तीन चौथाई लोकसभा सीटों के लिये मतदान हो चुका है। सात और तेरह मई को शेष 231 सीटों के लिए मतदान होने के साथ ही सबकी निगाहें नतीजों पर टिक जाएंगी। मोटे तौर पर सबको अहसास है कि इस बार के परिणाम 2004 के मुकाबले कहीं अधिक भ्रामक होंगे। न किसी एक पार्टी को बहुमत मिलने वाला है और न गठबंधन को। इन हालातों में यह भी तय नहीं है कि चुनाव पूर्व जो गठबंधन बने हैं, वे परिणाम आने के बाद ज्यों के त्यों रहेंगे। सत्ता के इस खेल में नैतिकता की बात करना बेमानी सा हो गया है। सत्ता और कुर्सी के लिए अधिकांश राजनीतिक दलों के लिए नीतियां, कार्यक्रम और सिद्धांतों के कोई मायने नहीं रह गये हैं। इसकी प्रबल सभावना है कि परिणाम आने के बाद सत्ता की मंडी लगेगी। उसमें जमकर खरीदारी होगी। हैसियत के हिसाब से बोलियां लगेंगी। देश सौदेबाजी होते देखेगा। एक बार फिर मदताता खुद को ठगे जाने का अहसास करेगा। एेसे दल आपस में गलबहियां डालते नजर आयेंगे, जो प्रचार और मतदान के समय एक-दूसरे को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा तीसरे-चौथे मोर्चे को सबसे ज्यादा गरिया रहे हैं, लेकिन तय मानिये, यही दोनों मोर्चे इस बार किंग मेकर की महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहे हैं। जिस तरह के नतीजों की आस है, उसमें तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की संभावना सबसे कम है, लेकिन इसमें शामिल दल ही अंतत: तय करेंगे कि सरकार भाजपा के नेतृत्व में बननी है या कांग्रेस की अगुआई में।
परिणामों के स्वरूप, कांग्रेस-भाजपा गठबंधनों और तीसरे मोर्चे को मिलने वाली सीटों को लेकर तमाम तरह की अटकलें मीडिया में शुरू हो चुकी हैं। पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम, राजनीतिक हालातों, गठबंधन सहयोगियों की संख्या और देश की आबोहवा को देखने से लगता है कि कांग्रेस 2004 के मुकाबले घाटे में रहने वाली है। पिछले एक-डेढ़ साल में उसके आठ सहयोगी उससे अलग हुए हैं। सबसे पहले आंध्र प्रदेश में तेलंगाना राज्य की मांग करने वाली तेलंगाना राष्ट्रीय समिति अलग हुई। उसके बाद एमडीएमके ने किनारा किया। पिछले साल जुलाई में वाम मोर्चा ने अमेरिका के साथ एटमी करार करने के मुद्दे पर मनमोहन सरकार से समर्थन वापस लिया। जम्मू-कश्मीर के उसके सहयोगी पीडीपी ने गुलाम नबी आजाद सरकार से समर्थन वापस लेकर कांग्रेस से नाता तोड़ा। लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद जो तीन दल छिटके, वे हैं लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल, रामविलास पासवान की लोक जन शक्ति पार्टी और अंबुमणि रामदौस के नेतृत्व वाला पीएमके। मनमोहन सरकार के लिये संजीवनी बूंटी लेकर आये समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव भी उत्तर प्रदेश में सीटों का तालमेल नहीं होने पर कांग्रेस से अलग हो गये।
2004 में यूपीए को जिन राज्यों आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और बिहार से निर्णायक ताकत मिली थी, वहां उसकी सीटें घटने जा रही हैं। राजस्थान, पंजाब, उड़ीसा, केरल जैसे राज्यों से वह जितनी उम्मीद लगाये बैठी है, उतनी सीटें उसे नहीं मिलने जा रही हैं। 2004 में उसकी अपनी सीटों की संख्या 145 थीं। सहयोगियों, सपा-बसपा-रालोद और वाम मोर्चा के समर्थन से वह केन्द्र में सरकार बनाने में सफल रही थी। इस बार वाम दल बुरी तरह नाराज हैं। यह नाराजगी पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से कांग्रेस के गठबंधन से और बढ़ी। प्रकाश करात खेमा कतई नहीं चाहता कि परिणाम आने के बाद किसी भी सूरत में कांग्रेस को सरकार के गठन में सहयोग दिया जाये। इसलिये कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ेंगी।
