दिये, जो मोदी, भाजपा और संघ के खिलाफ मुहिम छेड़ने के लिए जाने जाते हैं। विनोद दुआ भी उन वामपंथी कांग्रेसी पत्रकारों में शामिल हैं, जो वायर पर दिये जाने वाले अपने हर वीडियो में मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ चुन-चुनकर मुद्दे लेकर आते हैं। वह भी पाला खींचकर लड़ने वालों में एक प्रमुख चेहरा हैं। कई मीडिया हाउस, कई पत्रकार, विचारक और साहित्यकार भी इस मुहिम का हिस्सा बनकर इधर के वर्षों में बेनकाब हुए हैं। इसी तरह मोदी सरकार के हर अच्छे-बुरे फैसलों का आंख मूंदकर समर्थन करने और इंटरव्यू के समय केवल अच्छे लगने वाले प्रश्न ही पूछने वाले पत्रकारों की भी इधर पूरी जमात तैयार हुई है। पाले के इस और उस ओर खड़े दोनों ही तरह के पत्रकार और मीडिया हाउस स्वस्थ लोकतंत्र के लिए खतरनाक हैं।           (लेखक हरिभूमि हरियाणा के संपादक हैं)


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