फ़िल्म अभिनेत्री और पूर्व राज्यसभा सदस्य शबाना आज़मी मीडिया से नाराज हैं. मीडिया के खुलेपन और निष्पक्षता पर भी उन्होंने गंभीर सवाल खड़े किए हैं. उनकी नाराजगी की वजह मीडिया द्वारा उनके गृह जिले आजमगढ़ को आतंकवादियों की नर्सरी बताना है. मीडिया के रवैये पर काफी क्षुब्ध शबाना पूछ रहीं हैं कि पॉँच-सात सिरफिरे लोगों के कारण क्या किसी पूरे इलाके को बदनाम किया जाना सही है ? आपको बता दें कि हाल ही में दिल्ली में हुए बम धमाकों के बाद दिल्ली पुलिस ने जामिया नगर में मुठभेड़ के बाद जिस सैफ को गिरफ्तार किया, वो आजमगढ़ का रहने वाला है. पुलिस की मानें तो उस से हुई पूछताछ में ये रहस्य उदघाटन हुआ है कि उस समेत सात युवक इन धमाकों को अंजाम देने में शामिल रहे है. इनमे से अधिकांश आजमगढ़ के रहने वाले हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि सैफ के पिता पहले ही कह चुके हैं कि अगर उनका बेटा दोषी है तो वे ख़ुद चाहेंगे कि उसे सख्त सजा मिले. अकेले शबाना ही नहीं, पूरा आजमगढ़ शर्मसार है. बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि अधिसंख्य मुसलमान मुठ्ठी भर भटके हुए लड़कों के कारण बेहद व्यथित हैं. आजमगढ़ कैफी आज़मी का जिला है और उन्होंने अपना आख़िर का बहुत सा समय वहीं बिताया था. आज अगर मीडिया कुछ सवाल उठा रहा है तो इसकी वजह भटके हुए चंद सिरफिरे लड़के हैं, जिन्होंने आज़मी परिवार की इस बेहद कामयाब अभिनेत्री और समाजसेविका की पीड़ा को भी बाहर ला दिया.
आज़मी परिवार की निष्ठा पर कौन संदेह कर सकता है ? कैफी आज़मी की विचारधारा वामपंथी थी लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कम्युनिष्टों जैसा व्यव्हार नहीं किया. देश की तरक्की के लिए किए जाने वाले प्रयासों का उन्होंने कभी विरोध नहीं किया, जैसा आज के कम्युनिष्ट करते हैं. वैसे भी उनकी सक्रिय राजनीति में खास दिलचस्पी नहीं रही. बहरहाल, बात आजमगढ़, शबाना की नाराजगी और मीडिया की भूमिका की हो रही थी. शबाना जैसे तरक्की पसंद लोगों को भी गंभीरता से सोचना होगा कि आख़िर ये हालात क्यों बन रहे हैं. हालांकी समय-समय पर ख़ुद शबाना और जावेद अख्तर ने आतंकवाद की निंदा की है लेकिन उन जैसे सही सोच वाले मुसलमानों को आगे आकर इस तरह की वहशियाना हरकतों की और कड़े शब्दों में निंदा करनी होगी. जहाँ तक मीडिया की भूमिका का सवाल है, उस पर निश्चित रूप से गहरे मंथन की जरूरत है. अमेरिका में 2001 में 11 सितम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए घातक हमले के बाद वहां के मीडिया ने न तो मारे गए लोगों के शव टीवी चेनल्स पर दिखाए और न ही किसी पीड़ित परिवार को रोते बिलखते हुए दिखाया. हमारे यहाँ तो लाइव कवरेज़ में क्या क्या नहीं दिखाया जाता. आतंकवादियों का असल मकसद तो हमारे ये चेनल्स ही पूरा करने में लगे हैं. वे तो एक छोटे से इलाके में बम धमाके करते हैं, मीडिया उसे लाइव दिखाकर पूरे देश ही नहीं, विश्व भर में पहुँचा देता है. इसे देख कर लोगों के मन पर कितना बुरा असर पड़ रहा है, इसका अंदाजा मीडिया को नहीं है, उसे केवल टीआरपी दिखाई देती है. चेनल्स की आपसी प्रतिद्वंदिता ने सारी मर्यादाओं को तार-तार कर दिया है. सूचना देने के अधिकार का यह कतई मतलब नहीं है कि देश और समाज पर पड़ने वाले असर की पूरी तरह अनदेखी कर दी जाए.