भारतीय जनता पार्टी के लिये भी राह कतई आसान नहीं है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में उसके लिये भीषण सूखा पड़ा हुआ है। यानि इन 224 सीटों में से उसे कुछ खास नहीं मिलने जा रहा है। कांग्रेस के पास यदि सहयोगियों का टोटा है तो भाजपा भी इस मामले में फकीरी हालत में है। असम गण परिषद, इंडियन नेशनल लोकदल, राष्ट्रीय लोकदल, अकाली दल, शिवसेना और जनता दल यू जसे कुछ ही छोटे-बड़े दल अब उसके साथ हैं। पिछले चुनाव में भाजपा 138 की संख्या पर अटक गयी थी। यदि उसे केन्द्र में सरकार बनानी है तो इसमें कम से कम बीस-पच्चीस सीटों का इजाफा करना होगा। उत्तर प्रदेश में उसकी हालत पतली है और 2004 के मुकाबले इस बार राजस्थान में घाटा उठाना पड़ सकता है। ये सीटें कहां से बढ़ेंगी, कहना मुश्किल है। इसलिये तय मानिये कि केन्द्र की सत्ता में वापसी का सफर भाजपा के लिये भी आसान नहीं है।
तीसरे मोर्चे ने हालांकि अभी कोई शक्ल अख्तियार नहीं की है, लेकिन मोटे तौर पर मान सकते हैं कि उसमें प्रकाश करात की वाम ब्रिगेड, मायावती, जयललिता, चंद्रबाबू नायडु, चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक, कुलदीप विश्नोई और एचडी देवेगौड़ा जैसे क्षत्रप शामिल हैं। 2004 के मुकाबले वामपंथियों की ताकत घटने जा रही है। तिकोने मुकाबले में फंसे चंद्रबाबू नायडु को भी कम ही सीटें मिलेंगी। यही हाल चंद्रशेखर राव का रहने वाला है। नवीन पटनायक भाजपा से अलग होने के बाद फायदे में रहेंगे या घाटे में, कहा नहीं जा सकता। देवगौड़ा एक-दो लोकसभा सीटें ले आएं तो बहुत हैं। ले देकर जयललिता, वाम मोर्चा, चंद्रबाबू और मायावती पर तीसरे मोर्चे के नेताओं की निगाहें टिकी होंगी। मोर्चे की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि इसमें महत्वाकांक्षी और अहंकारी नेताओं का जमावड़ा है, जो मौकापरस्ती में बेजोड़ रहे हैं। वे बनाने के बजाय खेल बिगाड़ने में महारत रखते हैं। तीसरे मोर्चे ने बहुत ताकत लगाई तो भी उसकी सीटों की संख्या सौ से भी कम रहने के आसार हैं।
इसलिए सरकार किसी की बनती नजर नहीं आ रही, लेकिन सरकार तो बननी है। कैसे बनेगी? यह चुनाव परिणाम तय करेंगे। भाजपा की सीटें बढ़ीं और कांग्रेस ने तीसरे मोर्चे को बाहर से समर्थन देकर उनकी सरकार नहीं बनवायी तो लाल कृष्ण आडवाणी का प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हो सकता है। हालांकि यह कयास लगाना अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन यदि भाजपा के पुराने सहयोगी तीसरे मोर्चे से टूटकर उसके साथ आने का फैसला करते हैं तो राजग की सत्ता में वापसी हो सकती है। यह अभी दूर की कौड़ी है। मायावती, जयललिता, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडु और चंद्रशेखर राव जैसे क्षत्रप तय करेंगे कि केन्द्र में किसकी सरकार बनेगी। ये पहले भी राजग के साथ रह चुके हैं। हां, भाजपा का रास्ता रोकने के लिये यदि वाम मोर्चा ने फिर कांग्रेस को समर्थन दिया तो एेसे में मुलायम, लालू, पासवान, जयललिता जैसे नेता उस तरफ का रुख कर सकते हैं, लेकिन तय मानिये, तीसरा मोर्चा सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है।
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4 comments:
आपकी बात एकदम स्टीक है, लेकिन इस आकलन के बाद लगता है कि अडवानी का इस जन्म में पीएम बना मुश्किल है. क्यों वामदल एवं अन्य संगठन कभी कभी भाजपा के साथ तो जाएगे नहीं.
ये तो परिणामों के बाद ही पता चलेगा लेकिन अगर ऐसा हुआ भी तो सरकार वैसी ही होगी जैसे चौधरी चरणसिंह और चंद्रशेखर की थी। हाल वही होगा।
aub to rijalt hi btayega satay kya h but apka aaklan galat nahi hota
jo bhi sarkar banegi, majboot katai nahi hogi aur uske jald hi bikharne ke aasaar bane rahenge.
haan, teesra morcha phir apni 'aukaat' dikha sakta hai.
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