Saturday, February 14, 2009

निठारी कांड का बुनियादी सच


निठारी कांड के मुख्य अभियुक्तों मोनिंदर सिंह पंधेर और उनके नौकर सुरेन्द्र कोली को सीबीआई अदालत ने नाबालिग रिम्पा हलदर (15) के अपहरण, बलात्कार और हत्या के मामले में फांसी की सजा सुनाई है। सीबीआई निठारी के उन्नीस में से सोलह अपहरण, बलात्कार और हत्याकांड मामलों में आरोप-पत्र दाखिल कर चुकी है। देश की राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के निठारी गांव में 2006 में बच्चो के कंकाल मिलने से पूरे देश में सनसनी फैल गई थी। सीबीआई को खोजबीन के दौरान मानव हड्डियों के कुछ हिस्से और 40 एेसे पैकेट मिले, जिनमें मानव अंगों को भरकर नाले में फेंक दिया गया था। जांच-पड़ताल में उजागर हुआ कि हत्या से पहले सभी का यौन शोषण किया गया था। पंधेर और कोली को 29 दिसंबर 2006 को गिरफ्तार किया गया था। यह आश्चर्य की बात है कि जिस पंधेर को विशेष अदालत ने फांसी की सजा सुनाई है, उन्हें मई 2007 में सीबीआई ने आरोपमुक्त कर दिया था। अदालत की फटकार के बाद पंधेर को सह अभियुक्त बनाया गया।
यह एेसा क्रूर और घिनौना मामला है, जिसने हमारी पूरी व्यवस्था और मानवीय संवेदनाओं को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है। मामला सिर्फ मासूम नाबालिगों के अपहरण, उन्हें अपनी हवस का शिकार बनाने, फिर उनकी निर्मम हत्या कर लाशों को गंदे नाले में फैंकने अथवा दफनाने का ही नहीं है, जब उन मासूमों के माता-पिता पुलिस और प्रशासन के पास न्याय की गुहार लेकर गए तो उनकी सुनवाई नहीं हुई। पूरे डेढ़ साल तक देश की राजधानी के ठीक बगल में नरपिशाच भोले-भाले मासूमों का यौन शोषण कर उनकी हत्या करते रहे परन्तु शासन-प्रशासन में बैठे अधिकारियों की तंद्रा भंग नहीं हुई। उनकी गैरत नहीं जागी। उनके भीतर का मानव कुंभकर्णी नींद सोता रहा। जब मामले ने तूल पकड़ा और दोनों आरोपी पकड़े गए, तब कुछ अधिकारियों को निलंबित और बर्खास्त कर शासन ने अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। यह सवाल पूछा ही जाना चाहिए कि जिन अधिकारियों ने गायब हुए बच्चो के अभिभावकों से यह कहते हुए दुर्व्यवहार किया कि उनकी लड़की किसी के साथ भाग गई होगी, उनके खिलाफ गंभीर धाराओं के तहत मुकदमें क्यों नहीं चलाए गए। यदि वे पहली शिकायत पर ही सतर्क होकर कार्रवाई करते तो एक के बाद एक उन्नीस मासूमों के अपहरण, यौन शोषण और हत्या नहीं होती।
बीबीसी के भारत संपादक संजीव श्रीवास्तव ठीक ही कहते हैं कि निठारी हत्याकांड शायद इक्कीसवीं शताब्दी के भारत का सबसे नृशंस, निर्मम, और बर्बर सच है लेकिन क्या हम इस सच्चाई को स्वीकार कर रहे हैं? या इस कांड से कोई सबक सीख रहे हैं? क्या दोबारा ऐसा नहीं होगा, यह बात कोई भी नेता, पुलिस अधिकारी, या पत्रकार थोड़ी भी ईमानदारी से कह सकता है? शायद नहीं। लेकिन क्यों? इसलिए कि हम घटना के अर्थ को देखते हुए भी अनदेखा कर रहे हैं? जिस देश में टेलीविजन पर क्राइम शो लोकप्रियता का नया पैमाना हैं वहाँ हमारी सोच क्या इतनी विकृत हो चुकी है कि हम निठारी कांड को भी महज एक नृशंस और सनसनीखेज वारदात से ज्यादा की तरह से नहीं देख पा रहे। व्यवस्था को इस सोच से ज्यादा कुछ माफि़क नहीं आता और इस व्यवस्था का हिस्सा हैं. राजनीतिक दल, प्रशासन, नेता, पुलिस, मीडिया.. सभी।
संजीव का कहना सही है कि इस जघन्य घटना से पहले तक एक वर्ग को यह खुशफ़हमी थी कि भारतीय लोकतंत्र में हर व्यक्ति को समान अधिकार है। कानून व्यवस्था, पुलिस प्रशासन, और सरकारी तंत्र आम भारतीय की सेवा और सुरक्षा के लिए है। निठारी एक ऐसा मामला है जिसमें भारतीय सरकारी तंत्र और व्यवस्था के हर दावे को झुठला दिया और यह साबित कर दिया कि भारत के कमजोर, गरीब और असहाय आम आदमी के लिए इस व्यवस्था में कोई जगह, पूछ या सुनवाई नहीं है। बात सिर्फ पुलिस लापरवाही और उसमें संवेदनशीलता की कमी की नहीं है। यह पूरा मामला शायद हाल के वषों में इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है कि इस पूरी व्यवस्था में गरीब का कोई माई-बाप नहीं है।
इससे यह बात भी साबित हुई है कि सरकारी तंत्र गरीब के प्रति स्वयं को किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं मानता। सोचने की बात है कि यदि किसी अमीर अथवा चर्चित व्यक्ति के बच्चों के साथ इस तरह का हादसा हो जाता तो क्या तब भी पुलिस अधिकारी इसी तरह का व्यवहार करते? सत्ता में बैठे लोग नौ प्रतिशत विकास दर के दावे करते हैं। 2020 तक महाशक्ति हो जाने की दावेदारी करते हैं। जल्दी ही चांद पर मानव भेजने की बात की जाती है। भारत संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी स्थान चाहता है, लेकिन तंत्र में जिस संवेदनशीलता की जरूरत है, वह कहीं नजर नहीं आती। अमीर-गरीब के बीच असमानता धन दौलत, संसाधनों और रुतबे के मामले में ही नहीं बढ़ी है, तंत्र के पक्षपातपूर्ण व्यवहार से भी साफ दिखने लगा है कि अमीरों के लिए कानून के अलग मायने हैं और गरीबों के लिए अलग।
देश तरक्की करे, सब चाहते हैं। सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट मिले, विश्व में भारत का नाम रोशन हो, रुतबा बढ़े-यह सबके लिए गर्व की बात है लेकिन निठारी जैसे कांड और उस पर सरकारी तंत्र का रवैया बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है? इस लोकतंत्र में तंत्र तो है, लेकिन लोक की कहीं सुनवाई नहीं है।

ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com

6 comments:

Anonymous said...

चौधरी साहब
बिल्‍कुल सही कहा आपने। पुलिस की भूमिका निसंदेह संदेहास्‍पद होती है। ये सही है कि विवादों को पुलिस मुकदमा न बनने दे और कानून व्‍यवस्‍था बनी रहे लेकिन यह बात सिर्फ विवादों तक ही सीमित होनी चाहिए, न कि जघन्‍य हत्‍याकाण्‍डों और बलात्‍कारों के विषय में। कुछ दुर्घटनाएं इतनी जघन्‍यतम होती हैं कि उनको सुनने मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं
। जो लोग इस पीड़ा को झेलते हैं उनके दिल से पूछिये। इस सब जघन्‍य अपराधों को दबा कर रखने वालों पर भी मुकदमा चलाया जाना चाहिए। और उनको इसके समकक्ष की दण्‍ड का विधान होना चाहिए। मैं ऐसे नवयुग के आने के स्‍वागत के लिए इंतजार कर रहा हूं।

अविनाश वाचस्पति said...

निठारी पर आपकी पठारी कलम
तलवार बन गरदन निगल
जाएगी
उस दिन शायद पंधेर और कोली
से समाज को निजात मिल जाएगी।

संगीता पुरी said...

निठारी हत्याकांड शायद इक्कीसवीं शताब्दी के भारत का सबसे नृशंस, निर्मम, और बर्बर सच इसलिए बन गया , क्‍योकि एक सीमित स्‍थान से अधिक अपहरण हुआ.......पर मुझे लगता है कि इस तरह के कडवे सच और भी बहुत होंगे .....जो अभी तक उजागर नहीं हो सके।

parul said...

sar apki trakshakti ka jwab nahi

MANVINDER BHIMBER said...

बिल्‍कुल सही कहा आपने। निठारी हत्याकांड शायद इक्कीसवीं शताब्दी के भारत का सबसे नृशंस, निर्मम, और बर्बर सच है लेकिन क्या हम इस सच्चाई को स्वीकार कर रहे हैं? या इस कांड से कोई सबक सीख रहे हैं? क्या दोबारा ऐसा नहीं होगा, यह बात कोई भी नेता, पुलिस अधिकारी, या पत्रकार थोड़ी भी ईमानदारी से कह सकता है? शायद नहीं। लेकिन क्यों? इसलिए कि हम घटना के अर्थ को देखते हुए भी अनदेखा कर रहे हैं? जिस देश में टेलीविजन पर क्राइम शो लोकप्रियता का नया पैमाना हैं वहाँ हमारी सोच क्या इतनी विकृत हो चुकी है कि हम निठारी कांड को भी महज एक नृशंस और सनसनीखेज वारदात से ज्यादा की तरह से नहीं देख पा रहे।

Ankur's Arena said...

Nithari kand nisandeh bhartiye itihaas ke sabse kaale paanno mein darz ho chuka hai. isse na kewal desh ki pahchan ko chot pahunchi hai balki hamare samaj ke jad kar chuki kunthaein bhi dikh gayi hain...
Achchha likha hai iss samasya par aur uchit sawal bhi uthae hain.