आजमगढ़ को बदनाम न करें
आज़मी की इस पीड़ा को समझा जा सकता है. मुठ्ठी भर लोगों की कारस्तानी के लिए न तो किसी कौम को कटघरे में खड़ा करने की कोशिशें होनी चाहिए और न ही किसी गौरवशाली परम्परा के शहर को इस तरह बदनाम करने के प्रयास होने चाहिए. सही बात तो यह है कि मीडिया को आज अपनी भूमिका, जिम्मेदारी और समाज व देश के प्रति जवाबदेही पर गंभीर मंथन करना चाहिए. महज सूचना देने के अधिकार के नाम पर जिस तरह सनसनी फैलाने की कोशिश मीडिया करता है, उस पर अब सही सोच के लोग सवाल खड़े करने लगे हैं. खास कर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में होड़ लग गई है. यह होड़ ख़त्म होनी चाहिए. मीडिया को सोचना होगा कि इस होड़ में कहीं वह जाने अनजाने किसी का मनोरथ तो पूरा नहीं कर रहा है ?
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com
आज़मी परिवार की निष्ठा पर कौन संदेह कर सकता है ? कैफी आज़मी की विचारधारा वामपंथी थी लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कम्युनिष्टों जैसा व्यव्हार नहीं किया. देश की तरक्की के लिए किए जाने वाले प्रयासों का उन्होंने कभी विरोध नहीं किया, जैसा आज के कम्युनिष्ट करते हैं. वैसे भी उनकी सक्रिय राजनीति में खास दिलचस्पी नहीं रही. बहरहाल, बात आजमगढ़, शबाना की नाराजगी और मीडिया की भूमिका की हो रही थी. शबाना जैसे तरक्की पसंद लोगों को भी गंभीरता से सोचना होगा कि आख़िर ये हालात क्यों बन रहे हैं. हालांकी समय-समय पर ख़ुद शबाना और जावेद अख्तर ने आतंकवाद की निंदा की है लेकिन उन जैसे सही सोच वाले मुसलमानों को आगे आकर इस तरह की वहशियाना हरकतों की और कड़े शब्दों में निंदा करनी होगी. जहाँ तक मीडिया की भूमिका का सवाल है, उस पर निश्चित रूप से गहरे मंथन की जरूरत है. अमेरिका में 2001 में 11 सितम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए घातक हमले के बाद वहां के मीडिया ने न तो मारे गए लोगों के शव टीवी चेनल्स पर दिखाए और न ही किसी पीड़ित परिवार को रोते बिलखते हुए दिखाया. हमारे यहाँ तो लाइव कवरेज़ में क्या क्या नहीं दिखाया जाता. आतंकवादियों का असल मकसद तो हमारे ये चेनल्स ही पूरा करने में लगे हैं. वे तो एक छोटे से इलाके में बम धमाके करते हैं, मीडिया उसे लाइव दिखाकर पूरे देश ही नहीं, विश्व भर में पहुँचा देता है. इसे देख कर लोगों के मन पर कितना बुरा असर पड़ रहा है, इसका अंदाजा मीडिया को नहीं है, उसे केवल टीआरपी दिखाई देती है. चेनल्स की आपसी प्रतिद्वंदिता ने सारी मर्यादाओं को तार-तार कर दिया है. सूचना देने के अधिकार का यह कतई मतलब नहीं है कि देश और समाज पर पड़ने वाले असर की पूरी तरह अनदेखी कर दी जाए.
