जांच आयोगों की निष्पक्षता पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। इस बार चूकि मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष ने सवाल खड़ा किया है, इसलिए इस मुद्दे पर बहस जरूर होनी चाहिए। मामला गुजरात दंगों की दो जांचों से जुडा है। पहले तो ये ही सवाल उठता है कि एक ही मामले की दो जांच क्यों ? सभी अवगत हैं कि 27 फरवरी 200 2 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में आग लग गई थी, जिसमे अयोध्या से लौट रहे 58 कारसेवक मारे गए थे। भाजपा नेता आरोप लगाते रहे हैं कि ट्रेन में उपद्रवियों ने बाहर से तेल छिड़क कर आग लगाई थी। उसी घटना के बाद पूरे गुजरात में दंगे भड़क उठे। एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए, जिनमें अधिकतर मुस्लिम समुदाय के थे। उस समय नरेन्द्र मोदी सरकार पर आरोप लगे कि उसने दंगाइयों को रोका नहीं। उल्टे पुलिस और प्रशासन ने शासन के इशारे पर चुप्पी साध ली। अदालतों में मामलों की सुनवाई शुरू हुई तो भी जांच एजेंसियों पर दोषी आधिकारियों और उपद्रवियों को बचाने के गंभीर आरोप लगे। नतीजतन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने मामलों की सुनवाई गुजरात से बाहर करने के अभूतपूर्व आदेश जारी कर दिए।
दंगों को लेकर देश में जमकर राजनीति होती रही है। कांग्रेस जहाँ भाजपा पर साम्प्रदायिक भावनाएं भड़का कर वोट की राजनीति करने का आरोप लगाती रही है, वहीं भाजपा कांग्रेस पर मुस्लिम समुदाय को भड़काने और भाजपा के खिलाफ मिथ्या प्रचार करने का आरोप लगाती रही है। गुजरात दंगों की कालिख एक दूसरे के चेहरे पर पोतने के लिए दोनों ही दलों ने कोई कसर बाकी नहीं छोडी है। इससे आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है कि भाजपा सरकार ने साबरमती एक्सप्रेस की जांच के लिए नानावती आयोग बैठाया तो केन्द्र की मनमोहन सरकार ने यूं एस बनर्जी आयोग का गठन कर दिया। इन आयोगों ने वही किया, जो दोनों सरकारें चाहती थीं। नानावती आयोग ने मोदी सरकार को क्लीनचिट दे दी और बनर्जी आयोग ने भाजपा को झूठा साबित करने के लिए कहा कि ट्रेन में आग भीतर से ही लगी। बाहर से आगजनी के कोई सबूत नहीं मिले हैं। घटना पूर्व नियोजित षडयंत्र का हिस्सा नही थी.
मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एस राजेंद्र बाबू की इस पर बहुत तीखी प्रतिक्रिया आयी है। उन्होंने इस तरह की जांचों पर सवाल खड़े करते हुए जहाँ सरकारों को कटघरे में खड़ा किया है. वहीं, आयोगों को भी यह कहते हुए लताड़ लगाई है कि वे बेहद संवेदनशील मामलों की भी निष्पक्ष जांच नहीं कर रहे हैं। जस्टिस एस राजेंद्र बाबू ने कुछ गंभीर सवाल उठाए हैं. उनका कहना है कि इन जांच आयोगों की अलग अलग रिपोर्ट्स से साफ़ हो गया है कि उन्होंने सरकार के दबाव में काम किया, जो बेहद चिंता का विषय है. ऐसे आयोग निष्पक्ष हो भी कैसे सकते हैं, जिनकी सेवा शर्तें सरकार तय करती हैं. उन्होंने जांच आयोगों के अध्यक्षों के कामकाज के तरीकों पर यह कहते हुए सवाल उठाए हैं कि गोधरा हो या नंदीग्राम.. पीड़ित तो आम आदमी ही रहा है.