आजमगढ़ को बदनाम न करें
आज़मी की इस पीड़ा को समझा जा सकता है. मुठ्ठी भर लोगों की कारस्तानी के लिए न तो किसी कौम को कटघरे में खड़ा करने की कोशिशें होनी चाहिए और न ही किसी गौरवशाली परम्परा के शहर को इस तरह बदनाम करने के प्रयास होने चाहिए. सही बात तो यह है कि मीडिया को आज अपनी भूमिका, जिम्मेदारी और समाज व देश के प्रति जवाबदेही पर गंभीर मंथन करना चाहिए. महज सूचना देने के अधिकार के नाम पर जिस तरह सनसनी फैलाने की कोशिश मीडिया करता है, उस पर अब सही सोच के लोग सवाल खड़े करने लगे हैं. खास कर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में होड़ लग गई है. यह होड़ ख़त्म होनी चाहिए. मीडिया को सोचना होगा कि इस होड़ में कहीं वह जाने अनजाने किसी का मनोरथ तो पूरा नहीं कर रहा है ?
ओमकार चौधरी
omkarchaudhary@gmail.com
8 comments:
शबाना आजमी की चिंता व पीड़ा जायज है
मैं भी इस बात से सहमत हूँ कि कुछ लोगों की वजह से पूरे शहर को बदनाम करना सही नहीं है. लेकिन शबाना जी एक बात भूल गईं, कि उन्होंने मुंबई में मकान न मिलने पर भारत के प्रजातंत्र को ही बदनाम कर दिया था. याद करें वह जो कहा था उन्होंने - 'भारत का प्रजातंत्र मुसलमानों के ख़िलाफ़ है'. क्या पीड़ा सिर्फ़ शबाना जी को होती है. उनकी बात से हम को भी पीड़ा हुई है.
यह भी क्या विडम्बना है की राहुल, श्याम नारायण, हरिऔध, छन्नू लाल और कैफी के लिए जाना जाने वाला आजमगढ़ आज अबू सलेम और सैफ के लिए जन जा रहा है. लेकिन क्या इसके लिए सिर्फ़ मीडिया जिम्मेदार है? उन राजनीतिक दलों के बारे में शबाना जी क्या कहना चाहेंगी जो कभी तुष्टिकरण और कभी सांप्रदायिक भावनाओं को भड़का कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं? खास तौर से यह बात वह क्यों भूल रही हैं की वह भी एक राजनीतिक दल से जुडी रही है?
आजकल तो आजमगढ़ हाजी मस्तान, दाऊद इब्राहीम, अबू सालेम की वजह से जाना जा रहा है ये अपराधी और इनके गुर्गों के कारण आजमगढ़ में अकूत संपदा आयी जिससे नये युवाओं के हीरो कैफी नहीं बल्कि एसे अपराधी हो गये और वे चल निकले इनके पदचिन्हों पर
पहले जब राहुल सांस्कृत्यायन और कैफी की वजह से आजमगढ़ गर्वित महसूस करता था तो अब इन कुकर्मियों की वजह से शर्मिन्दगी तो उठानी ही पड़ेगी
एसा तो नहीं हो सकता कि मीठा मीठा गप्प गप्प और कड़वा कड़वा थू थू
आजमगढ़ को शर्मसार होना ही चाहिये इसी शर्मशारी की वजह से कमसे कम आने वाली पीढ़ी का भटकाव तो रुकेगा
उनकी सोच जायज है ,पर वक़्त एक सा नही रहता ,अब सलीम जैसे लोग आजमगढ़ के हीरो है कैफी नही .वैसे शबाना जी जया -ठाकरे विवाद पर कुछ नही बोली ?क्या मुस्लिम बुद्दिजीवी केवल मुस्लिम समस्यायों पर ही बात करते है ?
यह भी क्या विडम्बना है की राहुल, श्याम नारायण, हरिऔध, छन्नू लाल और कैफी के लिए जाना जाने वाला आजमगढ़ आज अबू सलेम और सैफ के लिए जाना जा रहा है.....ये बात तो उठेगी ही.....कई बार एक एक सदस्य के कारण परिवार को बदनामी झेलनी पड़ती है लेकिन मुखिया को पीड़ा तो होती ही है . शबाना की पीड़ा सही है .....
Aap to lambe samy tak merrut rahe hain. media ki starh sampradayik rang mein ranga raha, aapjaante hai. media par sawalkhade hone se bahut aahat nahi hona chahiye. mediaka jo haal hai, us par jara hamen khud bhi dekhna chahiye
http://blogonprint.blogspot.com/2009/05/blog-post_8980.html
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