उनकी यह तल्ख़ टिप्पणी बहुत कुछ कह देती है कि आयोग की रिपोर्ट से ऐसा नहीं लगना चाहिए कि किसी की अनदेखी कर दी गयी है और किसी का पक्ष लिया गया है. नानावती आयोग ने तो कमाल ही कर दिया है. उसने नरेन्द्र मोदी, उनकी सरकार के मंत्रियों और पुलिस तक को क्लीनचिट दे दी. उसने कहा कि गोधरा मामले में इनकी कोई भूमिका नहीं थी. ध्यान रहे, नानावती को यह जिम्मेदारी सौपी गयी थी कि वे पता लगाएं कि साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने के क्या कारण थे. केन्द्र सरकार, खासकर लालू प्रसाद यादव द्वारा बैठाए गए यूं एस बनर्जी आयोग की रिपोर्ट भी संदेहों के घेरे में रही है. उन्होंने अंतरिम रिपोर्ट ऐसे समय दी थी, जब बिहार में विधानसभा चुनाव का ऐलान हो गया था. लालू यादव और कांग्रेस ने चुनाव के दौरान उस रिपोर्ट का जमकर दुरूपयोग किया और मुस्लिम वोटों के दोहन में कोई कसार बाकी नहीं छोडी. इसलिए अगर मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष ने जांच आयोगों के कामकाज के तौर तरीकों पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं तो यह बेवजह नहीं हैं.
ओमकार चौधरी
9 comments:
आपने बिल्कुल सही कहा, दंगे को लेकर जमकर राजनीति होती रही है। गुजरात दंगों की कालिख एक दूसरे के चेहरे पर पोतने के लिए दोनों ही दलों ने कोई कसर बाकी नहीं छोडी है। ... अब जांच आयोगों ने विरोधाभासी रिपोर्ट सौंप कर रही-सही कसर पूरी कर दी है। इस मुद्दे पर बहस होनी चाहिए।
जांच आयोग तो हमेशा से ही संदेह के घेरे में रहे हैं। जांच आयोगों पर कृष्ण चंदर की व्यंग्य रचना जामुन का पेड़ पढि़ए और आनन्द लीजिए।
jaanch aayog kewal janta ko bewakoof banane ke alawa kuch nahin hain. mujhe yaad nahin padta ki kabhi kisi jannch aayaog ki repotr kabhi amal hua ho.
jaanch aayog kewal janta ko bewakoof banane ke alawa kuch nahin hain. mujhe yaad nahin padta ki kabhi kisi jannch aayaog ki repotr kabhi amal hua ho.
बहुत अच्छी पोस्ट है...अपने ब्लॉग में आपके ब्लॉग का लिंक दे रही हूं...
यह देश की विडंबना है की जनता की भावनाओ से जुड़े गंभीर मुद्दों पर नेता राजनिति करने से बाज नही आते। हादसे होते है। साजिश रची जाती है। जाँच टीम बनती है, लेकिन कोई भी स्वत्रंत होकर काम नही कर पतिगोधरा काण्ड में भी ऐसा ही हुआ है। आयोग बनाने का उद्देश्य किसी को न्याय दिलाना नही था। यह वोटो का मामला थायू एस बेनर्जी ने केन्द्र सरकार की मर्जी वाली रिपोर्ट दी तो नानावती आयोग ने नरेन्द्र मोदी की पसंद की। दोनों रिपोर्ट अब भले ही कटघरे में हो, लेकिन इसके लिए जनता भी दोषी है। जो नेताओ पर ज्यादा और ख़ुद पर कम विश्वास
करती है। आपने जाँच आयोगों के जरये होने वाले उस घिनोनी राजनिति को पेश करने की कोशिश की है, जिसे लिखने के प्रयास बहुत कम होते है। बस अब जरुरत है तो जनता के जागने की, मुझे उम्मीद है जिस दिन जनता जागेगी ऐसे आयोग स्वतत्र होकर काम कर सकेंगे और जनता को सही मायनो में न्याय भी मिलेगा।
आपका अपना shehzad
आपके ब्लॉग पर देर से आने के लिए क्षमा चाहूंगी.....आपने सही लिखा है.....दंगे के पीछे भी राजनीती है....दंगे के पहले भी ......मरने वालोपर भी राजनीती होती है......क्या कहें.....इसी का नाम है राजनीती
ajj rajneeti badi tuch ho gai h
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